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पैंतालीस आगम
फिर बारह ग्रन्थों को उपांगों के रूप में लिये जाने के पीछे कोई विशेष उपयोगितावादी, सार्थकतावादी दृष्टिकोण रहा हो, यह स्पष्ट भाषित नहीं होता ।
वेद के सहायक अंग तथा उपांग ग्रन्थों की तरह जैन मनीषियों का भी अपने कुछ महत्वपूर्ण अंग बाह्य ग्रन्थों को उपांग दे देने का विचार हुआ हो । क्रम-सज्जा, नाम - सौष्ठव आदि के अतिरिक्त इसके मूल में कुछ और भी रहा हो, यह गवेष्य है; क्योंकि हमारे समक्ष स्पष्ट नहीं है । उपांगों (जैन श्रुतोपांगों ) के विषय में ये विकीर्ण जैसे विचार हैं । जैन मनीषियों पर इनके सन्दर्भ में विशेष रूप से चिन्तन और गवेषणा का दायित्व है |
१. उववाइय ( श्रोववाइय) (औपपातिक)
झोपपातिक का अर्थ
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उपपात का अर्थ प्रादुर्भाव या जन्मान्तर-संक्रमण है । उपपात ऊर्ध्वगमन या सिद्धि-गमन (सिद्धत्व प्राप्ति) के लिये भी व्यवहृत हुआ है । इस अंग में नरक व स्वर्ग में उत्पन्न होने वालों तथा सिद्धि प्राप्त करने वालों का वर्णन है; इसलिए यह प्रोपपातिक है। यह पहला उपांग है । "
नाना परिणामों, विचारों, भावनाओं तथा साधनाओं से भवान्तर प्राप्त करने वाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है, अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुये इस आगम में हृदयग्राही विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें नगर, उद्यान, वृक्ष, पृथ्वीशिला, राजा, रानी, मनुष्य परिषद्, देव-परिषद्, भगवान् महावीर के गुण, साधुओं की उपमाएँ, तप के ३५४ भेद, केवलि समुद्धात, सिद्ध, सिद्ध-सुख आदि के विशद वर्णन प्राप्त होते हैं । अन्य (श्रुत) ग्रन्थों में इसी ग्रन्थ का उल्लेख कर यहां से परिज्ञात करने का संकेत कर
१. उपपतनमुपपातो देवनारकजन्मसिद्धिगमनं चातस्तमधिकृत्य कृत मध्ययनमौपपातिकमिदं चोपांगं वर्तते ।
- प्रभिधान राजेन्द्र; तृतीय भाग, पृ० ६०
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