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श्रागमों पर व्याख्या - साहित्य
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वाचना-:
जैन आगमों की अपनी विशेष पारिभाषिक शैली है । अनेक -आगमों में अत्यन्त सूक्ष्म तथा गम्भीर विषयों का निरूपण है; श्रतः यह कम सम्भव है कि उन्हें सीधा सम्यक्तया समझा जा सके। इनके अतिरिक्त आगमों की दुरूहता बढ़ जाने का एक और कारण है । उनमें T-भेद से स्थान-स्थान पर पाठ - भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । तद्विषयक परम्पराएं आज प्राप्त नहीं हैं; अतः आगम-गत विषयों की समुचित संगति बिठाते हुए उनका अभिप्राय यथावत् पकड़ पाना सरल नहीं है । व्याख्याकारों ने इस सन्दर्भ में स्थान-स्थान पर स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है, जिससे आगम- अध्येताओं को उनके अध्ययन, अनुशीलन और उनका अभिप्राय स्वायत्त करने में सुविधा हो ।
व्याख्याओं की विधाएं :
जैन आचार्यों का इस ओर सतत प्रयत्न रहा कि श्रागम गत तत्त्व पाठकों द्वारा सही रूप में आत्मसात् किया जाता रहे । यही कारण है कि श्रागमों के व्याख्या परक साहित्य के सर्जन में वे सदाकृतप्रयत्न रहे । फलत: निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति, दीपिका, व्याख्या, विवेचन, विवरण, अवचूरि, पंजिका, बालावबोध, वचनिका तथा टब्बा आदि विविध प्रकार का विपुल व्याख्या साहित्य प्राप्त है । बहुत-सा प्रकाश में आया है तथा अन्य बहुत-सा प्रकाशन की प्रतीक्षा में भण्डारों में मंजूषात्रों तथा पुट्ठों में आज भी प्रतिबद्ध है ।
व्याख्या - साहित्य में नियुक्तियों तथा भाष्यों की रचना प्राकृत भाषा में हुई। चूर्णियां यद्यपि प्राकृत संस्कृत का मिश्रित रूप लिये हुए है, पर, वहां मुख्यतया प्राकृत का प्रयोग हैं। कुछ टीकाएं भी प्राकृत - निबद्ध या प्राकृत संस्कृत - मिश्रित हैं । अधिकांश टीकाएं संस्कृत में हैं । इस प्रकार आगमों के अतिरिक्त उनसे सम्बद्ध प्राकृत-साहित्य की ये चार विधाएं और हैं । आगमों सहित उसके पांच प्रकार होते हैं, जिसे पंचांगी साहित्य कहा जाता है ।
प्राकृत के विकास के विभिन्न स्तरों, रूपों आदि का अवबोध, भाषा - शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का सूक्ष्म परिशीलन, श्रागमगत जैन
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