Book Title: Bruhaddravyasangrah
Author(s): Nemichandrasuri, Manoharlal Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DODEODEOS EDODOC PPOPPOS श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचितः % EO बृहद्रव्यसंग्रह S DOC CODOCSO प्रकाशक श्री परमश्रत प्रभावक मंडल श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास 50052SSOSSSSS D Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ >0! श्रीमद्राजचंद्रजैनशास्त्रमाला श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचितः बृहद्रव्यसंग्रह श्री ब्रह्मदेवस्य संस्कृतवृत्तिः श्री जवाहरलालशास्त्रिप्रणीत हिन्दीभाषानुवाद चेति टीकाद्वयोपेतः श्री पं० मनोहरलालशास्त्रिणा संशोधितश्च वीरनिर्वाण संवत् २५२५ प्रकाशक श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास ईस्वी सन् १९९९ सप्तम संस्करण प्रति २२०० Motaujata Jata Jatav jau, jotu Jatav विक्रम संवत् २०५५ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक:विनोदराय मणिलाल शेठ, अध्यक्ष श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, स्टेशन अगास; वाया आणंद, पोस्ट बोरिया-३८८१३० (गुजरात) [ प्रथम संस्करण विक्रम संवत् १९६३] [ द्वितीय संस्करण विक्रम संवत् १९७६] [ तृतीय संस्करण विक्रम संवत् २०२२] [ चतुर्थ संस्करण विक्रम संवत् २०३५] [ पंचम संस्करण विक्रम संवत् २०४५] [ षष्ठ संस्करण विक्रम संवत् २०५५] [ सप्तम संस्करण विक्रम संवत् २०६१] प्रति २२०० लागत मूल्य रू० ३८/बिक्री मूल्य रू. २८/ मूल मुद्रक : महावीर प्रेस भेलूपुर, वाराणसी-१ ऑफसेट मुद्रण : इंडिया बाइंडिंग हाउस मानसरोवर पार्क, शाहदरा दिल्ली-११००३२ (प्राप्तिस्थान श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, स्टेशन अगास; वाया आणंद, पोस्ट बोरिया-३८८१३० (गुजरात) श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, हाथी बिल्डींग, “ए' ब्लॉक, दूसरी मंजिल, रूम नं०१८, भांगवाडी, ४४८, कालबादेवी रोड, बंबई-४००००२ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३] प्रथमावृत्तिकी प्रस्तावना बृहद्रव्यसंग्रह यह बृहद्र्व्यसंग्रह नामक ग्रन्थरत्न जैनसमाजमें 'द्रव्यसंग्रह' इस नामसे प्रसिद्ध है । प्रायः ऐसा कोई भी जिनमंदिर व सरस्वतीभंडार नहीं है, जिसमें यह ग्रन्थ विद्यमान न हो । जैनी भाई इसको तत्त्वार्थसूत्रके समान ही माननीय और उपयोगी समझते हैं । यह समस्त जैनपाठशालाओंमें पढाया जाता है । और ८-१० वर्षकी अवस्थावाले विद्यार्थी भी इसकी गाथाओंको कण्ठस्थ कर लेते हैं जो उनको उपदेशादिके अवसरमें यावज्जीव काम आती हैं । टीकाकारका कथन है कि आचार्यने प्रथम ही २६ गाथासूत्रोंका 'लघुद्रव्यसंग्रह बनाया था । फिर विशेष वर्णन करनेकी इच्छासे 'बृहद्र्व्यसंग्रह रचा । तदनुसार ही हमने भी इस शास्त्ररत्नका नाम बृहद्रव्यसंग्रह ही रक्खा है । श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिकचक्रवर्ती - इसके कर्ता प्रातःस्मरणीय भगवान् श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिकचक्रवर्तीने अपने पवित्र शरीरसे कब किस वसुधामण्डलको मंडित किया ? इत्यादि ऐतिहासिक विषयोंका संक्षिप्त वर्णन संस्कृत छन्दोबद्ध भुजबलि (बाहुबलि वा गोमट) चरित्रके अनुसार यहाँ लिखते हैं । द्राविडदेशमें एक मधुरा नामक नगरी थी । जोकि, प्राचीन शास्त्रोंमें दक्षिणमथुरा और आजकलकी भूगोलोंमें मडूरा नामसे प्रसिद्ध है । वहाँ पर श्रीदेशीयगणाब्धिपूर्णमृगभृच्छ्रीसिंहनन्दिव्रति श्रीपादाम्बुजयुग्ममत्तमधुपः सम्यक्त्वचूडामणिः । श्रीमज्जैनमताब्धिवर्द्धनसुधासूतिर्महीमण्डले रेजे श्रीगुणभूषणो बुधनुतः श्रीराजमल्लो नृपः ॥ (बाहुबलीचरित्र ६) इस श्लोकके अनुसार देशीयगणके स्वामी श्रीसिंहनन्दी आचार्यके चरणकमलसेवक गंगवंशतिलक श्रीराजमल्ल नामक महाराजा हुए | और उनके तस्यामात्यशिखामणिः सकलवित्सम्यक्त्वचूडामणि भव्याम्भोजवियन्मणिः सुजनवन्दिवातचूडामणिः । ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशुक्तिसुमणिः कीोघमुक्तामणिः पादन्यस्तमहीशमस्तकमणिचामुण्डभूपोऽग्रणीः ॥(बा. ब. च. ११) इस श्लोकके अनुसार श्रीचामुण्ड नामा राजा महा अमात्य (बड़े मंत्री वा मुसाहिब) हुए । एक दिन राजमल्ल श्रीचामुण्ड सहित सभामें विराज रहे थे । उस समय किसी ३शेठने आकर प्रणाम करके कहा कि, "महाराज ! उत्तरदिशामें एक पोदनपुर नगर है, वहाँपर श्रीभरतचक्रवर्ती द्वारा स्थापित कायोत्सर्ग श्रीबाहुबलीका प्रतिबिम्ब है, जोकि, वर्तमानमें 'गोमट्ट' इस नवीन नामसे भूषित है ।" इत्यादि । इस वृत्तान्तको सुनकर राजा (१) प्रथम अधिकारमें नमस्कारगाथाके बिना जो शेष २६ गाथासूत्र हैं, इन्हींको श्रीमान् आचार्य महाराजने पहिले बनाये थे । इसलिये इन २६ गाथाओंके समुदायका नाम ही लघुद्रव्यसंग्रह है। इसमें जीव १, पुद्गल २, धर्म ३, अधर्म ४, आकाश ५, और काल ६, इन छ: द्रव्योंका सामान्य निरूपण है। [इस आवृत्तिमें परिशिष्टमें 'लघुद्रव्यसंग्रह' दिया गया है, इससे लगता है कि यह एक स्वतंत्र रचना है और अनुवादक (प्रस्तावनाकार) का यह कथन कुछ गलत प्रतीत होता है। - प्रकाशक] (२) नमस्कारगाथा १, सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादक नामा द्वितीय अधिकारकी ११ गाथायें और मोक्षमार्गप्रतिपादक नामा तृतीय अधिकारकी २० गाथायें, इन सहित जो लघुद्रव्यसंग्रहकी २६ गाथायें हैं, उनका अर्थात् तीनों अधिकारोंकी ५८ गाथाओंका नाम बहद्रव्यसंग्रह है। (३)'शेठको पोदनपुरमें गोमट्टस्वामीका अस्तित्व कैसे मालूम हुआ ?' इस शंकाका समाधान नहीं हुआ। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] व श्रीचामुंड मंत्री दोनों अत्यन्त हर्षित हुए | श्रीचामुण्ड उक्त प्रतिबिम्बको भावनमस्कार करके घर गये और सब वृत्तान्त अपनी माता कालिकाको कह सुनाया, जिसको श्रवणकर वह बहुत आनन्दित हुई और तत्काल अपने पुत्र चामुण्डसहित जिनमन्दिरमें जाकर श्रीजिनेन्द्रकी स्तुति करनेके पश्चात् अपने गुरु (अजितसेन) के गुरु' श्रीसिंहनन्दी आचार्यको नमस्कार किया । तदनन्तर पश्चात्सोऽजितसेनपण्डितमुनिं देशीगणाग्रेसरं __स्वस्याधिप्यसुखाब्धिवर्द्धनशशीं श्रीनन्दिसङ्घाधिपम् । श्रीमद्भासुरसिंहनन्दिमुनिपाङ्मयम्भोजरोलम्बकं चानभ्य प्रवदत्सुपौदनपुरीश्रीदोर्बलेवृत्तकम् ।। बा.ब.च. २८॥ इस श्लोकके अनुसार श्रीचामुंडने २देशीयगणमें प्रधान श्रीअजितसेन मुनिको नमस्कार करके श्रीबाहुबलीके प्रतिबिम्ब सम्बन्धी समाचार कहे । और “मैं जबतक श्रीबाहुबलीके प्रतिबिंबका दर्शन न करूँगा तबतक दूध नहीं पीऊँगा" इस प्रकारकी प्रतिज्ञा उनके समक्ष धारण की । वहाँसे आकर राजाको अपना यात्राका मनोरथ प्रकट किया और सिद्धान्ताम्भोधिचन्द्रः प्रणुतपरम देशीगणाम्भोधिचन्द्रः __ स्याद्वादाम्भोधिचन्द्रः प्रकटितनयनिक्षेपवाराशिचन्द्रः । एनश्चक्रौघचन्द्रः पदनुतकमलवातचन्द्रः प्रशस्तो जीयाज्ज्ञानाब्धिचन्द्रो मुनिपकुलवियच्चन्द्रमा नेमिचन्द्रः ॥ बा.ब.च.६२ ।। सिद्धान्तामृतसागरं स्वमतिमन्थक्ष्माभृदालोडय यः लेभेऽभीष्टफलप्रदानपि सदा देशीगणाग्रेसरः । श्रीमद्गोमटलब्धिसारविलसत्त्रैलोक्यसारामर माजश्रीसुरधेनुचिन्तितमणीन् श्रीनेमिचन्द्रो मुनिः ॥ बा.ब.च. ६३ ।। इत्यादि गुणोंके धारक श्रीनेमिचन्द्रस्वामी सहित श्रीचामुण्डने अपनी माताको, अनेक विद्वानोंको तथा चतरंगसेनाको साथ लेकर गोमट्टस्वामीकी यात्राके निमित्त उत्तर दिशाको गमन किया । कितने करके विंध्याचल पर्वतके समीप पहुँचे । वहाँ किसीसे पर्वतपर स्थित जिनमंदिरका पता पाकर वहाँ गये और श्रीजिनेन्द्रकी पूजा स्तुति करके रात्रिको उसी जिनमंदिरके मंडपमें निवास किया । रात्रिके चतुर्थ प्रहरमें श्रीनेमिचन्द्र, चामुण्ड और चामुण्डकी माता इन तीनोंको कुष्माण्डीने३ स्वप्नमें कहा कि, “पोदनपुर जानेका मार्ग कठिन है । इस पर्वतमें रावणद्वारा स्थापित श्री बाहुबलीका प्रतिबिम्ब है । वह धनुषमें सुवर्णके बाण चढाकर उनसे पर्वतको भेदनेपर प्रकट होगा ।" प्रातःकाल चामुण्डने मुनिको स्वप्नका वृत्तान्त निवेदन किया, जिसको सुनकर मुनिने स्वप्नके अनुकूल प्रवृत्ति करनेका उपदेश दिया । तदनुसार चामुण्ड स्नान करके भूषणोंसे भूषित होकर, मुनिके समक्ष उपवास धारण करके, दक्षिणदिशामें खडा होकर धनुषद्वारा सुवर्णका बाण चलाया, जिससे पर्वतमें छिद्र होकर वहाँपर द्विपञ्चतालसमलक्षणपूर्णगात्रो विशच्छरासनसमोन्नतभासमूर्तिः । सन्माधवीव्रततिनागलसत्सुकायः सद्यः प्रसन्न इति बाहुबली बभूव ॥ बा. ब. च. ४३ ।। (१) गोमट्टसारकी एक गाथासे विदित होता है कि श्रीअजितसेनके विद्यागुरु श्रीआर्यसेन मुनि थे । (२) "पूर्वं जैनमतागमाब्धिविधुवच्छ्रीनन्दिसंघेभवन-सुज्ञानर्द्धितपोधनाः कुवलयानन्दा मयूखा इव । सत्संघे भुवि देशदेशनिकरे श्रीसुप्रसिद्ध सति-श्रीदेशीयगणो द्वितीयविलसन्नाम्ना मिथः कथ्यते ॥ बा. ब. च. ८७ ॥" इसके अनुसार जब नंदिसंघके आचार्य और मुनि सम्पूर्ण देशोंमें व्याप्त तथा प्रसिद्ध हो गये, तब नंदिसंघ "देशीयगण" इस नामसे कहे जाने लगा। (३) 'कुष्माण्डी' यह एक जिनशासन देवी है अर्थात् २२ वें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथस्वामीकी यक्षिणी है और आम्रकुष्मांडिका, चंडी, अम्बिका, इत्यादि इसीके नामान्तर हैं। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५ ] इस श्लोकके अनुसार दशतालसम' लक्षणोंसे पूर्ण शरीरका धारक और २० धनुष परिमाण ऊँचा श्रीबाहुबलीका प्रतिबिम्ब प्रकट हुआ । राजाने बड़ी भक्तिसे दर्शन किये और विधिपूर्वक १००८ कलशोंसे श्री बाहुबली के मस्तकपर पंचामृताभिषेक किया और पूजन तथा नमस्कार करके धन्य हुआ । फिर वहाँसे दक्षिणमें आकर - कल्क्यब्दे षट्शताख्ये विनुतविभवसंवत्सरे मासि चैत्रे पञ्चम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे । सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्तां चकार श्रीमच्चामुण्डराज वेल्लनगरे गोमटेशप्रतिष्ठाम् ॥ बा. ब. च. ५५ ।। इसके अनुसार कल्की ( शक ) के संवत् ६०० (वि. सं. ७३५) में श्रीचामुण्डने चैत्रशुक्ला पंचमी रविवार के दिन श्रवणबेल्गुलनगरमें श्रीगोमटस्वामीकी प्रतिष्ठा की, और भास्वद्देशीगणाग्रेसर सुरुचिरसिद्धान्तविन्नेमिचन्द्र दत्त्वा श्रीपादाग्रे सदा षण्णवतिदशशतद्रव्य भूग्रामवर्यान् । श्रीगोमटेशोत्सवसवननिमित्तार्चनावैभवाय श्रीमच्चामुण्डराजो निजपुरमथुरां संजगाम क्षितीशः ॥ बा. ब. च. ६१ । इस श्लोकके अनुसार श्रीचामुण्डने श्रीनेमिचन्द्रस्वामीके चरणोंकी साक्षीपूर्वक छयानवें हजार दीनार ३ (मोहर) के गाँव श्री गोमटस्वामीके उत्सव, अभिषेक व पूजन आदिके निमित्त देकर वहाँ से गमन करके गाजे बाजे सहित अपनी मथुरापुरीमें प्रवेश किया और अपने स्वामी राजमल्लको सब वृत्तान्त कहा । जिसको श्रवणकर महाराजा राजमल्लदेवने भी श्रीनेमिचन्द्रस्वामीके समीप डेढ लाख (१५००००) दीनारोंके गाँव श्रीगोमटस्वामीकी सेवा आदिके निमित्त प्रदान किये । और चामुण्डमंत्रीको धन्य धन्य कहकर जिनमतकी प्रभावनार्थ 'राय' पद दिया । उसी दिनसे चामुण्ड " श्रीचामुण्डराय" इस नामसे आज तक प्रसिद्ध है ॥ इस उक्त कथा परसे निस्सन्देह विदित होता है कि, श्रीनेमिचन्द्रस्वामी नंदिसंघस्थ देशीयगणके मुनीश्वर थे । शक सं. ६०० (वि. सं. ७३५) में द्राविडदेशस्थ मथुरा नगरी किंवा दक्षिणप्रान्तकी भूमिको अपने चरणकमलोंसे पवित्र करते थे । तत्कालीन महाराजा राजमल्लदेव तथा श्रीचामुण्डरायराजाके अतिशय माननीय थे । श्रीसिंहनन्दी और श्रीअजितसेन नामक दो आचार्य भी आपके समकालीन थे । गोमट्टसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार आदि परमादरणीय सिद्धान्तशास्त्रोंके निर्माता भी ये ही श्रीनेमिचन्द्र । इत्यादि, इत्यादि । परंतु आजकलके समयमें एक कथासे इतिहाससंबन्धी विषयपर सर्व साधारणको विश्वास नहीं होता है; अतः इस उक्त विषयको सिद्ध करनेके लिये यथाप्राप्त अन्य प्रमाण दे डालना भी हम उचित समझते हैं । वे प्रमाण ये हैं १. गोमट्टसारशास्त्र के अन्तमें स्वयं श्रीनेमिचन्द्राचार्यने निम्नलिखित गाथायें दी हैं" जम्हि गुणा विस्संता गणहरदेवादिइड्डिपत्ताणं । सो अजियसेणणाहो जस्स गुरू जयउ सो राओ ॥१॥ सिद्धंतुदयतडुग्गयणिम्मलवरणेमिचंदकरकलिया । गुणरयण भूसणम्बुहिमइबेला भरहु भुअणतलं ॥२॥ ( १ ) ताल ( हस्त) यह प्रतिमाके निर्माणमें परिमाणविशेषका नाम है । क्योंकि, अन्यमतियोंके सूर्यसिद्धान्तमें 'भवबीजाङ्कुरमथना अष्टमहाप्रातिहार्यविभवसमेताः । ते देवा दशतालाः शेषा देवा भवन्ति नवतालाः ॥ १॥" अर्थात् श्रीजिनेन्द्रकी प्रतिमा दश तालकी होती है और अन्य सब देवोंकी प्रतिमा नौ तालकी होती है, ऐसा लिखा हुआ है । (२) यहाँ कल्की व कलिके संवत्से शकके संवत्‌को ग्रहण करना चाहिये । (३) दीनार यह ३२ रत्तीभर सुवर्णका सिक्का है, ऐसा कोषोंपरसे जान पड़ता है । (४) सुनते हैं कि, नेमिचन्द्रसंहिता अथवा नेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठके कर्त्ता भी ये नेमिचन्द्र हैं । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोमट्टसंगहसत्तं गोमट्टसिहरुवरिगोमट्टजिणो य । गोमट्टरायविणिम्मिय दक्खिणकुक्कुडजिणो जयउ ॥३॥ जेण विणिम्मिय पडिमावयणं सबटुसिद्धिदेवेहिं । सव्वपरमोहिजोगिहिं दिटुं सो गोम्मटो जयउ ॥४॥” इत्यादि । गोमट्टसारकी संस्कृतटीकानुसार इन गाथाओंका भावार्थ यह है कि, "गणधर तथा ऋद्धिधारी मुनियोंके गुणोंके धारक श्रीअजितसेन जिसके व्रत गुरु हैं, वह चामुण्डरायराजा जयवंता रहो ।११ सिद्धान्तरूपी उदयाचलसे उदयको प्राप्त हुए ऐसे श्रीनेमिचंद्ररूपी चंद्रमाकी वचनरूप किरणोंसे स्पर्शित गुणरत्नभूषण (श्रीचामुण्डराय) समुद्रकी बुद्धिरूप वेला (तट व किनारा) भुवनतलको पूर्ण करे ।२। गोमट्टसार, चामुण्डरायके मंदिरमें विराजमान एक हाथ परिमाण ऊँची २इन्द्रनीलमणि (नीलम) की श्रीनेमिनाथ-जिनेन्द्रकी प्रतिमा और चामुण्डराय द्वारा बनवाया हुआ दक्षिणकुक्कुड जिन ये तीनों जयवंत रहे ।३। जिसकी बनाई हुई प्रतिमाके मुखको सर्वार्थसिद्धिके देवोंने और परमावधिज्ञानके धारक मुनियोंने देखा, वह गोमट्ट (चामुण्ड) राजा जयवता रहा ।४।" २. गोमट्टसारकी कर्णाटकवृत्तिके अनुसार संस्कृतटीकाकारने टीकाके प्रारम्भमें निम्नलिखित गद्य दिया है श्रीमदप्रतिहतप्रभावस्याद्वादशासनगुहाभ्यन्तरनिवासिप्रवादिसिन्धुरसिंहायमान-सिंहनन्दिनन्दितगङ्गवंशललामराजसर्वज्ञाद्यनेकगुणनामधेयभागधेय-श्रीमद्राजमल्लदेवमहीवल्लभमहामात्य-पदविराजमान-रणरङ्गमल्लअसहायपराक्रम - गुणरत्नभूषण-सम्यक्त्वरत्ननिलयादिविविधगुणनाम-समासादितकीर्त्तिकान्त-श्रीमच्चामुण्डरायप्रश्नानुरूपं गोमट्टसारनामधेयपञ्चसंग्रहशास्त्रं प्रारम्भमाणः श्रीमान्नेमिचन्द्रसैद्धान्तिकचक्रवर्ती समस्तसैद्धान्तिकजनप्रख्यातविशदयशा विशालमूर्तिरसौ भगवान् गोमट्टसारप्रथमावयवभूतं जीवकाण्डं विरचयंस्तदादौ मलगालनादिफलजननसमर्थं मङ्गलं कृतवान् । संक्षिप्तभाव इसका यह है कि, स्याद्वादमतरूपी गुफामें सिंहके समान विराजमान और श्रीसिंहनन्दी आचार्यके प्रभावसे वृद्धिको प्राप्त ऐसा जो गंगवंशतिलक राजमल्लदेव महाराजा है, उसके महामात्य श्रीचामुण्डरायके प्रश्नके अनुसार गोमट्टसार बनानेके इच्छुक श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिकचक्रवर्तीने निर्विघ्नसमाप्ति के अर्थ मंगल किया । ३. थॉमस सी राईसने मलबारक्वाटर्लीरिव्यू में जो “कर्णाटकमें जैनियोंका निवास" नामक लेख छपाया है, उसमें लिखा है कि, “मैसूरके जैनराजाओंमें अतिप्रसिद्ध बिल्लालवंशके राजा थे । जो कि, पहिले द्वारासमुद्रमें राज्य करते थे । पीछे शृंगापटामके बारह मील उत्तरको तोनूरके शासक हुए । इनका आधिपत्य पूर्ण कर्णाटकमें था । अर्थात् जहाँ जहाँ कनाडी भाषा बोली जाती थी, उन्हीं प्रदेशोंके ये शासनकर्ता (राजा) थे । इस बिल्लाल वंशके स्थापक चामुण्डराय थे जिनका कि, राज्य सन् ७१४ ईस्वीमें था ।" (१) श्रवणबेल्गुलकी गुफाके दक्षिणपार्श्वमें शाके १०५० का खुदा हुआ जो शिलालेख है, उसमें श्रीअजितसेनके विषयमें "गुणाः कुन्दस्पन्दोड्डुमरसमरा वागमृतवाः, प्लवप्रायःप्रेयः प्रसरसरसा कीर्तिरिव सा । नखेन्दुर्योत्स्नांनॅपचयकोरप्रणयिनी न कासां श्लाघानां पदमजितसेनो व्रतिपतिः ॥१॥" इत्यादि पद्य लिखे हए हैं। (२) इस एक हाथकी नीलमकी प्रतिमाका वर्तमानमें कहीं भी पता नहीं लगता है । अतः प्रतीत होता है कि, दुष्ट राजाओंके समयमें यह भी खंड-खंड हो गई। (३) 'दक्षिण कुक्कुड जिन' यह श्रवणबेल्गुलमें विराजमान श्रीगोमट्टस्वामीकी विशाल प्रतिमाका ही नामान्तर प्रतीत होता है। (४) गोमट्टस्वामीकी प्रतिमा बनवानेसे चामुण्डरायका लोगोंने 'गोमट्ट' यह नाम प्रसिद्ध कर दिया । ऐसा अनुमान होता है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] ४. मराठी' भाषाके तत्त्वप्रसारक नामक समाचार पत्रमें जो श्रवणबेलगोलाका इतिहास नामक लेख छपा है, उसमें स्थलपुराणके आधारसे यह लिखा हुआ है "दक्षिण मथुराका राजा चामुण्डराय जैनी था । वह क्षत्रियकुलके प्रसिद्ध पांडुवंशमें उत्पन्न हुआ था । एक बार वह अपने परिवारसहित राज्यचिह्नोंको धारण किये हुए पोदनपुरके गोमटेश्वरकी वन्दनाके लिये चला । और उस समय उसने मार्गमें मिलनेवाले १२५४ जिनदेवोंके दर्शन करनेका भी निश्चय किया । तदनुसार जब वह अनेक क्षेत्रोंकी वंदना करके मार्गातिक्रम कर रहा था, उस समय उसने श्रवणबेल्लिगोलक्षेत्रके गोमटेश्वरकी एक चमत्कारिक कथा सुनी । जिससे उत्तेजित होकर वह वहाँ गया और बडे उत्साहके साथ उसने श्रीगोमटेश्वर भगवान्‌का साभिषेक पूजन किया । अपना नाम स्थिर रखनेके लिये कई मंदिरोंका जीर्णोद्धार कराया। और एक स्वधर्मीय मठ स्थापन करके श्रीमत्सिद्धान्ताचार्यको उस गुरुस्थानके अध्यक्ष कर दिये । और १९६००० मुद्रा (जो उस समय सिक्का प्रचलित था) की वार्षिक आमदनी वाली जागीर, उस क्षेत्रके लिये लगा दी । इसके पश्चात् कलियुग सं. ६०५ विभवसंवत्सरके चैत्र महीनेमें ४ दिशाओंमें ४ शालाशासन नामक संस्थाओं की स्थापना भी इसी नरपतिने की । चामुण्डरायके पीछे जो राजा हुए, उन्होंने १०९ वर्षतक उक्त व्यवस्था चलाई । शक सं. ७७७ में चामुण्डराय राजाके द्वारा स्थापन किया हुआ, वह राज्य हयशालदेशके स्वामी बल्लालवंशीय एक राजाके आधीन हो गया ।" ५. शककी ८वीं शताब्दीमें भारतको पवित्र करनेवाले श्रीभगवज्जिनसेनाचार्यजीने आदिपुराणके मंगलाचरणमें श्रीनेमिचन्द्रके समकालीन श्रीसिंहनन्दी आचार्यका निम्नलिखित श्लोकसे स्मरण किया हैयस्य जटा प्रबलवृत्तयः । अर्थान् स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥” “काव्यानुचिन्तने इन सब प्रमाणोंसे श्रीनेमिचन्द्रका द्राविडदेशीय प्रतापीराजा चामुण्डरायके साथ अतिशय धार्मिक सम्बन्ध और शक सं. ६०५ अस्तित्व निर्विवाद सिद्ध होता है । अब टीकाकारने बृहद्द्रव्यसंग्रह पृष्ठ १ में जो द्रव्यसंग्रहके कर्त्ता आदिका निरूपण किया है, उसको स्थूल दृष्टिसे देखते हैं तो स्थान, समय और निमित्तकी असमानतासे द्रव्यसंग्रहके कर्त्ता पूर्वोक्त श्रीनेमिचन्द्र से भिन्न प्रतीत होते हैं । और " मग्गपभावण पवयण भत्तिप्पबोहिदेण मया । भणिदं गंथं पवरं सोहंतु बहुसुदाइरिया ॥” इस त्रिलोकसारके अन्तकी गाथाके और द्रव्यसंग्रहस्थ 'दव्वसंगहमिणं" इस अन्तिम काव्यके आशय और शब्दरचनाकी समानतासे तथा लोकप्रतीतिसे त्रिलोकसारादिके कर्त्ता जो हैं, वे ही द्रव्यसंग्रहके कर्त्ता भी सिद्ध होते हैं । ऐसी दशामें हम टीकाकारके कथनको अप्रमाण न कहकर, उसको युक्तिबलसे पूर्वोक्त श्रीनेमिचन्द्रके विषयमें ही सिद्ध कर डालना उचित समझते हैं । यद्यपि मालवदेशस्थ धारानगरीका राजा भोजदेव विक्रमकी ११वीं शताब्दीमें हुआ है, परन्तु हमने सुना है, कि इतिहासकारोंको इस एक भोजके माननेसे सन्तोष नहीं होता है । अतः वे कभी कभी 'इस भोजके पहिले 1 (१) इस चतुर्थ प्रमाणसे पूर्वोक्त कथाके कई अंशोंमें विरोध आता है । परन्तु इन दोनोंमें कौन सत्य है, इसका निर्णय करनेके लिये अभी हमारे पास कोई साधन नहीं है । (२) शास्त्रोंमें आगरेके पास जो मथुरा है वह उत्तर मथुरा और द्राविड देशकी मथुरा दक्षिण मथुराके नामसे प्रसिद्ध है । (३) सिद्धान्ताचार्यसे श्रीनेमिचन्द्रका ही ग्रहण करना चाहिये । (४) आदिपुराणकी टिप्पणीमें जटाचार्यके स्थानमें सिंहनन्दी लिखा हुआ है । और एक संस्कृत गुर्वावली ( आचार्यपट्टावली) में 'नेमिचन्द्रो भानुनन्दी सिंहनन्दी जटाधरः । वज्रनन्दी वज्रवृत्तिस्तार्किकाणां महेश्वरः ॥ १ ॥' इस प्रकार सिंहनन्दीके साथ जटाधर विशेषण देनेसे 'जटाचार्य' यह श्रीसिंहनन्दीका ही दूसरा नाम विदित होता है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] मालवाका राजा एक भोज (वृद्धभोज) और हो गया है' ऐसी कल्पना करते है । वही कल्पना आज हमारे अन्तःकरणमें भी प्रविष्ट हुई है । और निम्नलिखित प्रमाणसे यह कल्पना कल्पनामात्र ही नहीं किन्तु सत्य प्रतीत होती हैभगवज्जिनसेनाचार्य शककी ८वीं शताब्दीमें हुए हैं । उन्होंने आदिपुराणके मंगलाचरणमें 'चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ।। इस श्लोकसे न्यायकुमुदचन्द्रोदयके कर्ता श्रीप्रभाचन्द्रआचार्यकी स्तुति की है । प्रभाचन्द्र आचार्यने न्यायकुमुदचन्द्रोदयमें "सूर्यका उदय तो हुआ, अब चन्द्रका उदय किया जाता है" इस आशयका गद्य देकर, प्रमेयकमलमार्तण्डका कर्तृत्व अपनेमें ही स्वीकार किया है । और प्रमेयकमलमार्तण्डकी समाप्तिमें निम्नलिखित पाठ देकर, भोजदेवके राज्यमें धारानगरीमें अपना निवास विदित किया है । "इति श्रीभोजदेवराष्ट्रे श्रीमद्धारानिवासिना परमपरमेष्ठिप्रणामार्जितामलपुण्यनिराकृतकर्ममलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योतपरीक्षामुखपदविवृत्तमिति ।" इस प्रमाणसे शककी ८ वीं शताब्दीके पूर्व मालवदेशमें एक वृद्धभोजका होना निश्चित होता है । और यदि वह वृद्धभोज श्रीनेमिचन्द्रके समकाल (शककी ७वीं शताब्दी) में ही हो तो कोई आश्चर्य नहीं । अब रही मालवदेशमें अस्तित्वकी और सोमश्रेष्ठीके निमित्त द्रव्यसंग्रह बनानेकी वार्ता, सो यह असंभव नहीं। क्योंकि, जैननिर्ग्रन्थाचार्य सदा एक स्थानमें न रहकर ग्राम ग्राममें विहार करते हैं । और भव्यजीवोंमें उनका स्वभावसे धार्मिक अनुराग भी रहता है । अतः दक्षिणमें विहार करनेसे पूर्व उक्त आचार्यने मालवदेशको सुशोभित किया हो; और जैसे श्रीचामुण्डरायकी प्रार्थनापर गोमट्टसारादि शास्त्र रचे, उसी प्रकार सोमश्रेष्ठीके निमित्त द्रव्यसंग्रह भी रचा हो तो कोई आश्चर्य नहीं है । श्रीनेमिचन्द्रके गुरुजन उक्त महानुभाव श्रीनेमिचन्द्रके गुरु कौन-कौन थे ? इस विषयकी अन्वेषणा करनेपर गोमट्टसारमें निम्नलिखित गाथायें मिली हैं। “णमिऊण अभयणंदिं सुदसागरपारगिंदणंदिगुरुं । वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥१॥ णमह गुणरयणभूसणसिद्धंतामियमहब्धिभवभावं । वरवीरणंदिचंदं णिम्मलगुणमिंदणंदिगुरुं ॥२॥ जस्सय पायपसाएणतणंसंसारजलहिमुत्तिण्णो । वीरेंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरुं ॥३॥ वरइंदणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धंतं । सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिष्टं ॥४॥ अर्थात् 'मैं अभयनन्दीको, श्रुतसागरके पारगामी इंद्रनंदीको और श्रीवीरनंदीस्वामीको नमस्कार करके प्रकृतिप्रत्यय अधिकारको कहता हूँ 19। गुणरूपी रत्नोंके भूषण और सिद्धान्तरूपी अमृत महोदधिसे उत्पन्न ऐसे को और निर्मल गुणोंके धारक श्रीइन्द्रनन्दी गरुको नमस्कार करता हूँ ।। जिनके चरणोंके प्रसादसे श्रीवीरनंदी और श्री इन्द्रनंदीका शिष्य मैं (नेमिचन्द्र) संसारसमुद्रके पार हुआ, उन श्रीअभयनन्दीको मैं नमस्कार करता हूँ ।३। श्री इंद्रनन्दी गुरुके पास संपूर्ण सिद्धान्तको सुनकर श्रीकनकनंदी गुरुने सत्त्वस्थानका कथन किया ।४।' इन गाथाओंसे विदित होता है कि, श्रीअभयनन्दी, वीरनन्दी, इंद्रनंदी और कनकनन्दी ये चारों महाआचार्य श्रीनेमिचन्द्रके गुरु थे । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्त चारों आचार्य हमारे चरित्रनायकके गुरु हैं । इस कारण प्रसंगवश इनका भी सामान्यरीतिसे वर्णन करना उचित समझते हैं । वह इस प्रकार है श्रीअभयनन्दी आप श्रीनेमिचन्द्रके ही गुरु नहीं थे, किन्तु श्रीवीरनंदीके भी गुरु थे । इसीलिये श्रीवीरनंदीस्वामीने स्वविरचित चन्द्रप्रभचरितकाव्यकी प्रशस्तिमें आपको अपने गुरु सूचित किये हैं । और निम्नलिखित काव्यसे आपकी प्रशंसा की है। मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्यापवादः सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोकैकबन्धुः ॥ श्रीअभयनन्दीके रचे हुए बृहज्जैनेन्द्रव्याकरण १, श्रेयोविधान २, गोमट्टसारटीका बिना संदृष्टिकी ३, कर्मप्रकृति रहस्य ४, तत्त्वार्थसूत्रकी तात्पर्यवृत्ति ५, और पूजाकल्प ६ आदि शास्त्र सुने जाते हैं । परन्तु ये सब इन्हींके रचे हुए हैं, या अन्यके, यह निर्णय अभी नहीं हुआ । श्रीवीरनन्दी ये भी प्रसिद्ध जैनाचार्य हैं । इनके रचे हुए चन्द्रप्रभचरितकाव्य १, आचारसार २, और शिल्पिसंहिता ३, ये तीन शास्त्र हैं । इनमें शिल्पिसंहिता अभी तक देखनेमें नहीं आई । आचारसारमें आपने कई स्थलोंमें श्रीमेघचन्द्रत्रैविद्यदेवका अतिशय प्रशंसावाचक पद्योंसे स्मरण किया है | श्रीअभयनन्दीका कहीं भी नाम नहीं लिया । अतः अनुमान होता है कि, श्रीअभयनन्दीका शिष्यत्व स्वीकार करनेके पूर्व आप श्रीमेघचन्द्रके आश्रयमें रहे हैं । और आचारसारका निर्माण श्रीमेघचन्द्रके अस्तित्वमें किया है । आपके विषयमें निम्नलिखित महाप्रशंसावाचक पद्य हमको बाहुबलीचरित्रमें मिला है श्रीचम्पापुरसुप्रसिद्धविलसत्सिंहासनाधीश्वरो भास्वत्पञ्चसहस्रशिष्यमुनितारासंकुलैरावृतः । श्रीदेशीगणवार्द्धिवर्द्धनकरो भव्यालिहत्कैरवा नन्दो भाति सुवीरनन्दिमुनिचन्द्रो वाक्यचन्द्रातपैः ॥ अर्थात् चंपापुरस्थ प्रसिद्ध सिंहासन (पट्ट) के स्वामी, पाँच हजार मुनिशिष्यरूप तारागणसे वेष्टित, भव्यजीवोंके हृदयरूपी कुमुदको आनन्दित करनेवाले और देशीगणरूपी समुद्रके वृद्धिकारक ऐसे श्री वीरनंदीचंद्रमा अपनी वचनरूपी चंद्रिका (चांदनी) से शोभायमान हैं। श्रीइन्द्रनन्दी इनकी प्रशंसा करनेवाले कई श्लोक हमारे देखने में आये हैं, परन्तु विस्तारभयसे निम्नलिखित दो श्लोक ही उद्धृत करते हैं माद्यत्प्रत्यर्थिवादिद्विरदपटुघटाटोपकोपापनोदे वाणी यस्याभिरामा मृगपतिपदवीं गाहते देवमान्या। स श्रीमानिन्द्रनन्दी जगति विजयतां भूरिभावानुभावी दैवज्ञः कुन्दकुन्दप्रभुपदविनयः स्वागमाचारचञ्चुः ॥१॥(मल्लिषेणप्रशस्ति) दुरितग्रहनिग्रहाद्रयं यदि भो भूरि नरेन्द्रवन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो प्रणुत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ॥२॥ (नीतिसार) (१) इन श्रीअभयनन्दीके गुरु श्रीगुणनन्दी आचार्य थे। (२) 'शिल्पिसंहिता' यह अतिशय उपयोगी शास्त्र है, अतः पाठकोंको इसके अन्वेषण करनेमें तत्पर रहना चाहिये । (३) आचारसारके कर्ता दूसरे वीरनन्दी हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि, एक नामके धारक कई जैनाचार्य हए हैं। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] भावार्थ-परवादीरूपी गजेन्द्रोंके कोपको दूर करनेमें जिनकी देवोंकरके माननीय वाणी सिंहके समान आचरण करती है, वे अनेक भावोंको अनुभव करनेवाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्यमें भक्तिके धारक, जिनमतानुकूल आचरणमें निपुण और दैवज्ञ ऐसे श्रीइन्द्रनन्दी जगतमें जयवंते रहे ।9। हे भव्यजीवो ! यदि तुमको पापरूपी ग्रहकी पीडासे भय है, तो बहुतसे राजाओंकरके वंदनीय ऐसे श्रीइन्द्रनंदी मुनिका सेवन करो ।२।। उक्त महानुभावके रचे हुए शान्तिचक्रपूजा १, अंकुरारोपण २, मुनिप्रायश्चित्त (प्राकृतमें) ३, प्रतिष्ठापाठ ४, पूजाकल्प ५, प्रतिमासंस्कारारोपणपूजा ६, मातृकायंत्रपूजा ७, औषधिकल्प ८, भूमिकल्प ९, समयभूषण १०, नीतिसार ११, और इन्द्रनंदिसंहिता (प्राकृत) १२, इत्यादि ग्रन्थ' सुननेमें आये हैं । इससे जान पडता है कि, आप सिद्धान्तविषयमें ही प्रौढ नहीं थे, किन्तु चरणानुयोग और मन्त्रशास्त्रमें भी अतिशय निपुण थे । श्रीनेमिचन्द्रने जो प्रतिष्ठापाठ बनाया है, वह भी इन्हींके प्रतिष्ठापाठके आधारसे रचा हुआ है । और इनके पश्चात् होनेवाले प्रायः सभी पूजाप्रकरण और मन्त्रवाद संबंधी शास्त्रकारोंने आपका मत सादर ग्रहण किया है । श्रीकनकनन्दी इनके विषयमें हमको विशेष परिचय नहीं मिला परंतु जैसे-श्रीअभयनंदी, श्रीवीरनंदी, श्रीइन्द्रनंदी और श्रीनेमिचन्द्र ये चारों आचार्य सैद्धान्तिकचक्रवर्तीके पदसे भूषित थे उसी प्रकार ये भी सैद्धान्तिक चक्रवर्ती थे । इस प्रकार हम यथाप्राप्त प्रमाणोंद्वारा अतिसंक्षेपसे मूल ग्रन्थकार श्रीनेमिचन्द्रका परिचय पाठकोंको देकर, अब टीका और टीकाकार श्रीब्रह्मदेवजीके विषयमें कुछ लिखनेका मनोरथ करते हैं । बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका यह तीन हजार श्लोकोंकी संख्याको धारण करती है । इसमें ग्रन्थके नामानुसार केवल जीव पुद्गल आदि षद्रव्योंका वर्णन नहीं है, किन्तु षद्रव्योंके परिज्ञानको आत्मप्राप्तिका साधन दिखलाया गया है । इसलिये यह टीका अध्यात्मविषयका एक अच्छा ग्रन्थ है । प्रायः निश्चयनयकी मुख्यताको लिये हुए कथन होनेसे अध्यात्मविषय सबसे कठिन विषय है । अल्पज्ञोंकी तो शक्ति ही नहीं है कि, वे इसके मर्मको समझ सके । और जो बुद्धिमान हैं, वे भी अनेकान्तनयमार्गके मर्मको न जाननेसे पदपदमें भ्रमान्वित हो जाते हैं । यही नहीं, किन्तु कितने ही तो जैसे भाषाके प्रसिद्ध कवि और अध्यात्मरसके रसिक बनारसीदासजी केवल समयसारके पढनेसे 'करणीको रस मिट गया, भयो न आतम स्वाद । हुई बनारसिका दशा जथा ऊटको पाद 191' इस दोहेके अन बार व्यवहारचारित्रको जलांजलि दे चुके थे । उसी प्रकार एकान्तनिश्चयमार्गका अवलम्बन कर अनेकान्तमय जिनधर्मके शिखरसे पतनको प्राप्त हो जते हैं । परन्तु निश्चयके कथनके साथ साथ ही व्यवहारका कथन भी विद्यमान होनेसे इस टीकामें ‘सोना और सुगंध' की कहावत चरितार्थ होती है । और इसके पढनेसे भ्रम उत्पन्न होनेके बदले अनेक भ्रम भग जाते हैं । अतः अध्यात्ममहलमें चढनेके लिये इस टीकाको प्रथम सोपान कहा जावे तो कोई अत्युक्ति नहीं है । इसमें प्रसंगवश बहुतसे उपयोगी विषयोंका वर्णन है, जोकि आपको विषयसूचीके अवलोकन करनेसे विदित होगा । संस्कृत इसमें ऐसा सरल है कि, जिससे सरल संस्कृत दूसरा बन नहीं सकता है । और प्रकृत विषयकी पुष्टिके लिये यथास्थान गोमट्टसार, त्रिलोकसार, पञ्चास्तिकाय, रेतत्त्वानुशासन, (१) इनमेंसे नीतिसार, अंकुरारोपण तथा इन्द्रनंदिसंहिता ये तीन ग्रन्थ हमारे देखनेमें भी आये हैं । संहितामें दायभाग आदिका निरूपण है, परन्तु प्राकृत होनेसे यथार्थ अर्थका भान नहीं होता । यदि इसकी शुद्ध प्राचीन प्रति और टीका टिप्पणीकी प्राप्ति हो जाय तो उसके आधारसे जैनजातिके दायभाग आदि कई व्यवहारोंमें शास्त्रानुकूल सुधार हो सकता है। अत: पाठकोंको इसके अन्वेषणमें खुब प्रयत्न करना चाहिये ।। (२) श्रीनेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठकी अपूर्ण पुस्तक हमने देखी है | सुनते हैं दक्षिणमें पूर्ण पुस्तक विद्यमान है । (३) तत्त्वानुशासन, लोकविभाग और पञ्चनमस्कारमाहात्म्य ये तीनों ही शास्त्र हमको उत्तम और अतिशय उपयोगी जान पडते हैं । परन्तु खेद है-कि इनका पता नहीं । यदि प्रतिष्ठा आदिमें लाखों रूपये लगानेवाले धनाढ्य भाई जिनवाणीको श्रीजिनेन्द्रके समान ही समझकर उसकी भक्तिके लिये भी धन खर्च करके समस्त सरस्वतीभंडारोंका सूचीपत्र बनवा लेवें तो राईमें सुमेरु मिल जावे और जैन समाजका अज्ञानदारिद्र्य भग जावे । