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जैनागम दिग्दर्शन
गोशालक-हमारे सिद्धांत के अनुसार कच्चा पानी पीने में, जीवादि धान्य के खाने में, उहिष्ट आहार के ग्रहण में तथा स्त्री-संभोग में एकान्त विहारी तपस्वी को कोई पाप नहीं लगता।
आर्द्र क मुनि-यदि ऐसा है, तो सभी गृहस्थी श्रमण ही हैं, क्योंकि वे ये सभी कार्य करते हैं। कच्चा पानी पीने वाले, बीज-धान्य आदि खाने वाले तो केवल पेट भराई के लिए ही भिक्षु बने हैं। संसार का त्याग करके भी ये मोक्ष को पा सकेंगे, ऐसा मैं नहीं मानता।
___गोशालक-ऐसा कहकर तो तुम सभी मतों का तिरस्कार कर रहे हो ?
आर्द्रक मुनि-दूसरे मत वाले अपने मत का बखान करते हैं और दूसरों की निन्दा । वे कहते हैं--तत्व हमें ही मिला है, दूसरों को नहीं। मैं तो मिथ्या मान्यताओं का तिरस्कार करता है, किसी व्यक्ति विशेष का नहीं। जो संयमी किसी स्थावर प्राणी को कष्ट देना नहीं चाहते, वे किसी का तिरस्कार कैसे कर सकते हैं ?
गोशालक - तुम्हारा श्रमण उद्यान-शालाओं में, धर्मशालाओं में इसलिए नहीं ठहरता कि वहां अनेक तार्किक पण्डित, अनेक विज्ञ भिक्षु ठहरते हैं । उसे डर है कि वे मुझे कुछ पूछ बैठे और मैं उनका उत्तर न दे सक।
आर्द्रक मुनि - भगवान् महावीर बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करते तथा वे बालक की तरह बिना विचारे भी कोई काम नहीं करते । वे राज-भय से भी धर्मोपदेशन हों करते, फिर दूसरे भय की तो बात ही क्या?वे प्रश्नों का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे अपनी सिद्धि के लिए तथा आर्य लोगों के उद्धार के लिए उपदेश करते हैं। वे सर्वज्ञ सुनने वालों के पास जाकर अथवा न जाकर धर्म का उपदेश करते हैं, किन्तु, अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं, इसलिए भगवान उनके पास नहीं जाते। - गोशालक-जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय-विक्रय की वस्तु को लेकर महाजनों से सम्पर्क करता है, मेरी दृष्टि से तुम्हारा महावीर भी लाभार्थी वणिक् है ।
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