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जैनागम दिग्दर्शन
पश्चाद्वर्ती है । दूसरा अर्थ उत्कृष्ट या श्रेष्ठ है । इसका अर्थ प्रश्न का समाधान या उत्तर तो है ही।
पश्चाद्वर्ती अर्थ के आधार पर उत्तराध्ययन की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि इसका अध्ययन प्राचारांग के उत्तर-काल में होता था। श्रतकेवली प्राचार्य शय्यम्भव के अनन्तर इसके अध्ययन की कालिक परम्परा में अन्तर आया । यह दशवकालिक के उत्तर-काल में पढ़ा जाने लगा। पर, 'उत्तराध्ययन' संज्ञा में कोई परिवर्तन करना अपेक्षित नहीं हुमा; क्योंकि दोनों ही स्थानों पर पश्चादवर्तिता का अभिप्राय सदृश ही है ।
उत्तर शब्द का उत्कृष्ट या श्रेष्ठ अर्थ करने के आधार पर कुछ विद्वानों ने इस शब्द की यह व्याख्या को कि जैन श्रुत का असाधारण रूप में उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ विवेचन है; अतः इसका उत्तराध्ययन अभिधान अन्वर्थक है।
प्रो० ल्युमैन (Prof. Leuman) ने उत्तर और अध्ययन शब्दों का सीधा अर्थ पकड़ते हुए अध्ययन का प्राशय Later Readings अर्थात् पश्चात् या पीछे रचे हुए अध्ययन किया। प्रो. ल्युमैन के अनुसार इन अध्ययनों की या इस पागम को रचना अंग-ग्रन्थों के पश्चात् या उत्तर काल में हुई; अतएव यह उत्तराध्ययन के नाम से अभिहित किया जाने लगा।
कल्पसूत्र तथा टीका-ग्रन्थों में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम समय में अपृष्ट-अनपूछे छत्तीस प्रश्नों के संदर्भ में विश्लेषण-विवेचन किया। इस आधार पर उन अध्ययनों का संकलन 'अपृष्ट-व्याकरण' नाम से अभिहित हुआ । उसो का नाम अपृष्ट प्रश्नों का उत्तर-रूप होने के कारण उत्तराध्ययन हो गया। 'अपृष्ट-व्याकरण'की चर्चा प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित महाकाव्य' में भी की है।
१. षट्त्रिंशत्तमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरुरभाषयत् ॥
--पर्व १०, सर्ग १३, श्लो० २२४
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