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११] लोकविभाग, पञ्चनमस्कारमाहात्म्य और यशस्तिलकचंपू आदि प्रसिद्ध शास्त्रोंके प्रमाण भी उक्तं च से लिये हुए हैं, जिससे किसी भी कथनमें शंका उत्पन्न नहीं होती है । अतएव यह बृहद्र्व्यसंग्रहकी टीकादिगम्बरजैनपरीक्षालयीय पंडितपरीक्षाके पठनक्रममें नियत है और जयपुरकी सरकारी संस्कृतयुनिव्हर्सिटीकी उपाध्याय परीक्षामें शीघ्र ही नियत होनेवाली है । श्रीब्रह्म-देवजी हमको उक्त टीकाके कर्ता महाशयका नाम देवजी और 'ब्रह्म-यह पदसूचक शब्द जान पडता है । जिसको नामके पहिले लगा देनेसे 'ब्रह्म-देवजी' ऐसा शब्द बन गया है । श्रीब्रह्म-देवजीका समय यद्यपि श्रीब्रह्मदेवजीने अपने सद्भावसे कब किस वसुधामंडलको मंडित किया ? इत्यादि जिज्ञासाओंकी पूर्तिके लिये हमारे पास कोई भी प्रबल प्रमाण नहीं है, तथापि बृहद्र्व्यसंग्रहटीका पृष्ठ १८२ में बारह हजार श्लोक प्रमाण २पंचनमस्कारमाहात्म्य नामक ग्रन्थका उल्लेख है । अतः विदित होता है कि, पञ्चनमस्कारमाहात्म्यके कर्ता मालवदेशस्थ-भट्टारक श्रीसिंहनन्दीके समकालमें अथवा पश्चात् आपका प्रादुर्भाव हुआ है । और प्रसिद्ध भट्टारक श्रीशुभचंद्रजीने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकामें द्रव्यसंग्रहकी टीकाका कितना ही पाठ उद्धृत किया है । अतः यह निश्चित होता है कि भट्टारक श्रीशुभचन्द्रजीके पूर्व आपका सद्भाव था । भट्टारक श्रीसिंहनन्दी सूरी श्रीश्रुतसागरके समकालीन थे । और श्रीश्रुतसागरजीका अस्तित्व विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें अर्थात् सं. १५२५ में कई प्रमाणोंसे सिद्ध है । भट्टारक श्रीशुभचन्द्रजीने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीकाकी समाप्ति विक्रम सं.१६१३ में की है । इस कारण विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके मध्यमें किसी भी समय श्रीब्रह्मदेवजीने अपने अवतारसे भारतवर्षको पवित्र किया, ऐसा दृढ अनुमान किया जाता है । श्रीब्रह्मदेवजीके रचे हुए शास्त्र हमारे पास जो शास्त्रकारोंकी नामावली है, उसमें लिखा हुआ है कि, ब्रह्मदेवजीने परमात्मप्रकाशकी टीका १, बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका २, तत्त्वदीपक ३, ज्ञानदीपक ४, त्रिवर्णाचारदीपक ५, प्रतिष्ठातिलक ६, विवाहपटल ७, और कथाकोश ८, ये आठ शास्त्र रचे हैं । इनके अतिरिक्त हमको समयसारकी तात्पर्यवृत्ति भी इन्हींकी रची हुई जान पडती है । क्योंकि उसके और द्रव्यसंग्रहकी टीकाके अन्तका पाठ प्रायः समान है । श्रीब्रह्म-देवजीकी रुचि यद्यपि आपकी रुचि अध्यात्मविषयमें विशेष थी, तथापि आप निश्चयसाधक व्यवहारचारित्रसे पराङ्मुख नहीं थे । अतएव आपने जैसे परमात्मप्रकाशटीका आदि अध्यात्मशास्त्रोंका निर्माण किया है, उसी प्रकार त्रिवर्णाचारादि व्यवहारशास्त्रोंको भी रचा हैं । जो लोग निश्चय और व्यवहारमार्गमें एकान्तके धारक हो रहे हैं, उनको आपका अनुकरण करके सन्मार्गमें प्रवृत्ति करनी चाहिये । उपसंहार इस प्रकार मूल और टीकाकारके विषयमें जो कुछ मुझको प्रमाण मिले, उनके अनुसार संक्षेपसे यह प्रस्तावना लिखकर पाठकोंको समर्पण की है । यदि इसमें प्रमाद अथवा जैनइतिहाससंबंधी यथोचित साधनोंके अभावसे कोई त्रुटि रह गई हो तो विज्ञ पाठक उसे सूचित करे । इत्यलम्जौहरी बजार, बंबई. श्रीमज्जैनाचार्यपादपद्माराधकआश्विन शुक्ला ७, रविवार श्रीजवाहरलाल शास्त्री श्रीवीरनिर्वाण सं. २४३२ (१) 'ब्रह्म' इस शब्दसे गृहत्यागी ब्रह्मचारी रूप अर्थको ग्रहण करना चाहिये । (२) प्रस्तुत आवृत्तिमें इस ग्रन्थका उल्लेख पृष्ठ १६४ पर है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२] अनुवादककी प्रार्थना सज्जन - विद्वज्जन-पाठक महाशय ! आज मैं आपके करकमलोंमें इस सटीक बृहद्रव्यसंग्रहके अभूतपूर्व हिंदीभाषानुवादको समर्पण करके कृतार्थ होता हूँ । इस सटीकबृहद्रव्यसंग्रहकी प्रशंसा प्रस्तावनामें बहुत कुछ लिखी जा चुकी हैं। और इसमें जिन जिन उपयोगी विषयोंका वर्णन है, उनका सूचीपत्र भी पृथक् प्रकाशित है । अब यहाँपर विशेष वक्तव्य यह है। कि, इस अतिशय लाभप्रद ग्रन्थरत्नका इस अनुवादके पूर्व कोई अनुवाद नहीं था। जिसके न होनेका कारण यह है, कि जैनसमाजमें संस्कृतशास्त्रोंके अनुवाद ( वचनिकायें) रचकर, उनके द्वारा सर्वसाधारणका उपकार करनेवाले श्रीटोडरमल्लजी व श्रीजयचन्द्ररायजी आदि विद्वान् बहुत अल्पसंख्याके धारक हुए हैं। उनसे अपने पर्यायमें जितने शास्त्रोंकी वचनिकायें बन सकीं, उतनी ही वे बना पाये, अधिकके लिये विवश रहे । क्योंकि, प्राकृत और संस्कृत भाषामय दो अपार पारावार हैं । इनमें इस लोक और पर लोक सम्बन्धी हितोपदेशरूप प्रकाशके धारक तथा पूर्वापरविरोधादि दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्मल ऐसे लक्षावधि जैनग्रन्थरत्न विद्यमान हैं। उन सबका देशभाषामें अनुवाद कर देना अथवा अवलोकन करना तो दूर रहा, सूचीपत्र बनाना भी दुःसाध्य है । ऐसी दशामें इस ग्रन्थरत्नका भी वचनिकासे वंचित रह जाना सुसंभव ही था । आपके पुण्यप्रभावसे जयपुरस्थ पूर्वविद्वानोंद्वारा स्वीकृत वचनिकानिर्माणरूपकार्यका नाममात्र निर्वाह करनेके लिये जो कुछ सामर्थ्य मुझमें उत्पन्न हुआ है उसीका यह फल है कि, मैं २५ वर्षकी अवस्थामें इस दुरवबोध अध्यात्मविषयक महाशास्त्रका सर्वतः प्रथम अनुवाद रचकर, उसको आपके करकमलोंमें समर्पित करता हूँ । यद्यपि मुझको पूर्ववचनिकाकारोंका अनुकरण करके ढूंढारी भाषामें ही अनुवाद करना उचित था परन्तु समयके फेरसे पूर्ववचनिकाओंका भी हीनाधिक्यपूर्वक हिंदीभाषामें अनुवाद होता हुआ देखकर आधुनिक जैनसमाजके संतोषार्थ और अन्य अनुवादकोंको पिष्टपेषणजनित परिश्रमसे रक्षणार्थ मैंने सर्वदेश प्रचलित हिंदी भाषा में ही अनुवाद किया है। पूर्ववचनिकाकारोंने स्थल- स्थलमें भावार्थ देकर कठिन विषयको स्पष्ट भी किया है । परन्तु भावार्थके देनेमें बुद्धिको विशेष स्वातंत्र्य मिलता है । और उस स्वातंत्र्यमें ग्रन्थकारके, प्रकरणके, व शास्त्र के विरुद्ध लिखे जानेका अनुवादसे भी अधिक भय रहता है । इस कारण मैंने प्रायः भावार्थ नहीं दिया है । कितने ही विशेषज्ञ मनुष्य हिंदीभाषाको भी संस्कृतभाषाकी लघुभगिनी (छोटी बहन) बनानेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं । अर्थात् जैसे सर्वनामशब्दोंका प्रयोग करके और भिन्न-भिन्न पदोंको समासश्रृंखलामें बाँध करके संस्कृतको संक्षिप्त कर लिया जाता है, उसी प्रकार वे हिंदीभाषाको भी संक्षेपरूपमें लाना चाहते हैं । परन्तु शास्त्रीयविषयमें वह संक्षेप मुझको रुचिकर नहीं । क्योंकि जैसे तारके संक्षिप्त और संकेतित शब्दोंसे उसके आशयज्ञ ही लाभ उठा सकते हैं, उसी प्रकार जो शास्त्र के रहस्यज्ञ हैं, उन्हींको उस संक्षिप्त भाषासे लाभ मिल सकता है । इसलिये सर्वसाधारण कभी-कभी अनर्थमें प्रवृत्त होकर लाभके बदले हानिके भागी हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं । इसी कारण मैंने यथाशक्य समासित पदोंका भिन्न-भिन्न करके अनुवाद किया है । एक भाषा के शब्दोंका दूसरी भाषाके शब्दोंमें पूर्ण अनुवाद करके उस अनुवादको सर्वगुणसम्पन्न और रुचिकर वाक्यपद्धतिमें ले आना कठिन ही नहीं, किन्तु प्रायः असम्भव है । अतएव कितने ही अनुवादक मूलके आशयको ग्रहण करके उसको मनोहर भाषामें लिख डालते हैं । परन्तु उससे 'किस पद व वाक्यका क्या अनुवाद है' इस जिज्ञासामें सर्वसाधारणको हताश होना पडता है । इस कारण मैंने यह अनुवाद प्रायः मूलके अनुसार लिखा है और जहाँपर भाषा अतिशय विरस होती थी, वहींपर मूलके आशयको ग्रहण किया है । यद्यपि मैंने सावधानतापूर्वक तीन पुस्तकोंके आधारसे मूलको शुद्ध करके, तदनुसार यह अनुवाद लिखा है, तथापि मूलमें अशुद्धता रह जाना सम्भव है । अतः अशुद्धमूलके कारण यदि अनुवाद यथार्थ न हुआ हो तो इस दोषका भागी मैं नहीं हूँ । छपते समय कॉपी देनेकी शीघ्रतामें कितना ही प्राकृतका उक्तं च पाठ यथार्थ अनुवादसे वंचित रह गया था । उसको अति परिश्रमसे स्पष्ट करके विशेष सूचनामें लगा दिया है । एवं प्रमादसे अथवा अनुपस्थितिमें बहुतसे फार्मोंके छपनेसे अन्य जो कितनी ही अर्थांशसम्बन्धी क्षुद्र अशुद्धियाँ रह गई थीं, उनकी भी यथाशक्य शुद्धिपत्रद्वारा शुद्धि कर दी है । तथापि जो दुर्जन मनुष्य हैं, वे अपने स्वभावानुकूल अनुवादमें वचनभेद Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] लिङ्गभेद-दूरान्वय-असंबद्ध-पुनरुक्ति-भाषावैरस्य और विरामादि चिह्नोंकी अनुचित योजना आदि तुच्छ दोषोंको ग्रहण करके, उनकी कडी समालोचना किये बिना न रहेंगे । परन्तु यदि वे समालोचनाके परिश्रमको न करके, उन दोषोंसे मुझे सूचित कर देंगे, तो मैं विशेष कृतज्ञ होकर द्वितीयावृत्तिमें उन दोषोंको निकाल डालनेका प्रयत्न करूँगा । आजकल जैनधर्मज्ञ विद्वानोंके आलस्य, अनवकाश तथा निस्सीम सज्जनत्वके कारण प्रायः कितने ही पुस्तकरचयिता निरंकुश होकर धर्म व मूलसे विरुद्ध पुस्तकें लिखने लगे हैं । ऐसी पुस्तकोंसे यद्यपि इस समय विशेष हानि न होगी । परन्तु ये ही कालान्तरमें भाषाके रोचक मनुष्योंके प्रमाणताको प्राप्त होकर धर्म व मूलका तिरस्कार करनेमें समर्थ हो जावेंगी ।। इस स्थलमें कोई कह सकते हैं कि यदि ऐसा है तो वह प्रबन्ध किया जावे कि जिससे नवीन पुस्तकोंका निर्माण न हो सके । परन्तु यह अनुचित है । क्योंकि, पूर्वशास्त्रकार सभी छद्मस्थ थे । वे यदि उक्त भयसे डर कर शास्त्र न रचते, तो, आज जो समाजमें धर्म व ज्ञानका उद्योत है, वह किसके आधार पर होता ? अतः नवीन पुस्तकोंका न बनाना तो सर्वथा हानिकारक है । हाँ, पुस्तक रचयिता और धर्मके विशेषज्ञोंको निरन्तर यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि, कोई पुस्तक विरुद्ध न बन जावे । यद्यपि मैंने यह अनुवाद बहुत विचारपूर्वक लिखा है । अतः सहसा अविश्वासका स्थान नहीं है । तथापि सर्वथा निर्दोष है, यह भी मैं नहीं कह सकता । इसलिये समस्त विद्वानोंसे प्रार्थना करता हूँ कि, वे अपने आलस्यको त्याग कर और मुझपर अनुग्रह करके दोषदर्शकदृष्टिसे इस समस्त अनुवादको मूलसे मिलावें । और जो कुछ विरुद्ध प्रतीत हो, उससे मुझे सूचित करें । जिससे कि यह अनुवाद शुद्ध कर लिया जावे और फिर इस अनुवादकी निर्दोषतामें किसी प्रकारका संशय न रहे । श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डलकी तरफसे इस बृहद्रव्यसंग्रहका अनुवाद वैय्याकरणाचार्य श्री पं० ठाकुरप्रसादजी शर्मा द्वारा कराया गया था और मुझको उसके संशोधनका भार दिया गया था । परन्तु कई विशेष कारणोंसे उस अनुवादकी अपेक्षा न रखकर मुझे सर्वथा नूतन अनुवाद करना पड़ा । इसलिये इस अनुवादजनित यश तथा अपयशका भागी मैं ही हूँ । ___ अन्तमें जिनकी अहर्निश प्रेरणा और अनुग्रहसे सद्विद्याको प्राप्त करके मैं इस अनुवादके करनेमें समर्थ हुआ, उन श्रीमती जयपुरस्थजैनमहापाठशालाके प्रबन्धकर्ता सौम्यमूर्ति सद्विद्यारसिक पूज्यश्री पं० भोलेलालजीशेठीको, जिनके अनुरोधसे इस द्रव्यसंग्रहके अनुवादन तथा संशोधनकर्ममें प्रवृत्त हुआ, उन श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डलके व्यवस्थापक महोदयोंको और जिन विद्वानोंने इसके अनुवादन व संशोधनमें सहायता दी है, उन सबको कोटिशः धन्यवाद देकर इस प्रार्थनाको समाप्त करता हूँ । इत्यलम् । विजयादशमी, बुधवार, वि० सं० १९६४, हस्ताक्षर विज्ञानुचर अनुवादक जयपुरनिवासीता. १८-१०-०७ ईस्वी जवाहरलाल शास्त्री दि. जैन चतुर्थावृत्तिकी प्रस्तावना प्रस्तुत आवृत्तिमें कोई खास परिवर्तन नहीं किया गया है । फक्त अभ्यासियोंकी सुगमताके लिये मूल प्राकृत गाथाओंकी संस्कृत छाया जोड दी गई है ताकि प्राकृत शब्दोंको समझा जा सके । इसके अलावा ग्रन्थके अन्तमें परिशिष्टमें 'बहदद्रव्यसंग्रह की केवल मल गाथाएँ पन दे दी गई है, और 'लघुद्रव्यसंग्रह' (सार्थ) जिसे इस ग्रन्थके कर्ता श्री नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेवने पहले लिखा था, वह भी दे दिया है । यह द्रव्यानुयोगका ग्रन्थ होते हुए भी इसमें व्यवहारनयका सुन्दर वर्णन किया गया है । इसमें छः द्रव्य और सात तत्त्वका संक्षेपमें अलौकिक कथन है, और ब्रह्मदेवजीकी सुबोधिनी संस्कृत टीकाने तो 'सोनेमें सुगन्ध' वाली कहावत चरितार्थ कर दी है। यथासम्भव ग्रन्थके शुद्ध मुद्रणका प्रयास किया गया है, फिर भी दृष्टिदोष या अज्ञानवश कोई अशुद्धि या त्रुटि रह गई हो तो पाठकगण हमें सूचित करें । इत्यलम् । - प्रकाशक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४] इस युगके महान तत्त्ववेत्ता श्रीमद् राजचन्द्र जिस महापुरुषकी विश्वविहारी प्रज्ञा थी, अनेक जन्मोंमें आराधित जिसका योग था अर्थात् जन्मसे ही योगीश्वर जैसी जिसकी निरपराध वैराग्यमय दशा थी तथा सर्व जीवोंके प्रति जिसका विश्वव्यापी प्रेम था, ऐसे आश्चर्यमूर्ति महात्मा श्रीमद् राजचन्द्रका जन्म महान तत्त्वज्ञानियोंकी परम्परारूप इस भारतमूभिके गुजरात प्रदेशान्तर्गत सौराष्ट्रके ववाणिया बंदर नामक एक शान्त रमणीय गाँवके वणिक कुटुम्बमें विक्रम संवत् १९२४ (ईस्वी सन् १८६७) की कार्तिकी पूर्णिमा रविवारको रात्रिके दो बजे हुआ था । इनके पिताका नाम श्री रवजीभाई पंचाणभाई मेहता और माताका नाम श्री देवबाई था। इनके एक छोटा भाई और चार बहनें थीं। श्रीमद्जीका प्रेम-नाम 'लक्ष्मीनन्दन' था । बादमें यह नाम बदलकर 'रायचन्द' रखा गया और भविष्यमें आप 'श्रीमद् राजचन्द्र'के नामसे प्रसिद्ध हुए। बाल्यावस्था, समुच्चय वयचर्या श्रीमद्जीके पितामह श्रीकृष्णके भक्त थे और उनकी माताजी देवबाई जैनसंस्कार लाई थी। उन सभी संस्कारोंका मिश्रण किसी अदभुत ढंगसे गंगा-यमुनाके संगमकी भाँति हमारे बाल-महात्माके हृदयमें प्रवाहित हो रहा था । अपनी प्रौढ वाणीमें बाईस वर्षकी उम्रमें इस बाल्यावस्थाका वर्णन 'समुच्चयवयचर्या' नामके लेखमें उन्होंने स्वयं किया है “सात वर्ष तक बालवयकी खेलकूदका अत्यंत सेवन किया था । खेलकूदमें भी विजय पानेकी और राजेश्वर जैसी उच्च पदवी प्राप्त करनेकी परम अभिलाषा थी। वस्त्र पहननेकी, स्वच्छ रखनेकी, खानेपीनेकी. सोने-बैठनेकी. सारी विदेही दशा थी: फिर भी अन्तःकरण कोमल था। वह द याद आती है । आजका विवेकी ज्ञान उस वयमें होता तो मुझे मोक्षके लिये विशेष अभिलाषा न रहती | सात वर्षसे ग्यारह वर्ष तकका समय शिक्षा लेनेमें बीता । उस समय निरपराध स्मृति होनेसे एक ही बार पाठका अवलोकन करना पड़ता था । स्मृति ऐसी बलवत्तर थी कि वैसी स्मृति बहुत ही थोडे मनुष्योंमें इस कालमें, इस क्षेत्रमें होगी । पढनेके प्रमादी बहुत था । बातोंमें कुशल, खेलकूदमें रुचिवान और आनन्दी था । जिस समय शिक्षक पाठ पढाता, मात्र उसी समय पढकर उसका भावार्थ कह देता । उस समय मुझमें प्रीति-सरल वात्सल्यता-बहत थी। सबसे ऐक्य चाहता; सबमें भ्रातभाव हो तभी सुख, इसका मुझे स्वाभाविक ज्ञान था । उस समय कल्पित बातें करनेकी मुझे बहुत आदत थी । आठवें वर्षमें मैंने कविता की थी; जो बादमें जाँचने पर समाप थी। अभ्यास इतनी त्वरासे कर सका था कि जिस व्यक्तिने मुझे प्रथम पुस्तकका बोध देना आरम्भ किया था उसीको गुजराती शिक्षण भली-भाँति प्राप्त कर उसी पुस्तकका पुनः मैंने बोध किया था । मेरे पितामह कृष्णकी भक्ति करते थे। उनसे उस वयमें कृष्णकीर्तनके पद मैंने सुने थे तथा भिन्न भिन्न अवतारोंके संबंधमें चमत्कार सुने थे, जिससे मुझे भक्तिके साथ साथ उन अवतारोंमें प्रीति हो गई थी, और रामदासजी नामके साधुके पास मैंने बाललीलामें कंठी बँधवाई थी।.....उनके सम्प्रदायके महन्त होवें, जगह जगह पर चमत्कारसे हरिकथा करते होवें और त्यागी होवें तो कितना आनन्द आये ? यही कल्पना हुआ करती; तथा कोई वैभवी भूमिका देखता कि समर्थ वैभवशाली होनेकी इच्छा होती ।... गुजराती भाषाकी वाचनमालामें जगतकर्ता सम्बन्धी कितने ही स्थलोंमें उपदेश किया है वह मुझे दृढ हो गया था. जिससे जैन लोगोंके प्रति मझे बहत जगप्सा आती थी.......तथा उस समय प्रतिमाके अश्रद्धालु Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् राजचंद्र जन्म :ववाणिया वि. सं. १९२४, कार्तिक सुद १५ देहोत्सर्ग : राजकोट वि. सं. १९५७, चैत्र वद ५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] लोगोंकी क्रियाएँ मेरे देखनेमें आई थीं, जिससे वे क्रियाएँ मलिन लगनेसे मैं उनसे डरता था अर्थात् वे मुझे प्रिय न थीं। ___लोग मुझे पहलेसेही समर्थ शक्तिशाली और गाँवका नामांकित विद्यार्थी मानते थे, इसलिए मैं अपनी प्रशंसाके कारण जानबूझकर वैसे मंडलमें बैठकर अपनी चपल शक्ति दर्शानेका प्रयत्न करता । कंठीके लिए बार-बार वे मेरी हास्यपूर्वक टीका करते; फिर भी मैं उनसे वाद करता और उन्हें समझानेका प्रयत्न करता । परन्तु धीरे-धीरे मुझे उनके (जैनके) प्रतिक्रमणसूत्र इत्यादि पुस्तकें पढनेके लिए मिलीं; उनमें बहुत विनयपूर्वक जगतके सब जीवोंसे मित्रता चाही है । अतः मेरी प्रीति इसमें भी हुई और उसमें भी रही । धीरे-धीरे यह प्रसंग बढा । फिर भी स्वच्छ रहनेके तथा दूसरे आचार-विचार मुझे वैष्णवोंके प्रिय थे और जगतकर्ताकी श्रद्धा थी । उस अरसेमें कंठी टूट गई; इसलिए उसे फिरसे मैंने नहीं बाँधा । उस समय बाँधने न बाँधनेका कोई कारण मैंने ढूँढा न था । यह मेरी तेरह वर्षकी वयचर्या है । फिर मैं अपने पिताकी दूकान पर बैठता और अपने अक्षरोंकी छटाके कारण कच्छ दरबारके उतारे पर मुझे लिखनेके लिये बुलाते तब मैं वहाँ जाता । दूकान पर मैंने नाना प्रकारकी लीला-लहर की है, अनेक पुस्तकें पढी हैं, राम इत्यादिके चरित्रों पर कविताएँ रची है; सांसारिक तृष्णाएँ की हैं, फिर भी मैंने किसीको न्यून-अधिक दाम नहीं कहा या किसीको न्यून-अधिक तौल कर नहीं दिया, यह मुझे निश्चित याद है ।" (पत्रांक ८९) जातिस्मरणज्ञान और तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति श्रीमद्जी जिस समय सात वर्षके थे उस समय एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग उनके जीवनमें बना । उन दिनों ववाणियामें अमीचन्द नामके एक गृहस्थ रहते थे जिनका श्रीमद्जीके प्रति बहुत प्रेम था । एक दिन साँपके काट खानेसे उनकी तत्काल मृत्यु हो गई । यह बात सुनकर श्रीमद्जी पितामहके पास आये और पूछा'अमीचन्द गुजर गये क्या ?" पितामहने सोचा कि मरणकी बात सुननेसे बालक डर जायेगा, अतः उन्होंने, ब्यालू कर ले, ऐसा कहकर वह बात टालनेका प्रयत्न किया । मगर श्रीमद्जी बार-बार वही सवाल करते रहे । आखिर पितामहने कहा-'हाँ, यह बात सच्ची है ।' श्रीमद्जीने पूछा-'गुजर जानेका अर्थ क्या ?' पितामहने कहा-'उसमेंसे जीव निकल गया, और अब वह चल फिर या बोल नहीं सकेगा; इसलिए उसे तालाबके पासके स्मशानमें जला देंगे ।' श्रीमद्जी थोडी देर घरमें इधर-उधर घूमकर छिपे-छिपे तालाब पर गये और तटवर्ती दो शाखावाले बबल पर चढ कर देखा तो सचमुच चिता जल रही थी। कितने ही मनुष्य आसपास बैठे हुए थे । यह देखकर उन्हें विचार आया कि ऐसे मनुष्यको जला देना यह कितनी क्रूरता ! ऐसा क्यों हुआ? इत्यादि विचार करते हुए परदा हट गया; और उन्हें पूर्वभवोंकी स्मृति हो आई । फिर जब उन्होंने जूनागढका गढ देखा तब उस (जातिस्मरणज्ञान) में वृद्धि हुई। इस पूर्वस्मृतिरूप ज्ञानने उनके जीवनमें प्रेरणाका अपूर्व नवीन अध्याय जोडा । इसीके प्रतापसे उन्हें छोटी उम्रसे वैराग्य और विवेककी प्राप्ति द्वारा तत्त्वबोध हुआ । पूर्वभवके ज्ञानसे आत्माकी श्रद्धा निश्चल हो गई । संवत् १९४९, कार्तिक वद १२ के एक पत्रमें लिखते है-"पुनर्जन्म है- जरूर है । इसके लिए 'मैं' अनुभवसे हाँ कहनेमें अचल हूँ। यह वाक्य पूर्वभवके किसी योगका स्मरण होते समय सिद्ध हुआ लिखा है । जिसने पुनर्जन्मादि भाव किये हैं, उस पदार्थको किसी प्रकारसे जानकर यह वाक्य लिखा गया है ।" (पत्रांक ४२४) एक अन्य पत्रमें लिखते हैं-“कितने ही निर्णयोंसे मैं यह मानता हूँ कि इस कालमें भी कोई-कोई महात्मा गतभवको जातिस्मरणज्ञानसे जान सकते हैं; यह जानना कल्पित नहीं किन्तु सम्यक् (यथार्थ) होता है ! उत्कृष्ट संवेग, ज्ञानयोग और सत्संगसे भी यह ज्ञान प्राप्त होता है अर्थात् पूर्वभव प्रत्यक्ष अनुभवमें आ जाता है । जब तक पूर्वभव अनुभवगम्य न हो तब तक आत्मा भविष्यकालके लिए सशंकित धर्मप्रयत्न किया करता है; और ऐसा सशंकित प्रयत्न योग्य सिद्धि नहीं देता ।" (पत्रांक ६४) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] अवधान प्रयोग, स्पर्शनशक्ति वि० सं० १९४० से श्रीमद्जी अवधान प्रयोग करने लगे थे। धीरे धीरे वे शतावधान तक पहुँच गये थे । जामनगरमें बारह और सोलह अवधान करने पर उन्हें 'हिन्दका हीरा' ऐसा उपनाम मिला था । वि० सं० १९४३ में १९ वर्षकी उम्रमें उन्होंने बम्बईकी एक सार्वजनिक सभामें डॉ० पिटर्सनकी अध्यक्षता में शतावधानका प्रयोग दिखाकर बडे-बडे लोगोंको आश्चर्यमें डाल दिया था । उस समय उपस्थित जनताने उन्हें 'सुवर्णचन्द्रक' प्रदान किया था और 'साक्षात् सरस्वती' की उपाधि से सन्मानित किया था । श्रीमद्जीकी स्पर्शनशक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी । उपरोक्त सभामें उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकारके बारह ग्रन्थ दिये गये और उनके नाम भी उन्हें पढ कर सुना दिये गये । बादमें उनकी आँखोंपर पट्टी बाँध कर जो-जो ग्रन्थ उनके हाथ पर रखे गये उन सब ग्रन्थोंके नाम हाथोंसे टटोलकर उन्होंने बता दिये । श्रीमद्जीकी इस अद्भुत शक्तिसे प्रभावित होकर तत्कालीन बम्बई हाईकोर्टके मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स सारजन्टने उन्हें यूरोपमें जाकर वहाँ अपनी शक्तियाँ प्रदर्शित करनेका अनुरोध किया, परन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया । उन्हें कीर्तिकी इच्छा न थी, बल्कि ऐसी प्रवृति आत्मोन्नतिमें बाधक और सन्मार्गरोधक प्रतीत होनेसे प्रायः बीस वर्षकी उम्र के बाद उन्होंने अवधान-प्रयोग नहीं किये। महात्मा गांधीने कहा था महात्मा गांधीजी श्रीमद्जीको धर्मके सम्बन्धमें अपना मार्गदर्शक मानते थे । वे लिखते हैं “मुझ पर तीन पुरुषोंने गहरा प्रभाव डाला है- टाल्सटॉय, रस्किन और रायचन्दभाई । टाल्सटॉयने अपनी पुस्तकों द्वारा और उनके साथ थोडे पत्रव्यवहारसे, रस्किनने अपनी एक ही पुस्तक 'अन्टु दि लास्ट ' से - जिसका गुजराती नाम मैंने 'सर्वोदय' रखा है, और रायचन्दभाईने अपने गाढ परिचयसे । जब मुझे हिन्दुधर्ममें शंका पैदा हुई उस समय उसके निवारण करनेमें मदद करनेवाले रायचन्दभाई थे । जो वैराग्य (अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे ?) इस काव्यकी कडियोंमें झलक रहा है वह मैंने उनके दो वर्षके गाढ परिचयमें प्रतिक्षण उनमें देखा है । उनके लेखोंमें एक असाधारणता यह है कि उन्होंने जो अनुभव किया वही लिखा है । उसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है । दूसरे पर प्रभाव डालनेके लिये एक पंक्ति भी लिखी हो ऐसा मैंने नहीं देखा । खाते, बैठते, सोते, प्रत्येक क्रिया करते उनमें वैराग्य तो होता ही । किसी समय इस जगतके किसी भी वैभवमें उन्हें मोह हुआ हो ऐसा मैंने नहीं देखा । व्यवहारकुशलता और धर्मपरायणताका जितना उत्तम मेल मैंने कविमें देखा उतना किसी अन्यमें नहीं देखा ।" 'श्रीमद् राजचन्द्र जयन्ती” के प्रसंग पर ईस्वी सन् १९२१ में गांधीजी कहते हैं- “बहुत बार कह और लिख गया हूँ कि मैंने बहुतों के जीवनमेंसे बहुत कुछ लिया है । परन्तु सबसे अधिक किसीके जीवनमेंसे मैंने ग्रहण किया हो तो वह कवि ( श्रीमद्जी) के जीवनमेंसे है । दयाधर्म भी मैंने उनके जीवनमेंसे सीखा है । खून करनेवालेसे भी प्रेम करना यह दयाधर्म मुझे कविने सिखाया है । " × शतावधान अर्थात् सौ कामोंको एक साथ करना । जैसे शतरंज खेलते जाना, मालाके मनके गिनते जाना, जोड बाकी गुणाकार एवं भागाकार मनमें गिनते जाना, आठ नई समस्याओंकी पूर्ति करना, सोलह निर्दिष्ट नये विषयोंपर निर्दिष्ट छन्दमें कविता करते जाना, सोलह भाषाओंके अनुक्रमविहीन चार सौ शब्द कर्ताकर्मसहित पुनः अनुक्रमबद्ध कह सुनाना, कतिपय अलंकारोंका विचार, दो कोठोंमें लिखे हुए उल्टेसीधे अक्षरोंसे कविता करते जाना इत्यादि । एक जगह ऊँचे आसनपर बैठकर इन सब कामोंमें मन और दृष्टिको प्रेरित करना, लिखना नहीं या दुबारा पूछना नहीं और सभी स्मरणमें रख कर इन सौ कामों को पूर्ण करना । श्रीमद्जी लिखते हैं-" अवधान आत्मशक्तिका कार्य है यह मुझे स्वानुभवसे प्रतीत हुआ है ।" (पत्रांक १८ ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] गृहस्थाश्रम वि० सं० १९४४ माघ सुदी १२ को २० वर्षकी आयुमें श्रीमद्जीका शुभ विवाह जौहरी रेवाशंकर जगजीवनदास मेहताके बडे भाई पोपटलालकी महाभाग्यशाली पुत्री झबकबाईके साथ हुआ था । इसमें दूसरोंकी 'इच्छा' और 'अत्यन्त आग्रह' ही कारणरूप प्रतीत होते हैं । विवाहके एकाध वर्ष बाद लिखे हुए एक लेखमें श्रीमद्जी लिखते हैं- “स्त्रीके संबंधमें किसी भी प्रकारसे रागद्वेष रखनेकी मेरी अंशमात्र इच्छा नहीं है । परन्तु पूर्वोपार्जनसे इच्छाके प्रवर्तनमें अटका हूँ ।" (पत्रांक ७८) सं० १९४६ के पत्रमें लिखते हैं- “तत्त्वज्ञानकी गुप्त गुफाका दर्शन करनेपर गृहाश्रमसे विरक्त होना अधिकतर सूझता है ।” (पत्रांक ११३ ) श्रीमद्जी गृहवासमें रहते हुए भी अत्यन्त उदासीन थे। उनकी मान्यता थी- “कुटुंबरूपी काजलकी कोठडीमें निवास करनेसे संसार बढता है । उसका कितना भी सुधार करो, तो भी एकान्तवाससे जितना संसारका क्षय हो सकता है उसका शतांश भी उस काजलकी कोठडीमें रहनेसे नहीं हो सकता, क्योंकि वह कषायका निमित्त है और अनादिकालसे मोहके रहनेका पर्वत है ।" ( पत्रांक १०३) फिर भी इस प्रतिकूलतामें वे अपने परिणामोंकी पूरी सम्भाल रखकर चले । सफल एवं प्रामाणिक व्यापारी श्रीमद्जी २१ वर्षकी उम्र में व्यापारार्थ ववाणियासे बंबई आये और सेठ रेवाशंकर जगजीवनदासकी दुकानमें भागीदार रहकर जवाहिरातका व्यापार करने लगे । व्यापार करते हुए भी उनका लक्ष्य आत्माकी ओर अधिक था । व्यापारसे अवकाश मिलते ही श्रीमद्जी कोई अपूर्व आत्मविचारणामें लीन हो जाते थे । ज्ञानयोग और कर्मयोगका इनमें यथार्थ समन्वय देखा जाता था । श्रीमद्जीके भागीदार श्री माणेकलाल घेला भाईने अपने एक वक्तव्यमें कहा था- “व्यापारमें अनेक प्रकारकी कठिनाइयाँ आती थीं, उनके सामने श्रीमद्जी एक अडोल पर्वतके समान टिके रहते थे । मैंने उन्हें जड वस्तुओंकी चिंतासे चिंतातुर नहीं देखा । वे हमेशा शान्त और गम्भीर रहते थे । " जवाहिरातके साथ मोतीका व्यापार भी श्रीमद्जीने शुरू किया था और उसमें वे सभी व्यापारियोंमें अधिक विश्वासपात्र माने जाते थे। उस समय एक अरब अपने भाईके साथ मोतीकी आढतका धन्धा करता था। छोटे भाईके मनमें आया कि आज मैं भी बडे भाईकी तरह बडा व्यापार करूँ । दलालने उसकी श्रीमद्जीसे भेंट करा दी। उन्होंने कस कर माल खरीदा । पैसे लेकर अरब घर पहुँचा तो उसके बडे भाई पत्र दिखाकर कहा कि वह माल अमुक किंमतके बिना नहीं बेचने की शर्त की है और तूने यह क्या किया ? यह सुनकर वह घबराया और श्रीमद्जीके पास जाकर गिडगिडाने लगा कि मैं ऐसी आफतमें आ पड़ा हूँ । श्रीमद्जीने तुरन्त माल वापस कर दिया और पैसे गिन लिये। मानो कोई सौदा किया ही न था ऐसा समझकर होनेवाले बहुत नफेको जाने दिया । वह अरब श्रीमद्जीको खुदाके समान मानने लगा । इसी प्रकारका एक दूसरा प्रसंग उनके करुणामय और निःस्पृही जीवनका ज्वलंत उदाहरण है । एक बार एक व्यापारीके साथ श्रीमद्जीने हीरोंका सौदा किया कि अमुक समयमें निश्चित किये हुए भावसे वह व्यापारी श्रीमद्जीको अमुक हीरे दे । उस विषयका दस्तावेज भी हो गया । परन्तु हुआ ऐसा कि मुद्दतके समय भाव बहुत बढ़ गये । श्रीमद्जी खुद उस व्यापारीके यहाँ जा पहुँचे और उसे चिन्तामग्न देखकर वह दस्तावेज फाड डाला और बोले- “भाई, इस चिठ्ठी ( दस्तावेज) के कारण तुम्हारे हाथ-पाँव बँधे हुए थे । बाजार भाव बढ जानेसे तुमसे मेरे साठ-सत्तर हजार रुपये लेने निकलते हैं, परन्तु मैं तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ। इतने अधिक रुपये मैं तुमसे ले लूँ तो तुम्हारी क्या दशा हो ? परन्तु राजचन्द्र दूध पी सकता है, खून नहीं ।" वह व्यापारी कृतज्ञभावसे श्रीमद्जीकी ओर स्तब्ध होकर देखता ही रह गया । २ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] भविष्यवक्ता, निमित्तज्ञानी श्रीमद्जीका ज्योतिष संबंधी ज्ञान भी प्रखर था। वे जन्मकुंडली, वर्षफल एवं अन्य चिह्न देख कर भविष्यकी सूचना कर देते थे । श्री जूठाभाई (एक मुमुक्षु) के मरणके बारेमें उन्होंने सवा दो मास पूर्व स्पष्ट बता दिया था। एक बार सं० १९५५ की चैत वदी ८ को मोरबीमें दोपहरके ४ बजे पूर्व दिशाके आकाशमें काले बादल देखे और उन्हें दुष्काल पडनेका निमित्त जानकर उन्होंने कहा- "ऋतुको सन्निपात हुआ है । " तदनुसार सं० १९५५ का चौमासा कोरा रहा और सं० १९५६ में भयंकर दुष्काल पडा । श्रीमद्जी दूसरेके मनकी बातको भी सरलतासे जान लेते थे । यह सब उनकी निर्मल आत्मशक्तिका प्रभाव था । कवि-लेखक श्रीमद्जीमें, अपने विचारोंकी अभिव्यक्ति पद्यरूपमें करनेकी सहज क्षमता थी। उन्होंने 'स्त्रीनीतिबोधक', 'सद्बोधशतक', 'आर्यप्रजानी पडती', 'हुन्नरकला वधारवा विषे' आदि अनेक कविताएँ केवल आठ वर्षकी वयमें लिखी थीं। नौ वर्षकी आयुमें उन्होंने रामायण और महाभारतकी भी पद्यरचना की थी जो प्राप्त न हो सकी। इसके अतिरिक्त जो उनका मूल विषय आत्मज्ञान था उसमें उनकी अनेक रचनाएँ हैं । प्रमुखरूपसे 'आत्मसिद्धि', 'अमूल्य तत्त्वविचार', 'भक्तिना वीस दोहरा', 'परमपदप्राप्तिनी भावना ( अपूर्व अवसर )', 'मूलमार्ग रहस्य', 'तृष्णानी विचित्रता' है । ' आत्मसिद्धि-शास्त्र' के १४२ दोहोंकी रचना तो श्रीमद्जीने मात्र डेढ घंटेमें नडियादमें आश्विन वदी १ (गुजराती) सं० १९५२ को २९ वर्षकी उम्रमें की थी। इसमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत छः पदोंका बहुत ही सुन्दर पक्षपातरहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है । इसके अंग्रेजीमें भी गद्य पद्यात्मक अनुवाद प्रगट हो चुके हैं। गद्य लेखनमें श्रीमद्जीने 'पुष्पमाला', 'भावनाबोध' और 'मोक्षमाला' की रचना की । इसमें 'मोक्षमाला' तो उनकी अत्यन्त प्रसिद्ध रचना है जिसे उन्होंने १६ वर्ष ५ मासकी आयुमें मात्र तीन दिनमें लिखी थी । इसमें १०८ शिक्षापाठ हैं। आज तो इतनी आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता जब कि श्रीमद्जीने एक पूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्वभवका अभ्यास ही इसमें कारण था । 