SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० जैनागम दिग्दर्शन और प्रारम्भ-समारम्भ-मूलक क्रियावाद का विस्तार से विश्लेषण करते हुए द्रोह, राग, मोह, आसक्ति, वैमनस्य तथा भोगैषणा, लौकिक सुख, लोकैषणा-लोक-प्रशस्ति आदि से उद्भूत अनेकानेक पाप-कृत्यों का विश्लेषण करते हुए उनके नारकीय फलों का रोमांचक वर्णन किया है। सप्तम दशा में द्वादशविध भिक्षु-प्रतिमा का वर्णन है । जैसे, प्रथम एक मासिक भिक्षु-प्रतिमा में पालनीय प्राचार-नियमों के सन्दर्भ में विहार-प्रवास को उद्दिष्ट कर बतलाया गया है कि एक मासिक भिक्षु-प्रतिमा-उपपन्न भिक्षु,जिस क्षेत्र में उसे पहचानने वाले हों, वहां केवल एक रात, अधिक हो तो, दो रात प्रवास कर विहार कर जाए। ऐसा न करने पर वह भिक्षु-दीक्षाछेद अथवा परिहारिक तप के प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रत्येक प्रतिमा के सम्बन्ध में विशद विवचन किया गया है, जो प्रत्येक संयम एवं तप-रत भिक्षु के लिये परि. शीलनीय है। अष्टम अध्ययन में भगवान् महावीर के च्यवन, गर्भसंहरण, जन्म, दीक्षा, केवल-ज्ञान, मोक्ष का वर्णन है। इसे पज्जोसण-कप्प या कल्प-सूत्र के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इस पर अनेक प्राचार्यों की टीकाएँ है, जिनमें जिनप्रभ, धर्मसागर, विनयविजय, समयसुन्दर, रत्नसागर,संघविजय, लक्ष्मीवल्लभ आदि मुख्य हैं । पयुषण के दिनों में साधु. प्रवचन में इसको पढ़ते हैं । छेद-सूत्रों का परिषद् में पठन न किये जाने की परम्परा रही है। क्योंकि उनमें अधिकांशतः साधु-साध्वियों द्वारा जान-अनजान में हुई भूलों, दोषों आदि के सम्मार्जन के विधि-क्रम हैं, जिन्हें विशेषतः उन्हें ही समझना चाहिए. जिनसे उनका सम्बन्ध हो । पर्युषण-कल्प छेद सूत्र का अंग होते हुए भी एक अपनी भिन्न स्थिति लिए हुए है; अतः उसका पठन अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के इतिहास का अवबोध कराने के हेतु उपयोगी है। किंवदन्ती है कि विक्रमाब्द ५२३ में आनन्दपुर के राजा ध्र वसेन के पुत्र का मरण हो गया। उसे तथा उसके पारिवरिक जनों को शान्ति देने की दृष्टि से तब से इसका व्याख्यान में पठन-क्रम प्रारम्भ हुग्रा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy