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________________ ६८५ जैनागम दिग्दर्शन भिक्षाटन के लिए निकले । गलियों व चौराहों पर एक ही चर्चा थी कि भगवान् महावीर का प्रथम उपासक श्रानन्द श्रमणोपासक प्रलम्ब तपस्या से अपने शरीर को क्षीण कर अब 'संथारा' - आमरण अन शन में चल रहा है । गौतम के मन में आनन्द से मिलने की उत्कंठा जगी । भिक्षाटन से लौटते हुए वे प्रानन्द की पौषधशाला में पहुंचे । द्वार पर रुके । गौतम को आये देखकर मानन्द पुलकित हुआ बोला - भदन्त ! मैं उठकर आगे आऊ, आपका अभिवादन करू, ऐसी मेरी शारीरिक क्षमता नहीं रही है । आप ही आगे आयें। मुझे निकट से दर्शन दें । ,, गौतम आगे बढ़े। आनन्द ने यथाविधि वन्दन कर स्वयं को तृप्त किया । गौतम की ओर देख वह बोला, भदन्त ! मुझे इस शान्त साधना में रहते हुए विशाल अवधिज्ञान ( श्रतीन्द्रिय ज्ञान ) की उपलब्धि हुई है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम व दक्षिण में पांच-पांच सौ योजन लवण समुद्र तक, उत्तर में चूलहेमवंत पर्वत तक, ऊंचाई में प्रथम सुधर्मा स्वर्ग तक, अधस्तल में प्रथम नरक के लोलुच नरकवास तक सब कुछ हस्तामलकवत् देख सकता हूँ । गौतम ने आनन्द के कथन पर विश्वास नहीं किया। कहा श्रानन्द ! इतना विपुल अवधि ज्ञान किसी गृही को हो नहीं सकता । तुमने मिथ्या सम्भाषण किया है। इसका प्रायश्चित्त करो । आनन्द ने कहा— भदन्त ! प्रायश्चित्त मिथ्याचरण का होता है, न कि सत्याचरण का । मैं प्रायश्चित्त का भागी नहीं हूं । कृपया आप ही प्रायश्चित्त करें । आप ही ने सत्य को असत्य कहा है । गौतम के मन में आनन्द के कथन से दुश्चिन्ता हुई । मैं चतुदश सहस्र भिक्षुत्रों में अग्रगण्य श्रमण हूं | यह एक श्रमणोपासक मेरी बात को काट रहा है । गौतम ने सोचा, इसका निर्णय मैं भगवान् महावीर से करा - ऊँगा । वे द्रुतगति से उद्यान में आये । भगवान् महावीर को वन्दन किया और सारी समस्या कही । भगवान् महावीर तो वीतराग थे। उनके मन में भला कब आता कि मेरे अग्रणी शिष्य की प्रतिष्ठा का प्रश्न है और मुझे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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