________________
'पैंतालीस श्रागम
हैं-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग ( ईख प्रादि), तृण, वलय ( कदली आदि जिनकी त्वचा गोलाकार हो), हरित् (हरियाली), औषधि, जलरुह ( पानी में पैदा होने वाली वनस्पति), कुहण ( पृथ्वी को भेद कर पैदा होने वाला वृक्ष ) । साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव अनेक प्रकार के होते हैं । त्रस जीव तीन प्रकार के होते हैं- तेजस्काय, वायुकाय और औदारिक त्रस । प्रौदारिक त्रस चार प्रकार के होते हैं-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय वाले | पंचेन्द्रिय चार प्रकार के होते हैं-नारक, तियंच, मनुष्य और देव । नरक सात होते हैं - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, महातमः प्रभा । तिर्यंच तीन प्रकार के होते हैं— जलचर, थलचर और नभचर । जलचर पांच प्रकार के होते हैं - मत्स्य, कच्छप, मकर, ग्राह और शिशुमार । थलचर जीव चार प्रकार के होते हैं एक खुर, दो खुर, गण्डीय और सण्णय (सनखपद ) । नभचर जीव चार प्रकार के होते हैंचम्पक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी और विततपक्खी । मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - संमुच्छिम और गर्भोत्पन्न | देव चार प्रकार के होते हैं- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ।
प्रस्तुत आगम में दर्शन पक्ष की अपेक्षा व्यवहार पक्ष का दिग्दर्शन ही अधिक व्यवस्थित मिलता है । नाना वस्तुत्रों के प्रकार जिस सुयोजित ढंग से बताये गये हैं, सचमुच ही उस काल का सजीव - व्यौरा देने वाले हैं - तीसरी प्रतिपत्ति में वे सम्मुलेख इस प्रकार हैं—रत्न -- रत्न, वज्र, वैडूर्य, लोहित, मसारगल्ल, हंस, गर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन, अंजनपुलक, रजत, जातरूप, अंक, स्फटिक, अरिष्ट ।
८७
-
अस्त्र-शस्त्र – मुद्गर, मुसु ंढ़ि, करपत्र ( करवत), असि, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, नाराच, कुरंत, तोमर,
शूल, लकुट, भिडिपाल ।
धातु — लोहा, तांबा, त्रपुस, सीसा, रूप्य, सुवर्ण, हिरण्य, कुम्भकार की अग्नि, ईंट पकाने की अग्नि, कवेलू पकाने की अग्नि, यन्त्र'पाटक, चुल्ली, (जहां गन्ने का रस पकाया जाता है ) ।
मद्य - चन्द्रप्रभा (चन्द्र के समान जिसका रंग हो), मणिशलाका, वरसीधु, वरवारुणी, फलनिर्याससार, (फलों के रस से तैयार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org