'मोक्षमाला' के संबंधमें श्रीमद्जी लिखते हैं- “जैनधर्मको यथार्थ समझानेका उसमें प्रयास किया है । जिनोक्त मार्गसे कुछ भी नयूनाधिक उसमें नहीं कहा है । वीतराग मार्गमें आबालवृद्धकी रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसके बीजका हृदयमें रोपण हो, इस हेतुसे इसकी बालावबोधरूप योजना की है ' श्री कुन्दकुन्दाचार्यके 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थकी मूल गाथाओंका श्रीमद्जीने अविकल ( अक्षरशः ) गुजराती अनुवाद भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने श्री आनन्दघनजीकृत चौबीसीका अर्थ लिखना भी प्रारम्भ किया था, और उसमें प्रथम दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर वह अपूर्ण रह गया है । फिर भी इतने से, श्रीमद्जीकी विवेचन शैली कितनी मनोहर और तलस्पर्शी है उसका ख्याल आ जाता है । सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझने समझानेमें श्रीमद्जीकी निपुणता अजोड थी । मतमतान्तरके आग्रहसे दूर श्रीमद्जीकी दृष्टि बडी विशाल थी । वे रूढि या अन्धश्रद्धा के कट्टर विरोधी थे । वे मतमतान्तर और दाग्रहादिसे दूर रहते थे, वीतरागताकी ओर ही उनका लक्ष्य था । उन्होंने आत्मधर्मका ही उपदेश दिया । इसी कारण आज भी भिन्न-भिन्न सम्प्रदायवाले उनके वचनोंका रुचिपूर्वक अभ्यास करते हुए देखे जाते हैं । श्रीमद्जी लिखते हैं " मूलतत्त्वमें कहीं भी भेद नहीं है, मात्र दृष्टिका भेद है ऐसा मानकर आशय समझकर पवित्र धर्ममें प्रवृत्ति करना । " ( पुष्पमाला - १४ ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ ] " तू चाहे जिस धर्मको मानता हो इसका मुझे पक्षपात नहीं, मात्र कहनेका तात्पर्य यही कि जिस मार्गसे संसारमलका नाश हो उस भक्ति, उस धर्म और उस सदाचारका तू सेवन कर ।” (पुष्पमाला - १५) “दुनिया मतभेदके बन्धनसे तत्त्व नहीं पा सकी । " ( पत्रांक २७ ) “जहाँ तहाँसे रागद्वेषरहित होना ही मेरा धर्म है । मैं किसी गच्छमें नहीं हूँ, परन्तु आत्मामें हूँ यह मत भूलियेगा । " ( पत्रांक ३७ ) श्रीमद्जीने प्रीतम, अखा, छोटम, कबीर, सुन्दरदास, सहजानन्द, मुक्तानन्द, नरसिंह मेहता आदि सन्तोंकी वाणीको जहाँतहाँ आदर दिया है और उन्हें मार्गानुसारी जीव ( तत्त्वप्राप्तिके योग्य आत्मा) कहा है । फिर भी अनुभवपूर्वक उन्होंने जैनशासनकी उत्कृष्टताको स्वीकार किया है ‘“श्रीमत् वीतराग भगवन्तोंका निश्चितार्थ किया हुआ ऐसा अचिन्त्य चिन्तामणिस्वरूप, परमहितकारी, परम अद्भुत, सर्व दुःखका निःसंशय आत्यन्तिक क्षय करनेवाला, परम अमृतस्वरूप ऐसा सर्वोत्कृष्ट शाश्वत धर्म जयवन्त वर्तो, त्रिकाल जयवन्त वर्तो । उस श्रीमत् अनन्तचतुष्टयस्थित भगवानका और उस जयवन्त धर्मका आश्रय सदैव कर्तव्य है ।" (पत्रांक ८४३ ) परम वीतरागदशा श्रीमद्जीकी परम विदेही दशा थी । वे लिखते हैं " एक पुराणपुरुष और पुराणपुरुषकी प्रेमसम्पत्ति सिवाय हमें कुछ रुचिकर नहीं लगता, हमें किसी पदार्थमें रुचिमात्र रही नहीं है; हम देहधारी हैं या नहीं यह याद करते हैं तब मुश्केलीसे जान पाते है । ( पत्रांक २५५ ) "देह होते हुए भी मनुष्य पूर्ण वीतराग हो सकता है ऐसा हमारा निश्चल अनुभव है । क्योंकि हम भी अवश्य उसी स्थितिको पानेवाले हैं, ऐसा हमारा आत्मा अखण्डतासे कहता है और ऐसा ही है, जरूर ऐसा ही है । " ( पत्रांक ३३४) 44 मान लें कि चरमशरीरीपन इस कालमें नहीं है, तथापि अशरीरी भावसे आत्मस्थिति है तो वह भावनयसे चरमशरीरीपन नहीं, अपितु सिद्धत्व है; और यह अशरीरीभाव इस कालमें नहीं है ऐसा यहाँ कहें तो इस कालमें हम खुद नहीं है, ऐसा कहने तुल्य है । " ( पत्रांक ४११ ) अहमदाबादमें आगखानके बँगलेपर श्रीमद्जीने श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजी मुनिको बुलाकर अन्तिम सूचना देते हुए कहा था- "हमारेमें और वीतरागमें भेद न मानियेगा ।” एकान्तचर्या, परमनिवृत्तिरूप कामना मोहमयी (बम्बई) नगरीमें व्यापारिक काम करते हुए भी श्रीमद्जी ज्ञानाराधना तो करते ही रहते थे और पत्रों द्वारा मुमुक्षुओंकी शंकाओंका समाधान करते रहते थे; फिर भी बीचबीचमें पेढीसे विशेष अवकाश लेकर वे एकान्त स्थान, जंगल या पर्वतोंमें पहुँच जाते थे। मुख्यरूपसे वे खंभात, वडवा, काविठा, उत्तरसंडा, नडियाद, वसो, रालज और ईडरमें रहे थे । वे किसी भी स्थान पर बहुत गुप्तरूपसे जाते थे, फिर भी उनकी सुगन्धी छिप नहीं पाती थी । अनेक जिज्ञासु भ्रमर उनके सत्समागमका लाभ पानेके लिए पीछे-पीछे कहीं भी पहुँच ही जाते थे । ऐसे प्रसंगों पर हुए बोधका यत्किंचित् संग्रह 'श्रीमद् राजचन्द्र' ग्रन्थमें 'उपदेशछाया', 'उपदेशनोंध' और 'व्याख्यानसार' के नामसे प्रकाशित हुआ है । यद्यपि श्रीमद्जी गृहवास - व्यापारादिमें रहते हुए भी विदेहीवत् थे, फिर भी उनका अन्तरङ्ग सर्वसंगपरित्याग कर निर्ग्रन्थदशाके लिए छटपटा रहा था । एक पत्रमें वे लिखते हैं- “भरतजीको हिरन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २० ] संगसे जन्मकी वृद्धि हुई थी और इस कारणसे जडभरतके भवमें असंग रहे थे । ऐसे कारणोंसे मुझे भी असंगता बहुत ही याद आती है; और कितनी ही बार तो ऐसा हो जाता है कि उस असंगताके बिना परम दुःख होता है । यम अन्तकालमें प्राणीको दुःखदायक नहीं लगता होगा, परन्तु हमें संग दुःखदायक लगता है।''(पत्रांक २१७) फिर हाथनोंधमें वे लिखते हैं-“सर्वसंग महास्रवरूप श्री तीर्थंकरने कहा है सो सत्य है। ऐसी मिश्रगुणस्थानक जैसी स्थिति कहाँ तक रखनी ? जो बात चित्तमें नहीं सो करनी; और जो चित्तमें हैं उसमें उदास रहना ऐसा व्यवहार किस प्रकारसे हो सकता है ? वैश्यवेषमें और निर्ग्रन्थभावसे रहते हुए कोटिकोटि विचार हुआ करते हैं ।" (हाथनोंध १-३८) “आकिंचन्यतासे विचरते हुए एकान्त मौनसे जिनसदृश ध्यानसे तन्मयात्मस्वरूप ऐसा कब होऊँगा ?" (हाथनोंध १-८७) __ संवत् १९५६ में अहमदाबादमें श्रीमद्जीने श्री देवकरणजी मुनिसे कहा था- “हमने सभामें स्त्री और लक्ष्मी दोनोंका त्याग किया है, और सर्वसंगपरित्यागकी आज्ञा माताजी देंगी ऐसा लगता है।" और तदनुसार उन्होंने सर्वसंगपरित्यागरूप दीक्षा धारण करनेकी अपनी माताजीसे अनुज्ञा भी ले ली थी। परन्तु उनका शारीरिक स्वास्थ्य दिन पर दिन बिगडता गया । ऐसे ही अवसर पर किसीने उनसे पूछा- “आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया-"हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और आत्मा । हमारा पानी आत्मारूपी बगीचेमें जाता है, इससे शरीररूपी बगीचा सूख रहा है ।" अनेक उपचार करने पर भी स्वास्थ्य ठीक नहीं हुआ । अन्तिम दिनोंमें एक पत्रमें लिखते हैं- “अत्यन्त त्वरासे प्रवास पूरा करना था, वहाँ बीचमें सहराका मरुस्थल आ गया । सिर पर बहुत बोझ था उसे आत्मवीर्यसे जिस प्रकार अल्पकालमें सहन कर लिया जाय उस प्रकार प्रयत्न करते हुए, पैरोंने निकाचित उदयरूप थकान ग्रहण की । जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है ।" (पत्रांक ९५१) अन्त समय स्थिति और भी गिरती गई । शरीरका वजन १३२ पौंडसे घटकर मात्र ४३ पौंड रह गया । शायद उनका अधिक जीवन कालको पसन्द नहीं था । देहत्यागके पहले दिन शामको अपने छोटे भाई मनसुखलाल आदिसे कहा- “तुम निश्चिन्त रहना । यह आत्मा शाश्वत है । अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होनेवाला है। तुम शान्ति और समाधिपूर्वक रहना । जो रत्नमय ज्ञानवाणी इस देहके द्वारा कही जा सकनेवाली थी उसे कहनेका समय नहीं है। तुम पुरुषार्थ करना ।” रात्रिको ढाई बजे वे फिर बोले-"निश्चिंत रहना, भाईका समाधिमरण है।" अवसानके दिन प्रातः पौने नौ बजे कहा-"मनसुख, दु:खी न होना । मैं अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता है ।" फिर वे नहीं बोले । इस प्रकार पाँच घंटे तक समाधिमें रहकर संवत् १९५७ की चैत्र वदी ५ (गुजराती) मंगलवारको दोपहरके दो बजे राजकोटमें इस नश्वर शरीरका त्याग करके उत्तम गतिको प्राप्त हुए। भारतभूमि एक अनुपम तत्त्वज्ञानी सन्तको खो बैठी। उनके देहावसानके समाचारसे मुमुक्षुओंमें अत्यन्त शोकके बादल छा गये । जिन जिन पुरुषोंको जितने प्रमाणमें उन महात्माकी पहचान हुई थी उतने प्रमाणमें उनका वियोग उन्हें अनुभूत हुआ था। उनकी स्मृतिमें शास्त्रमालाकी स्थापना वि० सं० १९५६ के भादों मासमें परम सत्श्रुतके प्रचार हेतु बम्बईमें श्रीमद्जीने परमश्रुतप्रभावकमण्डलकी स्थापना की थी । श्रीमद्जीके देहोत्सर्गके बाद उनकी स्मृतिस्वरूप 'श्री रायचन्द्रजैनग्रन्थमाला' की स्थापना की गई जिसके अन्तर्गत दोनों सम्प्रदायोंके अनेक सद्ग्रन्थोंका प्रकाशन हुआ है जो तत्त्वविचारकोंके लिए इस दुषमकालको बितानेमें परम उपयोगी और अनन्य आधाररूप है । महात्मा गाँधीजी इस संस्थाके ट्रस्टी और श्री रेवाशंकर जगजीवनदास मुख्य कार्यकर्ता थे। श्री रेवाशंकरके देहोत्सर्ग बाद संस्थामें कुछ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१] शिथिलता आ गई परन्तु अब उस संस्थाका काम श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके ट्रस्टियोंने सम्भाल लिया है और सुचारुरूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहा है । श्रीमद्जीके स्मारक श्रीमद्जीके अनन्य भक्त आत्मनिष्ठ श्री लघुराजस्वामी (श्री लल्लजी मुनि) की प्रेरणासे श्रीमद्जीके स्मारकके रूपमें और भक्तिधामके रूपमें वि० सं० १९७६ की कार्तिकी पूर्णिमाको अगास स्टेशनके पास 'श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम' की स्थापना हुई थी। श्री लघुराज स्वामीके चौदह चातुर्मासोंसे पावन हआ यह आश्रम आज बढ़ते बढते गोकुल सा गाँव बन गया है । श्री स्वामीजी द्वारा योजित सत्संगभक्तिका क्रम आज भी यहाँ पर उनकी आज्ञानुसार चल रहा है। धार्मिक जीवनका परिचय करानेवाला यह उत्तम तीर्थ बन गया है । संक्षेपमें यह तपोवनका नमूना है । श्रीमद्जीके तत्त्वज्ञानपूर्ण साहित्यका भी मुख्यतः यहींसे प्रकाशन होता है। इस प्रकार यह श्रीमद्जीका मुख्य जीवंत स्मारक है। इसके अतिरिक्त वर्तमानमें निम्नलिखित स्थानोंपर श्रीमद् राजचन्द्र मंदिर आदि संस्थाएँ स्थापित है जहाँ पर मुमुक्षु-बन्धु मिलकर आत्मकल्याणार्थ वीतराग-तत्त्वज्ञानका लाभ उठाते हैं-ववाणिया, राजकोट, मोरबी, सायला, वडवा, खंभात, काविठा, सीमरडा, वडाली, भादरण, नार, सुणाव, नरोडा, सडोदरा, धामण, अहमदाबाद, ईडर, सुरेन्द्रनगर, वसो, वटामण, उत्तरसंडा, बोरसद, बम्बई (घाटकोपर एवं चौपाटी), देवलाली, बैंगलोर, मैसूर, हुबली, मद्रास, यवतमाल, इन्दोर, आहोर, गढ सिवाणा, मोम्बासा (आफ्रिका) इत्यादि । अन्तिम प्रशस्ति आज उनका पार्थिव देह हमारे बीच नहीं है मगर उनका अक्षरदेह तो सदाके लिये अमर है । उनके मूल पत्रों तथा लेखोंका संग्रह गुर्जरभाषामें ‘श्रीमद् राजचंद्र' ग्रन्थमें प्रकाशित हो चुका है (जिसका हिन्दी अनुवाद भी प्रगट हो चुका है)। वही मुमुक्षुओंके लिए मार्गदर्शक और अवलम्बनरूप है। एक एक पत्रमें कोई अपूर्व रहस्य भरा हुआ है । उसका मर्म समझनेके लिये संतसमागमकी विशेष आवश्यकता है। इन पत्रोंमें श्रीमद्जीका पारमार्थिक जीवन जहाँ तहाँ दृष्टिगोचर होता है । इसके अलावा उनके जीवनके अनेक प्रेरक प्रसंग जानने योग्य है, जिसका विशद् वर्णन श्रीमद् राजचंद्र आश्रम प्रकाशित 'श्रीमद् राजचंद्र जीवनकला' में किया हुआ है (जिसका हिंदी अनुवाद भी प्रकट हो चुका है ) । यहाँ पर तो स्थानाभावसे उस महान् विभूतिके जीवनका विहंगावलोकनमात्र किया गया है। श्रीमद् लघुराजस्वामी (श्री प्रभुश्रीजी) “श्री सद्गुरुप्रसाद' ग्रन्थकी प्रस्तावनामें श्रीमद्जीके प्रति अपना हृदयोद्गार इन शब्दोंमें प्रकट करते हैं-"अपरमार्थमें परमार्थक दृढ आग्रहरूप अनेक सूक्ष्म भूलभूलैयाँके प्रसंग दिखाकर, इस दासके दोष दूर करने में इन आप्त पुरुषका परम सत्संग और उत्तम बोध प्रबल उपकारक बने हैं । संजीवनी औषध समान मृतको जीवित करें, ऐसे उनके प्रबल पुरुषार्थ जागृत करनेवाले वचनोंका माहात्म्य विशेष विशेष भास्यमान होनेके साथ ठेठ मोक्षमें ले जाय ऐसी सम्यक् समझ (दर्शन) उस पुरुष और उसके बोधकी प्रतीतिसे प्राप्त होती है; वे इस दुषम कलिकालमें आश्चर्यकारी अवलम्बन है। परम माहात्म्यवंत सद्गुरु श्रीमद राजचंद्रदेवके वचनोंमें तल्लीनता. श्रद्धा जिसे प्राप्त हुई है या होगी उसका महद् भाग्य है । वह भव्य जीव अल्पकालमें मोक्ष पाने योग्य है।" ऐसे महात्माको हमारे अगणित वन्दन हों ! Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] अथ बृहद्रव्यसंग्रहस्य विषयसूची विषय वि. सं. १ टीकाकारका मंगलाचरण २ उपोद्घात ३ तीन अधिकारोंका वर्णन ४ प्रथम अधिकारके तीन अंतराधिकार ५ प्रथम अधिकारकी समुदायपातनिका प्रथम अधिकारका प्रथम अन्तराधिकार ६ मंगलाचरण ७ संबंध, अभिधेय और प्रयोजनका सूचन ८ जीव आदि नौ अधिकारोंका सूचन ९ जीवकी सिद्धिका व्याख्यान १० चार प्रकारके दर्शनोपयोगका वर्णन ११ आठ प्रकारके ज्ञानोपयोगका वर्णन १२ नयोंके विभागसे ज्ञान तथा दर्शनोपयोगका वर्णन १३ जीवकी अमूर्तताका वर्णन १४ जीवके कर्त्तापनका वर्णन १५ जीवके भोक्तापनका वर्णन १६ 'जीव निजशरीरके प्रमाण है' यह वर्णन सस्थावरपनेको पाता है' १७ 'जीव कर्मवश यह वर्णन १८ चौदह जीवसमासोंका वर्णन १९ चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणास्थानोंका वर्णन २० सिद्धजीवका स्वरूप और जीवके ऊर्ध्वगतिस्वभावका वर्णन प्रथम अधिकारका द्वितीय अन्तराधिकार पृष्ठ १ १ २ २ ३ ४ ६ ७ ९ ११ १२ १४ १५ १७ १८ १९ २२ २४ २५ ३३ २१ अजीव द्रव्यका वर्णन ३९ २२ पुद्गल द्रव्यके विभावव्यंजन पर्यायों का वर्णन ४० २३ धर्मद्रव्यका वर्णन ४३ वि. सं. २४ अधर्मद्रव्यका वर्णन २५ आकाशद्रव्यका वर्णन २६ लोकाकाशका वर्णन विषय २७ कालद्रव्यका वर्णन २८ निश्चयकालद्रव्यका वर्णन प्रथम अधिकारका तृतीय अन्तराधिकार २९ पंचास्तिकायका वर्णन ३० अस्तित्व और कायत्वका वर्णन ३१ छहों द्रव्योंके प्रदेशोंका वर्णन अथवा कालके अकायत्वका वर्णन ५५ ३२ 'पुद्गल परमाणु के उपचारसे कायत्व है' यह कथन ३३ प्रदेशका लक्षण प्रथमाधिकारकी चूलिका ३४ षद्रव्यों का विशेष वर्णन 'परिणामिजीवमुत्तं ' गाथा १ 'दुण्णिय एयं एवं' गाथा २ द्वितीय अधिकार पृष्ठ ४३ ४४ ४५ ४७ ४९ ५३ ५३ ५६ ५८ ६० ६० ६० ३५ 'सप्ततत्त्व और नव पदार्थोंकी सिद्धि कैसे होती है ?" यह वर्णन ३६ 'किस पदार्थका कौन कर्त्ता है ?' यह वर्णन ३७ जीव अजीवके भेदरूप आस्रवादि पदार्थोंका कथन ६८ ३८ भावास्रव और द्रव्यास्रवके स्वरूपका कथन ६९ ३९ भावास्रवका विशेष वर्णन ७० ४० द्रव्यात्रवका विशेष वर्णन ७१ ७२ ४१ भावबंध और द्रव्यबंधक स्वरूपका कथन ४२ बंधके भेद और कारणोंका वर्णन ७३ ४३ भावसंवर और द्रव्यसंवर के स्वरूपका कथन ७६ ६४ ६६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १३३ १३४ १३७ m m १३९ [ २३ ] वि. सं. विषय पृष्ठ । वि. सं. विषय ४४ संवरके विषयमें नयविभाग ७० आठ मदोंका वर्णन ४५ भावसंवरके भेदोंका वर्णन ७१ छः अनायतनोंका वर्णन ४६ अनित्यभावनाका वर्णन ७२ निःशंक गुणका वर्णन ४७ अशरणभावनाका वर्णन ७३ निष्कांक्षित गुणका वर्णन १३५ ४८ संसारभावनाका वर्णन ७४ निविचिकित्सा गुणका वर्णन ४९ एकत्वभावनाका कथन ७५ अमूढदृष्टि गुणका वर्णन ५० अन्यत्वभावना का निरूपण ७६ उपमूहन गुणका कथन १३८ ५१ अशुचित्वभावनाका वर्णन ७७ स्थितीकरण गुणका निरूपण १३८ ५२ आस्रवभावनाका वर्णन ७८ वात्सल्यगुणका वर्णन ५३ संवरभावनाका वर्णन ७९ प्रभावनागुणका वर्णन १४० ५४ निर्जराभावनाका वर्णन ८० 'अव्रती सम्यग्दृष्टियोंका भी नरक आदि ५५ लोकभावनाका निरूपण बुरे स्थानों में जन्म नहीं होता है' यह वर्णन १४१ अधोलोकका वर्णन ८१ सम्यग्ज्ञानके स्वरूपका वर्णन १४२ तिर्यग्लोक (मध्यलोक)का वर्णन ८२ व्यवहारसम्यग्ज्ञानके भेदोंका वर्णन १४३ मनुष्यलोक (ढाईद्वीप) का वर्णन ८३ चार अनुयोगोंका वर्णन १४४ ज्योतिर्लोकका कथन ८४ निश्चयसम्यग्ज्ञानका वर्णन १४४ ऊर्ध्वलोकका वर्णन ८५ निर्विकल्पदर्शनका वर्णन ५६ बोधि दुर्लभभाव नाका वर्णन ११३ ८६ 'छद्मस्थोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है और ५७ धर्मभावनाका वर्णन ११४ केवलियोंके दर्शन व ज्ञान दोनों एक समय में ५८ वाईस परीपहोंके जीतनेका वर्णन ११५ होते हैं' यह वर्णन १४७ ५९ चारित्रका वर्णन ११६ ८७ तर्कके अभिप्रायसे दर्शनोपयोगका वर्णन १४८ ६० भावनिर्जरा और द्रव्यनिर्जराका कथन ८८ सिद्धान्तके अभिप्रायसे दर्शनका वर्णन १४९ ६१ भावमोक्ष और द्रव्य मोक्षका वर्णन १२१ ८९ व्यवहारचारित्रका वर्णन ६२ सिद्धोंके सुखका वर्णन १२२ ९० निश्चयचारित्रका वर्णन ६३ पुण्यपापका स्वरूप और पुण्य तथा पाप तृतीय अधिकारका द्वितीय प्रकृतियोंके नामोंका वर्णन १२४ अन्तराधिकार तृतीय अधिकारका प्रथम ९१ ध्यानके अभ्यासका उपदेश १५७ अन्तराधिकार ९२ ध्यान करनेवाले पुरुपका लक्षण ६४ तृतीय अधिकारको समुदायपातनिका १२८ ९३ आर्तध्यानका वर्णन १५८ ६५ व्यवहारमोक्षमार्ग और निश्चयमोक्षमार्गका ९४ रौद्रध्यानका वर्णन १५९ कथन १२८ | ९५ धर्मध्यानका वर्णन १५९ ६६ प्रकारान्तरसे निश्चयमोक्षमार्गका कथन १२९ ९६ शुक्लध्यानका वर्णन ६७ सम्यक्त्वका वर्णन ९७ ध्यानको रोकनेवाले रागादिका वर्णन ६८ सम्यक्त्व के माहात्म्यका कथन १३१ | ९८ पदस्थध्यानका वर्णन १६३ ६९ तीन मूढताओंका वर्णन ९९ अर्हत्परमेष्ठीके स्वरूपका वर्णन ११९ १५३ १५७ १६० Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि. सं. १०० सर्वज्ञकी सिद्धि १०१ सिद्धपरमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन १०२ आचार्यपरमेष्ठीके स्वरूपका कथन १०३ उपाध्याय परमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन १०४ साधुपरमेष्ठी के स्वरूपका वर्णन १०५ निश्चयध्यानके स्वरूपका वर्णन १०६ 'मनवचनकायकी प्रवृत्तिको रोककर जां निज आत्मामें स्थिर होना है वही परमध्यान है' यह वर्णन विषय [ २४ ] पृष्ठ १६६ १७० १७१ १७३ १७३ १७५ १७६ १७९ १०७ 'ध्यानकी सिद्धिके लिये तप श्रुत और व्रत इन तीनों में तत्पर हो' यह वर्णन १०८ 'व्यानके कारण तप, श्रुत और व्रत कैसे होते हैं ?" इस शंकाका समाधान परिशिष्ट १ - बृहद्रव्यसंग्रह (मूल गाथाएँ) परिशिष्ट २ - लघुद्रव्य संग्रह (सार्थ) १८० वि. सं. विषय १०९ ' इस समय ध्यान नहीं है' इस शंकाका समाधान ११० ' इस समय मोक्ष नहीं है फिर ध्यानसे क्या प्रयोजन है ?" इस शंकाका समाधान १११ पुनः मोक्ष के विषय में नयोंका विचार ११२ 'आत्मा' शब्दका अर्थ ११३ शास्त्रकारकी प्रार्थना उपसंहार ११४ टीकाकारकी प्रार्थना ११५ तीनों अधिकारोंके नाम और ग्रन्थकी समाप्ति पृष्ठ १९० पृष्ठ १९३ पृष्ठ १८२ १८३ १८५ १८६ १८७ १८८ १८९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्रराजचंद्रजैनशास्त्रमाला श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचितः बृहद्रव्यसंग्रहः (संस्कृतटीकया हिन्दीभाषाटीकया च सहितः) श्रीब्रह्मदेवकृत-संस्कृतटीका। प्रणम्य परमात्मानं सिद्धं त्रैलोक्यवन्दितम् । स्वाभाविकचिदानन्दस्वरूपं निर्मलाव्ययम् ।। १ ।। शुद्धजीवादिद्रव्याणां देशकं च जिनेश्वरम् ।। द्रव्य सङ्ग्रहसूत्राणां वृत्तिं वक्ष्ये समासतः ।। २ ।। (युग्मम् ) अथ मालवदेशे धारानामनगराधिपतिराजभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्तिसम्बन्धिनः श्रीपालमण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थकरचैत्यालये शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादविपरीतनारकादिदुःखभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्नसुखसुधारसपि पं० जवाहरलालशास्त्रीकृत-भाषाटीका । श्रीवीरं जिनमानम्य जीवाजीवावबोधकम् ।। द्रव्यसङ्ग्रहग्रन्थस्य देशभाषां करोम्यहम् ॥ १॥ भाषार्थः-सिद्ध, त्रैलोक्यसे वंदित, स्वभावसे उत्पन्न जो ज्ञान और सुख है उस स्वरूप, कर्ममलसे रहित तथा अविनाशी ऐसे परमात्माको ( सिद्ध परमेष्ठीको ), और शुद्धजीव आदि षद्रव्योंका उपदेश देनेवाले श्रीजिनेन्द्र भगवानको प्रणाम करके मैं ( ब्रह्मदेव ) द्रव्यसंग्रहनामक शास्त्रके सूत्रोंको वृत्ति ( टीका ) को संक्षेपसे कहूँगा ॥ १। २ ॥ अब मैं ( श्रीब्रह्मदेव ) मालवा नामक देशमें धारा नामक नगरके स्वामी राजा भोजदेव नामक कलिकालचक्रवर्ती सम्बन्धी जो श्रीपाल मण्डलेश्वर थे, उनसम्बन्धी आश्रम नाम नगरमें श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकरके चैत्यालयमें शुद्ध ऐसा जो आत्मारूप द्रव्य है, उसके ज्ञानसे उत्पन्न ऐसा जो सुखरूपी अमृतरस, उसके आस्वादसे विपरीत ऐसे जो नरकगति आदि सम्बन्धी दुःख हैं, उनके Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [टीकाकारका मंगलाचरण पासितस्य भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराधनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवैः पूर्व षड्विंशतिगाथाभिलघुद्रव्यसंग्रह कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्य बृहद्रव्यसंग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्तिः प्रारभ्यते । तत्रादौ "जीवमजीवं दवं" इत्यादिसप्तविंशतिगाथापर्यन्तं षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोऽधिकारः । तदनन्तरं "आसवबंधण" इत्याद्येकादशगाथापर्यन्तं सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादनमुख्यतया द्वितीयो महाधिकारः। ततः परं "सम्मदंसणणाणं" इत्यादिविंशतिगाथापर्यन्तं मोक्षमार्गकथनमुख्यत्वेन तृतीयोऽधिकारश्च । इत्यष्टाधिकपञ्चाशद्गाथाभिरधिकारत्रयं ज्ञातव्यम् ॥ तत्राप्यादौ प्रथमाधिकारे चतुर्दशगाथापर्यन्तं जीवद्रव्यव्याख्यानम् । ततः परं "अज्जीवो पुण णेओ" इत्यादिगाथाष्टकपर्यन्तमजीवद्रव्यकथनम् । ततःपरं एवं छन्भेयमिदं" एवं सूत्रपञ्चकपर्यन्तं पञ्चास्तिकायविवरणम् । इति प्रथमाधिकारमध्येऽन्तराधिकारत्रयमवबोद्धव्यम् ॥ तत्रापि भयसे डरा हुआ, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न सुखरूपी अमृतरसका पान करनेकी ( पीनेकी) इच्छा रखनेवाला, भेद अभेद रत्नत्रय अर्थात् व्यवहार और निश्चय इन दो भेदोंका धारक जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय है उसकी भावना है प्यारी जिसके, भव्यजनशिरोमणी तथा भांडागार ( खजाना ) आदि अनेक नियोगोंका ( कामोंका ) स्वामी ऐसा जो श्रीसोमनामक राजश्रेष्ठी ( राजाका शेठ ) था उसके निमित्त श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवने पहिले छब्बीस गाथासूत्रोंसे लघुद्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थ रचकर तत्पश्चात् विशेष तत्त्वोंके जाननेके लिये जो बृहद्रव्यसंग्रह नामक शास्त्र निर्मित किया उस बृहद्रव्यसंग्रह ग्रंथकी अधिकारशुद्धिपूर्वकतासे अर्थात् पहिले अधिकारोंकी छाँट करके तत्पश्चात् वृत्तिको अर्थात् व्याख्या (विशेषवर्णन) को प्रारम्भ करता हूँ। उस बहद्रव्यसंग्रह नामक शास्त्रमें प्रथम ही "जीवमजीवं दव्वं" इस गाथाको आदिमें लेकर "जावदियं आयासं' इस सत्ताईसवों गाथापर्यन्त जीव १, पुद्गल २, धर्म ३, अधर्म ४, आकाश ५. और काल ६. इन छहों द्रव्योंका तथा जीव १. पुद्गल २, धर्म ३, अधमं ४, और आकाश ५, इन पाँचों अस्तिकायोंका निरूपण करनेवाला षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादक नामा प्रथम अधिकार है। इसके पश्चात "आसवबंधणसंवर" इस गाथाको आदिमें लेकर "सुहअसुहभावजुत्ता" इस अड़तीसवीं गाथापर्यन्त जीव १, अजीव २, आस्रव ३, बंध ४, संवर ५, निज्जरा ६, और मोक्ष ७, इन सातों तत्त्वोंका और जीव १, अजीव २, आस्रव ३, वंध ४, संवर ५, निजरा ६, मोक्ष ७, पूण्य ८, और पाप ९, इन नवों पदार्थोंका मुख्यतासे कथन करनेवाला सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादक नामा द्वितीय महाअधिकार है। इसके अनन्तर "सम्मइंसणणाणं" इस गाथासूत्रको आदिमें लेकर बीस गाथाओंपर्यन्त मुख्यतासे मोक्षमार्गका कथन करनेवाला मोक्षमार्गप्रतिपादक नामा तृतीय अधिकार है। इस प्रकार अट्ठावन गाथाओंसे तीन अधिकार जानने चाहिये। उन तीनों अधिकारोंमें भी आदिका जो प्रथम अधिकार है उसमें चौदह गाथाओंपर्यन्त जीवद्रव्यका व्याख्यान करनेवाला जीवद्रव्यप्रतिपादक नामा प्रथम अन्तराधिकार है, इसके अनन्तर 'अज्जीवो पुण ओ" इस गाथाको आदिमें लेकर “णिकम्मा अट्टगणा" इस गाथापर्यन्त आठ गाथाओंसे अजीवद्रव्यका वर्णन करनेवाला अजीवद्रव्यप्रतिपादक नामा द्वितीय १. प्रथम और द्वितीय अधिकारके मध्यमें “परिणामिजीवमुत्तं" इत्यादि दो गाथाओंसे प्रथम अधिकारकी चूलिका भी है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात ] बृहद्रव्यसंग्रहः www.www.wwwxx चतुर्दशगाथासु मध्ये नमस्कारमुख्यत्वेन प्रथमगाथा। जीवादिनवाधिकारसूचनरूपेण “जीवो उवओगमओ" इत्यादिद्वितीयसूत्रगाथा। तदनन्तरं नवाधिकारविवरणरूपेण द्वादशसूत्राणि भवन्ति । तत्राप्यादौ जीवसिद्धयर्थं "तिक्काले चदुपाणा" इतिप्रभृतिसूत्रमेकम्, तदनन्तरं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयकथनार्थ “उवओगो दुवियप्पो" इत्यादिगाथात्रयम्, ततः परममूर्तत्वकथनेन “वण्णरसपंच" इत्यादिसूत्रमेकम्, ततोऽपि कर्मकर्तृत्वप्रतिपादनरूपेण “पुग्गलकम्मादीणं" इतिप्रभृतिसूत्रमेकम्, तदनन्तरं भोक्तृत्वनिरूपणार्थ 'ववहारा सुहदुक्खं" इत्यादिसूत्रमेकम्, ततःपरं स्वदेहप्रमितिसिद्धयर्थं ''अणुगुरुदेहपमाणो' इतिप्रभृतिसूत्रमेकम्, ततोऽपि संसारिजीवस्वरूपकथनेन "पुढविजलतेउवाऊ" इत्यादिगाथात्रयम्, तदनन्तरं “णिक्कम्मा अढगुणा” इतिप्रभृतिगाथापूर्वार्धन सिद्धस्वरूपकथनम्, उत्तरार्धेन पुनरूर्ध्वगतिस्वभावः। इति नमस्कारादिचतुर्दशगाथामेलापकेन प्रथमाऽधिकारे समुदायपातनिका ॥ अन्तराधिकार है। तत्पश्चात् “एवं छन्भेयमिदं" इसको आदिमें लेकर "जावदियं आयासं" इस गाथापर्यन्त पाँच सूत्रोंसे पाँचों अस्तिकायोंका निरूपण करनेवाला पञ्चास्तिकायप्रतिपादक नामा तृतीय अन्तराधिकार है। इस प्रकार प्रथम अधिकारमें तीन अन्तराधिकार समझने चाहिये। अब प्रथम अधिकारके प्रथम अन्तराधिकारमें जो चौदह गाथाएँ हैं उनमें नमस्कारको मुख्यतासे प्रथम गाथा है। जीव आदि नव अधिकारोंके सूचनरूपसे "जीवो उवओगमओ" इत्यादि रूप द्वितीय सूत्रगाथा है। इसके अनन्तर नौ अधिकारोंका विशेषरूपसे वर्णन करनेवाले बारह सूत्र हैं । उन बारह सूत्रोंमें भी प्रथम ही जीवकी सिद्धिके लिये “तिक्काले चदुपाणा" इत्यादि एक सूत्र है। इसके पश्चात् ज्ञान और दर्शन इन दोनों उपयोगोंका कथन करनेके लिये "उवओगो दुवियप्पो" इत्यादि तीन गाथासूत्र हैं। इसके अनन्तर अमूर्तताका कथन करनेरूपसे "वण्णरसपंचगंधा" इत्यादि एक गाथासूत्र है। तत्पश्चात् जीवके कर्मकर्तृताका प्रतिपादन करनेरूपसे 'पुग्गलकम्मादीणं" इत्यादि एक गाथासूत्र है। इसके अनन्तर जीवके कर्मफलोंका भोक्तापनेका कथन करनेके लिये “अणुगुरुदेहपमाणो" इत्यादि एक गाथासूत्र है। और इसके अनन्तर संसारी जीवके स्वरूपका कथन करनेरूपसे "पुढ विजलतेउवाऊ" इत्यादि तीन गाथासूत्र हैं। इसके पश्चात् "णिक्कम्मा अट्ठगुणा'' इत्यादि गाथाके पूर्वार्धसे जीवके सिद्धस्वरूपका कथन किया गया है; और उत्तरार्द्धसे जीवके ऊर्ध्वगमन स्वभावका वर्णन किया गया है । इस प्रकार नमस्कारगाथाको आदि लेकर जो चौदह गाथासूत्र हैं, उनका मेल करनेसे प्रथम अधिकारमें समुदायपातनिका है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) प्रथमोऽधिकारः अथेदानीं गाथापूर्वार्द्धन सम्बन्धाऽभिधेयप्रयोजनानि कथयाम्युत्तरार्द्धेन च मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारं करोमीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति, - जीवमजीवं दव्वं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिनं । देविंदबिंदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥ १ ॥ जीवमजीवं द्रव्यं जिनवरवृषभेण येन निर्दिष्टम् । देवेन्द्रवृन्दवन्द्य ं वन्दे तं सर्वदा शिरसा ॥ १ ॥ व्याख्या- 'वंदे' इत्यादिक्रियाकारकसम्बन्धेन पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । 