SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पैतालीस मागम १२१ रचनाकारः व्याख्या-साहित्य दशाश्रुतस्कन्ध के रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है । पर, जैसा कि व्यवहार-सूत्र के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख हुअा है, सूत्र और नियुक्ति की एक-कर्तृकता संदिग्ध है। इस पर चूणि की भी रचना हुई । ब्रह्मर्षि पार्श्वचन्द्रीय प्रणीत वृत्ति भी है। ५. कप्प (कल्प अथवा वृहत्कल्प) दशाश्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में पर्युषणा-कल्प की चर्चा की गयी है, उससे यह भिन्न है। इसे कल्पाध्ययन भी कहा जाता है। कल्प या कल्प्य का अर्थ योग या विहित है। साधु-साध्वियों के संयम जीवन के निमित्त जो साधक आचरण हैं, वे कल्प या कल्प्य हैं और उसमें बाधा या विध्न उपस्थित करने वाले जो आचरण हैं. वे अकल्प या प्रकल्प्य हैं । प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वियों के संयत चर्या के सन्दर्भ में वस्त्र, पात्र, स्थान आदि के विषय में विशद विवेचन है। इसे जैन श्रमण-जीवन से सम्बद्ध प्राचीनतम आचार-शास्त्र का महान् ग्रन्थ माना जाता हैं। निशीथ और व्यवहार की तरह इसका भी भाषा, विषय आदि की दृष्टि से बड़ा महत्व है। इसकी भाषा विशेष प्राचीनता लिये हुए है। पर, टीकाकारों द्वारा यत्र-तत्र परिवर्तन, परिवर्धन आदि किया जाता रहा है, जैसा कि अन्यान्य प्रागमों में भी हुमा है। कलेवर : विषय-वस्तु छः उद्देशकों में यह सूत्र विभक्त है। श्रमणों के खान-पान, रहन-सहन, विहार-चर्या आदि के गहन विवेचन की दृष्टि इस में परिलक्षित होती है । प्रसंगोपात्त इसके प्रथम उद्देशक में साधु-साध्वियों के विहार-क्षेत्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्हें पूर्व में अंग और मगध तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में थानेश्वर-प्रदेश तक तथा उत्तर-पूर्व में कुणाल-प्रदेश तक विहार करना कल्प्य है । इतना आर्य क्षेत्र है । इससे बाहर विहार कल्प्य नहीं है। इसके अनन्तर कहा गया ह कि यदि साधुओं को अपने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य का विघात न प्रतीत होता हो, लोगों में ज्ञान, दर्शन व चारित्र्य की वृद्धि होने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy