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प्रागमों पर व्याख्या-साहित्य
प्रयोजन .
आर्य-भाषा-परिवार के अन्तर्गत छन्दस के विश्लेषण तथा जैन उपांग-साहित्य के विवेचन के सन्दर्भ में वेदों के अंग, उपांग आदि की चर्चा की गयी है। वेदों को यथावत् रूप में समझने के लिए उनके छः अंग, उपांग या विद्या-स्थान पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्मशास्त्र का प्रयोजन है । साथ-साथ ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा उनसे उद्भूत सूत्र-ग्रन्थों' एवं सायण आदि प्राचार्यों द्वारा रचित भाष्यों की भी उपयोगिता है। इस वाङमय का भली-भांति अध्ययन किये बिना यह शक्य नहीं है कि वेदों का हार्द सही रूप में आत्मसात् किया जा सके।
वेदों के साथ जो स्थिति उपयुक्त अगोपांग एवं भाष्यसाहित्य की है, वही पालि-पिटकों के साथ प्राचार्य बुद्धघोष, प्राचार्य बुद्धदत्त, प्राचार्य धम्मपाल आदि द्वारा रचित अट्ठकथाओं की है। पिटक-साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान के लिए इन अट्ठकथाओं का अध्ययन नितान्त आवश्यक है।
प्राकृत जैन आगमों के साथ उनके व्याख्या-साहित्य की भी इसी प्रकार की स्थिति है । उसकी सहायता या आधार के बिना आगमों का हार्द यथावत् रूप में गृहीत किया जाना कठिन है।
१. सूत्र-प्रन्थ स्थूल रूप में चार भागों में विभक्त है : १-श्रौत सूत्र,
२-2 ह्य सूत्र, ३-धर्मसूत्र तथा ४-शुल्व सूत्र ।
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