'वंदे' एकदेश शुद्ध निश्चयनयेन स्वशुद्धात्माराधनलक्षणभावस्तवनेन, असद्भूतव्यवहारनयेन तत्प्रतिपादकवचनरूपद्रव्यस्तवनेन च 'वन्दे' नमस्करोमि । परमशुद्ध निश्चयनयेन पुनर्वन्धवन्दकभावो नास्ति । सकः कर्त्ता ? अहं नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवः । कथं वन्दे ? " सव्वदा " सर्वकालम् । केन ? " सिरसा " उत्तमाङ्गेन । "तं" कर्म्मतापन्नं वीतरागसर्वज्ञम् । तं किविशिष्टम् ? 'देविदविदवंदं' मोक्षपदा अब गाथा पूर्वार्धसे सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजनका कथन करता हूँ, और गाथाके उत्तरार्द्धसे मंगलके लिये इष्टदेवताको नमस्कार करता हूँ, इस अभिप्रायको मनमें धारण करके भगवान् श्रीनेमिचन्द्रस्वामी इसका प्रथम सूत्रका प्रतिपादन करते हैं; -- गाथा भावार्थ - मैं ( श्रीनेमिचन्द्र ) जिस जिनवरोंमें प्रधानने जीव और अजीव द्रव्यका कथन किया, उस देवेन्द्रादिकों के समूहसे वंदित तीर्थंकर परमदेवको सदा मस्तकसे नमस्कार करता हूँ ।। १ ।। व्याख्यार्थ - 'वदे' इत्यादि पदोंका क्रियाकारकभावसम्बन्धसे पदखंडनारूपसे अर्थात् खंडान्वयकी रीतिद्वारा व्याख्यान किया जाता है । "वंदे" एकदेशमें शुद्ध ऐसा जो निश्चयनय है, उसकी अपेक्षासे तो निज-शुद्ध आत्माका आराधन करनेवाले भावस्तवनसे और असद्भूतव्यवहार tant अपेक्षा से उस निज-शुद्ध-आत्माका प्रतिपादन करनेवाले वचनरूप द्रव्यस्तवन से नमस्कार करता हूँ। और परमशुद्ध निश्चयनयसे वन्द्यवन्दक भाव नहीं है, अर्थात् एकदेशशुद्ध निश्चयनय और असद्भूतव्यवहारनयकी अपेक्षासे हो श्रीजिनेन्द्र वन्दना करनेयोग्य हैं और मैं वन्दना करनेवाला हूँ। और परमशुद्ध निश्चयनयको अपेक्षासे वन्द्यवन्दक भाव नहीं है । क्योंकि श्री जिनेन्द्र और मैं इन दोनों का आत्मा समान ही है । वह नमस्कार करनेवाला कौन है ? मैं द्रव्यसंग्रहग्रन्थका कर्त्ता श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव हूँ । कब और कैसे नमस्कार करता हूँ ? " सव्वदा " सब काल में "सिरसा " उत्तम अंग जो मस्तक है उससे नमस्कार करता हूँ। किसको नमस्कार करता हूँ ? "तं" वन्दन क्रिया कर्म को प्राप्त हुए श्रीवीतरागसर्वज्ञको ( श्रीजिनेन्द्रको ) | कैसे श्रीजिनेन्द्रको ? "देविदविद Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः परम भिलाषि देवेन्द्रादिवन्द्यम्, “भवणालयचालीसा वितरदेवाण होंति बत्तीसा । कप्पामरचउवीसा चंदो सूरो णरो तिरिओ ॥ १ ॥” इति गाथाकथितलक्षणेन्द्राणां शतेन वन्दितं देवेन्द्रवृन्दवन्द्यम् । “जेण” येन भगवता | कि कृतं ? " णिद्दिट्ठ" निर्दिष्टं कथितं प्रतिपादितम् । किं ? "जीवमजीवं दव्वं" जीवाजीवद्रव्यद्वयम् । तद्यथा, - सहजशुद्ध चैतन्यादिलक्षणं जीवद्रव्यं तद्विलक्षणं पुद्गलादिपञ्चभेदमजीवद्रव्यं च, तथैव चिचमत्कारलक्षणशुद्ध जीवास्तिकायादिपञ्चास्तिकायानां, चिज्ज्योतिःस्वरूप शुद्ध जीवादिसप्ततत्त्वानां निर्दोषपरमात्मादिनवपदार्थानां च स्वरूपमुपदिष्टम् । पुनरपि कथम्भूतेन भगवता ? "जिणवरवसहेण" जितमिथ्यात्वरागादित्वेन एकदेशजिना: असंयतसम्यग्दृष्ट्यादयस्तेषां वराः गणधर देवास्तेषां जिनवराणां वृषभः प्रधानो जिनवर वृषभस्तीर्थकर परमदेवस्तेन जिनवरवृषभेणेति । अत्राध्यात्मशास्त्रे यद्यपि सिद्धपरमेष्ठिनमस्कार उचितस्तथापि व्यवहारनयमाश्रित्य प्रत्युपकारस्मरणार्थमर्हत्परमेष्ठिनमस्कार एव कृतः । तथा चोक्तं - " श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ॥ १ ॥' अत्र गाथापरार्द्धन - "नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नः शास्त्रादौ तेन संस्तुतिः ॥ २ ॥” इति श्लोककथितफलचतुष्टयं समीक्षमाणा ग्रन्थकाराः शास्त्रादौ त्रिधा देवतायै वंद" मोक्षपदको चाहनेवाले जो देवेन्द्रादि हैं उनसे वन्दितको अर्थात् " भवनवासियोंके ४० इन्द्र, व्यन्तरदेवोंके ३२ इन्द्र, कल्पवासीदेवोंके २४ इन्द्र, ज्योतिष्कदेवोंके चन्द्र और सूर्य ये २ इन्द्र, मनुष्योंका १ इन्द्र (चक्रवर्ती) और तिर्यञ्चोंका १ इन्द्र ( सिंहविशेष ) ऐसे सब मिलकर सौ इन्द्र हैं । १ ।” इस गाथामें कहे हुए लक्षणके धारक सौ इन्द्रोंसे वंदितको । जिस भगवान्ने क्या किया है ? " णिद्दिट्ठ" कहा है। किसको कहा है ? "जीवमजीवं दव्वं" जीव और अजीव इस द्रव्यद्वयको कहा है। अर्थात् सहज - शुद्ध चैतन्य आदि लक्षणका धारक जीव द्रव्य है, और इससे विलक्षण ( भिन्न लक्षणका धारक ) पुद्गल १, धर्म २, अधर्म ३, आकाश ४, और काल ५ इन पाँच भेदोंका धारक अजीव द्रव्य है। तथा इसी प्रकार चित् चमत्काररूप लक्षणका धारक जो शुद्ध जीव अस्तिकाय है, उसको आदिमें लेकर पाँच अस्तिकायोंका, परमज्ञानरूप ज्योतिका धारक जो शुद्ध जीवतत्त्व है, उसको आदि में लेकर सात तत्त्वोंका, और दोषरहित जो परमात्मा (जीव ) है, उसको आदि लेकर नौ पदार्थोंका स्वरूप कहा है । फिर कैसे भगवान् ने कहा है, कि - जिणवरवसहेण " मिथ्यात्व और राग आदिको जीतनेसे असंयतसम्यग्दृष्टि आदिक एकदेशी जिन हैं, उनमें जो वर ( श्रेष्ठ ) हैं वे जिनवर अर्थात् गणधरदेव हैं, उन जिनवरों ( गणधरों ) में भी जो प्रधान हों, वे जिनवरवृषभ अर्थात् तीर्थङ्कर परमदेव हैं, उनने कहा है । इस अध्यात्मशास्त्र में यद्यपि सिद्धपरमेष्ठियों को नमस्कार करना योग्य है, तो भी व्यवहारनयका अवलम्बन करके अपने प्रति श्रीजिनेन्द्र के उपकारको स्मरण करनेके लिये अर्हत्परमेष्ठीको ही नमस्कार किया है । सो ही कहा है कि "अर्हत्परमेष्ठी के प्रसाद से कल्याण ( मोक्ष ) मार्गकी सिद्धि होती है । इस कारण उत्तम मुनियोंने शास्त्रकी आदिमें अर्हत्परमेष्ठी के गुणोंकी स्तुति करनेका कथन किया है । १ ।” और यहाँ गाथाके उत्तरार्द्धसे "नास्तिकताका त्याग १, शिष्ट ( उत्तम ) पुरुषों के ५ १. त्रिधा देवता कथ्यते । केन प्रकारेण ? इष्टाधिकृताभिमतभेदेन । इष्टः स्वकीयपूज्यः १ । अधिकृतः -- ग्रन्थस्यादौ प्रकरणस्य वा नमस्करणीयत्वेन विवक्षितः २ । अभिमतः - सर्वेषां लोकानां विवाद विना सम्मतः ३ । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार त्रिधा नमस्कारं कुर्वन्ति । इत्यादिमङ्गलव्याख्यानं सूचितम् । मङ्गलमित्युपलक्षणम् । उक्तं च"मंगलणिमित्तहेउं परिमाणं नाम तह य कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्यमायरिओ ॥ ||" "वक्खाणउ" व्याख्यातु । स क: ? "आयरिओ" आचार्य: । कं ? "सत्यं" शास्त्रं "पच्छा" पश्चात् । कि कृत्वा पूर्व ? " वागरिय" व्याकृत्य व्याख्याय । कान् ? "छप्पि " षडप्यधिकारान् । कथंभूतान् ? " मंगलणिमित्तहेउ परिमाणं णाम तह य कत्तारं" मङ्गलं निमित्तं हेतु परिमाणं नामक संज्ञामिति । इति गाथाकथितक्रमेण मंगलाद्यधिकारषट्कमपि ज्ञातव्यम् ॥ गाथापूर्वार्द्धन तु सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि सूचितानि । कथमिति चेत्-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मस्वरूपादिविवरणरूपो वृत्ति-ग्रन्थो व्याख्यानम् । व्याख्येयं तु तत्प्रतिपादकसूत्रम् । इति व्याख्यानव्याख्येयसम्बन्धो विज्ञेयः । यदेव व्याख्येयसूत्रमुक्तं तदेवाभिधानं वाचकं प्रतिपादकं भण्यते, अनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारपरमात्मादिस्वभावोऽभिधेयो वाच्यः प्रतिपाद्यः । इत्यभिधानाभिधेयस्वरूपं बोधव्यम् । प्रयोजनं तु व्यवहारेण षड्द्रव्यादिपरिज्ञानम्, निश्चयेन निजनिरञ्जन शुद्धात्मसंवित्ति - समुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् । परमनिश्चयेन पुनस्तत्फलरूपा केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाविनाभूता निजात्मोपादानसिद्धानन्तसुखावाप्तिरिति । एवं नमस्कारगाथा व्याख्याता ।। १ ॥ आचरणका पालन २, पुण्यकी प्राप्ति ३, और विघ्नकी रहितता ४, इन चार लाभोंके लिये शास्त्रआदिमें श्रीजिनेन्द्रकी स्तुति की जाती है || २ ||" इस प्रकार श्लोकमें कहे हुए जो चार फल हैं, उनको उत्तम रीति से देखते हुए शास्त्रकार अभीष्ट, अधिकृत तथा अभिमत ऐसे तीन प्रकारके देवताके अर्थ मन, वचन और काय इन तीनों द्वारा नमस्कार करते हैं । इस प्रकार मंगलका व्याख्यान किया । यहाँ मंगल यह उपलक्षण पद है । सो ही कहा है कि, प्रथम ही आचार्य "मंगलाचरण १, शास्त्रके बनानेका निमित्तकारण २, शास्त्रका प्रयोजन ३, शास्त्रका परिमाण ( श्लोकसंख्या ) ४, शास्त्रका नाम ५, और शास्त्रका कर्त्ता ६, इन छह अधिकारोंकी व्याख्या करके फिर शास्त्रका व्याख्यान करते हैं । १ ।" इस गाथा में कहे हुए क्रमसे मंगल आदि ६ अधिकारों को भी जानना चाहिये । और गाथा के पूर्वार्धसे सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजनको सूचित किया है । कैसे सूचित किया है ? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि, निर्मल ज्ञान और दर्शनरूप स्वभावका धारक जो परमात्मा है, उसके स्वरूपको विस्तारसे कहनेवाला जो वृत्ति ( इस द्रव्यसंग्रहकी टीका ) रूप ग्रन्थ है, वह तो व्याख्यान है, और परमात्मस्वरूपका प्रतिपादक जो गाथा सूत्ररूप द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ है वह व्याख्येय ( व्याख्या करने योग्य ) है । इस प्रकार व्याख्यान व्याख्येयरूप तो सम्बन्ध जानना चाहिये । और जो व्याख्या करने योग्य द्रव्यसंग्रहका सूत्र कहा गया है वही अभिधान अर्थात् वाचक ( कहनेवाला ) कहलाता है । और अनन्तज्ञान आदि अनन्तगुणों का आधार ( धारक ) जो परमात्मा आदिका स्वभाव है वह अभिधेय है अर्थात् कथन करने योग्य विषय है। इस प्रकार अभिधानाभिधेयका स्वरूप जानना चाहिये । व्यवहारनकी अपेक्षा 'षद्रव्य आदिका जानना' यह इस ग्रंथका प्रयोजन है । और निश्चयनयसे अपने निर्लेप शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो विकार रहित परमआनंदरूप लक्षणका धारक सुख है, उस सुखरूपी अमृतरसका आस्वादन करनेरूप जो निज आत्माके जाननेरूप ज्ञान है, वह इस ग्रंथ १. मनोवचनकायैः । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः अथ नमस्कारगाथायां प्रथमं यदुक्तं जीवद्रव्यं तत्सम्बन्धे नवाधिकारान् संक्षेपेण सूचयामीति अभिप्रायं मनसि सम्प्रधार्य कथनसूत्रमिति निरूपयति; जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्डगई ।। २ ।। जीवः उपयोगमयः अमूतिः कर्ता स्वदेहपरिमाणः। भोक्ता संसारस्थः सिद्धः सः विस्रसा ऊर्ध्वगतिः ॥२॥ व्याख्या--"जीवो" शुद्धनिश्चयनयेनादिमध्यान्तवजितस्वपरप्रकाशकाविनश्वरनिरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षणनिश्चयप्राणेन यद्यपि जीवति, तथाप्यशुद्धनयेनानादिकर्मबन्धवशादशुद्धद्रव्यभावप्राणैर्जीवतीति जीवः। "उवओगमओ" शुद्धद्रव्याथिकनयेन यद्यपि सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनोपयोगमयस्तथाप्यशुद्धनयेन क्षायोपशमिकज्ञानदर्शननिवृत्तत्वात् ज्ञानदर्शनोपयोगमयो भवति । "अमुत्ति" यद्यपि व्यवहारेण मूर्तकर्माधीनत्वेन स्पर्शरसगन्धवर्णवत्या मूर्त्या सहितत्वान्मूर्तस्तथापि परमार्थेनामूर्तातीन्द्रियशुद्धबुद्धकस्वभावत्वादमूर्तः। “कत्ता" यद्यपि भूतार्थनयेन निष्क्रियटङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावोऽयं जीवस्तथाप्यभूतार्थनयेन मनोवचनकायव्यापारोत्पादककमसहितत्वेन शुभाशुभकर्मकर्तृत्वात् कर्ता। “सदेहपरिमाणो" यद्यपि निश्चयेन सहजशुद्धलोकाकाशप्रमिता का प्रयोजन है। और परमनिश्चयसे उस आत्मज्ञानके फलरूप-केवलज्ञान आदि अनंतगुणोंके विना न होनेवाली और निज आत्मारूप उपादान कारणसे सिद्ध होनेवाली ऐसी जो अनंतसुखकी प्राप्ति है, वह इस द्रव्यसंग्रह ग्रन्थका प्रयोजन है। इस प्रकार प्रथम जो नमस्कार गाथा है, उसका व्याख्यान किया गया ॥ १॥ ___ अब मैं नमस्कारगाथामें जो पहिले जीवद्रव्यका कथन किया गया है, उस जीवद्रव्यके सम्बन्धमें नौ अधिकारोंको संक्षेपमें सूचित करता हूँ। इस अभिप्रायको मनमें धारण करके आचार्य जीव आदि नौ अधिकारोंको कहनेवाले इस अग्रिम सूत्रका निरूपण करते हैं; ___ गाथाभावार्थ-जो उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीरके बराबर है, भोक्ता है, संसारमें स्थित है, सिद्ध है, और स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है, वह जीव है ।। २ ।। व्याख्यार्थ-"जीवो" यद्यपि यह जीव शुद्धनिश्चयनयसे आदि मध्य और अन्तसे रहित, निज तथा परका प्रकाशक, उपाधिरहित और शुद्ध ऐसा जो चैतन्य ( ज्ञान ) रूप निश्चय प्राण है, उससे जीता है, तथापि अशुद्धनिश्चयनयसे अनादिकर्मबन्धनके वशसे अशुद्ध जो द्रव्यप्राण और भावप्राण हैं, उनसे जीता है इसलिये जीव है। "उवओगमओ" यद्यपि शुद्धद्रव्याथिकनयसे परिपूर्ण तथा निर्मल ऐसे जो ज्ञान और दर्शनरूप दो उपयोग हैं, उन स्वरूप जीव है, तथापि अशुद्धनयसे क्षायोपशमिक ज्ञान और दर्शनसे रचा हुआ है, इस कारण ज्ञानदर्शनोपयोगमय है। "अमुत्ति" यद्यपि जीव व्यवहारनयसे मूर्तकर्मोके आधीन होनेसे स्पर्श, रस, गंध और वर्णवाली मूत्तिसे सहित होनेके कारण मूर्त है, तथापि निश्चयनयसे अमूर्त इन्द्रियोंके अगोचर, शुद्ध और शुद्धरूप स्वभावका धारक होनेसे अमूर्त है । “कत्ता" यद्यपि यह जीव निश्चयनयसे क्रिया रहित, टंकोत्कीर्ण ( निरुपाधि ), ज्ञायकैकस्वभावका धारक है, तथापि व्यवहारनयसे मन, वचन तथा कायके व्यापारको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंसे सहित होनेके कारण शुभ और अशुभ कर्मोंका Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार सङ्घयेयप्रदेशस्तथापि व्यवहारेणानादिकम्मंबन्धाधीनत्वेन शरीरनामकर्मोदयजनितोपसंहारविस्ताराधीनत्वात् घटादिभाजनस्थप्रदीपवत् स्वदेहपरिमाणः । " भोत्ता" यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वात्मोत्थसुखामृतभोक्ता, तथाप्यशुद्धनयेन तथाविधसुखामृतभोजनाभावाच्छुभाशुभकर्मजनितसुखदुःखभोक्तृत्वाद्भोक्ता । "संसारत्थो" यद्यपि शुद्धनिश्चयनयेन निःसंसारनित्यानन्दैकस्वभावस्तथाप्यशुद्धनयेन द्रव्यक्षेत्रकालभवभावपञ्चप्रकारसंसारे तिष्ठतीति संसारस्थ: । "सिद्धो" व्यवहारेण स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धत्वप्रतिपक्षभूतकर्मोदयेन यद्यप्यसिद्धस्तथापि निश्चद्यनयेनानन्तज्ञानानन्तगुणस्वभावत्वात् सिद्धः । “सो" स एवं गुणविशिष्टो जीवः । "विस्ससोड्ढगई" यद्यपि व्यवहारेण चतुर्गतिजनककर्मोदयवशेनोदुर्ध्वाधस्तिर्यग्गतिस्वभावस्तथापि निश्चयेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणावाप्तिलक्षणमोक्षगमनकाले विस्रसा स्वभावेनोद्र्ध्वगतिश्चेति । अत्र पदखण्डनारूपेण शब्दार्थः कथितः, शुद्धाशुद्धनयद्वयविभागेन नयार्थोऽप्युक्तः । इदानीं मतार्थः कथ्यते । जीवसिद्धिश्चार्वाकं प्रति ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणं नैयायिकं प्रति, अमूर्त्तजीवस्थापनं भट्टचार्वाकद्वयं प्रति, कर्मकर्तृत्वस्थापनं सांख्यं प्रति, स्वदेहप्रमितिस्थापनं नैयायिकमीमांसक सांख्यत्रयं प्रति, कर्मभोक्तृत्वव्याख्यानं बौद्धं प्रति, संसारस्थव्याख्यानं सदाशिवं प्रति, सिद्धत्वव्याख्यानं भट्टचार्वाकद्वयं ८ करनेवाला है, इसलिये कर्त्ता है । "सदेहपरिमाणो" यद्यपि जीव निश्चयसे स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध लोकाकाशके समान असंख्यात प्रदेशोंका धारक है, तथापि शरीरनामकर्मके उदयसे उत्पन्न संकोच तथा विस्तार के आधीन होनेसे घट आदि भाजनोंमें स्थित दीपककी तरह निजदेहके परिमाण है । "भोत्ता" यद्यपि जीव शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे रागादि विकल्परूप उपाधियोंसे शून्य है, और अपनी आत्मासे उत्पन्न जो सुखरूपी अमृत है, उसका भोगनेवाला है, तथापि अशुद्धनय से उस प्रकारके सुखरूप अमृतभोजनके अभाव से शुभकर्म से उत्पन्न सुख और अशुभकर्मसे उत्पन्न जो दुःख हैं, उनका भोगनेवाला होनेके कारण भोक्ता है । "संसारत्थो" संसारमें स्थित है अर्थात् संसारी है । यद्यपि जीव शुद्ध निश्चयनयसे संसाररहित है और नित्य आनंदरूप एक स्वभावका धारक है, तथापि अशुद्धनयसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, और भाव इन भेदोंसे पाँच प्रकारके संसार में रहता है, इस कारण संसारस्थ है । “सिद्धो" सिद्ध है । यद्यपि यह जीव व्यवहारनयसे निज आत्माकी प्राप्तिस्वरूप जो सिद्धत्व है, उसके प्रतिपक्षी कर्मोंके उदयसे असिद्ध है तथापि निश्चयनयसे अनन्तज्ञान और अनन्तगुण स्वभावका धारक होनेसे सिद्ध है । "सो" वह ( इऩ पहले कहे हुए गुणोंका धारक जीव ) "विस्ससोड्ढगई" स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । यद्यपि व्यवहारसे चार गतियोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंके उदयके वशसे ऊँचा, नीचा, तथा तिरछा गमन करनेवाला है, तथापि निश्चयसे केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंकी प्राप्ति स्वरूप जो मोक्ष है, उसमें जानेके समय स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । यहाँपर पदखंडना रूपसे (खंडान्वयकी रीति से) शब्दका अर्थ कहा और शुद्ध तथा अशुद्ध इन दोनों नयोंके विभागसे नयका अर्थ भी कहा है । अब मतका अर्थ कहते हैं । चार्वाकके प्रति जीवकी सिद्धि की गई है, नैयायिक के प्रति जीवका ज्ञान तथा दर्शन उपयोगमय लक्षण है यह कथन है, भट्ट तथा चार्वाकके प्रति जीवका अमूर्त स्थापन है, सांख्यके प्रति आत्मा कर्मका कर्त्ता है ऐसा व्याख्यान है, आत्मा अपने शरीर प्रमाण हैं, यह स्थापन नैयायिक, मीमांसक और सांख्य इन तीनोंके प्रति है, आत्मा कर्मोंका भोक्ता है, यह कथन बौद्धके प्रति है । आत्मा संसारस्थ है, ऐसा व्याख्यान सदाशिवके प्रति है । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः प्रति, ऊर्ध्वगतिस्वभावकथनं माण्डलिकग्रन्थकारं प्रति इति मतार्थो ज्ञातव्यः । आगमार्थः पुनः "अस्त्यात्मानादिबद्धः" इत्यादि प्रसिद्ध एव । शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयं, शेषं च हेयम् । इति हेयोपादेयरूपेण भावार्थोऽप्यवबोधव्यः । एवं शब्दनयमतागमभावार्थो यथासम्भवं व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । इति जीवादिनवाधिकारसूचनसूत्रगाथा ॥ २ ॥ अतः परं द्वादशगाथाभिर्नवाधिकारान् विवृणोति तत्रादौ जीवस्वरूपं कथयति ;तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य । ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ।। ३ ।। त्रिकाले चतुःप्राणा इन्द्रियं बलं आयुः आनप्राणश्च । व्यवहारात् स जीवः निश्चयनयतः तु चेतना यस्य ॥ ३ ॥ व्याख्या - " तिक्काले चदुपाणा" कालत्रये चत्वारः प्राणा भवन्ति । ते के? "इंदियबल माउआणपाणो य" अतीन्द्रियशुद्ध चैतन्यप्राणात्प्रतिशत्रुपक्षभूतः क्षायोपशमिक इन्द्रियप्राणः, अनन्तवीर्यलक्षणबलप्राणादनन्तैकभागप्रमिता मनोवचनकायबलप्राणाः, अनाद्यनन्त शुद्ध चैतन्यप्राणविपरीततद्विलक्षणः सादिः सान्तश्चायुः प्राणः उच्छ्वासपरावर्तोत्पन्नखेद रहितविशुद्ध चित्प्राणाद्विपरीतसदृश आनपानप्राणः । " ववहारा सो जीवो" इत्थंभूतैश्चतुभिर्द्रव्यभावप्राणैर्यथासंभवं जीवति जीविष्यति आत्मा सिद्ध, है, यह कथन भट्ट और चार्वाकके प्रति है । जीवका ऊर्ध्वगमन करना स्वभाव है, यह कथन इन सब मतोंके ग्रंथकारोंके प्रति है । ऐसा मतका अर्थ जानना चाहिये । और अनादिकालसे कर्मोंसे बँधा हुआ आत्मा है, इत्यादि आगमका अर्थ तो प्रसिद्ध ही है । शुद्धनयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है, वह तो उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) है, और बाकी सब हेय है । इस प्रकार हेयोपादेयरूपसे भावार्थं भी समझना चाहिये । ऐसे शब्द, नय, मत, आगमार्थ, भावार्थ यथासंभव व्याख्यानके समय में सब जगह जानना चाहिये । इस प्रकार जीव आदि नव अधिकारोंको सूचन करनेवाली गाथा समाप्त हुई || २ || अब इसके आगे द्वादश गाथाओंसे नव अधिकारोंका विवरण करते हैं, उनमें प्रथम ही जीवका स्वरूप कहते हैं; गाथाभावार्थ - तीन कालमें इन्द्रिय, बल, आयु और आनपान इन चारों प्राणोंको जो धारण करता है, वह व्यवहारनयसे जीव हैं, और निश्चयनयसे जिसके चेतना है, वही जीव है ॥ ३ ॥ व्याख्यार्थ - "तिक्काले चदुपाणा" तीन कालमें जीवके चार प्राण होते हैं, वे कौनसे ? "इंदियबल माउआणपाणो य" इंद्रियोंके अगोचर जो शुद्ध चैतन्य प्राण है, उसके प्रति शत्रुपक्षभूत क्षायोपशमिक ( क्षयोपशमसे उत्पन्न ) इन्द्रियप्राण है, अनन्तवीर्यरूप जो बलप्राण है, उसके अनन्त भागों में से एक भाग के प्रमाण मनोबल, वचनबल, और कायबलरूप प्राण हैं, अनादि, अनन्त तथा शुद्ध' जो चैतन्य (ज्ञान) प्राण है, उससे विपरीत (उलटा ) एवं विलक्षण सादि (आदिसहित) और अन्तसहित आयुप्राण है, श्वासोच्छ्वासके आवागमन से उत्पन्न खेद से रहित जो शुद्ध चित् प्राण है, उससे विपरीत आनप्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास प्राण हैं । "ववहारा सो जीवो" इस पूर्वोक्त प्रकार रूप ३ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रामालायाम् ( प्रथम अधिकार जीवितपूर्वो वा यो व्यवहारनयात्स जीवः, द्रव्येन्द्रियादिद्रव्यप्राणा अनुपचरितासभूतव्यवहारेण, भावेन्द्रियादिः क्षायोपशमिकभावप्राणाः पुनरशुद्ध निश्चयेन । सत्ताचैतन्यबोधादिः शुद्धभावप्राणाः निश्चयनयेनेति " णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स” शुद्धनिश्चयनयतः सकाशादुपादेयभूता शुद्धचेतना यस्य स जीवः एवं "वच्छरक्खभवसारिच्छ, सग्गणिरयपियराय । चुल्लयहंडिय पुण मडउ णव दिट्ठता जाय ॥ १ ॥” इति दोहककथित नवदृष्टान्तैश्चार्वाकमतानुसारिशिष्यसंबोधनार्थं जीवसिद्धिव्याख्यानेन गाथा गता ॥ ३ ॥ अथ गाथात्रयपर्यन्तं ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं कथ्यते । तत्र प्रथमगाथायां मुख्यवृत्त्या दर्शनीपयोगव्याख्यानं करोति । यत्र मुख्यत्वमिति वदति तत्र यथासंभवमन्यदपि विवक्षितं लभ्यत इति ज्ञातव्यम्; १० उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा | चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं ॥ ४ ॥ चार द्रव्यप्राणों और भावप्राणोंसे जो जीता है, जीवेगा वा पहले जीया है, वह व्यवहारनयसे जीव है । अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्येन्द्रिय आदि द्रव्यप्राण हैं, और भावेन्द्रिय आदि क्षायोपशमिक भावप्राण अशुद्ध निश्चयनयसे हैं, तथा सत्ता, चैतन्य बोध आदि शुद्धभावप्राण जो हैं वे निश्चयनयसे हैं । “णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स" शुद्धनिश्चयनय के मत से उपादेयभूत ( ग्रहण करने योग्य) शुद्धचेतना जिसके हो वह जीव माना गया है । इस प्रकार "वच्छ रक्ख भवसारिच्छ सग्गणिरय पियराय । चुल्लय इंडिय पुण मडउ णव दिट्ठता जाय ॥ १ ॥ १. वत्स -- जन्म लेते ही बछड़ा पूर्वजन्म के संस्कारसे, बिना सिखाये अपने आप अपनी माताका स्तनपान करने लगता है । २. अक्षर-अक्षरों का उच्चारण जीव जानकारीके साथ आवश्यकतानुसार करता है, जड़ पदार्थों में शब्दोच्चार की यह विशेषता नहीं होती । ३. भव- आत्मा यदि एक स्थायी पदार्थ न हो तो जन्मग्रहण किसका होगा ? ४. सादृश्य - आहार, परिग्रह, भय, मैथुन, हर्ष, विषाद आदि सब जीवों में एक समान दृष्टिगोचर होते हैं । ५- ६. स्वर्ग-नरक - जीव यदि स्वतन्त्र पदार्थ न हो तो स्वर्ग और नरक में जाना किसके सिद्ध होगा ? ७. पितर - अनेक मनुष्य मरकर भूत आदि हो जाते हैं और फिर अपने पुत्र, पत्नी आदिको कष्ट, सुख आदि देकर अपने पूर्वभवका हाल बताते हैं । ८. चूल्हा हंडी - जीव यदि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पाँच महाभूतोंसे बन जाता हो तो दाल बनाते समय चूल्हेपर रखी हुई हंडिया में पाँचों महाभूतों का संसर्ग होने के कारण वहाँ भी जीव उत्पन्न हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा होता नहीं है । ९. मृतक - मुर्दा शरीरमें पाँचों भूत पदार्थ पाये जाते हैं, फिर भी जीवके ज्ञानादि नहीं होते। इस प्रकार जीव एक पृथक् स्वतन्त्र पदार्थ सिद्ध होता है । इस दोहे में कहे हुए नव दृष्टान्तों द्वारा चार्वाकमतानुयायी शिष्यको समझाने के लिये जीवकी सिद्धिके व्याख्यानसे यह गाथा समाप्त हुई || ३॥ अब तीन गाथापर्यन्त ज्ञान तथा दर्शनरूप दो उपयोगोंका वर्णन करते हैं । उनमें भी प्रथम गाथामें मुख्यतासे दर्शनोपयोगका व्याख्यान करते हैं । जहाँ पर यह कथन हो कि अमुक विषयका मुख्यता (प्रधानता ) से वर्णन करते हैं, वहाँपर गौणतासे अन्य विषयका भी यथासम्भव कथन मिलेगा यह जानना चाहिये; गाथाभावार्थ-दर्शन और ज्ञान इन भेदोंसे उपयोग दो प्रकारका है। उनमें चक्षुर्दर्शन, - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन] बृहद्र्व्यसंग्रहः । उपयोगः द्विविकल्पः दर्शनं ज्ञानं च दर्शनं चतुर्धा । चक्षुः अचक्षुः अवधिः दर्शनं अथ केवलं ज्ञेयम् ॥ ४॥ व्याख्या-"उवओगो दुवियप्पो" उपयोगो द्विविकल्पः ।"दंसणणाणं च" निर्विकल्पकं दर्शनं सविकल्पकं ज्ञानं च, पुनः “दंसणं चदुधा" दर्शनं चतुर्धा भवति "चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं" चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनमवधिदर्शनमथ अथो केवलदर्शनमिति विज्ञेयम् । तथाहि-आत्मा हि जगत्त्रयकालत्रयवात्तसमस्तवस्तुसामान्यग्राहकसकलविमलकेवलदर्शनस्वभावस्तावत पश्चादनादिकर्मबन्धाधीनः सन् चक्षदर्शनावरणक्षयोपशमादबहिरङ्गन्द्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्तसत्तासामान्य निर्विकल्पं संव्यवहारेण प्रत्यक्षमपि निश्चयेन परोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तच्चक्षुर्दर्शनम् । तथैव स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमत्वात्स्वकीयस्वकीयबहिरङ्गद्रव्येन्द्रियालम्बनाच्च मूर्त सत्तासामान्यं विकल्परहितं परोक्षरूपेणैकदेशेन यत्पश्यति तदचक्षुर्दर्शनम् । तथैव च मनइन्द्रियावरणक्षयोपशमात्सहकारिकारणभूताष्टदलपद्माकारद्रव्यमनोऽवलम्बनाच्च मूर्त्तामूर्तसमस्तवस्तुगतसत्तासामान्य विकल्परहितं परोक्षरूपेण यत्पश्यति तन्मानसमचक्षुर्दर्शनम् । स एवात्मा यदंवधिदर्शनावरणक्षयोपशमान्मूतवस्तुगतसत्तासामान्यं निर्विकल्परूपेणैकदेशप्रत्यक्षेण यत्पश्यति तदवधिदर्शनम् । यत्पुनः सहजशुद्धसदानन्दैकरूपपरमात्मतत्त्वसंवित्तिप्राप्तिबलेन केवलदर्शनावरणक्षये सति मूर्तामूर्तसमस्तवस्तुगतसत्तासामान्य विकल्परहितं सकलप्रत्यक्षरूपेणैकसमये पश्यति तदुपादेयभूतं क्षायिक केवलदर्शनं ज्ञातव्यमिति ॥४॥ अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन,और केवलदर्शन इन भेदोंसे दर्शनोपयोग चार प्रकारका जानना चाहिये ॥४॥ व्याख्यार्थ-दर्शन और ज्ञान इन भेदोंसे उपयोग दो प्रकारका है। उनमें दर्शन तो निर्विकल्पक है और ज्ञान सविकल्पक है। और दर्शनोपयोग चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन तथा केवलदर्शन इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है, यह जानना चाहिये। इसका विशेष वर्णन इस प्रकार है कि प्रथम तो आत्मा तीनलोक और भूत, भविष्य तथा वर्तमानरूप तीनों कालोंमें रहनेवाले सम्पूर्ण द्रव्यसामान्यको ग्रहण करनेवाला जो पूर्ण निर्मल केवलदर्शन स्वभाव है उसका धारक है, पश्चात् ( फिर ) अनादि कर्मबंधके आधीन होके चक्षुर्दर्शनावरणके क्षयोपशमसे अर्थात् नेत्रद्वारा जो दर्शन होता है. उस दर्शनको रोकनेवाले कर्मके क्षयोपशमसे तथा बहिरंग द्रव्येन्द्रियके आलम्बनसे मूर्त सत्तासामान्यको जो कि संव्यवहारसे प्रत्यक्ष है, तो भी निश्चयसे परोक्षरूप है, उसको एक देशसे विकल्परहित जैसे हो तैसे जो देखता है वह चक्षुर्दर्शन हैं वैसे ही स्पर्शन, रसन, घ्राण, तथा श्रोत्रेन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमसे और निज-निज बहिरंग द्रव्येन्द्रियके आलम्बनसे मूर्त सत्तासामान्यको परोक्षरूप एकदेशसे जो विकल्परहित देखता है, वह अचक्षुर्दर्शन है, और इसी प्रकार मन इन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमसे तथा सहकारी कारणभूत जो आठ पाँखड़ीके कमलके आकार द्रव्यमन है, उसके अवलम्बनसे मूर्त तथा अमूर्त ऐसे समस्त द्रव्योंमें विद्यमान सत्तासामान्यको परोक्षरूपसे विकल्परहित जो देखता है, वह मानस अचक्षुर्दर्शन है, और वही आत्मा जो अवधिदर्शनावरणके क्षयोपशमसे मूर्त्तवस्तुमें प्राप्त सत्तासामान्यको एकदेशप्रत्यक्षसे विकल्परहित देखता है वह अवधिदर्शन है, और जो सहज शुद्ध चिदानन्दरूप एक स्वरूपका धारक परमात्मा है, उसके तत्त्वज्ञानके बलसे केवलदर्शनावरणके क्षय होनेपर मूर्त अमूर्त समस्त वस्तुमें प्राप्त सत्तासामान्यको सकल प्रत्यक्षरूपसे एकसमयमें विकल्परहित जो देखता है, उसको दर्शना Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार wnwwwwwwwwww अथाष्टविकल्पं ज्ञानोपयोगं प्रतिपादयति; णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुदिओही अणाणणाणाणि । मणपज्जवकेवलमवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च ।। ५ ।। ज्ञानं अष्टविकल्पं मतिश्रुतावधयः अज्ञानज्ञानानि । मनःपर्ययः केवलं अपि प्रत्यक्षपरोक्षभेदं च ॥५॥ व्याख्या-“णाणं अट्ठवियप्पं" ज्ञानमष्टविकल्पं भवति । “मदिसुदिओही अणाणणाणाणि" अत्राष्टविकल्पमध्ये मतिश्रुतावधयो मिथ्यात्वोदयवशाद्विपरीताभिनिवेशरूपाण्यज्ञानानि भवन्ति, तान्येव शुद्धात्मादितत्त्व विषये विपरीताभिनिवेशरहितत्वेन सम्यग्दृष्टिजीवस्य सम्यग्ज्ञानानि भवन्ति । "मणपज्जवकेवलमवि" मनःपर्ययज्ञानं केवलज्ञानमप्येवमष्टविधं ज्ञानं भवति, “पच्चक्खपरोक्खभेयं च" प्रत्यक्षपरोक्षभेदं च अवधिमन:पर्ययद्वयमेकदेशप्रत्यक्षं, विभङ्गावधिरपि देशप्रत्यक्ष, केवलज्ञानं सकलप्रत्यक्ष शेषचतुष्टयं परोक्षमिति । इतो विस्तरः-आत्मा हि निश्चयनयेन सकलविमलाखण्डैकप्रत्यक्षप्रतिभासमयकेवलज्ञानरूपस्तावत् । स च व्यवहारेणानादिकर्मबन्धप्रच्छादितः सन्मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च बहिरङ्गपञ्चेन्द्रियमनोऽवलम्बनाच्च मूर्तामूत्तं वस्त्वेकदेशेन विकल्पाकारेण परोक्षरूपेण सांव्यवहारिकप्रत्यक्षरूपेण वा यज्जानाति तत्क्षायोपवरणकर्मके क्षयसे उत्पन्न और ग्रहण करने योग्य केवलदर्शन जानना चाहिये ।। ४ ।। अब आठ विकल्प (भेद) सहित जो ज्ञानोपयोग है, उसका कथन करते हैं; गाथाभावार्थ-कुमति, कुश्रुत, कुअवधि, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ऐसे आठ प्रकारका ज्ञान है । इनमें कुअवधि, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल ये चार प्रत्यक्ष हैं, और शेष चार परोक्ष हैं ।। ५ ॥ व्याख्यार्थ-"णाणं अवियप्पं" ज्ञान आठ प्रकारका है। "मदिसुदिओही अणाणणाणाणि" उन आठ प्रकारके भेदोंके मध्य में मति, श्रुत, तथा अवधि ये तीन मिथ्यात्वके उदयके वशसे विपरीत अभिनिवेशरूप अज्ञान होते हैं ( इसीसे कुमति, कुश्रुत, तथा कुअवधि [ विभंगावधि ) ये इनके नाम हैं ) तथा वे ही मति, श्रुत, तथा अवधिज्ञान शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वके विषयमे विपरीत अभिनिवेशके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यग्ज्ञान हो जाते हैं, इस रीतिसे मति आदि तीन अज्ञान और तीन ज्ञान उभयस्वरूप होनेसे ज्ञानके ६ भेद हुए) तथा "मणपज्जवकेवलमवि" मनःपर्यय और केवलज्ञान ये दोनों मिलकर ज्ञानके आठ भेद हुए। "पच्चक्खपरोक्खभेयं च" इन आठोंमें अवधि और मनःपर्यय ये दोनों तथा विभंगावधि तो देशप्रत्यक्ष हैं, और केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है, शेष (बाकीके) कुमति, कुश्रुत, मति और श्रुत ये चार परोक्ष हैं । अब यहाँसे विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं । जैसे-आत्मा निश्चयनयसे सम्पूर्णरूपसे विमल तथा अखण्ड जो एक प्रत्यक्षज्ञानस्वरूप केवलज्ञान है उस ज्ञानस्वरूप है, और वही आत्मा व्यवहारनयसे अनादिकालके कर्मबन्धसे आच्छादित होकर, मतिज्ञानके आवरणके क्षयोपशमसे तथा वीर्यान्तराय• के क्षयोपशमसे और बहिरंग पाँच इन्द्रिय तथा मनके अवलम्बनसे मूर्त और अमूर्त्तवस्तुको एक देशसे विकल्पाकार परोक्षरूपसे अथवा सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूपसे जो जानता है वह क्षायोपशमिक Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः शमिकं मतिज्ञानम्। किञ्च छद्मस्थानां वीर्यान्तरायक्षयोपशमः केवलिनां तु निरवशेषक्षये ज्ञानं चारित्राद्युत्पत्तौ सहकारी सर्वत्र ज्ञातव्यः। संव्यवहारलक्षणं कथ्यते-समीचीनो व्यवहारः संव्यवहारः । प्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणः संव्यवहारो भण्यते । संव्यवहारे भवं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम् । यथा घटरूपमिदं मया दृष्टमित्यादि । तथैव श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमान्नोइन्द्रियावलम्बनाच्च प्रकाशोपाध्यायादिबहिरङ्गसहकारिकारणाच्च मूर्त्तामूर्त्तवस्तुलोकालोकव्याप्तिज्ञानरूपेण यदस्पष्टं जानाति तत्परोक्षं श्रुतज्ञानं भण्यते। किञ्च विशेषः-शब्दात्मकं श्रुतज्ञानं परोक्षमेव तावत्, स्वर्गापवर्गादिबहिविषयपरिच्छित्तिपरिज्ञानं विकल्परूपं तदपि परोक्षं, यत्पुनरभ्यन्तरे सुखदुःखविकल्परूपोऽहमनन्तज्ञानादिरूपोऽहमिति वा तदीषत्परोक्षम, यच्च निश्चयभावश्रुतज्ञानं तच्च शुद्धात्माभिमुखसुखसंवित्तिस्वरूपं स्वसंवित्त्याकारेण सविकल्पमपीन्द्रियमनोजनितरागादिविकल्पजालरहितत्वेन निविकल्पम्, अभेदनयेन तदेवात्मशब्दवाच्यं वीतरागसम्यक्चारित्राविनाभूतं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमपि संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावात् क्षायोपशमिकमपि प्रत्यक्षमभिधीयते। अत्राह शिष्यःआद्ये परोक्षमिति तत्त्वार्थसूत्रे मतिश्रुतद्वयं परोक्षं भणितं तिष्ठति कथं प्रत्यक्ष भवतीति । परिहारमाह-तदुत्सर्गव्याख्यानम्, इदं पुनरपवादव्याख्यानं, यदि तदुत्सर्गव्याख्यानं न भवति तहि मतिज्ञानं कथं तत्त्वार्थे परोक्षं भणितं तिष्ठति । तर्कशास्त्रे सांव्यवहारिक प्रत्यक्षं कथं जातं । यथा अपवाद मतिज्ञान है। अब यहाँपर विशेष यह जानना चाहिये कि छद्मस्थोंके तो वीर्यान्तरायका क्षयोपशम सर्वत्र ज्ञान चारित्र आदिकी उत्पत्तिमें सहकारी कारण है, और केवलियोंके वीर्यान्तरायका जो सर्वथा क्षय है वह ज्ञान चारित्र आदिकी उत्पत्तिमें सर्वत्र सहकारी कारण हैं। अब सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका लक्षण लिखते हैं-समीचीन अर्थात् प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप जो व्यवहार है वह संव्यवहार कहलाता है, संव्यवहारमें जो होवे सो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है; जैसे—यह घटका रूप मैंने देखा इत्यादि । ऐसे ही श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे और नोइन्द्रियके अवलम्बनसे प्रकाश और अध्यापक आदि सहकारी कारणके संयोगसे मूर्त तथा अमूर्त वस्तुको लोक तथा अलोकको व्याप्तिरूप ज्ञानसे जो अस्पष्ट जानता है, उसको परोक्ष श्रुतज्ञान कहते हैं, और इसमें भी विशेष यह है कि शब्दात्मक (शब्दरूप) जो श्रुतज्ञान है, वह तो परोक्ष ही है तथा स्वर्ग, मोक्ष आदि बाह्य विषयमें बोध करानेवाला विकल्परूप जो ज्ञान है, वह भी परोक्ष है, और जो आभ्यंतरमें सुख दुःख विकल्परूप है, अथवा मैं अनन्तज्ञान आदिरूप हूँ इत्यादि ज्ञान है, वह ईषत् ( किंचित् ) परोक्ष है, तथा जो भावश्रुतज्ञान है, वह शुद्ध आत्माके अभिमुख ( सन्मुख ) होनेसे सुखसंवित्ति ( ज्ञान ) स्वरूप है, और वह निज आत्मज्ञानके आकारसे सविकल्प है, तो भी इन्द्रिय तथा मनसे उत्पन्न जो विकल्पसमूह हैं,उनसे रहित होनेके कारण निर्विकल्प है, और अभेदनयसे वही आत्मज्ञान इस शब्दसे कहा जाता है । तथा वह रागरहित जो सम्यक्चारित्र है, उसके विना नहीं होता है । यद्यपि यह केवलज्ञानको अपेक्षा परोक्ष है, तथापि संसारियोंको क्षायिकज्ञानको प्राप्ति न होनेसे क्षायोपशमिक होनेपर भी प्रत्यक्ष कहलाता है। यहाँपर शिष्य आशंका करता है कि हे गुरो; "आद्ये परोक्षम्" इस तत्त्वार्थसूत्र में मति और श्रुत इन दोनों ज्ञानोंको परोक्ष कहा है, फिर आप इसको प्रत्यक्ष कैसे कहते हो ? अब शंकाका परिहार इस प्रकार करते हैं कि “आद्ये परोक्षम्" इस सूत्र में जो श्रुतको परोक्ष कहा है सो उत्सर्ग व्याख्यान है, और यह जो हमने कहा है कि भाव श्रुतज्ञान प्रत्यक्ष है, सो उस उत्सर्गका बाधक जो अपवाद है उसकी अपेक्षासे है । यदि तत्त्वार्थसूत्रमें Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार व्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञानं तथा स्वात्माभिमुखं भावश्रुतज्ञानमपि परोक्षं सत्प्रत्यक्षं भण्यते । यदि पुनरेकान्तेन परोक्षं भवति तह सुखदुःखादिसंवेदनमपि परोक्ष प्राप्नोति न च तथा । तथैव च स एवात्मा अवधिज्ञानावरणीय क्षयोपशमान्मूत्तं वस्तु यदेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदवधिज्ञानम् । यत्पुनर्मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च स्वकीयमनोऽवलम्बन परकीयमनोगतं मूर्त्तमर्थमेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदीहामतिज्ञानपूर्वकं मन:पर्ययज्ञानम् । तथैव निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणैकाग्रध्यानेन केवलज्ञानावरणादिघातिचतुष्टयक्षये सति यत्समुत्पद्यते तदेव समस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावग्राहकं सर्वप्रकारोपादेयभूतं केवलज्ञानमिति ॥ ५ ॥ १४ अथ ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयव्याख्यानस्य नयविभागेनोपसंहारः कथ्यते ; -- अट्ट चदु णाण दंसण सामर्ण जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं अष्टचतुर्ज्ञानदर्शने सामान्यं जीवलक्षणं भणितं । व्यवहाराते शुद्ध नयात् शुद्धं पुनः दर्शनं ज्ञानम् ॥ ६ ॥ णणं ॥ ६ ॥ व्याख्या--"अट्ठ चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं" अष्टविधं ज्ञानं चतुविधं दर्शनं सामान्यं जीवलक्षणं भणितम् । सामान्यमिति कोऽर्थः संसारिजीवमुक्तजीवविवक्षा नास्ति, उत्सर्गका कथन न होता तो तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा गया है ? और यदि वह सूत्रमें परोक्ष ही कहा गया है, तो तर्कशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ ? इसलिये जैसे अपवाद व्याख्यान से परोक्षरूप भी मतिज्ञानको प्रत्यक्षज्ञान कहा गया है, वैसे ही निज आत्माके सन्मुख जो भावश्रुत ज्ञान है, वह परोक्ष है, तो भी उसको प्रत्यक्ष कहते हैं । और यदि एकान्त, श्रुत दोनों परोक्ष ही होवें तो सुख दुःख आदिका जो संवेदन ( ज्ञान ) है, वह भी परोक्ष ही होगा और वह संवेदन परोक्ष नहीं है । इसी रीतिसे वही आत्मा अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे मूर्त वस्तुको जो एकदेश प्रत्यक्षद्वारा सविकल्प जानता है, वह अवधिज्ञान है । और जो मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशमसे और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे अपने मनके अवलम्बनद्वारा परके मनमें प्राप्त हुए मूर्त पदार्थको एकदेश प्रत्यक्षसे सविकल्प जानता है, वह ईहामतिज्ञानपूर्वक मन:पर्ययज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार अपना शुद्ध जो आत्मद्रव्य है, उसका भले प्रकार श्रद्धान करना, जानना, और आचरण करना, इन रूप जो एकाग्र ध्यान उससे केवल ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंका नाश होनेपर जो उत्पन्न होता है, वह एकसमयमें समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावको ग्रहण करनेवाला और सब प्रकारसे उपादेयभूत ( ग्रहण करने योग्य ) केवलज्ञान है ॥ ५ ॥ अब ज्ञान तथा दर्शन इन दोनों उपयोगोंके व्याख्यानका नयके विभागसे उपसंहार कहते हैं; गाथाभावार्थ-आठ प्रकारके ज्ञान और चार प्रकारके दर्शनका जो धारक है वह जीव है । यह व्यवहारनयसे सामान्य जीवका लक्षण है और शुद्धनयसे शुद्ध जो ज्ञान, दर्शन है वह जीवका लक्षण कहा गया है ॥ ६ ॥ व्याख्यार्थ - " अटू चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं" आठ प्रकारका ज्ञान तथा Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य - पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः अथवा शुद्धाशुद्धज्ञानदर्शनविवक्षा नास्ति । तदपि कथमिति चेद् विवक्षाया अभावः सामान्यलक्षणमिति वचनात्, कस्मात्सामान्यं जीवलक्षणं भणितं, "ववहारा" व्यवहारात् व्यवहारनयात् । अत्र केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धस भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारः छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितसद्भूतव्यवहारः, कुमतिकुश्रुतविभङ्गत्रये पुनरुपचरितासभूतव्यवहारः । “सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं जाणं" शुद्ध निश्चयनयात्पुनः शुद्धमखण्डं केवलज्ञानदर्शनद्वयं जीवलक्षणमिति । किञ्च ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति । अत्र सहजशुद्ध निर्विकारपरमानन्दैकलक्षणस्य साक्षादुपादेयभूतस्याक्षयसुखस्योपादानकारणत्वात्केवलज्ञानदर्शनद्वयमुपादेयमिति । एवं नैयायिकं प्रति गुणगुणिभेदैकान्त निराकरणार्थमुपयोगव्याख्यानेन गाथात्रयं गतम् ॥ ६ ॥ अथामूर्त्तातीन्द्रियनिजात्मद्रव्यसंवित्तिरहितेन मूर्त्तपञ्चेन्द्रियविषयासक्तेन च यदुपार्जितं मूर्तं कर्म तदुदयेन व्यवहारेण मूर्तोऽपि निश्चयेनामूर्तो जीव इत्युपदिशति; - वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो || ७ || चार प्रकारका दर्शन जो है सो सामान्य रूपसे जीवका लक्षण कहा है । यहाँपर सामान्य इस कथनका यह तात्पर्य है इस लक्षण में संसारीजीव व मुक्तजीवकी विवक्षा नहीं है, अथवा शुद्धअशुद्ध ज्ञान दर्शनकी भी विवक्षा नहीं है । सो कैसे है ? यदि ऐसी शंका करो तो उत्तर यह है कि जीवका सामान्य लक्षण है, ऐसा वचन कहने से विवक्षाका अभाव है । यह जीवका सामान्यलक्षण किस अपेक्षासे है ? इसका उत्तर यह है कि "ववहारा" अर्थात् व्यवहारनयकी अपेक्षासे है । यहाँ केवलज्ञान, दर्शनके प्रति तो शुद्ध सद्भूत शब्दसे वाच्य ( कहने योग्य) अनुपचरितसद्भूत व्यवहार है, और छद्मस्थ ज्ञान दर्शनकी अपेक्षासे तो अशुद्ध सद्भूत शब्दसे वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है, तथा कुमति, कुश्रुत, व विभंग ( कुअवधि ) इन तीनोंमें उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है "सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं जाणं" और शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध अखंड केवलज्ञान तथा दर्शन ये दोनों ही जीवके लक्षण हैं । और भी यहाँ ज्ञान दर्शनरूप उपयोगकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे विवक्षित ( कथन करनेको अभिमत ) जो पदार्थ है उस पदार्थके ज्ञानरूप वस्तुके ग्रहणरूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है, और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगोंकी विवक्षा में तो उपयोग शब्दसे शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना एकरूप अनुष्ठान जानना चाहिये । यहाँपर सहज शुद्ध निर्विकार परमानंदरूप एक लक्षणका धारक साक्षात् उपादेय ( ग्राह्य) भूत जो अक्षय सुख है, उसके उपादान कारण होनेसे केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों उपादेय हैं । इस प्रकार प्रिति गुण गुणी अर्थात् ज्ञान और आत्मा इन दोनोंका एकान्तरूपसे भेदके निराकरणके लिये उपयोगके व्याख्यानद्वारा तीन गाथा समाप्त हुई || ६ || 1 अव अमूर्त्त तथा अतीन्द्रिय जो आत्मद्रव्यका ज्ञान है उससे रहित तथा मूर्त जो पाँचों इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें आसक्त जीवने जो मूर्त्त कर्म उपार्जन किया है, उसके उदयसे व्यवहार १५ की अपेक्षा से जीव मूर्त है, तो भी निश्चयसे अमूर्त है, ऐसा उपदेश देते हैं; गाथाभावार्थ - निश्चयसे जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, और आठ स्पर्श नहीं है, Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् वर्णाः रसाः पंच गन्धौ द्वौ स्पर्शाः अष्टौ निश्चयात् जीवे । नो सन्ति अमूर्तिः ततः व्यवहारात् मूत्तिः बन्धतः ॥ ७ ॥ [ प्रथम अधिकार व्याख्या- -"वण्ण रस पञ्च गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे णो संति" श्वेतपीतनीलारुणकृष्णसंज्ञाः पञ्च वर्णाः, तिक्तकटुककषायाम्लमधुरसंज्ञाः पञ्च रसाः, सुगन्धदुर्गन्धसंज्ञौ द्वौ गन्धौ शीतोष्णस्निग्धरुक्षमृदुकर्कश गुरुलघुसंज्ञा अष्टौ स्पर्शाः, “णिच्छया" शुद्धनिश्चयनयात् शुद्धबुद्धेकस्वभावे शुद्धजीवे न सन्ति । "अमुन्ति तदो" ततः कारणादमूर्त्तः, यद्यमूर्तस्तहि तस्य कथं कर्मबन्ध इति चेत् "ववहारा मुत्ति" अनुपचरितासभूतव्यवहारान्मूर्ती यतस्तदपि कस्मात् "बंधादो' अनन्तज्ञानाद्युपलम्भलक्षणमोक्षविलक्षणादनादिकर्मबन्धनादिति । तथा चोक्तं-कथं चिन्मूर्त मूर्त्तजीवलक्षणम् - "बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स भिण्णत्तं । तम्हा अमुत्तिभाव तो होदि जीवस्स । १।" अयमत्रार्थः - यस्यैवामूर्त्तस्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे जीवः स एवामूर्तो मूर्तपञ्चेन्द्रियविषयत्यागेन निरन्तरं ध्यातव्यः । इति भट्टचार्वाकमतं प्रत्यमूर्त्त जीवस्थापनमुख्यत्वेन सूत्रं गतम् ॥ ७ ॥ अथ निष्क्रियामूर्त्तङ्कोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावेन कर्मादिकर्तृत्वरहितोऽपि जीवो व्यवहारादिनयविभागेन कर्त्ता भवतीति कथयति; - इसलिये जीव अमूर्त्त है और बंधसे व्यवहारकी अपेक्षा करके जीव मूर्त है ॥ ७ ॥ व्याख्यार्थ - "वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छ्या जीवे णो संति" श्वेत, नील, पीत (पीला), रक्त (लाल ) तथा कृष्ण ( काला ) ये पाँच वर्ण; चरपरा, कडुवा, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस; सुगन्ध और दुर्गन्ध नामक दो गंध, तथा ठंडा, गरम, चिकना, रूखा, मुलायम, कठोर ( कड़ा), भारी और हलका यह आठ प्रकारका स्पर्शं शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध, बुद्ध एक स्वभावका धारक जो शुद्ध जीव है उसमें नहीं है । " अमुत्ति तदो" इस हेतुसे यह जीव अमूर्त है अर्थात् मूर्ति रहित है । शंका- यदि जीव मूर्तिरहित है तो मूर्ति से शून्य जीवके कर्मका बंध कैसे होता है ? उत्तर- "ववहारा मुत्ति" यद्यपि अमूर्त है तथापि अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारसे मूर्त है, अतः कर्मबंध होता है । शंका- यह मूर्त्त भी किस कारण से है ? उत्तर - "बंधादो" अनंतज्ञान आदिकी प्राप्तिरूप जो मोक्ष है, उस मोक्षसे विपरीत अनादिकर्मो के बंधनसे है । और कथंचित् मूर्त्त तथा अमूर्तका लक्षण कहा भी है, जैसे- "बंधके प्रति जीवकी एकता है और लक्षणसे उसकी भिन्नता है, इसलिये जीवके अमूर्तभाव एकान्तसे नहीं है । १ ।" यहाँपर तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्माकी प्राप्तिके अभाव से इस जीवने अनादि संसार में परिभ्रमण किया है, उसी अमूर्त शुद्धस्वरूप आत्माको मूर्तं पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंका त्याग कर ध्याना चाहिये । इस प्रकार भट्ट और चार्वाक मतके प्रति जीवको मुख्यतासे अमूर्त्त स्थापन करनेवाला सूत्र समाप्त हुआ || ७ || क्रिया रहित, अमूर्त, टंकोत्कीर्ण ( शुद्ध ), ज्ञानरूप एक स्वभावसे जीव यद्यपि कर्म आदि के कर्तापनेसे रहित है तथापि व्यवहार आदि नयके विभागसे कर्त्ता होता है ऐसा कथन करते हैं; -- Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्यपञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७ पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।। ८ ।। पुद्गलकर्मादीनां कर्ता व्यवहारतः तु निश्चयतः।। चेतनकर्मणां आत्मा शुद्धनयात् शुद्धभावानाम् ॥ ८॥ व्याख्या- अत्र सूत्रे भिन्नप्रक्रमरूपव्यवहितसम्बन्धेन मध्यपदं गृहीत्वा व्याख्यानं क्रियते । "आदा" आत्मा "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु" पुद्गलकर्मादीनां कर्त्ता व्यवहारतस्तु पुनः, तथाहि-मनोवचनकायव्यापारक्रियारहितनिजशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्ननुपचरितासद्भूतव्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणामादिशब्देनौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरत्रयाहारादिषट्पर्याप्तियोग्यपुद्गलपिण्डरूपनोकर्मणां तथैवोपचरितासद्भूतव्यवहारेण बहिविषयघटपटादीनां च कर्ता भवति । "णिच्छयदो चेदणकम्माणादा" निश्चयनयतश्चेतनकर्मणां तद्यथा रागादिविकल्पोपाधिरहितनिष्क्रियपरमचैतन्यभावनारहितेन यदुपाजितं रागाद्यत्पादकं कर्म तदुदये सति निष्क्रियनिर्मलस्वसंवित्तिमलभमानो भावकर्मशब्दवाच्यरागादिविकल्परूपचेतनकर्मणामशुद्धनिश्चयेन कर्ता भवति । अशुद्धनिश्चयस्यार्थः कथ्यते-कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्धः, तत्काले तप्तायःपिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चयः, इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते । “सुद्धणया सुद्धभावाणं" शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धकस्वभावेन यदा परिणमति तदानन्तज्ञानसुखादिशुद्धभावानां गाथा भावार्थ-आत्मा व्यवहारसे पुद्गल कर्म आदिका कर्ता है, निश्चयसे चेतन कर्मका कर्ता है और शुद्ध नयसे शुद्ध भावोंका कर्ता है ॥ ८ ॥ व्याख्यार्थ-इस सूत्रमें भिन्न प्रक्रमरूप व्यवहित संबंधसे मध्य ( बीचके ) पदको ग्रहण करके व्याख्यान किया जाता है । "आदा" आत्मा "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु" व्यवहार नयको अपेक्षासे पुद्गल कर्म आदिका कर्ता है। जैसे-मन, वचन, तथा शरीरके व्यापाररूप क्रियासे रहित निज शुद्ध आत्मतत्त्वकी जो भावना है, उस भावनासे शून्य होकर उपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मोंका तथा आदि शब्दसे औदारिक, वैक्रियक और आहारकरूप तीन शरीर तथा आहार आदि ६ पर्याप्तियोंके योग्य जो पुद्गल पिंडरूप नो ( ईषत् ) कर्म हैं, उनका तथा उसी प्रकार उपचरित असद्भत व्यवहारसे बाह्य विषय घट, पट आदिका भी यह जीव का है। "णिच्छयणिच्छयदो चेदणकम्माणादा" और निश्चयनयकी अपेक्षासे तो यह आत्मा चेतन कर्मोका कर्ता है । सो ऐसे है कि राग आदि विकल्परूप उपाधिसे रहित निष्क्रिय, परमचैतन्यभावनासे रहित ऐसे जीवने जो राग आदिको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका उपार्जन किया उन कर्मोंका उदय होनेपर निष्क्रिय और निर्मल आत्मज्ञानको नहीं प्राप्त होता हुआ यह जीव भावकर्म इस शब्दसे वाच्य जो रागादि विकल्परूप चेतन कर्म हैं, उनका अशुद्ध निश्चयनयसे कर्ता होता है । अब अशुद्ध निश्चयका अर्थ कहते हैं। कर्मरूप उपाधिसे उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और उस समय अग्निमें तपे हुए लोहेके गोलेके समान तन्मय ( उसोरूप ) होनेसे निश्चय कहा जाता है, इस रीतिसे अशुद्ध और निश्चय इन दोनोंको मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है। "सुद्धणया सुद्धभावाणं" जीव जब शुभ तथा अशुभ मन, वचन, और कायरूप तीनों योगोक व्यापारसे रहित शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभावसे परिणमता है, तब अनंत ज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावोका Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति । किन्तु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति । यतो हि नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजात्मस्वरूपभावनारहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्या। एवं साख्यमतं प्रत्येकान्ताकर्तृत्वनिराकरणमुख्यत्वेन गाथा गता ॥ ८॥ ___अथ यद्यपि शुद्धनयेन निर्विकारपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतस्य भोक्ता तथाप्यशुद्धनयेन सांसारिकसुखदुःखस्यापि भोक्तात्मा भवतीत्याख्याति; ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि । आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स ।। ९ ।। व्यवहारात् सुखदुःखं पुद्गलकर्मफलं प्रभुङ्क्ते।। आत्मा निश्चयनयतः चेतनभावं खलु आत्मनः ।। ९॥ व्याख्या-“ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि" व्यवहारात्सुखदुःखरूपं पुद्गलकर्मफलं प्रभुङ्क्ते । स कः कर्ता "आदा" आत्मा "णिच्छयणयदो चेदणभावं आदस्स" निश्चयनयतश्चेतनभावं भुङ्क्ते "खु" स्फुटं कस्य सम्बन्धिनमात्मनः स्वस्येति । तद्यथा- आत्मा हि निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुद्भूतपारमार्थिकसुखसुधारसभोजनमलभमान उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टाछद्मस्थ अवस्थामें भावनारूप विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनयसे कर्ता होता है और मुक्त अवस्था में तो शुद्ध निश्चयनयसे अनंत ज्ञानादि शुद्ध भावोंका कर्ता है। यहाँ विशेष यह है कि शुद्ध अशुद्ध भावोंका जो परिणमन है, उन्हींका कर्तृत्व जीवमें जानना चाहिये और हस्त आदिके व्यापाररूप परिणमनोंका न समझना चाहिये। क्योंकि नित्य, निरंजन, निष्क्रिय ऐसे अपने आत्मस्वरूपकी भावनासे रहित जो जीव है उसीके कर्म आदिका कर्तृत्व कहा गया है। इसलिये उस निज शुद्ध आत्मामें ही भावना करनी चाहिये । ऐसे सांख्यमतके प्रति 'एकान्तसे जीव कर्ता नहीं है" इस मतके निराकरणकी मुख्यतासे गाथा समाप्त हुई ॥ ८॥ __अब यद्यपि आत्मा शुद्ध नयसे विकाररहित परम आनंदरूप एक लक्षणका धारक जो सुखरूपी अमृत है उसको भोगनेवाला है, तथापि अशुद्ध नयसे संसारमें उत्पन्न हुए जो सुख दुःख हैं उनका भी भोगनेवाला है, ऐसा कथन करते हैं; गाथा भावार्थ-आत्मा व्यवहारसे सुख दुःखरूप पुद्गल कर्मोको भोगता है और निश्चय नयसे आत्मा चेतन स्वभावको भोगता है ॥ ९ ॥ व्याख्यार्थ--"ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि" व्यवहारनयकी अपेक्षासे सुख तथा दुःखरूप पुद्गल कर्मफलोंको भोगता है। वह कर्मफलोंका भोक्ता कौन है ? कि "आदा" अर्थात् आत्मा। "णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स" और निश्चयनयसे तो स्फुट रीतिसे चेतन भावका ही भोक्ता आत्मा है, और वह चेतन भाव किस सम्बन्धी है, कि अपना ही सम्बन्धी है । वह ऐसे कि निज शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो पारमार्थिक सुखरूप अमृत रस है, उसके भोजनको नहीं प्राप्त होता हुआ जो आत्मा है, वह उपर्चारत असद्भूतव्यवहारनयसे इष्ट तथा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] निष्प्रपञ्चेन्द्रियविषयजनितसुखदुःखं भुङ्क्ते तथैवानुपचरितासभूतव्यवहारेणाभ्यन्तरे सुखदुःखजनकं द्रव्यकर्मरूपं सातासातोदयं भुङ्क्ते । स एवाशुद्धनिश्चयनयेन हर्षविषादरूपं सुखदुःखं च भुङ्क्ते । शुद्धनिश्चयनयेन तु परमात्मस्वभावसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पन्नसदानन्दैकलक्षणं सुखामृतं भुङ्क्त इति । अत्र यस्यैव स्वाभाविक सुखामृतस्य भोजनाभावादिन्द्रियसुखं भुञ्जानः सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातीन्द्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्रायः । एवं कर्त्ता कर्मफलं न भुङ्क्त इति बौद्धमत निषेधार्थं भोक्तृत्वव्याख्यानरूपेण सूत्रं गतम् ॥ ९ ॥ अथ निश्चयेन लोकप्रमितासंख्येयप्रदेश मात्रोऽपि व्यवहारेण देहमात्रो जीव इत्यावेदयति;अगुरुदेहमाण उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥ १० ॥ बृहद्रव्य संग्रहः अगुरुदेहप्रमाणः उपसंहारप्रसर्पतः चेतयिता । असमुद्घातात् व्यवहारात् निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ॥ १० ॥ व्याख्या- " अणुगुरुदेहपमाणो" निश्चयेन स्वदेहादभिन्नस्य केवलज्ञानाद्यनन्तगुणराशेरभिन्नस्य निजशुद्धात्मस्वरूपस्योपलब्धेरभावात्तथैव देहममत्व भूलभूताहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाप्रभृतिसमस्त रागादिविभावानामासक्तिसद्भावाच्च यदुपार्जितं शरीरनामकर्म तदुदये सति १९ अनिष्ट पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न- सुख तथा दुःखको भोगता है, ऐसे ही अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारसे अन्तरंग में सुख तथा दुःखको उत्पन्न करनेवाला जो द्रव्यकर्मरूप साता ( सुखरूप ) असाता ( दुःखरूप ) उदय है, उसको भोगता है, और वही आत्मा अशुद्ध निश्चयनयसे हर्ष तथा विषादरूप सुख दुःखको भोगता है, और शुद्ध निश्चयनयसे तो परमात्मस्वभावका जो सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण, उससे उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप एक लक्षणका धारक जो सुखामृत है उसको भोगता है । यहाँपर जिस स्वभावसे उत्पन्न हुए सुखामृतके भोजनके अभाव से ही आत्मा इंद्रियोंके सुखोंको भोगता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है; वही जो स्वभावसे उत्पन्न इन्द्रियोंके अगोचर सुख है सो सब प्रकारसे ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार "कर्त्ता कर्मके फलको नहीं भोगता है" यह जो बौद्धका मत है, उसका खंडन करनेके लिये जीव कर्मफलका भोक्ता है इस व्याख्यानरूप जो सूत्र ( गाथा ) है सो समाप्त हुआ || ९ ॥ अब यद्यपि आत्मा निश्चयनयसे लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशोंका धारक है, तथापि व्यवहार से देहप्रमाण है यह कथन करते हैं; -- गाथाभावार्थ-व्यवहारनयसे समुद्घात अवस्थाके बिना यह जीव संकोच तथा विस्तार से छोटे और बड़े शरीरके प्रमाण रहता है और निश्चयनयसे जीव असंख्यात प्रदेशोंका धारक है ||१०|| व्याख्यार्थ -- " अणुगुरुदेहपमाणो" निश्चयनयसे अपने देहसे भिन्न तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी राशिसे अभिन्न जो अपना शुद्ध आत्मस्वरूप है, उसकी प्राप्तिके अभाव से तथा इसी प्रकार देहकी ममता के मूल कारणस्वरूप आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप जो संज्ञा उनको आदि ले जो समस्त राग आदि विभाव हैं, उनमें आसक्ति के होनेसे जो जीवने शरीरनामकर्म Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार अणु गुरुदेहप्रमाणो भवति । स कः कर्त्ता "चेदा" चेतयिता जीवः । कस्मात् "उवसंहारप्पसप्पदो” उपसंहारप्रसर्पतः शरीर नामकर्मजनितविस्तारोपसंहारधर्माभ्यामित्यर्थः । कोऽत्र दृष्टान्तः, यथा प्रदीपो महद्भाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनान्तरं सर्वं प्रकाशयति लघुभाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनान्तरं प्रकाशयति । पुनरपि कस्मात् "असमुहदो" असमुद्घातात् वेदनाकषायविक्रियामारणान्तिकतैजसाहारक के लिसंज्ञसप्तसमुद्घातवर्जनात् । तथा चोक्तं सप्तसमुद्धातलक्षणम् - "वेयणक साथ वेडब्बियमारणंतिओ समुग्धादो । तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवलीणं तु । १ ।” तद्यथा 'मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपंडस्स । णिग्गमणं देहादो हवदि समुग्धादयं णाम ॥ १॥" तीव्र वेदनानुभवान्मूलशरीरमत्यक्त्वा आत्मप्रदेशानां बहिर्निर्गमनमिति वेदनासमुद्घातः | १| तीव्रकषायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां बहिर्गमनमिति कषायसमुद्घातः |२| मूलशरीरमपरित्यज्य किमपि विकर्तुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमनमिति विक्रियासमुद्घातः । ३ । मरणान्तसमये मूलशरीरमपरित्यज्य यत्र कुत्रचिबद्धमायुस्तत्प्रदेशं स्फुटितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति मारणान्तिकसमुद्घातः |४| स्वस्य मनोनिष्टजनकं किञ्चित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महा २० उपार्जन किया उसका उदय होनेसे सूक्ष्म ( छोटा ) तथा गुरु ( बड़ा ) जो देह उसके प्रमाण होता है । वह शरीर प्रमाण होनेवाला कौन है ? "चेदा" चेतनावाला यह जीव है । किस निमित्तसे ? " उवसंहारपसप्पदो" उपसंहार तथा प्रसर्पण स्वभावसे अर्थात् संकोच तथा विस्तार स्वभावसे । तात्पर्य यह कि शरीरनामकर्मसे उत्पन्न जो विस्तार तथा संकोचरूप जीवके धर्म हैं उनसे यह जीव देहप्रमाण होता है । इसमें दृष्टान्त क्या है ? कि जैसे दीपक किसी बड़े पात्रमें रख दिया जाता है तो वह उस पात्र के अभ्यन्तर ( अन्तर्गत ) जो पदार्थ हैं उन सबको प्रकाशित करता है और जो छोटे पात्रमें रख दिया जाता है तो उस पात्र के अन्तर्गत जो पदार्थ हैं, उनको प्रकाशित करता है । फिर किस निमित्तसे यह जीव देहप्रमाण है ? "असमुहदो" समुद्घातके न होनेसे अर्थात् वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली नामक जो सात समुद्घात हैं, उनको छोड़ने से अर्थात् समुद्घात अवस्थामें तो जीव देहप्रमाण नहीं रहता है, और असमुद्घात दशामें देह प्रमाण ही रहता है और सप्त ( सात ) समुद्घातों का लक्षण इस प्रकार कहा है कि " वेदना ? कषाय २ विक्रिया ३ मारणान्तिक ४ तैजस ५ आहारक ६ और सातवाँ केवली, ये सात समुद्घात हैं” सो ऐसे हैं कि "अपने मूल शरीरको न छोड़कर जो आत्माके प्रदेश देहसे निकलकर उत्तरदेहके प्रति गमन करते हैं, उसको समुद्घात कहते हैं" इन सातों समुद्घातोंको क्रमसे दर्शाते हैं। जैसे- तीव्र वेदना ( पीडा ) के अनुभवसे मूल शरीरका त्याग न करके जो आत्माके प्रदेशों का शरीर से बाहर जाना सो वेदनासमुद्घात है । १ । तथा तीव्र क्रोधादिक कषायोंके उदयसे मूल अर्थात् धारण किये हुए शरीरको न छोड़कर जो आत्माके प्रदेश दूसरेको मारनेके लिये शरीर के बाहर जाते हैं उसको कषायसमुद्धात कहते हैं । २ । किसी प्रकारकी विक्रिया ( कामादिजनित विकार ) उत्पन्न करने वा करानेके अर्थ मूल शरीरको न त्यागकर जो आत्माके प्रदेशोंका बाहर जाना है उसको विकुर्वणा अथवा विक्रियासमुद्धात कहते हैं । ३ । तथा मरणान्त समय में मूल शरीरको न त्याग करके जहाँ कहीं इस आत्माने आयु बाँधा है उसके स्पर्शनेको जो प्रदेशोंका शरीरसे बाह्य गमन करना सो मारणान्तिक समुद्धात है । ४ । अपने मनको अनिष्ट ( बुरा ) उत्पन्न करनेवाले किसी कारणको देखकर उत्पन्न हुआ है क्रोध जिसके ऐसा जो संयमका निधान Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य - पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः मुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरपुञ्जप्रभो दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाणः सूच्यङ्गुलसङ्खयेयभागमूलविस्तारो नवयोजनाग्रविस्तार: काहलाकृतिपुरुषो वामस्कन्धान्निर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्ध वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह सच भस्म व्रजति द्वीपायनवत्, असावशुभस्तेजःसमुद्घातः । लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति असौ शुभरूपस्तेजः समुद्घातः । समुत्पन्नपदपदार्थभ्रान्तेः परमद्धिसंपन्नस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यान्निर्गत्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्त्तमध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तद्दर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थनिश्चयं समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति असावाहारसमुद्घातः । सप्तमः केवलिनां दण्डकपाटप्रतरपूरणः सोऽयं केवलिसमुद्घातः । नयविभागः कथ्यते । "ववहारा" अनुपचरितासद्द्भूतव्यवहारनयात् “णिच्छय-' यदो असंखदेसो वा" निश्चयनयतो लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः वा शब्देन तु स्वसंवित्तिसमुत्पन्नकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापकः न च प्रदेशापेक्षया नैयायिक मीमांसक सांख्यमतवत् । तथैव पञ्चेन्द्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदन २१ महामुनि उसके वाम ( बायें ) कंधेसे सिंदूरके ढेरकी-सी कान्तिवाला, बारह योजन लम्बा, सूच्यंगुल के संख्येय भाग प्रमाण मूल विस्तार और नव योजनके अग्र विस्तारको धारण करनेवाला काहल (विलाब ) के आकारका धारक पुरुष निकल करके वाम प्रदक्षिणा देकर मुनिके हृदय में स्थित जो विरुद्ध पदार्थ है उसको भस्म करके और उसी मुनिके साथ आप भी भस्म हो जाय; जैसे द्वीपायन मुनिके शरीरसे पुतला निकलके द्वारिकाको भस्म कर उसीने द्वीपायन मुनिको भस्म किया और वह पुतला आप भी भस्म हो गया उसीकी तरह जो हो सो अशुभ तैजससमुद्घात है । तथा जगत्को रोग अथवा दुर्भिक्ष आदिसे पीडित देखकर उत्पन्न हुई है कृपा जिसके ऐसा जो परमसंयमनिधान महाऋषि उसके मूल शरीरको नहीं त्यागकर पूर्वोक्त देहके प्रमाणको धारण करनेवाला अच्छी सौम्य आकृतिका धारक पुरुष दक्षिण स्कंधसे निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा कर रोग दुर्भिक्ष आदिको दूर कर फिर अपने स्थानमें प्रवेश कर जाय यह शुभ रूप तंजससमुद्घात है || उत्पन्न हुई है पद और पदार्थ में भ्रान्ति ( संशय ) जिसके ऐसा जो परम ऋद्धिका धारक महर्षि उसके मस्तकमेंसे मूल शरीरको न छोड़कर निर्मल स्फटिक ( बिल्लोर ) की आकृति ( रंग ) को धारण करनेवाला एक हाथका पुरुष निकलकर अन्तर्मुहूर्त्तके बीच में जहाँ कहीं भी केवलीको देखता है और उन केवलीके दर्शनसे अपना आश्रय जो मुनि उसके पद और पदार्थका निश्चय उत्पन्न कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाय सो यह आहारसमुद्घात है । ६ । केवलियोंके जो दंड कपाट प्रतर पूरण होता है सो सातवाँ केवलिसमुद्घात है । ७ । अब नयोंका विभाग कहते हैं । "ववहारा" यह जो गुरुलघुदेहप्रमाणता जीवको दर्शाई गई है, वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नयसे है तथा “णिच्छयणयदो असंखदेसो वा " निश्चयनयसे लोकाकाश प्रमाण जो असंख्येय प्रदेश हैं, उन प्रमाण अर्थात् लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशोंका धारक यह आत्मा है और "असंखदेसो वा " यहाँ जो गाथाके अंत में वा शब्द दिया गया है उस वा शब्दसे ग्रंथकर्त्ता यह सूचित किया है कि स्वसंवित्ति ( आत्मज्ञान ) से उत्पन्न हुआ जो केवलज्ञान उसकी उत्पत्ति के प्रस्ताव में अर्थात् केवलज्ञानावस्थामें ज्ञानकी अपेक्षासे व्यवहारनयद्वारा आत्माको लोक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार लक्षणबोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेन्द्रियबोधाभावाज्जडः न च सर्वथा सांख्यमतवत् । तथा रागादिविभावपरिणामापेक्षया शन्योऽपि भवति न चानन्तज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् । किञ्च अणुमात्रशरीरशब्देनात्र उत्सेधघनामुलासंख्येयभागप्रमितं लब्ध्यपूर्णसूक्ष्मनिगोदशरीरं ग्राह्यं न च पुद्गल परमाणुः । गुरुशरीरशब्देन च योजनसहस्रपरिमाणं महामत्स्यशरीरं मध्यमावगाहेन मध्यमशरीराणि च । इदमत्र तात्पर्य - देहममत्वनिमित्तेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति । एवं स्वदेहमात्रव्याख्यानेन गाथा गता ॥१०॥ अतः परं गाथात्रयेण नयविभागेन संसारिजीवस्वरूपं तदवसाने शुद्धजीवस्वरूपं च कथयति । तद्यथा: पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदी विविहथावरेइंदी । विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होंति संखादी ।। ११ ।। पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतयः विविधस्थावरैकेन्द्रियाः। द्विकत्रिकचतुःपञ्चाक्षाः त्रसजीवाः भवन्ति शंखादयः ॥११॥ व्याख्या--"होति" इत्यादिव्याख्यानं क्रियते । “होंति" अतीन्द्रियामूर्तनिजपरमात्मस्व और अलोकमें व्यापक माना है और जैसे नैयायिक, मीमांसक तथा सांख्यमतवाले आत्माको प्रदेशोंकी अपेक्षासे व्यापक मानते हैं वैसा नहीं। इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों और मनके विषयोंके जो विकल्प उनसे रहित जो समाधिकाल (ध्यानका समय ) है, उसमें आत्मज्ञानरूप ज्ञानके विद्यमान होनेपर भी बाह्य विषयरूप जो इन्द्रियज्ञान है, उसके अभावसे आत्मा जड़ माना गया है और सांख्यमतकी तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है। ऐसे ही आत्मा राग, द्वेष आदि जो विभाव परिणाम हैं उनको अपेक्षासे अर्थात् उनके न होनेसे शून्य भी होता है, परन्तु बौद्धमतको भाँति अनन्तज्ञान आदिकी अपेक्षासे शून्य नहीं है । और अणुमात्रशरीर आत्मा है, यहाँपर अणु शब्दसे उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भाग परिमाण जो लब्धि अपूर्ण ( अपर्याप्तक ) सूक्ष्म निगोदशरीर है, उसका ग्रहण करना चाहिये, और पुद्गल परमाणुका ग्रहण न करना चाहिये। और गरु शरीर यहाँपर गरु शब्दसे एक हजार योजन परिमाण जो महामत्स्यका शरीर है, उसको ग्रहण करना चाहिये, और मध्यम अवगाहनासे मध्यम शरीरोंका ग्रहण है। तात्पर्य इस गाथाका यहाँ यह है कि जीव देहके ममत्वरूप निमित्त कारणसे देहको ग्रहण कर संसारमें परिभ्रमण करता है इस कारण देह आदिके ममत्वको छोड़कर निर्मोह जो अपना शुद्ध आत्मा है, उसमें भावना करनी चाहिये । इस प्रकार जीव स्वदेह मात्र है, इस कथनसे यह गाथा समाप्त हुई ।। १० ॥ ___ अब तीन गाथाओंके द्वारा नयके विभागसे संसारी जीवका स्वरूप तथा उसके अंत में शुद्ध जीवका स्वरूप कहते हैं। वह निम्नलिखित प्रकार है : गाथाभावार्थ-- पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति इन भेदोंसे नाना प्रकारके स्थावर जीव हैं और ये सब एक स्पर्शन इंद्रियके ही धारक हैं, तथा शंख आदिक दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियोंके धारक त्रस जीव होते हैं ।। ११ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः भावानुभूतिजनितसुखामृतरसस्वभावमलभमानास्तुच्छमपीन्द्रियसुखमभिलषन्ति छद्मस्थाः, तदासक्ताः सन्त एकेन्द्रियादिजीवानां घातं कुर्वन्ति तेनोपाजितं यत्त्रसस्थावरनामकर्म तदुदयेन जीवा भवन्ति । कथंभूता भवन्ति ? "पुढविजलतेयवाऊवणप्फदी विविहथावरेइंदी" पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः। कतिसंख्योपेता? विविधा आगमकथितस्वकीयस्वकीयान्तर्भेदैर्बहुविधाः । स्थावरनामकर्मोदयेन स्थावरा, एकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयेन स्पर्शनेन्द्रिययुक्ता एकेन्द्रियाः, न केवलमित्थंभूताः स्थावरा भवन्ति । “विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा" द्वित्रिचतुःपञ्चाक्षास्त्रसनामकर्मोदयेन त्रसजीवा भवन्ति । ते च कथंभूताः ? “संखादी" शङ्खादयः स्पर्शनरसनेन्द्रियद्वययुक्ताः शङ्खशुक्तिकृम्यादयो द्वीन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघ्राणेन्द्रियत्रययुक्ताः कुन्थुपिपीलिकायकामत्कुणादयस्त्रीन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियचतुष्टययुक्ता दंशमशकमक्षिकाभ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रेन्द्रियपञ्चयुक्ता मनुष्यादयः पञ्चेन्द्रिया इति । अयमत्रार्थः-विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपारमार्थिकसुखमलभमाना इन्द्रियसुखासक्ता एकेन्द्रियादिजीवानां वधं कृत्वा त्रसस्थावरा भवन्तीत्युक्तं पूर्व तस्मात्त्रसस्थावरोत्पत्तिविनाशार्थ तत्रैव परमात्मनि भावना कर्तव्येति ॥ ११ ॥ तदेव त्रसस्थावरत्वं चतुर्दशजीवसमासरूपेण व्यक्तीकरोति : व्याख्यार्थ-अब 'होति' इत्यादि पदोंकी व्याख्या की जाती है। "होति" अतीन्द्रिय तथा मूर्ति रहित जो निजपरमात्माका स्वभाव है, उसके अनुभवसे उत्पन्न जो सुखरूपी अमृतरस उसके स्वभावको 'नहीं प्राप्त करते हुए जीव तुच्छ ( अल्प ) जो इंद्रियोंसे उत्पन्न सुख है, उसकी अभिलाषा करते हैं और अज्ञानतासे उस इन्द्रियजनित सुखमें आसक्त होकर एकेन्द्रिय आदि जीवोंका घात करते हैं, उस घातसे उपार्जन किया जो त्रस तथा स्थावर नामकर्म उसके उदयसे होते हैं। "पुढविजलतेयवाऊवणप्फदीविविहथावरेइंदो' पृथ्वी, जल, तेज, वायु, तथा वनस्पति जीव, कितने-अनेक प्रकारके अर्थात् शास्त्रमें कहे हुए जो अपने-अपने भेद हैं उनसे बहुत प्रकारके, स्थावर नामकर्मके उदयसे स्थावर, एकेन्द्रिय जाति नामकर्मके उदयसे स्पर्शन इन्द्रिय सहित एकेन्द्रिय होते हैं केवल इस प्रकारके स्थावर ही नहीं होते हैं; किन्तु “विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा" दो, तीन, चार, तथा पाँच इन्द्रियोंके धारक त्रस नामकर्मके उदयसे त्रस जोव होते हैं वे कैसे हैं कि "संखादी' शंख आदिक अर्थात् स्पर्शन और रसन इन दो इन्द्रियों सहित शंख, कृमि आदि दो इन्द्रियोंके धारक जीव हैं; स्पर्शन, रसन, तथा घ्राण (नासिका) इन तीन इन्द्रियों सहित कुथु, पिपीलिका ( कीड़ी ); यूका (जू), मत्कुण (खटमल) आदि त्रीन्द्रिय हैं। स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु (नेत्र) इन चार इन्द्रियों सहित दंश (डांस), मशक ( मच्छर ), मक्षिका (मक्खी) और भौंरा आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं; स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत (कर्ण) इन पाँच इन्द्रियों सहित मनुष्य आदि पञ्चेन्द्रिय हैं। यहाँपर तात्पर्य यह है कि निर्मल ज्ञान तथा दर्शन स्वभावका धारक जो निज परमात्मस्वरूप उसकी भावनासे उत्पन्न जो पारमार्थिक सुख है, उसको नहीं प्राप्त होते हुए जीव इन्द्रियोंके सुखमें आसक्त होकर जो एकेन्द्रियादि जीवोंका वध करते हैं, उससे त्रस तथा स्थावर होते हैं, ऐसा पहले कह चुके हैं इसलिये त्रस और स्थावरोंमें जो उत्पत्ति होती है उसके नाशके लिये उसे उसी पूर्वोक्त प्रकारसे परमात्मामें भावना करनी चाहिये ॥ ११ ।। अब उसी त्रस तथा स्थावरपनेको चतुर्दश जीवसमासों द्वारा व्यक्त ( प्रकट ) करते हैं; Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार समणा अमणा णेया पंचिंदिय णिम्मणा परे सव्वे । बादरसुहमेइंदी सव्वे पज्जत इदरा य ।। १२ ।। समनस्काः अमनस्काः ज्ञेयाः पञ्चेन्द्रियाः निर्मनस्काः परे सर्वे । बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियाः सर्वे पर्याप्ताः इतरे च ॥ १२॥ व्याख्या-"समणा अमणा" समस्तशुभाशुभविकल्पातीतपरमात्मद्रव्यविलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते तेन सह ये वर्तन्ते ते समनस्काः, तद्विपरीता अमनस्का असंज्ञिनः ‘‘णेया" ज्ञेया ज्ञातव्याः । “पंचिदिय" ते संज्ञिनस्तथैवासंजिनश्च पञ्चेन्द्रियाः । एवं संज्यसंज्ञिपञ्चेन्द्रियास्तिर्यञ्च एव, नारकमनुष्यदेवाः संज्ञिपञ्चेन्द्रिया एव । "णिम्मणा परे सव्वे" निर्मनस्काः पञ्चेन्द्रियात्सकाशादपरे सर्वे द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः "बादरसुहमेइंदी" बादरसूक्ष्मा एकेन्द्रियास्तेऽपि यदष्टपत्रपद्माकारं द्रव्यमनस्तदाधारण शिक्षालापोपदेशादिग्राहकं भावमनश्चेति तदुभयाभावादसंजिन एव । "सब्वे पज्जत्त इदरा य" एवमुक्तप्रकारेण संश्यसंज्ञिरूपेण पञ्चेन्द्रियद्वयं द्वित्रिचतुरिन्द्रियरूपेण विकलेन्द्रियत्रयं बादरसक्ष्मरूपेणैकेन्द्रियद्वयं चेति सप्तभेदाः । “आहारसरीरिदियपज्जत्ती आणपाणभासमणा। चत्तारिपंचछप्पियएड दियवियलसणिसणीणं।१।" इति गाथाकथितक्रमेण ते सर्वे प्रत्येकं स्वकीयस्वकीय-पर्याप्तिसंभवात्सप्त पर्याप्ताः सप्तापर्याप्ताश्च भवन्ति । गाथाभावार्थ-पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो प्रकारके जानने चाहिये और दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय ये सब मनरहित ( असंज्ञी ) हैं, एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं और ये पूर्वोक्त सातों पर्याप्त तथा अपर्याप्त हैं, ऐसे १४ जीवसमास हैं ।। १२॥ व्याख्यार्थ-"समणा अमणा" संपूर्ण शुभ तथा अशभरूप जो विकल्प हैं, उन विकल्पोंसे रहित जो परमात्मारूप द्रव्य है, उससे विलक्षण नाना प्रकारके विकल्पजालोंरूप जो है उसको मन कहते हैं, उस मनसे सहित जो हैं उनको समनस्क (सेनी) कहते हैं और उनसे विरुद्ध अर्थात् पूर्वोक्त मनसे शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी ( असेनी ) "णेया" जानने चाहिये । "पंचिदिया" पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं परन्तु संज्ञो तथा असंज्ञी ये दोनों पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च ही होते हैं और नारक, मनुष्य तथा देव ये संज्ञी पञ्चेन्द्रिय ही होते हैं। "णिम्मणा परे सव्वे" पञ्चेन्द्रियसे भिन्न अन्य सब द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव मनरहित ( असेनी ) हैं । "बादरसुहमेइंदी" बादर (स्थूल) और सूक्ष्म जो एकेन्द्रिय हैं, वे भी आठ पाँखडीके कमलके आकार जो द्रव्यमन और उस द्रव्यमनके आधारसे शिक्षा, वचन और उपदेश आदिका ग्राहक भावमन इन दोनोंके अभावसे असंज्ञी ( मनरहित ) ही हैं। 'सव्वे पज्जत्तइदरा य" इस पूर्वोक्त प्रकारसे संज्ञी असंज्ञीरूप दोनों पञ्चेन्द्रिय और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप जो विकलत्रय और बादर, तथा सूक्ष्म भेदसे दोनों एकेन्द्रिय ऐसे ये सात भेद हुए। तथा "आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा तथा मन ये षट् पर्याप्ती हैं, इनमेंसे जो एकेन्द्रिय जीव हैं उनको तो केवल आहार, शरीर, एक इन्द्रिय, तथा श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ होती हैं। संज्ञी पंचेन्द्रियोंके चार ये पूर्वोक्त, और भाषा तथा मन ये छहों पर्याप्तियाँ होती हैं, और शेष जीवोंके मनरहित पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं।' इस गाथामें कहे हुए क्रमसे वे सब हरएक अपनी-अपनी पर्याप्तियोंके होनेसे सात तो पर्याप्त हैं, और सात अपर्याप्त हैं। ऐसे चौदह जीव Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः एवं चतुर्दशजीवसमासा ज्ञातव्यास्तेषां च "इंदियकायाऊणिय पुण्णापुण्णेसु पुष्णगे आणा । इंदियादि पुणे सुवचिमणोसण्ण पुण्णे य । १ । दस सण्णीणं पाणा सेसेगूणंति मण्णवे ऊणा । पज्जत्ते मिदरेसुयसत्तदुगे सेसेगेगूणा । २।” इति गाथाद्वयकथितक्रमेण यथासंभवमिन्द्रियादिदशप्राणाश्च विज्ञेयाः । अत्रैतेभ्यो भिन्नं निजशुद्धात्मतत्त्वमुपादेयमिति भावार्थः ॥ १२ ॥ २५ अथ शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेण शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुद्धबुद्ध कस्वभावा अपि जीवाः पश्चादशुद्धनयेन चतुर्दशमार्गणास्थानचतुर्दशगुणस्थानसहिता भवन्तीति प्रतिपादयति; - मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुगुणया । विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।। १३ ।। मार्गणागुणस्थानैः चतुर्दशभिः भवन्ति तथा अशुद्धनयात् । विज्ञेयाः संसारिणः सर्वे शुद्धाः खलु शुद्धनयात् ॥ १३ ॥ व्याख्या- - " मग्गणगुणठाणेहि य हवंति तह विष्णेया" यथा पूर्वसूत्रोदितचतुर्दशजीवसमासैर्भवन्ति मार्गणागुणस्थानैश्च तथा भवन्ति संभवन्तीति विज्ञेया ज्ञातव्याः । कतिसंख्योपेतैः " चउदसहि" प्रत्येकं चतुर्दशभिः । कस्मात् " असुद्धणया" अशुद्धनयात् सकाशात् । समास जानने चाहिये । " पर्याप्त अवस्था में संज्ञी पंचेन्द्रियोंके १० प्राण, असंज्ञी पंचेन्द्रियोंके मनके विना ९ प्राण, चौइंद्रियोंके मन और कर्णके विना ८ प्राण, तेइंद्रियोंके मन, कर्ण और चक्षुके बिना ७ प्राण दोइन्द्रियोंके मन कर्ण, चक्षु और घ्राणके विना ६ प्राण और एकेन्द्रियोंके मन, कर्ण, चक्षु, घ्राण, रसना तथा वचनबलके बिना ४ प्राण होते हैं । अपर्याप्त अवस्थाके धारक जीवों में संज्ञी तथा असंज्ञी इन दोनों पंचेन्द्रियोंके श्वासोश्वास, वचनबल और मनोबलके बिना ७ प्राण होते हैं और चौइन्द्रिय आदि एकेन्द्रियपर्यंत शेष जीवोंके क्रमानुसार एक एक प्राण घटता हुआ है । २ ।" इन दो गाथाओं द्वारा कहे हुए क्रमसे यथासंभव इन्द्रियादि दश प्राण समझने चाहिये । यहाँ पर कथनका अभिप्राय यह है कि इन पूर्वोक्त पर्याप्तियों तथा प्राणोंसे भिन्न जो अपना शुद्ध आत्मतत्त्व है, उसको ग्रहण करना चाहिये ॥ १२ ॥ अब शुद्ध पारिणामिक परम भावका ग्राहक जो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है, उससे सब जीव शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं, तो भी अशुद्धनयसे चौदह मार्गणास्थान और चौदह गुणस्थानोंसहित होते हैं ऐसा कथन करते हैं: गाथाभावार्थ -- संसारी जीव अशुद्ध नयसे चौदह मार्गणास्थानोंसे तथा चौदह गुणस्थानोंसे चौदह चौदह प्रकार के होते हैं, और शुद्धनयसे तो सब संसारीजीव शुद्ध ही हैं || १३ || व्याख्यार्थ -- " मग्गणगुणठाणेहि य हवंति तह विष्णेया" जिस प्रकार " समणा अमणा" इत्यादि पूर्वगाथामें कहे हुए चतुर्दश जीवसमासोंसे जीवोंके चतुर्दश भेद होते हैं उसी प्रकार मार्गणा और गुणस्थानों से भी होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। कितनी संख्या के धारक मार्गणा और गुणस्थानोंसे होते हैं ? " चउदसहि" प्रत्येक चतुर्दश संख्या के धारकोंसे । किस अपेक्षासे ? “असुद्धणया" अशुद्धनयकी अपेक्षासे । चतुर्दश मार्गणा और चतुर्दश गुणस्थानों से Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार इत्थंभूताः के भवन्ति । “संसारी" सांसारिजीवाः " सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" त एव सर्वे संसारिणः शुद्धाः सहजशुद्धज्ञायकैकस्वभावाः । कस्मात् शुद्धनयात् शुद्धनिश्चयनयादिति । अथागमप्रसिद्धगाथायेन गुणस्थाननामानि कथयति । “मिच्छो सासणमिस्सो अविरदसम्मो य देसविरदो य । विरया पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्ठि सुहमो य । १ । उवसंतखीणमोहो सजोगिकेवलिजिणो अजोगीया । चउदसगुणठाणाणि य कमेण सिद्धा य णायव्वा । २ ।" इदानीं तेषामेव गुणस्थानानां प्रत्येकं संक्षेपलक्षणं कथ्यते । तथाहि - सहजशुद्ध केवलज्ञानदर्शनरूपा खण्डैक प्रत्यक्ष प्रतिभासमयनिजपरमात्मप्रभृतिषद्रव्य पञ्चास्तिकाय सप्त तत्त्व नवपदार्थेषु मूढत्रयादिपञ्चविंशतिमलरहितं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनयविभागेन यस्य श्रद्धानं नास्ति स मिथ्यादृष्टिर्भवति । पाषाण रेखासदृशानन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान्यतरोदयेन प्रथममोपशमिक सम्यक्त्वात्पतितो मिथ्यात्वं नाद्यापि गच्छतीत्यन्तरालवर्ती सासादनः । निजशुद्धात्मादितत्त्वं वीतराग सर्वज्ञ प्रणीतं परप्रणीतं च मन्यते यः स दर्शनमोहनीयभेदमिश्र कर्मोदयेन दधिगुडमिश्रभाववत् मिश्रगुणस्थानवर्त्ती भवति । अथ मतं - येन केनाप्येकेन मम देवेन प्रयोजनं तथा सर्वे देवा वन्दनीया न च निन्दनीया इत्यादिवैनयिक मिथ्यादृष्टिः संशयमिथ्यादृष्टिर्वा तथा मन्यते तेन सह सम्यग्मिथ्यादृष्टः को विशेष इति, अत्र परिहारः - "स सर्वदेवेषु सर्वसमयेषु च भक्तिपरिणामेन येन केनाप्येकेन अशुद्धनयको अपेक्षासे चौदह चौदह प्रकारके होनेवाले कौन हैं ? "संसारी" संसारी जीव हैं । " सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" वे ही सब संसारी जीव शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे शुद्ध अर्थात् स्वभावसे उत्पन्न जो शुद्ध ज्ञायक ( जाननेवाला ) रूप एक स्वभाव उसके धारक हैं । अब शास्त्रों में प्रसिद्ध जो दो गाथा हैं, उनके द्वारा गुणस्थानोंके नाम कहते हैं । गाथार्थ - " मिथ्यात्व १ सासादन २ मिश्र ३ अविरतसम्यक्त्व ४ देशविरत ५ प्रमत्तविरत ६ अप्रमत्तविरत ७ अपूर्वकरण ८ अनिवृत्तिकरण ९ सूक्ष्मसाम्पराय १० उपशान्तमोह ११ क्षीणमोह १२ सयोगि केवल जिन १३ और अयोगि केवल जिन १४ इस प्रकार क्रमानुसार चौदह गुणस्थान जानने चाहिये । २ । ” अब इन गुणस्थानोंमेंसे प्रत्येकका संक्षेप लक्षण कहते हैं; - जैसे स्वाभाविक शुद्ध केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप जो अखण्ड प्रत्यक्ष प्रतिभास है तादृश प्रत्यक्ष प्रतिभासमय जो निजपरमात्मा ( अपना शुद्ध (जीव ) वह है आदिमें जिसके ऐसे जो षट् द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात सत्त्व और नव पदार्थ उनमें तीन मूढता आदि पचीस मल ( दोष ) रहितत्वपूर्वक वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए नयविभाग से जिस जीवके श्रद्धान नहीं है वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है । १ । पाषाणरेखा ( पत्थर में की हुई लकीर ) के समान जो अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं; उनमें से किसी एकके उदयसे प्रथम जो औपशमिक सम्यक्त्व है उससे जीव गिरकर जबतक मिथ्यात्वको प्राप्त न हो तबतक सम्यक्त्व और मिथ्यात्व इन दोनों के बीच में विद्यमान जो जीव है वह सासादन है । २ । जो अपने शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वको वीतराग सर्वज्ञका कहा हुआ भी मानता है और अन्य मतके आचार्यों द्वारा कहा हुआ भी मानता है वह दर्शनमोहनीय कर्मका भेद जो मिश्रकर्म है उसके उदयसे दही और गुड़ मिले हुए पदार्थकी भाँति तीसरा जो मिश्र गुणस्थान है उसमें रहनेवाला जीव है । ३ । अब कोई शंका करे कि चाहे जिससे हो मुझे तो एक देवसे प्रयोजन है अथवा सब देवोंकी वन्दना करनी योग्य है, निन्दा किसी भी देवकी न करनी चाहिये इस प्रकार वैनयिक मिथ्यादृष्टि और संशयमिथ्यादृष्टि मानता है तब उसके Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्रव्य - पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः मम पुण्यं भविष्यतीति मत्वा संशयरूपेण भक्तिं कुरुते निश्चयो नास्ति । मिश्रस्य पुनरुभयत्र निश्चयोऽस्तीति विशेषः । स्वाभाविकानन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्यं हि हेयमित्यर्हत्सवंज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनय साध्यसाधकभावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्तं तलव र गृहीत तस्कर वदात्मनिन्दादिसहितः सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेर्लक्षणम् । यः पूर्वोक्तप्रकारेण सम्यग्दृष्टिः सन् भूमिरेखादिसमानक्रोधादिद्वितीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेनैकदेशरागादि २७ रहितस्वाभाविकसुखानुभूतिलक्षणेषु बर्हिविषये पुनरेकदेशहिसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु "दंसणवय सामाइयपो सहसचित्तराइभत्ते य । बंभारंभपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य । १ । " इति गाथाकथितैकादशनिलयेषु वर्त्तते स पञ्चम गुणस्थानवर्ती श्रावको भवति । ५ । स एव सद्दृष्टिधूलि रेखादिसदृशक्रोधादितृतीयकषायोदयाभावे सत्यभ्यन्तरे निश्चयनयेन रागाद्युपाधिरहितस्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतानुभवलक्षणेषु बहिर्विषयेषु पुनः सामस्त्येन हिंसानृतस्तेयब्रह्मपरिग्रहनिवृत्तिलक्षणेषु च पञ्चमहाव्रतेषु वर्त्तते यदा तदा दुःस्वप्नादिवयक्ताव्यक्तप्रमादसहितोऽपि साथ मिश्र गुणस्थानवर्ती सम्यग् मिथ्यादृष्टिका क्या भेद है अर्थात् वैनयिक वा संशयमिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में क्या भेद है जिससे उसको जुदा कहा ? इस शंकाका खण्डन यह है कि वैनयिक मिथ्यादृष्टि अथवा संशय मिथ्यादृष्टि तो सम्पूर्ण देवों में तथा सब शास्त्रों में किसी एक की भक्ति के परिणामसे मुझे पुण्य होगा अर्थात् इन सबकी सेवा करने से किसी एककी तो सेवा सफल होगी ऐसा मानकर संशयरूपसे भक्ति करता है; क्योंकि उसको किसी देवमें निश्चय नहीं है कि यह सत्य है और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवके दोनोंमें निश्चय है । बस यही विशेष है । जो स्वभावसे उत्पन्न जो अनन्तज्ञान आदि अनन्त गुण हैं उनका आधारभूत निज परमात्मद्रव्य तो उपादेय है और इन्द्रियोंके सुख आदि परद्रव्य हेय ( त्याज्य ) हैं ऐसे अर्हत् सर्वज्ञ देव से प्रणीत निश्चय तथा व्यवहारनयको साध्य-साधक भावसे मानता है, परन्तु भूमिकी रेखाके तुल्य क्रोध आदि द्वितीय कषायभेदके अर्थात् प्रत्याख्यानकषायके उदयसे मारनेके लिये कोतवालसे पकड़े हुए चोरकी भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रियोंके सुखोंका अनुभव करता है वह अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थानवर्त्ती जीवका स्वरूप है । ४ । जो पूर्वोक्त प्रकार से सम्यग्दृष्टि होकर भूमिरेखादिके समान प्रत्याख्यान क्रोध आदि कषायोंके उदयका अभाव होनेपर अन्तरंग में निश्चयनयसे एकदेशराग आदिसे रहित स्वाभाविक सुखके अनुभवलक्षण तथा बाह्य में “हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इनके एकदेशत्याग लक्षण पाँच अणुव्रतों में और दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरत, रात्रिभक्त, ब्रह्मचर्य, आरम्भविरत, परिग्रहविरत अनुमतिविरत तथा उद्दिष्टविरत । १ ।" इस प्रकार गाथा में कहे हुए जो श्रावकके एकादश स्थान हैं उनमें वर्त्तता है वह पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावक जीव होता है । ५ । वही सम्यग्दृष्टि धूलिरेखा ( माटीकी रेखा ) के समान अप्रत्याख्यान क्रोध आदि तृतीय कषायों के उदयका अभाव होनेपर निश्चयनयसे अन्तरङ्गमें राग आदिकी उपाधिसे रहित जो निज शुद्ध आत्माका ज्ञान है उससे उत्पन्न सुखामृतके अनुभव लक्षणके धारक और बाह्य विषयों में सम्पूर्णरूप से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहके त्यागरूप लक्षणके धारक पाँच महाव्रतोंमें जब वर्त्तता है तब बुरे स्वप्न आदि प्रकट तथा अप्रकट प्रमाद सहित होता Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्तसंयतो भवति ।