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जैनागम दिग्दर्शन सम्भावना हो, तो उक्त सीमाओं से भी बाहर विहार करना कल्प्य है।
तीसरे उद्देशक में साधुओं और साध्वियों के एक-दूसरे के ठहरने के स्थान में आवागमन की मर्यादा, बैठने, सोने, आहार करने, स्वाध्याय करने, ध्यान करने आदि के निषेध प्रभृति का वर्णन है । श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार करने के समय उपकरण-ग्रहण का विधान, वर्षा-काल के चार तथा अवशिष्ट आठ मास में वस्त्र-व्यवहार आदि और भी अनेक ऐसे विषय इस उद्देशक में व्याख्यात हुए हैं, जो सतत जागरूक तथा संयम-रत जीवन के सम्यक् निर्वाह की प्रेरणा देते हैं।
चतुर्थ उद्देशक में आचार-विधि तथा प्रायश्चित्तों का विश्लेषण है। उस संदर्भ में अनुद्धातिक, पारांचिक तथा अनवस्थाप्य आदि की चर्चा है। कतिपय महत्वपूर्ण उल्लेख
प्रासंगिक रूप में चतुर्थ उद्देशक में उल्लेख हुअा है कि गंगा, यमुना, सरयू, कोसी और मही नामक जो बड़ी नदियां हैं, उनमें से किसी भी नदी को एक मास में एक बार से अधिक पार करना साधु-साध्वी के लिए कल्प्य नहीं है। साथ ही-साथ वहां ऐसा भी कहा गया है : “जैसे, कुणाला में एरावती नदी है, वह कम जल वाली है; अतः एक पैर को पानी के भीतर और दूसरे को पानी के ऊपर करते हुए पानी देख कर (नितार-नितार कर) उसे पार किया जा सकता है। उसे एक मास में दो बार, तीन बार पार करना भी कल्प्य है। पर जहाँ जल की अधिकता के कारण वैसा करना शक्य नहीं है, वहां एक बार से अधिक पार करना अकल्प्य है।
छठे उद्देशक में एक प्रसंग में कहा गया है कि, किसी साधु के पाँव में कीला, कांटा, काच का तीखा टुकड़ा गड़ जाये, उसे स्वयं निकालने में सक्षम न हो, निकालने वाला अन्य साधु पास में न हो, यदि साध्वी उसे शुद्ध भावपूर्वक निकाले, तो वह तीर्थ कर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार साधु की प्रांख में कोई जीवभुनगा, बीज, रज-कण आदि पड़ जाये, उसे बह साधु स्वयं न निकाल
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