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पंतालीस आगम
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सके और न वैसा कर सकने वाला कोई दूसरा साधु पास में हो, तो साध्वी शुद्ध भाव से वैसा करती हुई तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती।
___ साध्वी की भी यदि वैसी ही स्थिति हो, जैसी साधु की बतलाई गई है, तो साधु शुद्ध भाव से साध्वी के पैर से कीला, कांटा, काच का टुकड़ा आदि निकाल सकता है। प्रांख में से कीटाणु, बीज, रज-कण
आदि हटा सकता है। वैसा करता हुआ वह तीर्थंकर की प्राज्ञा की विराधना नहीं करता।
एक और प्रसंग है, जिसमें बतलाया गया है कि, यदि कोई साध्वी दुर्गम स्थान, विषम स्थान, पर्वत से स्खलित हो रही हो, गिर रही हो; उसे बचा सके, वैसी कोई दूसरी साध्वी उसके पास न हो, तो साधु उसे पकड़ कर सहारा देकर बचाए, तो वह तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता । इसी प्रकार यदि कोई साधू नदी, जलाशय या कीचड़ में फंसी साध्वी को पकड़ कर निकाल दे, तो वह तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। इसी प्रकार नौका में चढते-उतरते समय साध्वी के लड़खड़ा जाने, पड़ने लगने, वात आदि दोष से विक्षिप्त हो जाने के कारण अपने को न सम्भाल पाए, हर्षातिरेक या शोकातिरेक से ग्रस्त-चित्त हो कर प्रात्म-घात आदि के लिए उद्यत होने, यक्ष, भूत, प्रेत आदि से आवेशित हो जाने के कारण अस्त-व्यस्त दशा में हो जाने जैसे अनेक प्रसंग उपस्थित करते हुए सूत्रकार ने निर्दिष्ट किया है कि उक्त स्थिति में साधु साध्वी को पकड़ कर बचा सकता है । वैसा करने में उसे कोई दोष नहीं आता।
स्पष्ट है कि सूत्रकार ने इन प्रसंगों से श्रमण-जीवन के विविध पहलुओं को सूक्ष्मता से परखते हुए एक व्यवस्था निर्देशित की है, जो श्रामण्य के शुद्धिपूर्वक निर्वहण-हेतु अपेक्षित एवं उपयुक्त सुविधानों की पूरक है। रचना एवं व्याख्या-साहित्य
कल्प या वृहत्कल्प के रचनाकार प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि प्रत्याख्यान संज्ञक नवम पूर्व
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