६। स एव जलरेखादिसशसंज्वलनकषायमन्दोदये सति निष्प्रमादशुद्धात्मसंवित्तिमलजनकव्यक्ताव्यक्तप्रमादरहितः सन्सप्तमगुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयतो भवति । ७ । स एवातीतसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्वपरमाह्लादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवतॊ भवति । ८। दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षादिरूपसमस्तसङ्कल्परहितनिजनिश्चलपरमात्मतत्त्वैकाग्रध्यानपरिणामेन कृत्वा येषां जीवानामेकसमये ये परस्परं पृथक्कर्तुं नायान्ति ते वर्णसंस्थानादिभेदेऽप्यनिवृत्तिकरणौपशमिकक्षपकसंज्ञा द्वितीयकषायाद्येकविंशतिभेदभिन्नचारित्रमोहप्रकृतीनामुपशमक्षपणसमर्था नवमगुणस्थानत्तिनो भवन्ति । ९ । सूक्ष्मपरमात्मतत्त्वभावनाबलेन सूक्ष्मकृष्टिगतलोभकषायस्योपशमकाः क्षपकाश्च दशमगुणस्थानत्तिनो भवन्ति । १० । परमोपशममूर्तिनिजात्मस्वभावसंवित्तिबलेन सकलोपशान्तमोहा एकादशगुणस्थानवतिनो भवन्ति । ११ । उपशमश्रेणिविलक्षणेन क्षपकश्रेणिमार्गेण निष्कषायशुद्धात्मभावनाबलेन क्षीणकषाया द्वादशगुणस्थानतिनो भवन्ति । १२ । मोहक्षपणानन्तरमन्तर्मुहूर्त्तकालं स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणैकत्ववितर्कावीचारद्वितीयशुक्लध्याने स्थित्वा तदन्त्यसमये ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायत्रयं युगपदेकसमयेन निर्मूल्य मेघपञ्जरविनिर्गतदिनकर इव सकलविमलकेवलज्ञानकिरणैलोकालोकप्रकाशकास्त्रयोदशगुणस्थानत्तिनो जिनभास्करा भवन्ति । १३ । मनोवचनकायवर्गणालम्बनकर्मादाननिमित्तात्मप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणयोगरहिताश्चतुर्दशगुणस्थानत्तिनोऽयो हुआ भी षष्ठ गुणस्थानमें रहनेवाला प्रमत्त संयत होता है। ६। वही जलरेखाके तुल्य संज्वलन कषायका मन्द उदय होनेपर प्रमादरहित जो शुद्ध आत्माका ज्ञान है उसमें मल ( दोष ) को उत्पन्न करनेवाले व्यक्त (प्रकट ) तथा अव्यक्त ( अप्रकट ) इन दोनों प्रमादोंसे वजित होकर सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्त संयत होता है । ७ । वही अतीत संज्वलन कषायका मन्द उदय होनेपर अपूर्व परम आह्लादरूप सुखके अनुभवलक्षण अपूर्व करणमें औपशमिक क्षपक नामका धारक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है । ८ । देखे हुए, सुने हुए, और अनुभव किये हुए भोगोंकी वाञ्छादिरूप सम्पूर्ण संकल्प तथा विकल्परहित अपने निश्चल परमात्मस्वरूपके एकाग्र ध्यानके परिणामसे जिन जीवोंके एक समय में परस्पर पृथक्ता करने में नहीं आती वे वर्ण तथा अवयवरचनाका भेद होनेपर भी अनिवृत्तिकरणौपशमिक क्षपक संज्ञाके धारक, द्वितीय कषाय आदि इक्कीस भेदोंसे भिन्न अर्थात् इक्कीस प्रकारको चारित्रमोहनीय कर्मकी प्रकृतियोंके उपशमन और क्षपणमें समर्थ नवम गुणस्थानवी जीव हैं । ९ । सूक्ष्म परमात्मतत्त्वको भावनाके बलसे जो सूक्ष्म कृष्टि गत लोभ कषायके उपशामक और क्षपक हैं वे दशम गुणस्थानवर्ती हैं । १० । परम उपशममूत्ति निज आत्माके स्वभावके ज्ञानके बलसे संपूर्ण मोहको उपशान्त करनेवाले ग्यारहवें गणस्थानवी जीव होते हैं। ११ । उप श्रेणीसे विलक्षण ( भिन्नरूप ) जो क्षपक श्रेणीका मार्ग उसके द्वारा कषायोंसे रहित शुद्ध आत्माकी भावनाके बलसे क्षीण ( नष्ट ) हो गये हैं कषाय जिनके ऐसे बारहवें गुणस्थानवी जीव होते हैं। १२ । मोहके नाश होने के पश्चात् अन्तमुहर्त कालमें ही निज शुद्ध आत्माके ज्ञानरूप एकत्व वितर्क अविचार संज्ञक द्वितीय शुक्ल ध्यानमें स्थित होकर उसके अंतिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों को एक कालमें ही सर्वथा निमल करके मेघपटलसे निकले हुए सूर्यके सदृश संपूर्ण रूपसे निर्मल केवलज्ञान किरणोंसे लोक तथा अलोकके प्रकाशक तेरहवें गुण Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः गिजिना भवति । १४ । ततश्च निश्चयरत्नत्रयात्मक कारणभूत समयसारसंज्ञेन परमयथाख्यातचारित्रेण चतुर्दशगुणस्थानातीताः ज्ञानावरणाद्यष्ट कर्मरहिताः सम्यक्त्वाद्यष्टगुणान्तर्भूतनिर्नामगोत्राद्यनन्तगुणाः सिद्धा भवन्ति । अत्राह शिष्यः - केवलज्ञानोत्पत्तौ मोक्षकारणभूत रत्नत्रयपरिपूर्णतायां सत्यां तस्मिन्नेव क्षणे मोक्षेण भाव्यं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये कालो नास्तीति । परिहारमाह-यथाख्यातचारित्रं जातं परं किन्तु परमयथाख्यातं नास्ति । अत्र दृष्टान्तः । यथा चौरव्यापाराभावेऽपि पुरुषस्य चौरसंसर्गो दोषं जनयति तथा चारित्र विनाशकचारित्रमोहोदयाभावेऽपि सयोगिकेवलिनां निष्क्रियशुद्धात्माचरणविलक्षणो योगत्रयव्यापारश्चारित्रमलं जनयति, योगत्रयगते पुनरयोगिजिने चरमसमयं विहाय शेषाघातिकर्मतीव्रोदयश्चारित्रमलं जनयति, चरमसमये तु मन्दोदये सति चारित्रमलाभावान्मोक्षं गच्छति । इति चतुर्दशगुणस्थानव्याख्यानं गतम् । इदानीं मार्गणाः कथ्यन्ते । " गइ इंदियं च काये जोए वेए कसाय णाणे य । संयम दंसण लेस्सा भविआ समत्तसणि आहारे । १ ।” इति गाथाकथितक्रमेण गत्या - दिचतुर्दशमार्गणा ज्ञातव्याः । तद्यथा - स्वात्मोपलब्धिसिद्धिविलक्षणा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिभेदेन चतुविधा गतिमार्गणा भवति । १ । अतीन्द्रियशुद्धात्मतत्त्वप्रतिपक्षभूता स्थानवर्त्ती जिनभास्कर ( सूर्य ) होते हैं । १३ । वे ही मन, वचन और कायवर्गणाके आलम्बनसे कर्मोंके ग्रहण करनेमें कारण जो आत्माके प्रदेशोंका परिस्पन्द ( संचलन ) रूप योग है उससे रहित चौदहवें गुणस्थानवर्त्ती अयोगी जिन होते हैं । १४ || और इसके पश्चात् निश्चय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयका कारणभृत समयसार संज्ञक जो परम यथाख्यात चारित्र है उससे पूर्वोक्त चौदह गुणस्थानोंसे रहित, ज्ञानावरण आदि अष्ट कर्मोंसे वर्जित तथा सम्यक्त्व आदि अष्ट गुणोंमें गर्भित निर्नाम ( नामरहित), निर्गोत्र ( गोत्ररहित ) आदि अनन्त गुणसहित सिद्ध होते है । अब यहाँ शिष्य शंका करता है कि केवलज्ञानकी उत्पत्ति में जब मोक्षके कारणभूत रत्नत्रयकी पूर्णता हो गई तो उसी समय मोक्ष होना चाहिये, आपने जो सयोगी और अयोगी दो गुणस्थान कहे हैं इनमें रहनेका कोई समय ही नहीं है । अब इस शंकाका परिहार कहते हैं कि केवलज्ञानोत्पत्तिसमय में यथाख्यात चारित्र तो हो गया परन्तु परम यथाख्यात नहीं है । यहाँ पर दृष्टान्त यह है कि जैसे कोई मनुष्य चोरी नहीं करता है परन्तु उसको चोरके संसर्गका दोष लगता है उसी प्रकार सयोग केवलियोंके चारित्रका नाश करनेवाला जो चारित्रमोहका उदय है उसका अभाव है तथापि निष्क्रिय ( क्रियारहित ) शुद्ध आत्माके आचरणसे विलक्षण जो मन, वचन, कायरूप योगत्रयका व्यापार है वह चारित्रके दूषण उत्पन्न करता है और तीनों योगों से रहित जो अयोगी जिन हैं उनके अन्तसमयको छोड़कर शेष चार अघातिया कर्मोंका तीव्र उदय चारित्र में दूषण उत्पन्न करता है और अन्त्य समय में उन अघातिया कर्मोंका मन्द उदय होनेपर चारित्र में दोषका अभाव हो जाता है इस कारण उसी समय अयोगी जिन मोक्षको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार चौदह गुणस्थानोंका व्याख्यान समाप्त हुआ । अब चौदह मार्गणाओंका कथन किया जाता है । "गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा तथा आहार । १ ।” इस गाथा में कथित क्रमसे गति आदि चतुर्दश मार्गणा जाननी चाहिये वे इस प्रकार हैं, जैसे- निज आत्माकी प्राप्तिसे विलक्षण नारक, तिर्यग्, मनुष्य तथा देवगति भेदसे गतिमार्गणा चार प्रकारकी है । १ । अतीन्द्रिय ( इन्द्रियोंके अगोचर ) २९ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार ह्येकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदेन पञ्चप्रकारेन्द्रियमार्गणा । २ । अशरीरात्मतत्त्वविसदृशी पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदेन षड भेदा कायमार्गणा । ३। निर्व्यापारशुद्धात्मपदार्थविलक्षणमनोवचनकाययोगभेदेन त्रिधा योगमार्गणा, अथवा विस्तरेण सत्यासत्योभयानुभयभेदेन चतुर्विधो मनोयोगो वचनयोगश्च, औदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियिक मिश्राहारकाहारकमिश्रकार्मणकायभेदेन सप्तविधो काययोगश्चेति समुदायेन पञ्चदशविधा वा योगमार्गणा । ४ । वेदोदयोद्भवरागादिदोषरहितपरमात्मद्रव्याद्धिन्ना स्त्रीपुंनपुंसकभेदेन त्रिधा वेदमार्गणा । ५। निष्कषायशुद्धात्मस्वभावप्रतिकूलक्रोधलोभमायामानभेदेन चतुविधा कषायभार्गणा, विस्तरेण कषायनोकषायभेदेन पञ्चविंशतिविधा वा।६। मत्यादिसंज्ञापञ्चकं कुमत्याद्यज्ञानत्रयं चेत्यष्टविधा ज्ञानमार्गणा । ७ । सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातभेदेन चारित्रं पञ्चविधम्, संयमासंयमस्तथैवासंयमश्चेति प्रतिपक्षद्वयेन सह सप्तप्रकारा संयममार्गणा । ८ । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनभेदेन चतुर्विधा दर्शनमार्गणा ।। ९ । कषायोदयरञ्जितयोगप्रवृत्तिविसदृशपरमात्मद्रव्यप्रतिपन्थिनी कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्लभेदेन षड्विधा लेश्यामार्गणा । १० । भव्याभव्यभेदेन द्विविधा भव्यमार्गणा । ११ । अत्राह शिष्यः-शुद्धपारिणामिकपरमभावरूपशुद्धनिश्चयेन गुणस्थानमार्गणा जो शुद्ध आत्मतत्त्व है उसके प्रतिपक्षभूत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय भेदसे इन्द्रियमार्गणा पाँच प्रकारकी है । २ । शरीररहित आत्मतत्त्वसे भिन्न स्वरूपकी धारक पृथिवी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस कायभेदसे कायमार्गणा छः प्रकारको होती है | ३ | व्यापाररहित शुद्ध आत्मतत्त्वसे विलक्षण मनोयोग, वचनयोग तथा काययोग इन भेदोस योग मार्गणा तीन प्रकारकी है। अथवा विस्तारसे सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, सत्यासत्यमनोयोग और सत्यासत्यमनोयोगसे विलक्षण मनोयोग इन भेदोंसे चार प्रकारका मनोयोग है। ऐसे ही सत्य, असत्य, सत्यासत्य तथा सत्यासत्यविलक्षण इन चार भेदोंसे वचनयोग भी चार प्रकारका है । एवम् औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण इन भेदोंसे काययोग सात प्रकारका है। सब मिलकर योगमार्गणा पन्द्रह प्रकारको हुई। ४ । वेदके उदयसे उत्पन्न होनेवाले रागादि दोषोंसे रहित जो परमात्मद्रव्य है उससे भिन्न स्त्रीवेद, पुंवेद और नपुंसकवेद इन भेदोंसे वेदमार्गणा तीन प्रकारको है । ५ । कषायोंसे रहित शुद्ध आत्माके स्वभावसे प्रतिकूल ( विरुद्ध ) क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन भेदोंसे चार प्रकारका कषायमार्गणा है। और विस्तारसे अनन्तानुबंधी, प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान तथा संज्वलन भेदसे कपाय १६ और हास्यादि भेदसे नोकषाय ९ सब मिलकर पच्चीस प्रकारकी कषायमार्गणा है । ६। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि ये तीन अज्ञान ऐसे ८ प्रकारकी ज्ञानमार्गणा है। ७ । सामायिक, छेदोपस्थापन, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय तथा यथाख्यात भेदसे पाँच प्रकारका चारित्र और संयमासंयम तथा असंयम ये दो प्रतिपक्ष ऐसे संयममार्गणा सात प्रकारकी है। ८ । चक्षुः, अचक्षुः, अवधि और केवलदर्शन इन भेदोंसे दर्शनमार्गणा चार प्रकारकी है । ९ । कषायोंके उदयसे रंजित ( रँगी हुई) जो काय आदि योगोंको प्रवृत्ति है उससे भिन्न जो शुद्ध आत्मतत्त्व है उससे विरोध करनेवाली कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल इन भेदोंसे ६ प्रकारकी लेश्यामार्गणा है । १० । भव्य और अभव्य भेदसे भव्यमार्गणा दो प्रकारकी है । ११ । यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि 'शुद्ध Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः स्थानरहिता जीवा इत्युक्तं पूर्वम्, इदानीं पुनर्भव्याभव्यरूपेण मार्गणामध्येऽपि पारिणामिकभावो भत इति पूर्वापरविरोधः । अत्र परिहारमाह-पूर्वं शुद्धपारिणामिकभावापेक्षया गुणस्थानमार्गणानिषेधः कृतः, इदानीं पुनर्भव्या भव्यत्वद्वयमशुद्ध पारिणामिकभावरूपं मार्गणामध्येऽपि घटते । ननु - शुद्धाशुद्धभेदेन पारिणामिकभावो द्विविधो नास्ति किन्तु शुद्ध एव नैव - यद्यपि सामान्यरूपेणोत्सर्गव्याख्यानेन शुद्ध पारिणामिकभावः कथ्यते तथाप्यपवादव्याख्यानेनाशुद्धपारिणामिकभावोऽप्यस्ति । तथाहि - "जीवभव्याभव्यत्वानि च" इति तत्त्वार्थसूत्रे त्रिधा पारिणामिकभावो भणितः, तत्र - शुद्धचैतन्यरूपं जीवत्वमविनश्वरत्वेन शुद्धद्रव्याश्रितत्वाच्छुद्धद्रव्यार्थिकसंज्ञः शुद्धपारिणामिकभावो भण्यते, यत्पुनः कर्मजनितदशप्राणरूपं जीवत्वं भव्यत्वम्, अभव्यत्वं चेति त्रयं तद्विनश्वरत्वेन पर्यायाश्रितत्वात्पर्यायार्थिक संज्ञस्त्वशुद्धपारिणामिकभाव उच्यते । अशुद्धत्वं कथमिति चेत्-यद्यप्येतदशुद्धपारिणामिकत्रयं व्यवहारेण संसारिजीवेऽस्ति तथापि "सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इति वचनाच्छु, निश्चयेन नास्ति त्रयं मुक्तजीवे पुनः सर्वथैव नास्ति इति हेतोरशुद्धत्वं भण्यते । तत्र शुद्धाशुद्धपारिणामिकमध्ये शुद्धपारिणामिकभावो ध्यानकाले ध्येयरूपो भवति ध्यानरूपो न भवति, कस्मात् ध्यानपर्यायस्य विनश्वरत्वात् शुद्धपारिणामिकस्तु द्रव्यरूपत्वादविनश्वरः, इति भावार्थ: । औपशमिक्षायोपशमिक क्षायिकसम्यक्त्वभेदेन त्रिधा सम्यक्त्वमार्गणा मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्र - पारिणामिक परमभावरूप जो शुद्ध निश्चयनय है उसकी अपेक्षासे जीव गुणस्थान तथा मार्गणास्थानोंसे रहित हैं" यह पूर्व प्रकरण में आपने कहा है और अब यहाँ भव्य अभव्य रूपसे मार्गणा में भी आपने पारिणामिक भाव कहा सो यह पूर्वापरविरोध है । अब इस शंकाका परिहार ( खंडन ) कहते हैं कि पूर्व प्रसंग में तो शुद्ध पारिणामिक भावकी अपेक्षासे गुणस्थान और मार्गणास्थानका निषेध किया है और यहाँ अशुद्ध पारिणामिक भाव रूपसे भव्य तथा अभव्य ये दोनों मार्गणा में भी कहे हैं सो नयभेद से यह कथन घटता ( संगत ) ही है । अब कदाचित् यह कहो कि "शुद्ध अशुद्ध भेदसे पारिणामिक भाव दो प्रकारका नहीं है किन्तु पारिणामिक भाव शुद्ध ही है” सो योग्य नहीं; क्योंकि, यद्यपि सामान्यरूप उत्सर्गव्याख्यान से पारिणामिक भाव शुद्ध है ऐसा कहा जाता है तथापि अपवाद व्याख्यानसे अशुद्ध पारिणामिक भाव भी है। इसी हेतुसे "जीवभव्याभव्यत्वानि च " ( अ. २ सूत्र ७ ) इस तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व इन भेदोंसे पारिणामिक भाव ३१ तीन प्रकारका कहा है। उनमें शुद्ध चैतन्यरूप जो जीवत्व है वह अविनाशी होनेसे शुद्ध द्रव्यके आश्रित है इस कारण से शुद्ध द्रव्यार्थिकनामा शुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है । और जो कर्मसे उत्पन्न दश प्रकारके प्राणों स्वरूप जीवत्व है वह जीवत्व, भव्यत्व तथा अभव्यत्व भेदसे तीन प्रकारका है और ये तीनों विनाशशील होनेसे पर्यायके आश्रित है इसलिये पर्यायाकि संज्ञक अशुद्ध पारिणामिक भाव कहा जाता है । "इसकी अशुद्धता किस प्रकारसे कहते हो" ऐसा कहो तो उत्तर यह है कि यद्यपि ये तीनों अशुद्ध पारिणामिक व्यवहारनयसे संसारी जीव में हैं तथापि "सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इस वचनसे ये तीनों भाव शुद्ध निश्चयन की अपेक्षा नहीं हैं और मुक्त जीव में तो सर्वथा ही नहीं हैं, इसी कारण उनकी अशुद्धता कही जाती है । उन शुद्ध तथा अशुद्ध पारिणामिक भावोंमेंसे जो शुद्ध पारिणामिक भाव है वह ध्यानके समय में ध्येय ( ध्यान करनेके योग्य ) रूप होता है और ध्यानरूप नहीं होता। क्योंकि, ध्यान पर्याय विनाशशील है और शुद्धपारिणामिक द्रव्यरूप है इस कारण अविनाशी है यह भावार्थ है । औप Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार संज्ञविपक्षत्रयभेदेन सह षड्विधा ज्ञातव्या। १२ । संज्ञित्वासंज्ञित्वविसदृशपरमात्मस्वरूपादिन्ना संज्यसंज्ञिभेदेन द्विधा संज्ञिमार्गणा । १३ । आहारकानाहारकजीवभेदेनाहारकमार्गणापि द्विधा । १४ । इति चतुर्दशमार्गणास्वरूपं ज्ञातव्यम् । एवं "पुढविजलतेयवाऊ" इत्यादिगाथाद्वयेन, तृतीयगाथापादत्रयेण च "गुणजीवापज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य। उवओगो विय कमसो वीसं तु परूवणा भणिया।१।" इति गाथाप्रभूतिकथितस्वरूपं धवलजयधवलमहाधवलप्रबन्धाभिधानसिद्धान्तत्रयबीजपदं सूचितम् । “सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इति शुद्धात्मतत्त्वप्रकाशकं तृतीयगाथाचतुर्थपादेन पञ्चास्तिकायप्रवचनसारसमयसाराभिधानप्राभूतत्रयस्यापि बीजपदं सूचितमिति । अत्र गुणस्थानमार्गणादिमध्ये केवलज्ञानदर्शनद्वयं क्षायिकसम्यक्त्वमनाहारकशुद्धात्मस्वरूपं च साक्षादुपादेयं, यत्पुनश्च शुद्धात्मसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं कारणसमयसारस्वरूपं तत्तस्यैवोपादेयभतस्य विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन साधकत्वात्पारम्पर्येणोपादेयं, शेषं तु हेयमिति । यच्चाध्यात्मग्रन्थस्य बीजपदभूतं शुद्धात्मस्वरूपमुक्तं तत्पुनरुपादेयमेव । अनेन प्रकारेण जीवाधिकारमध्ये शुद्धाशुद्धजीवकथनमुख्यत्वेन सप्तमस्थले गाथात्रयं गतम् ॥ १३ ॥ अथेदानी गाथापूर्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुत्तरार्द्धन पुनरूर्ध्वगतिस्वभावं च कथयति; णिक्कम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजत्ता ॥ १४ ॥ शमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक सम्यक्त्वके भेदसे सम्यक्त्वमार्गणा तीन प्रकारकी है। तथा मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीनों विपक्ष भेदोसहित छः प्रकारकी भी सम्यक्त्वमार्गणा जाननी चाहिये । १२ । संज्ञित्व तथा असंज्ञित्वसे विलक्षण जो परमात्माका स्वरूप है उससे भिन्न संज्ञी तथा असंज्ञी भेदसे दो प्रकारकी संज्ञिमार्गणा है । १३ । और आहारक तथा अनाहारक जीवके भेदसे आहारमार्गणा भी दो प्रकारको समझनी चाहिये । १४ । ऐसे चौदह मार्गणाओंका स्वरूप जानना योग्य है। इस रीतिसे "पुढविजलतेयवाऊ' इत्यादि दो गाथाओंसे और तीसरी गाथा जो "णिकम्मा अट्टगणा" इत्यादि है उसके तीन पादोंसे "गुण जीवा पज्जत्ती पाणासण्णायमग्गणाउय । उवओगो विय कमसो बीसं तु परूवणा भणिया" इत्यादि गाथामें कहा हुआ स्वरूप धवल, जयधवल और महाधवल प्रबन्ध नामक जो तीन सिद्धान्त हैं उनके बीज पदकी सूचना ग्रन्थकारने को और 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया" इस तृतीय गाथाके चौथे पादद्वारा शुद्ध आत्मतत्त्वको प्रकाश करनेवाले जो पंचास्तिकाय, प्रवचनसार तथा समयसार नामक तीन प्राभूत ( पाहुड़ ) हैं उनका भी बीजपद सूचित किया। इन गुणस्थान और मार्गणाओंके मध्यमें केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों तथा क्षायिक सम्यक्त्व और अनाहारक शुद्ध आत्माका स्वरूप ये तो साक्षात् उपादेय हैं और जो शुद्ध आत्माका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण करनेरूप लक्षणका धारक कारण समयसार है वह उसी पूर्वोक्त उपादेय भूतका विवक्षित एकदेश शुद्धनयसे साधक है इसलिये परम्परासे उपादेय है, इनके विना सब त्याज्य हैं; और जो अध्यात्मग्रन्थका बीज पदभूत शुद्ध आत्माका स्वरूप है वह तो उपादेय ही हैं। इस प्रकारसे जीवाधिकारके मध्यमें शुद्ध तथा अशुद्ध जीवके कथनकी मुख्यतारूप जो सप्तम स्थल है उसमें तीन गाथा समाप्त हुई ॥१३।। __ अब इसके पश्चात् गाथाके पूर्वार्द्धसे तो सिद्धोंके स्वरूपका और उत्तरार्द्धसे उनका जो ऊर्ध्वगमन स्वभाव है उसका कथन करते हैं; Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः निष्कर्माणः अष्टगुणाः किञ्चिदूनाः चरमदेहतः सिद्धाः । लोकानस्थिताः नित्याः उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः ।। १४ ।। व्याख्या-सिद्धाः सिद्धा भवन्तीति क्रियाध्याहारः । कि विशिष्टाः “णिक्कमा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो" निष्कर्माणोऽष्टगुणाः किञ्चिदूनाश्चरमदेहतः सकाशादिति सूत्रपू र्वार्द्धन सिद्धस्वरूपमुक्तम् । ऊर्ध्वगमनं कथ्यते "लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहिं संजुत्ता" ते च सिद्धा लोकाग्रस्थिता नित्या उत्पादव्ययाभ्यां संयुक्ताः। अतो विस्तरः । कर्मारिविध्वंसकस्वशुद्धात्मसंवित्तिबलेन ज्ञानावरणादिमूलोत्तरगतसमस्तकर्मप्रकृतिविनाशकत्वादष्टकर्मरहिताः "सम्मत्तणाणदंसणवीरियसुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहुअव्वबाहं अट्टगुणा हुंति सिद्धाणं । १।" इति गाथाकथितक्रमेण तेषामष्टकर्मरहितानामष्टगुणाः कथ्यन्ते । तथाहि केवलज्ञानादिगुणास्पदनिजशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं निश्चयसम्यक्त्वं यत्पूर्व तपश्चरणावस्थायां भावितं तस्य फलभूतं समस्तजीवादितत्त्वविषये विपरीताभिनिवेशरहितपरिणतिरूपं परमक्षायिकसम्यक्त्वं भण्यते । पूर्व छद्मस्थावस्थायां भावितस्य निर्विकारस्वसंवेदनज्ञानस्य फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतविशेषपरिच्छेदकं केवलज्ञानम् । निर्विकल्पस्वशुद्धात्मसत्तावलोकनरूपं यत्पूर्व दर्शनं भावितं तस्यैव फलभूतं युगपल्लोकालोकसमस्तवस्तुगतसामान्यग्राहक केवलदर्शनम् । कस्मिश्चित्स्वरूप गाथाभावार्थ-जो जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंसे रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठगुणोंके धारक हैं तथा अन्तिम शरीरसे कुछ कम हैं वे सिद्ध हैं और ऊर्ध्वगमन स्वभावसे लोकके अग्रभागमें स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद और व्यय इन दोनोंसे युक्त है ।। १४ ॥ व्याख्यार्थ-"सिद्धा' सिद्ध होते हैं इस रीतिसे यहाँ "भवन्ति" इस क्रियाका अध्याहार करना चाहिये । किन विशेषणोंसे विशिष्ट सिद्ध होते हैं "णिकम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो" कर्मोंसे रहित आठगुणोंसे सहित तथा अन्तिम शरीरसे किचित् ऊन ( कुछ छोटे ) ऐसे सिद्ध होते हैं। इस प्रकार सूत्रके पूर्वार्द्धसे सिद्धोंका स्वरूप कहा। अब उनका ऊर्ध्वगमन स्वभाव कहते हैं। "लोयगठिदा णिच्चा उप्पादवएहि संजुत्ता" और वे सिद्धलोकके अग्रभागमें स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद और व्ययसे संयुक्त हैं। अब यहाँ विस्तारपूर्वक इस गाथाकी व्याख्या करते है-कर्मरूपी शत्रुओंके विध्वंस करने में समर्थ अपने शुद्ध आत्माके बलसे ज्ञानावरण आदि समस्त मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियोंके विनाशक होनेसे अष्टविध कर्मोंसे रहित सिद्ध होते हैं । तथा “सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धोंके होते हैं,'' इस गाथोक्त क्रमसे उन अष्टकर्मरहित सिद्धोंके आठ गुण कहे जाते हैं। अब उन गुणोंको विस्तारसे दर्शाते हैं-केवलज्ञान आदि गुणोंका स्थानरूप जो निज शुद्ध आत्मा है वही ग्राह्य है, इस प्रकारकी रुचिरूप निश्चयसम्यक्त्व जो कि पहले तपश्चरण करनेकी अवस्थामें उत्पादित किया था उसका फलभूत, समस्त जीव आदि तत्त्वोंके विषयमें विपरीत अभिनिवेश ( जो पदार्थ जिसरूप है उसके विरुद्ध आग्रह ) से शून्य परिणामरूप परम क्षायिक सम्यक्त्व नामा प्रथम गुण सिद्धोंके कहा जाता है। पूर्व कालमें छद्मस्थ अवस्थामें भावनागोचर किये हुए विकाररहित स्वानुभवरूप ज्ञानका फलभूत एक ही समयमें लोक तथा अलोकके सम्पूर्ण पदार्थोंमें प्राप्त हुए विशेषोंको जाननेवाला दूसरा केवलज्ञाननामा गुण है । सम्पूर्ण विकल्पोंसे शून्य निजशुद्ध आत्माकी सत्ताका अवलोकन ( दर्शन ) रूप जो पहले दर्शन भावित किया था उसी दर्शनका Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार चलनकारणे जाते सति घोरपरीषहोपसर्गादौ निजनिरञ्जन परमात्मध्याने पूर्व धैर्यमवलम्बितं तस्यैव फलभूतमनन्तपदार्थपरिच्छित्तिविषये खेदरहितत्वमनन्तवीर्यम् । सूक्ष्मातीन्द्रियकेवलज्ञानविषयत्वात्सिद्ध स्वरूपस्य सूक्ष्मत्वं भण्यते । एकदीपप्रकाशे नानादीपप्रकाशवदेकसिद्धक्षेत्रे सङ्करव्यतिकर दोषपरिहारेणानन्त सिद्धावकाशदान सामर्थ्यमवगाहनगुणो भण्यते । यदि सर्वथा गुरुत्वं भवति तदा लोहपिण्डवदधःपतनं, यदि च सर्वथा लघुत्वं भवति तदा वाताहता कंतूलवत्सर्वदैव भ्रमणमेव स्यान्न च तथा तस्मादगुरुलघुत्वगुणोऽभिधीयते । सहजशुद्धस्वरूपानुभवसमुत्पन्न रागादिविभावरहितसुखामृतस्य यदेकदेशसंवेदनं कृतं पूर्वं तस्यैव फलभूतमव्याबाधमनन्तसुखं भण्यते । इति मध्यम रुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम् । मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुर्नावशेष - भेदनयेन निर्गतित्वं निरिन्द्रियत्वं, निष्कायत्वं, निर्योगत्वं, निर्वेदत्वं निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं, निर्गोत्रत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगु णास्तथैवास्ति त्ववस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणाः स्वागमाविरोधेनानन्ता ज्ञातव्याः । संक्षेपरुचिशिष्यं प्रति पुनववक्षिताभेदन येनानन्तज्ञानादिचतुष्टयम्, अनन्तज्ञानदर्शन सुखत्रयं, केवलज्ञानदर्शनद्वयं, साक्षादभेदनयेन शुद्धचैतन्यमेवैको गुण इति । पुनरपि कथंभूताः सिद्धाः चरमशरीरात् किञ्चिदूना भवन्ति तत् किञ्चिदूनत्वं शरीरोपाङ्गजनितनासिका ( फलभूत, एक काल में ही लोक अलोकके सम्पूर्ण पदार्थों में प्राप्त हुए सामान्यको ग्रहण करानेवाला केवलदर्शन नामा तृतीय गुण है । अतिघोर परीषह तथा उपसर्ग आदिके आनेके समय में जो पहले अपने निरंजन परमात्माके ध्यानमें धैर्यका अवलम्बन किया उसीका फलभूत अनन्त पदार्थोंके ज्ञानमें खेदके अभावरूप लक्षणका धारक चतुर्थ अनन्तवीर्यनामक गुण है । सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञानका विषय होनेसे सिद्धोंके स्वरूपको सूक्ष्म कहते हैं । यह सूक्ष्मत्व पंचम गुण है । एक दीपके प्रकाशमें जैसे अनेक दीपों के प्रकाशका समावेश हो जाता है उसी प्रकार एक सिद्धके क्षेत्रमें संकर तथा व्यतिकर दोष परिहारपूर्वक जो अनन्त सिद्धोंको अवकाश देनेका सामर्थ्यं है वही छठा अवगाहन गुण कहा जाता है। यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु ( भारी ) हो तो लोहपिंडके समान उसका अधःपतन ( नीचे गिरना ) ही होता रहे और यदि सर्वथा लघु ताडित आक वृक्षकी रुई के समान उसका निरन्तर भ्रमण ही होता रहे, नहीं है इसलिये सातवाँ अगुरुलघुगुण कहा जाता है । स्वभावसे उत्पन्न और शुद्ध जो आत्मस्वरूप है उससे उत्पन्न तथा राग आदि विभावोंसे रहित ऐसे सुखरूपी अमृतका जो एकदेश अनुभव पहले किया उसीका फलरूप अव्याबाध अनन्त सुख नामक अष्टम गुण सिद्धों में कहा जाता है । ये जो सम्यक्त्व आदि अष्ट गुण कहे गये हैं सो मध्यमरुचिके धारक शिष्योंके लिये हैं और विस्तारमें मध्यमरुचि के धारक शिष्यके प्रति तो विशेष भेदनयका अवलम्बन करनेसे गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितत्व, योगरहितत्व, वेदरहितता, कषायरहितत्व, नामरहितत्व, गोत्ररहितत्व तथा आयुरहितत्व आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्य गुण ऐसे अपने जैनागमके अनुसार अनन्त गुण जानने चाहिये । और संक्षेपरुचि शिष्यके प्रति तो विवक्षित अभेद नयसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य ये चार गुण अथवा अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखरूप तीन गुण वा केवल ज्ञान और केवल दर्शन ये दो गुण हैं और साक्षात् अभेदनयसे शुद्ध चैतन्य यह एक ही गुण सिद्धोंका है । पुनः वे सिद्ध कैसे हैं इसलिये कहते हैं कि वे सिद्ध चरम ( अन्तके ) शरीरसे कुछ छोटे होते हैं और वह जो किञ्चित् 1 हलका ) हो तो वायुसे परन्तु सिद्धस्वरूप ऐसा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ३५ दिच्छिद्राणामपूर्णत्वे सति यस्मिन्नेव क्षणे सयोगिचरमसमये त्रिंशत्प्रकृत्युदयविच्छेदमध्ये शरीरोपाङ्गनामकर्मविच्छेदो जातस्तस्मिन्नेव क्षणे जातमिति ज्ञातव्यम् । कश्चिदाह-यथा प्रदीपस्य भाजनाद्यावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह--प्रदीपसम्बन्धी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्व स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति यस्तु प्रदेशानां सम्बन्धी विस्तारः स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत्, पूर्व लोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठन्ति पश्चात् प्रदीपवदावरणं जातमेव । तन्न, किन्तु पूर्वमेवानादिसन्तानरूपेण शरीरेणावृतास्तिष्ठन्ति ततः कारणात्प्रदेशानां संहारो न भवति, विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरणं दीयते-यथा ह स्तचतुष्टयप्रमाणवस्त्रं पुरुषेण मुष्टौ बद्धं तिष्ठति पुरुषाभावे सङ्कोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले साई मृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति; तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानीयजलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसंकोचौ न करोति । यत्रैव मुक्तस्तत्रैव तिष्ठतीति ये केचन वदन्ति तनिषेधार्थ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद्बन्धच्छेदात्तथा गतिपरिणामाच्चेति हेतुचतुष्टयेन तथैवाविद्धकुलालचक्रवद् व्यपगतलेपालाम्बुवदे ऊनता है सो शरीराङ्गोपाङ्गकर्मसे उत्पन्न नासिका आदि छिद्रोंके अपूर्ण होनेपर जिस क्षणमें सयोगीके अन्त समयमें त्रिंशत् प्रकृतियोंके उदयका नाश हुआ उनमें शरीरांगोपांग कर्मका भी विच्छेद हो गया अतः उसी समय हुआ है यह जानना चाहिये। अब यहाँ कोई शंका करता है कि जैसे दीपकके आवरण करनेवाले पात्र आदिके हटा लेनेसे उस दीपकके प्रकाशका विस्तार हो जाता है उसी प्रकार देहका अभाव होनेपर सिद्धोंका आत्मा लोकप्रमाण होना चाहिये। अब इसका परिहार कहते हैं-जो यह दीपक सम्बन्धी प्रकाशकका विस्तार है वह तो पहले स्वभावसे ही दीपकमें रहता है और पीछे उस दीपकके आवरण होता है; और जीवके तो लोकमात्र असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव है और जो प्रदेशोंका विस्तार है वह स्वभाव नहीं है, कदाचित् यह कहो कि जीवके पहले लोकमात्र प्रदेश विस्तृत हुए आवरणरहित रहते हैं और फिर जैसे प्रदीपके आवरण होता है वैसे ही जीवप्रदेशोंके भी आवरण हुआ है; सो नहीं, किन्तु जीवके प्रदेश तो पूर्वकालसे ही अनादिकालसे सन्तानरूप चले आये हुए शरीरसे आवरणसहित ही रहते हैं। इस हेतसे जीवके प्रदेशोंका संहार तथा विस्तार शरीर नामक नामकर्मके आधीन ही है और जीवका स्वभाव नहीं है इस कारणसे जीवके शरीरका अभाव होनेपर प्रदेशोंका विस्तार नहीं होता है । इस विषयमें और भी उदाहरण देते हैं कि जैसे पुरुषकी मुट्ठीमें चार हाथका वस्त्र बँधा हुआ है, अब वह वस्त्र यदि पुरुष हो तब ही तो उसकी प्रेरणासे संकोच व विस्तार कर सकता है और पुरुषके अभावमें संकोच तथा विस्तार नहीं कर सकता; जैसा उस पुरुषने छोडा वैसा ही रहता है। अथवा गीली मृत्तिकाका भाजन बनते समय तो संकोच तथा विस्तारको प्राप्त हो जाता है और जब वह शुष्क हो जाता है तब जलका अभाव होनेसे संकोच व विस्तारको नहीं प्राप्त होता है इसी प्रकार जीव भी पुरुषके स्थानभूत अथवा जलके स्थानभूत शरीरके अभाव में संकोचविस्तारको नहीं प्राप्त होता है। अब कितने ही कहते हैं कि “जीव जिस स्थानमें कर्मोसे मुक्त होता है वहाँ ही रहता है" इसके निषेधके लिये कहते हैं। पूर्वप्रयोगसे, असंग होनेसे, बंधका नाश होनेसे तथा गतिके परिणामसे ऐसे इन चार हेतुओंसे जीवका ऊर्ध्वगमन जानना चाहिये Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार रण्डबीजवदग्निशिखावच्चेति.