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पैतालीस प्रागम
१६६ - नन्दी सूत्र में इस प्रसंग में ऐसा भी उल्लेख है कि जिन-जिन तीर्थङ्करों के औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी; चार प्रकार की बुद्धि से उत्पन्न जितने भी शिष्य होते हैं, उनके उतने ही सहस्र प्रकीर्णक होते हैं । जितने प्रत्येक-बुद्ध होते हैं, उनके भी उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थ होते हैं।'
नन्दी सूत्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि अर्हत-प्ररूपित श्रुत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य भी ग्रन्थ-रचना करते हैं, उसे प्रकीर्णक कहा जाता है । अथवा अर्हत-उपदिष्ट श्रृ त का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य धर्म-देशना आदि के सन्दर्भ में अपने वचन-कौशल से ग्रन्थ पद्धत्यात्मक रूप में जो भाषण करते हैं, वह प्रकीर्णक-संज्ञक है।
प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा होने की जब मान्यता है, तो यह स्थिति प्रत्येक-बुद्धों के साथ कैसे घटित होगी: क्योंकि वे किसी के द्वारा दीक्षित नहीं होते । वे किसी के शिष्य भी नहीं होते। इसका समाधान इस प्रकार है कि, प्रव्राजक या प्रव्रज्या देने वाले प्राचार्य की दृष्टि से प्रत्येक-बुद्ध किसी के शिष्य नहीं होते, पर, तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट धर्म-शासन की प्रतिपन्नता या तदनशासनसम्पृक्तता की अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तर्वर्ती होने से वे
१. एवमाइयाइं चउरासीइं पइण्णग-सहस्साई भगवो अरहो उसह
सामियस्स प्राइतित्थयरस्स । तहा संखिज्जाई पइण्णगसहस्साई मज्झिमगारण जिणवराणं । चोदसपइण्यणगसहस्सारिण भगवनो वद्धमाणसामिस्स । महवा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए वेरणइयाए कम्मियाए परिणामियाए चउविहीए बुद्धिए उववेया, तस्स तत्तियाई पइण्णगसहस्साहिं । पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव ।
-नन्दी सूत्र; ५१ '२. इह यद्भगवदर्हदुपदिपष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचय
न्ति तत्सर्व प्रकीरणकमुच्यते । अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनाविषु ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्वप्रकीर्णम् ।
-अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ३
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