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सामग्री का साधन यदि वैदिकों के लिए वेद हैं तो जैनों के लिए आगम वेदकोट में गिने जायें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
इन चारों नागमों के बाद प्राचीनता की दृष्टि से छेदग्रन्थों को स्थान दिया गया है । वे छः हैं । इनमें से दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार और निशीथ इन चारों के कर्त्तारूप से चतुर्दशपूर्व विद् भद्रबाहु प्रथम माने गये हैं ।
छेद के बाद स्थान आता है आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध ) और सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) का । अंगों में जो कथाग्रन्थ हैं उनका स्थान इन्हीं के बाद का हो सकता है । किन्तु अंगों में प्रश्नव्याकरण अपने मौलिक रूप में विद्यमान न होकर नये रूप में ही हमारे समक्ष है ।
भगवती ग्रन्थ तो एक ही माना जाता है किन्तु उसमें कई प्राचीन नये स्तर देखे जा सकते हैं । उसमें प्रज्ञापना आदि उपांगों का साक्ष्य दिया गया है जो बताता है कि उपांगचर्चित विषयों को प्रामाण्य अर्पित करने के लिए ही उन विषयों की चर्चा भगवती में की गई है ।
सभी अंगों के विषय में परम्परा तो यह है कि उनकी रचना गणधरों ने की थी । किन्तु आज विद्यमान उन अंगों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी रचना एक काल में ही हुई होगी ? भगवान् ने जो उपदेश दिया उसे ही तत्काल गणधरों न इन अंगों में सूत्रबद्ध कर दिया होगा, यदि हम इस तथ्य की ओर ध्यान दें तो आगम-गत भूगोल - खगोल प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं। तो, सर्वज्ञ भगवान् ने ऐसी बात क्यों कही ? - इस समस्या का समाधान मिल जाता है कि ये बातें भगवान् के उपदेश की है ही नहीं। उनका उपदेश तो श्रात्मा के कर्मबन्ध और मोक्ष के कारणों के विषय में ही था । भूगोल- खगोल की चर्चा तो तत्तत्काल में आचार्यों ने भारत में जैसी जो विचारणा प्रचलित थी उनका प्रायः वैसे ही उल्लेख कर दिया है। इस चर्चा का सम्बन्ध भगवान् के मौलिक उपदेश के साथ नहीं है । यह तो एक धर्म,
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