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________________ १५० जैनागम दिग्दर्शन वस्त्रोपकरणों का स्वरूप, उपयोग, अपेक्षा, विकास प्रभृति विषय श्रमरण-जीवन के अपरिग्रही रूप तथा सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से अध्येतव्य हैं। व्याख्या : साहित्य अोध-नियुक्ति पर रचे गये व्याख्या-साहित्य में श्री द्रोणाचार्य रचित टीका विशेष महत्वपूर्ण है । इसकी रचना चूणि की तरह प्राकृत की प्रधानता लिए हुए है अर्थात् वह प्राकृत-संस्कृत के मिश्रित रूप में प्रणीत है । प्राचार्य मलयगिरि द्वारा वृत्ति की रचना की गई। अवचूरि की भी रचना हुई। ___ पक्खिय सुत्त (पाक्षिक सूत्र) आवश्यक सूत्र के परिचय तथा विश्लेषण के अन्तर्गत प्रतिक्रमण की चर्चा हुई है । आत्मा की स्वस्थता-अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थिति, अन्तः-परिष्कृति तथा प्रात्म-जागरण का वह (प्रतिक्रमण) परम साधक है । जैन परम्परा में प्रतिक्रमण के पांच प्रकार माने गये हैं-१. देवसिक, २. रात्रिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक तथा ५. सांवत्सरिक । पाक्षिक सूत्र की रचना का प्राधार पाक्षिक प्रतिक्रमण है। इसे आवश्यक सूत्र का एक अङ्ग ही माना जाना चाहिये अथवा उसके एक अङ्ग का विशेष पूरक । प्रस्तुत कृति में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह; इन पांच महाव्रतों के साथ छठे रात्रि-भोजन को मिलाकर छः महाव्रतों तथा उनके अतिचारों का. विवेचन है। क्षमाश्रमणों की वन्दना भी इसमें समाविष्ट है। प्रसंगतः इसमें बारह अङ्गों, सैंतीस कालिक सूत्रों तथा अट्ठाईस उत्कालिक सूत्रों के नामों का सूचन है। प्राचार्य यशोदेवसूरि ने इस पर वृत्ति की रचना की, जो 'सुखावबोधा' के नाम से प्रसिद्ध है। खामरणा-सुत्त (क्षामरणा-सूत्र) पाक्षिक क्षामणा सूत्र के नाम से भी यह रचना प्रसिद्ध है। इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है। इसे पाक्षिक सूत्र के साथ गिनने की परम्परा भी है और पृथक भी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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