दृष्टान्तचतुष्टयेन च स्वमावोर्ध्वगमनं ज्ञातव्यं तच्च लोकाग्रपर्यन्तमेव न च परतो धर्मास्तिकायाभावादिति । नित्या इति विशेषणं तु मुक्तात्मनां कल्पशतप्रमितकाले गते जगति शून्ये जाते सति पुनरागमनं भवतीति सदाशिववादिनो वदन्ति तनिषेधार्थ विज्ञेयम् । उत्पादव्ययसंयुक्तत्वं विशेषणं सर्वथैवापरिणामित्वनिषेधार्थमिति। किञ्च विशेषः निश्चलाविनश्वरशुद्धात्मस्वरूपाद्भिन्नं सिद्धानां नारकादिगतिषु भ्रमणं नास्ति कथमुत्पादव्ययत्वमिति । तत्र परिहारः। आगमकथितागरुलघुषट्स्थानपतितहानिद्धिरूपेण येऽर्थपर्यायास्तदपेक्षया अथवा येन येनोत्पादव्ययध्रौव्यरूपेण प्रतिक्षणं ज्ञेयपदार्थाः परिणमन्ति तत्परिच्छित्त्याकारणानीहितवृत्त्या सिद्धज्ञानमपि परिणमति तेन कारणेनोत्पादध्ययत्वम, अथवा व्यञ्जनपर्यायापेक्षया संसारपर्यायविनाशः, सिद्धपर्यायोत्पादः, शुद्धजीवद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति । एवं नयविभागेन नवाधिकारैर्जीवद्रव्यं ज्ञातव्यम्, अथवा तदेव बहिरात्मान्तरात्मपरमात्मभेदेन त्रिधा भवति । तद्यथास्वशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नवास्तवसुखात्प्रतिपक्षभूतेनेन्द्रियसुखेनासक्तो बहिरात्मा, तद्विलक्षणोऽन्तरात्मा। अथवा देहरहितनिजशुद्धात्मद्रव्यभावनालक्षणभेदज्ञानरहितत्वेन देहादिपरद्रव्येष्वेकत्वभावनापरिणतो बहिरात्मा, तस्मात्प्रतिपक्षभूतोऽन्तरात्मा। अथवा हेयोपादेय विचारकचित्तनिर्दोष अथवा भ्रमते हुए कुलाल (कुंभकार) के चाकके सदृश, मृत्तिकाके लेपरहित तुंबीके सदृश, एरंडके बीजके तुल्य, अथवा अग्निकी शिखाके समान, इन चार दृष्टांतोंसे जीवके स्वभावसे ऊर्ध्वगमन जानना चाहिये और वह ऊर्ध्वगमन भी लोकके अग्रभाग तक ही होता है और इसके आगे नहीं; क्योंकि, वहाँ धर्मास्तिकायका अभाव है। सिद्ध नित्य हैं। यहाँपर जो नित्य विशेषण है सो सदाशिववादी यह कहते हैं कि “१०० कल्पप्रमाण समय व्यतीत होनेपर जब जगत् शून्य हो जाता है तब फिर उन मुक्त जीवोंका संसारमें आगमन होता है। इस मतका निषेध करनेके लिये है ऐसा समझना चाहिये । सिद्ध उत्पाद तथा व्ययसे युक्त हैं यहाँ जो उत्पाद व्यय संयुक्तपना सिद्धोंका विशेषण कहा है वह सर्वथा अपरिणामिताके निषेधके लिये है। यहाँपर विशेष यह है कि कोई शंका करे कि सिद्ध तो निरन्तर निश्चल तथा विनाशरहित जो शुद्ध आत्माका स्वरूप है उसीमें रमते हैं, उससे भिन्न जो नरक आदि गतियोंमें भ्रमण करना है वह सिद्धोंके नहीं है इसलिये सिद्धोंमें उत्पाद तथा व्यय कैसे मानते हो? इस शंकाका परिहार यह है कि आगममें कहे हुए जो अगुरुलघु आदि षट् स्थानोंमें पड़े हुए हानिवृद्धि स्वरूपसे अर्थ पर्याय हैं उनकी अपेक्षासे उत्पाद व्यय है । अथवा जिस-जिस उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूपसे प्रतिसमय ज्ञेय पदार्थ परिणमते हैं उन उनकी परिच्छित्तिके आकारसे निरिच्छक (इच्छारहित) वृत्तिसे सिद्धोंका ज्ञान भी परिणमता है इस कारणसे उत्पाद व्यय है। अथवा सिद्धोंमें व्यंजन पर्यायकी अपेक्षासे संसार पर्यायका नाश, सिद्ध पर्यायका उत्पाद तथा शुद्ध जीव द्रव्यपनेसे ध्रौव्य हैं। ऐसे नय विभागसे नौ अधिकारों द्वारा जीवद्रव्यका स्वरूप जानना चाहिये । अथवा वही जीवात्मा बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा इन भेदोंसे तीन प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है-निजशुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो पारमार्थिक ( यथार्थ ) सुख उससे विरुद्ध जो इन्द्रियसुख उससे आसक्त बहिरात्मा है, उससे विलक्षण अन्तरात्मा है। अथवा देहरहित जो निजशुद्ध आत्मारूप द्रव्य उस आत्मद्रव्यकी भावनारूप जो भेदज्ञान है उससे रहित होनेके कारण देह आदि पर ( अन्य ) द्रव्योंमें जो एकत्व भावनासे परिणत है अर्थात् देह आदिमें यह भावना करता है कि देह आदि मैं ही हूँ वह बहिरात्मा है। और | Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ३७ परमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः शुद्धचैतन्यलक्षण आत्मन्युक्तलक्षणेषु चित्तदोषात्मसु त्रिषु वीतरागसर्वज्ञप्रणोतेषु अन्येषु वा पदार्थेषु यस्य परस्परसापेक्षनयविभागेन श्रद्धानं ज्ञानं च नास्ति स बहिरात्मा, तस्माद्विसदृशोऽन्तरात्मेति रूपेण बहिरात्मान्तरात्मनोर्लक्षणं ज्ञातव्यम्। परमात्मलक्षणं कथ्यते--सकलविमलकेवलज्ञानेन येन कारणेन समस्तं लोकालोकं जानाति व्याप्नोति तेन कारणेन विष्णुर्भण्यते । परमब्रह्मसंज्ञनिजशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसुखामृततृप्तस्य सत उर्वशीरम्भातिलोत्तमाभिर्देवकन्याभिरपि यस्य ब्रह्मचर्यव्रतं न खण्डितं स परमब्रह्म भण्यते । केवलज्ञानादिगुणैश्वर्ययुक्तस्य सतो देवेन्द्रादयोऽपि तत्पदाभिलाषिणः सन्तो यस्याज्ञां कुर्वन्ति स ईश्वराभिधानो भवति । केवलज्ञानशब्दवाच्यं गतं ज्ञानं यस्य स सुगतः, अथवा शोभनमविनश्वरं मुक्तिपदं गतः सुगतः । "शिवं परमकल्याणं निर्वाणं ज्ञानमक्षयम् । प्राप्तं मुक्तिपदं येन स शिवः परकीर्तितः । १।" इति श्लोककथितलक्षणः शिवः । कामक्रोधादिदोषजयेनानन्तज्ञानादिगुणसहितो जिनः । इत्यादिपरमागमकथिताष्टोत्तरसहस्र संख्यनामवाच्यः परमात्मा ज्ञातव्यः । एवमेतेषु त्रिविधात्मसु मध्ये मिथ्यादृष्टिभव्यजीवे बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण तिष्ठति, अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयापेक्षया व्यक्तिरूपेण च । अभव्यजीवे पुनर्बहिरात्मा व्यक्तिरूपेण अन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेणैव न च भाविनैगमनयेनेति । यद्यभव्यजीवे परमात्मा शक्तिरूपेण वर्तते तर्हि कथमभव्यत्वमिति चेत् इस वहिरात्मासे विरुद्ध अर्थात् निजशुद्ध आत्माको ही आत्मा जाननेवाला अन्तरात्मा है । अथवा हेय तथा उपादेयका विचार करनेवाला जो चित्त तथा निर्दोष परमात्मासे भिन्न राग आदि दोष और शुद्ध चैतन्यरूप लक्षणका धारक आत्मा ऐसे इन पूर्वोक्त लक्षणोंके धारक जो चित्त, दोष और आत्मा हैं इन तीनोंमें अथवा वीतराग सर्वज्ञकथित अन्य पदार्थों में जिसके परस्पर अपेक्षाके धारक नयोंके विभागसे श्रद्धान और ज्ञान नहीं है वह बहिरात्मा है और उस बहिरात्मासे भिन्न लक्षणका धारक अन्तरात्मा है, इस प्रकार बहिरात्मा और अन्तरात्माका लक्षण जानना चाहिये । अब परमात्माका लक्षण कहते हैं--सम्पूर्ण तथा निर्मल ऐसे केवलज्ञान द्वारा जिस कारणसे समस्त लोक अलोकको जानता है अर्थात् व्याप्त होता है, इस हेतुसे वह परमात्मा विष्णु कहलाता है । परमब्रह्म नामक निजशुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न सुखामृतसे तृप्त होनेसे उर्वशी, तिलोत्तमा तथा रंभा आदि देवकन्याओंने भी जिसके ब्रह्मचर्य व्रतको खण्डित न किया वह परम ब्रह्म कहलाता है। केवल ज्ञान आदि गुणरूप ऐश्वर्य युक्त होनेसे जिसके पदकी अभिलाषा ( चाह ) करते हुए देवोंके इन्द्र आदि भी जिसकी आज्ञाका पालन करते है, इसलिये वह परमात्मा ईश्वर इस नामका धारक होता है । केवल ज्ञान इस शब्दसे वाच्य ( कहने योग्य ) है सु ( उत्तम ) गत ( ज्ञान ) जिसका वह सुगत है । अथवा सु कहिये शोभायमान अविनश्वर (नाशरहित) मुक्तिके स्थानको जो प्राप्त हुआ सो सुगत है। तथा “शिव कहिये परम कल्याणरूप निर्वाण और अक्षयज्ञानरूप मुक्तिपदको जिसने प्राप्त किया वह शिव कहलाता है। १।' इस श्लोकमें कहे हुए लक्षणका धारक होनेसे वह परमात्मा शिव है। काम, क्रोध आदि दोषोंको जीतनेसे अनन्त ज्ञान आदि गुणोंका धारक जिन कहलाता है; इत्यादि परमागममें कहे हुए एक हजार आठ नामोंसे वाच्य (कहने योग्य) जो है उसको परमात्मा जानना चाहिये । इस प्रकार इन पूर्वोक्त तीनों आत्माओंके मध्य में जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव है उसमें बहिरात्मा तो व्यक्तिरूपसे रहता है और अन्तरात्गा तथा परमात्मा ये दोनों शक्ति रूपसे ही रहते हैं। और भावी नैगमनयकी अपेक्षासे व्यक्तिरूपसे भी रहते हैं। और Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार परमात्मशक्तेः केवलज्ञानादिरूपेण व्यक्तिर्न भविष्यतीत्यभव्यत्वं, शक्तिः पुनः शुद्धनयेनोभयत्र समाना। यदि पुनः शक्तिरूपेणाप्यभव्यजीवे केवलज्ञानं नास्ति तदा केवलज्ञानावरणं न घटते । भव्याभव्यद्वयं पुनरशुद्धनयेनेति भावार्थः। एवं यथा मिथ्यादृष्टिसंज्ञे बहिरात्मनि नयविभागेन दर्शितमात्मत्रयं तथा शेषगणस्थानेष्वपि । तद्यथा-बहिरात्मावस्थायामन्तरात्मपरमात्मद्वयं शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च विज्ञेयम्, अन्तरात्मावस्थायां तु बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायेन घतघटवत्, परमात्मस्वरूपं तु शक्तिरूपेण भाविनैगमनयेन व्यक्तिरूपेण च । परमात्मावस्थायां पुनरन्तरात्मबहिरात्मद्वयं भूतपूर्वनयेनेति । अथ त्रिधात्मानं गुणस्थानेषु योजयति । मिथ्यासासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्यन्यूनाधिकभेदेन बहिरात्मा ज्ञातव्यः, अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघन्यान्तरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोमध्ये मध्यमः, सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वये विवक्षितैकदेशशुद्धनयेन सिद्धसदृशः परमात्मा, सिद्धस्तु साक्षास्परमात्मेति । अत्र बहिरात्मा हेयः, उपादेयभूतस्यानन्तसुखसाधकत्वादन्तरात्मोपादेयः, परमात्मा पुनः साक्षादुपादेय इत्यभिप्रायः । एवं षड्द्रव्यपश्चास्तिकायप्रतिपादकप्रथमाधिकारमध्ये नमस्कारा मिथ्यादृष्टि अभव्यजीवमें तो बहिरात्मा व्यक्तिरूपसे और अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूपसे ही रहते हैं। और भावी नैगमनयकी अपेक्षासे अन्तरात्मा तथा परमात्मा अभव्यमें व्यक्तिरूपसे नहीं रहते । कदाचित् यह कहो कि, यदि अभव्य जीवमें परमात्मा शक्तिरूपसे रहता है तो अभव्यत्व कैसे हो सकता है ? तो इस शंकाका उत्तर यह है कि अभव्य जीवमें परमात्माकी जो शक्ति है उसकी केवल ज्ञान आदि रूपसे व्यक्ति न होगी इसलिये उसमें अभव्यत्व है और शुद्ध नयसे परमात्माकी शक्ति तो मिथ्यादृष्टि भव्य और अभव्य इन दोनोंमें समान ही है। और यदि अभव्य जीवमें शक्तिरूपसे भी केवल ज्ञान नहीं हो तो केवल ज्ञानावरण कर्म नहीं सिद्ध होते । तथा भव्य अभव्य ये दोनों अशुद्ध नयसे हैं यह भावार्थ है। इस प्रकार जैसे मिथ्यादृष्टि नामक बहिरात्मामें नयविभागसे तीनों आत्माओंका प्रदर्शन किया उसी प्रकार बाकीके जो तेरह गणस्थान हैं उनमें भी देखना चाहिये । वे इस प्रकार हैं:-बहिरात्माकी दशामें अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये दोनों शक्तिरूपसे रहते हैं और भावी नैगमनयसे व्यक्तिरूपसे भी रहते हैं ऐसा जानना चाहिये । और अन्तरात्माकी अवस्थामें तो बहिरात्मा भूतपूर्वन्यायसे घृतके घटके समान और परमात्माका स्वरूप शक्तिरूपसे तथा भावी नंगम नयकी अपेक्षासे व्यक्तिरूपसे समझना चाहिये। और परमात्माकी अवस्थामें अन्तरात्मा तथा बहिरात्मा ये दोनों भूतपूर्व नयसे जानने चाहिये । अब तीनों प्रकारके आत्माओंको गणस्थानोंमें योजित करते हैं-मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानोंमें तारतम्य न्यूनाधिक भावसे बहिरात्मा जानना चाहिये, अविरत नाम चतुर्थ गुणस्थानमें उसके योग्य अशुभ लेश्याओंसे परिणत जघन्य अन्तरात्मा है और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानमें उत्कृष्ट अन्तरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय अर्थात् चतुर्थ तथा बारहवें गुणस्थानोंके मध्यमें जो सात गुणस्थान हैं उनमें मध्यम अन्तरात्मा है तथा सयोगी और अयोगी इन दोनों गुणस्थानोंमें विवक्षित एकदेश शुद्धनयसे सिद्ध के सदृश परमात्मा है और सिद्ध तो साक्षात् परमात्मा ही है। यहाँ बहिरात्मा तो हेय है और उपादेयभूत अनन्त सुखका साधक होनेसे अन्तरात्मा उपादेय है तथा परमात्मा साक्षात् उपादेय है, यह अभिप्राय है । इस प्रकार षट् द्रव्य और पंच अस्तिकायका प्रतिपादन करनेवाले प्रथम अधिकारमें Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः दिचतुर्दशगाथाभिर्नवभिरन्तरस्थलैर्जीवद्रव्यकथनरूपेण प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥१४॥ अतः परं यद्यपि शुद्धबुद्धकस्वभावं परमात्मद्रव्यमुपादेयं भवति तथापि हेयरूपस्याजीवद्रव्यस्य गाथाष्टकेन व्याख्यानं करोति । कस्मादिति चेत्-हेयतत्त्वपरिज्ञाने सति पश्चादुपादेयस्वीकारो भवतीति हेतोः । तद्यथा अज्जीवो पुण णेओ पुग्गलधम्मो अधम्म आया । कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा हु ।।१५।। अजीवः पुनः ज्ञेयः पुद्गलः धर्मः अधर्मः आकाशम् । कालः पुद्गल: सूर्तः रूपादिगुणः अमूर्ताः शेषाः तु ॥ १५ ॥ व्याख्या- "अज्जीवो पुण णेओ' अजीवः पुनर्जेयः । सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनद्वयं शुद्धोपयोगः मतिज्ञानादिरूपो विकलोऽशुद्धोपयोग इति द्विविधोपयोगः, अव्यक्तसुखदुःखानुभवनरूपा कर्मफलचेतना, तथैव मतिज्ञानादिमनःपर्ययपर्यन्तमशुद्धोपयोग इति, स्वेहापूर्वेष्टानिष्ट विकल्परूपेण विशेषरागद्वेषपरिणमनं कर्मचेतना, केवलज्ञानरूपा शुद्धचेतना इत्युक्तलक्षणोपयोगश्चेतना च यत्र नास्ति स भवत्यजीव इति विज्ञेयः । पुनः पश्चाज्जीवाधिकारानन्तरं "पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं कालो" स च पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्यभेदेन पञ्चधा।पूरणगलनस्वभावत्वात्पुद्गल इत्युच्यते। नमस्कार गाथाको आदि ले चौदह गाथाओंसे नव अन्तर (मध्य) स्थलोंद्वारा जीव द्रव्यके कथनरूपसे प्रथम अन्तर अधिकार समाप्त हुआ ॥१४॥ ____ अब इसके पश्चात् यद्यपि शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारक परमात्मद्रव्य ही उपादेय है तथापि हेयरूप जो अजीवद्रव्य है उसका आठ गाथाओं द्वारा व्याख्यान ( निरूपण ) करते हैं। क्योंकि, पहले हेयतत्त्वका ज्ञान होनेपर पीछे उपादेय पदार्थका स्वीकार होता है। वह इस प्रकार है गाथाभावार्थ- और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन पाँचोंको अजीव द्रव्य जानना चाहिये। इनमें पुद्गल तो मूतिमान् है। क्योंकि, रूप आदि गुणोंका धारक है । और शेष (बाकी) के चारों अमूर्त हैं ॥१५॥ व्याख्यार्थ-अब जीवाधिकारके अनन्तर "अज्जीवो पुण णेओ" अजीव पदार्थको वक्ष्यमाण प्रकारका जानना चाहिये। सम्पूर्ण रूपसे विमल अर्थात् सम्पूर्ण द्रव्य पर्यायका प्रकाशक केवल ज्ञान तथा दर्शन ये दोनों शुद्ध उपयोग है और मतिज्ञान आदिरूप विकल अशुद्ध उपयोग है, इस रीतिसे शुद्ध तथा अशुद्ध भेदसे उपयोग दो प्रकारका है, अव्यक्त (अस्पष्ट) सुखदुःखानुभव स्वरूप कर्मफलचेतना तथा मतिज्ञानसे आदि लेके मनःपर्यय पर्यन्त चारों ज्ञानरूप अशुद्ध उपयोग तथा निजचेष्टापूर्वक इष्ट तथा अनिष्ट रूपसे सम्पूर्ण रागद्वेष रूपसे जो परिणाम हैं वह कर्मचेतना है, केवल ज्ञानरूप शुद्ध चेतना है इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणका धारक उपयोग तथा चेतना ये जिसमें नहीं हैं वह अजीव है इस प्रकार जानना चाहिये । “पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं कालो' और वह अजीव पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यके भेदसे पाँच प्रकारका है। पूरण तथा गलन स्वभाव सहित होनेसे पुद्गल कहा जाता है, अर्थात् पूर्ण करने और छीजनेका स्वभाव जिसमें है वह पृथिवी आदि सब पुद्गल पर्याय है। तथा क्रमसे गति, स्थिति, अवगाह और Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार गतिस्थित्यवगाहवर्तनालक्षणा धर्माधर्माकाशकालाः, “पुग्गलमुत्तो" पुद्गलो मूर्तः। कस्मात् 'रूवादिगुणो" रूपादिगुणसहितो यतः । “अमुत्ति सेसा हु" रूपादिगुणाभावादमूर्ता भवन्ति पुद्गलाच्छेषाश्चत्वार इति । तथाहि-यथा अनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यगुणचतुष्टयं सर्वजीवसाधारणं तथा रूपरसगन्धस्पर्शगुणचतुष्टयं सर्वपुद्गलसाधारणं, यथा च शुद्धबुद्धकस्वभावसिद्धजीवे अनन्तचतुष्टयमतीन्द्रियं तथैव शुद्धपुद्गलपरमाणुद्रव्ये रूपादिचतुष्टयमतीन्द्रियं, यथा रागादिस्नेहगुणेन कर्मबन्धावस्थायां ज्ञानादिचतुथ्यस्याशुद्धत्वं तथा स्निग्धरूक्षत्वगुणेन दृयणुकादिबन्धावस्थायां रूपादिचतुष्टयस्याशुद्धत्वं, यथा निःस्नेहनिजपरमात्मभावनाबलेन रागादिस्निग्धत्वविनाशे सत्यनन्त चतुष्टयस्य शुद्धत्वं तथा जघन्यगुणानां बन्धो न भवतीति वचनात्परमाणुद्रव्ये स्निग्धरूक्षत्वगणस्य जघन्यत्वे सति रूपादिचतुष्टयं शुद्धत्वमवबोद्धव्यमित्यभिप्रायः ॥ १५ ॥ अथ पुद्गलद्रव्यस्य विभावव्यञ्जनपर्यायान्प्रतिपादयति; सद्दो बंधो सुहुमो थूलो संठाणभेदतमछाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥ १६ ॥ शब्दः बन्धः सूक्ष्मः स्थूल: संस्थानभेदतमश्छायाः । उद्योतातपसहिताः पुद्गलद्रव्यस्य पर्यायाः ॥ १६ ॥ वर्तना लक्षण सहित धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चारों द्रव्य हैं; अर्थात् गतिलक्षण धर्म, स्थितिलक्षण अधर्म, अवगाह देनेके लक्षणका धारक आकाश तथा वर्तना लक्षण युक्त कालद्रव्य है। ''पुग्गल मुत्तो' पुद्गल मूर्त है। क्योंकि, वह "रूवादिगुणो" रूप आदि गणोंसे सहित है। "अमुत्ति सेसा हु" पुद्गलके बिना बाकी धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों रूप आदि गुणोंका अभाव होनेसे अमूर्त हैं। जैसे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य ये चारों गुण सब जीवोंमें साधारण हैं; उसी प्रकार रूप, रस, गंध तथा स्पर्ग ये चार गण सब पुद्गलों में साधारण हैं। और जैसे शुद्ध बुद्ध एक स्वभावके धारक सिद्ध जीवमें अनन्त चतुष्टय अतीन्द्रिय है; उसी प्रकार शुद्ध पुद्गल परमाणु द्रव्यमें रूप आदि चतुष्टय अतीन्द्रिय है। जैसे राग आदि स्नेह गुणसे कर्मबन्धावस्था में ज्ञान, दर्शन, सुख तथा वीर्य इन चारोंकी अगुद्धता है; उसी प्रकार स्निग्ध रूक्षत्व गुणसे व्यणुक आदि बन्धावस्थामें रूप आदि चतुष्टयको अशुद्धता है। जैसे स्नेहरहित निज परमात्माकी भावनाके बलसे राग आदि स्निग्धताका विनाग होनेपर अनन्त चतुष्टयका शुद्धत्व है; वैसे "जघन्य गुणोंका बन्ध नहीं होता है' इस वचनसे परमाणु द्रव्यमें स्निग्ध रूक्षत्व गुणकी जघन्यता होनेपर रूप आदि चतुष्टयका शुद्धत्व समझना चाहिये , यह अभिप्राय है ।। १५ ।। अब पुद्गलद्रव्यके विभाव व्यञ्जनपर्यायोंका प्रतिपादन करते हैं गाथाभावार्थ-शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप इन करके महित जो हैं वे सब पुद्गल द्रव्यके पर्याय हैं ।। १६ ॥ व्याख्यार्थ-शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप इन सहित पुद्गल द्रव्यके पर्याय होते हैं । अब इस विषयको विस्तारसे कहते हैं-भाषात्मक तथा अभाषात्मक इस प्रकार शब्द दो प्रकारका है। उनमें भाषात्मक शब्द अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक भेदसे दो प्रकारका है। उनमें भी संस्कृत, प्राकृत तथा उनके अपभ्रंशरूप पैशाची आदि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः व्याख्या - शब्दबन्ध सौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योत सहिताः पुद्गलद्रव्यस्य पर्याया भवन्ति । अथ विस्तरः -- भाषात्मकोऽभाषात्मकश्च द्विविधः शब्दः । तत्राक्षरानक्षरात्मकभेवेन भाषात्मको द्विधा भवति । तत्राप्यक्षरात्मकः संस्कृतप्राकृतापभ्रंश पैशाचिकाविभाषाभेदेनार्यम्लेच्छ मनुष्यादिव्यवहार हेतुर्बहुधा । अनक्षरात्मकस्तु द्वीन्द्रियादितिर्यग्जीवेषु सर्वज्ञदिव्यध्वनौ च । अभाषात्मकोsपि प्रायोगिक वैत्रसिकभेदेन द्विविधः । "ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि वंशादि सुषिरं विदुः । १ ।” इति श्लोककथितक्रमेण प्रयोगे भवः प्रायोगिचतुर्धा भवति । वित्रसा स्वभावेन भवो वैस्रसिको मेघादिप्रभवो बहुधा । किञ्च शब्दातीतनिजपरमात्मभावनाच्युतेन शब्दादिमनोज्ञामनोज्ञ पश्चेन्द्रियविषयासक्तेन च जीवेन यदुपार्जितं सुस्वरदुःस्वरनामकर्म तदुदयेन यद्यपि जीवे शब्दो दृश्यते तथापि स जीवसंयोगेनोत्पन्नत्वाद् व्यवहारेण जीवशब्दो भण्यते, निश्चयेन पुनः पुद्गलस्वरूप एवेति । बन्धः कथ्यते - मृत्पिण्डादिरूपेण योऽसौ बहुधा बन्धः स केवलः पुद्गलबन्धः, यस्तु कर्मनो कर्मरूपः स जीवपुद्गलसंयोगबन्धः । किञ्च विशेष :- कर्मबन्धपृथग्भूतस्वशुद्धात्मभावनारहितजीवस्यानुपचरितासद्द्भूतव्यवहारेण द्रव्यबन्धः, तथैवाशुद्धनिश्चयेन योऽसौ रागादिरूपो भावबन्धः कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चयनयेन पुद्गलबन्ध एव । बिल्वाद्यपेक्षया बदरादीनां सूक्ष्मत्वं, परमाणोः साक्षादिति । बदराद्यपेक्षया बिल्वादीनां स्थूलत्वं, जगद्व्यापिनि महास्कन्धे सर्वोत्कृष्टमिति । समचतुरस्रन्यग्रोधसा तिककुब्जवामनहुण्डभेदेन षट्प्रकार ४१ भाषाओं के भेद आर्य, म्लेच्छ मनुष्योंके व्यवहारका कारण अक्षरात्मक भेद भी अनेक प्रकारका है । और अनक्षरात्मक भेद द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवोंमें तथा सर्वज्ञकी दिव्य ध्वनिमें है । अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक तथा वैस्रसिक भेदसे दो प्रकारका है । उनमें " वीणा आदिसे उत्पन्न शब्दको तत, ढोल आदिसे उत्पन्न शब्दको वित्तत, मंजीरे तथा तालसे उत्पन्न हुए शब्दको घन और बांसके छिद्र आदिसे अर्थात् वंशी आदिसे उत्पन्न शब्दको सुषिर कहते हैं ।" इस श्लोक में कथित क्रमके अनुसार प्रायोगिक ( प्रयोगसे उत्पन्न होनेवाला ) शब्द चार प्रकारका है, और विस्रसा अर्थात् स्वभावसे उत्पन्न वैखसिक शब्द जो कि मेघ आदिसे उत्पन्न होता है वह अनेक प्रकारका है । विशेष यहाँ यह है कि शब्दसे रहित जो निज परमात्मा है उसकी भावनासे गिरे हुए और शब्द आदि जो मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ पाँचों इन्द्रियोंके विषय हैं उनमें आसक्त हुए जीवने जो सुस्वर तथा दुःस्वर नामकर्मका उपार्जन किया उस कर्मके उदयसे यद्यपि जीव में शब्द दीख पड़ता है तथापि वह शब्द जीवके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण व्यवहार नयसे जीवका शब्द कहा जाता है और निश्चयनयसे तो वह शब्द पुद्गल स्वरूप ही है । अब बंधका निरूपण करते हैं - मृत्तिका आदि पिंडरूपसे जो घट, गृह, मोदक आदि बंध है वह तो केवल पुद्गलबंध हो है और जो कर्म नोकर्म रूप बंध है वह जीव तथा पुद्गल के संयोग से उत्पन्न बंध है । और यहाँ पर विशेष यह जानना चाहिये कि कर्मबंधसे भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा है उसकी भावनासे रहित जीवके अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्य बंध है, और इसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे जो यह रागादिरूप भावबंध कहा जाता है वह भी शुद्ध निश्चयनयसे पुद्गलका ही बंध है । बिल्वफल (बेल) आदिकी अपेक्षा बदर (बेर) आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणुमें साक्षात् सूक्ष्मता है अर्थात् वह किसीकी अपेक्षासे नहीं है ऐसी सूक्ष्मता है । बदर आदि फलोंकी अपेक्षा बिल्व आदि फलों में स्थूलत्व ( बड़ापना) है और तीन लोक में व्याप्त महास्कन्ध में सर्वोत्कृष्ट ( सबसे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार संस्थानं यद्यपि व्यवहारनयेन जीवस्यास्ति तथाप्यसंस्थानाच्चिच्चमत्कारपरिणतेभिन्नत्वान्निश्चयेन पुद्गल संस्थानमेव । यदपि जीवादन्यत्र वृत्तत्रिकोणचतुष्कोणादिव्यक्ताव्यक्तरूपं बहुधा संस्थान तदपि पुद्गल एव । गोधूमादिचूर्णरूपेण घृतखण्डादिरूपेण बहुधा भेदो ज्ञातव्यः। दृष्टिप्रतिबन्धकोऽन्धकारस्तम इति भण्यते। वृक्षाद्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रतिबिम्बरूपा च छाया विज्ञेया। उद्योतश्चन्द्रविमाने खद्योतादितिर्यगजीवेषु च भवति । आतप आदित्यविमाने अन्यत्रापि सूर्यकान्तमणिविशेषादौ पृथ्वीकाये ज्ञातव्यः । अयमत्रार्थः-यथा जीवस्य शुद्धनिश्चयेन स्वात्मोपलब्धिलक्षणे सिद्धस्वरूपे स्वभावव्यञ्जनपर्याये विद्यमानेऽप्यनादिकर्मबन्धवशात् स्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषपरिणामे सति स्वाभाविकपरमानन्दैकलक्षणस्वास्थ्यभावभ्रष्टस्य नरनारकादिविभावव्यञ्जनपर्याया भवन्ति तथा पुद्गलस्यापि निश्चयनयेन शुद्धपरमाण्ववस्थालक्षणे स्वभावव्यञ्जनपर्याये सत्यपि स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धो भवतीति वचनाद्रागद्वेषस्थानीयबन्धयोग्यस्निग्धरूक्षत्वपरिणामे सत्युक्तलक्षणाच्छब्दादन्येऽपि आगमोक्तलक्षणा आकुञ्चनप्रसारणदधिदुग्धादयो विभावव्यञ्जनपर्याया ज्ञातव्याः । एवमजीवाधिकारमध्ये पूर्वसूत्रोदितरूपादिगुणचतुष्टययुक्तस्य तथैवात्र सूत्रोदितशब्दादिपर्यायसहितस्य संक्षेपेणाणुस्कन्धभेदभिन्नस्य पुद्गलद्रव्यस्य व्याख्यानमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथाद्वयं गतम् ॥१६॥ अधिक) स्थूलत्व है। समचतुरस्र ( चतुष्कोण ) न्यग्रोध, सात्तिक, कुब्जवामन और हुंड इन भेदोंसे षट् प्रकारका संस्थान यद्यपि व्यवहारनयसे जीवके है तथापि संस्थान शून्य जो चेतनचमत्कार परिणाम है उससे भिन्न होनेके कारण निश्चयकी अपेक्षासे पुद्गलका ही संस्थान है; और जो जीवसे अन्य स्थानोंमें गोल, त्रिकोण, चौकोर आदि प्रकट तथा अप्रकट रूप अनेक प्रकारका संस्थान है वह भी पुद्गलमें ही है । गोधूम (गेहुँ) आदिके चून रूपसे तथा घी, खांड आदि रूपसे अनेक प्रकारका भेद जानना चाहिये । दृष्टिका प्रतिबन्धक (रोकनेवाला) जो अंधकार है उसको तम कहते हैं । वृक्ष आदिके आश्रयसे होनेवाली तथा मनुष्य आदिके प्रतिबिम्बरूप जो है वह छाया जाननी चाहिये । चन्द्रमाके विमानमें तथा खद्योत (जुगनू वा आग्या) आदि तिर्यञ्च जीवोंमें उद्योत होता है। सूर्यके विमानमें तथा और इससे भिन्न जो सूर्यकान्त आदि मणिके भेद हैं उन रूप पृथ्वीकायमें आतप जानना चाहिये । यहाँपर यह आशय है कि जैसे शुद्धनिश्चयनयसे जीवके निज आत्माकी प्राप्तिरूप सिद्ध स्वरूप में स्वभाव व्यञ्जन पर्याय विद्यमान है तो भी अनादि कालके कर्मबंधनके वशमें पुद्गलके स्निग्ध तथा रूक्ष गुणके स्थानभूत राग द्वेष परिणाम होनेपर स्वाभाविक परमानन्दरूप स्वास्थ्यभावसे भ्रष्ट हुए जीवके मनुष्य, नारक आदि विभाव व्यंजन पर्याय होते हैं; उसी प्रकार पुद्गलके भी निश्चय नयसे शुद्ध परमाणु अवस्थारूप स्वभाव व्यंजन पर्यायके विद्यमान होते हुए भी "स्निग्ध तथा रूक्षतासे बंध होता है।" इस वचनसे राग और द्वेषके स्थानको प्राप्त हुए स्निग्धत्व तथा रूक्षत्व परिणामके होनेपर पूर्वोक्त लक्षण शब्द आदिके अतिरिक्त अन्य भी शास्त्रोक्त लक्षणके धारक आकुञ्चन, प्रसारण, दधि, तथा दुग्ध आदि विभाव व्यंजन पर्याय जानने चाहिये ।। इस प्रकार अजीव अधिकारके मध्यमें "अज्जीवो" इत्यादि पूर्वसूत्रमें कथित रूप, रस आदि चार गुणोंसे युक्त तथा इस ‘सद्दो बंधो” इत्यादि सूत्र में कथित जो शब्द बंध आदि पर्याय हैं उन सहित तथा अणु, स्कन्ध आदि भेदोंसे भिन्न जो पुद्गलद्रव्य है उसका संक्षेपसे मुख्यपनेसे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] अथ धर्मद्रव्यमाख्याति; गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । मच्छाणं अच्छंता व सो णेई || १७| बृहद्रव्य संग्रहः अथाधर्मद्रव्यमुपदिशति; तोयं जह गतिपरिणतानां धर्मः पुद्गलजीवानां गमन सहकारी । तोयं यथा मत्स्यानां अगच्छतां नैव सः नयति ॥ १७ ॥ व्याख्या - गतिपरिणतानां धर्मो जीवपुद्गलानां गमन सहकारिकारणं भवति । दृष्टान्तमाह - तोयं यथा मत्स्यानाम् । स्वयं तिष्ठतो नैव स नयति तानिति । तथाहि - यथा सिद्धो भगवानमूर्तोऽपि निष्क्रियस्तथैवाप्रेरकोऽपि सिद्धवदनन्तज्ञानादिगुणस्वरूपोऽहमित्यादिव्यवहारेण सविकल्पसिद्धभक्तियुक्तानां निश्चयेन निर्विकल्पसमाधिरूपस्वकीयोपादानकारणपरिणतानां भव्यानां सिद्धगतेः सहकारिकारणं भवति । तथा निष्क्रियोऽमूर्तो निष्प्रेरकोऽपि धर्मास्तिकायः स्वकीयोपादानकारणेन गच्छतां जीवपुद्गलानां गते: सहकारिकारणं भवति । लोकप्रसिद्धदृष्टान्तेन तु मत्स्यादीनां जलादिवदित्यभिप्रायः । एवं धर्मद्रव्यव्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥१७॥ ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी | छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव सो धरई || १८ || ४३ निरूपण करने द्वारा प्रथम स्थलमें दो गाथायें समाप्त हुईं ॥ १६ ॥ अब धर्मद्रव्यकी व्याख्या करते हैं; गाथाभावार्थ --- गति ( गमनमें ) परिणत जो पुद्गल और जीव हैं उनके गमन में धर्मद्रव्य सहकारी है, – जैसे मत्स्योंके गमनमें जल सहकारी है और नहीं गमन करते हुए पुद्गल और जीवोंको वह धर्मद्रव्य कदापि गमन नहीं कराता है ॥ १७ ॥ । व्याख्यार्थ - गति में परिणत अर्थात् गमनक्रियासहित जीव तथा पुद्गलोंके धर्मद्रव्य गमन में सहकारी कारण अर्थात् गति में सहायक होता है । इसमें दृष्टान्त देते हैं कि जैसे मत्स्योंके गमन करने में जल सहायक है । परन्तु स्वयं ठहरे हुए जीव पुद्गलोंको वह धर्मद्रव्य गमन नहीं कराता है | अब इस विषयको अन्य दृष्टान्त द्वारा पुष्ट करते हैं जैसे सिद्ध भगवान् अमूर्त हैं, क्रियारहित हैं तथा किसीको प्रेरणा करनेवाले भी नहीं हैं; तो भी सिद्धोंकी भाँति अनन्त ज्ञान आदि गुणरूप हूँ" इत्यादि व्यवहार से सविकल्प सिद्धभक्तिके धारक और निश्चयसे निर्विकल्प ध्यानरूप अपने उपादानकारणसे जो परिणत हैं ऐसे भव्यजीवोंके वे सिद्ध भगवान् सिद्धगतिमें सहकारी कारण होते हैं । इसी प्रकार क्रियारहित, अमूर्त और प्रेरणारहित जो धर्मास्तिकाय है वह भी अपने अपने उपादान कारणोंसे गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंके गमनका सहकारी कारण होता है । लोक में प्रसिद्ध ऐसे दृष्टान्त से तो जैसे मत्स्य आदिके गमनमें जल आदि सहकारी कारण हैं। वैसे ही जीव और पुद्गलके गमन में धर्मद्रव्य सहकारी कारण है ऐसा जानना चाहिये, यह अभिप्राय है । इस प्रकार धर्मद्रव्य के व्याख्यानरूपसे यह गाथा समाप्त हुई || १७ ॥ अव अधर्मद्रव्यका उपदेश करते हैं; - गाथाभावार्थ --- स्थितिसहित जो पुद्गल और जीव हैं उनकी स्थिति में सहकारी कारण Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् स्थानयुतानां अधर्मः पुद्गलजीवानां स्थानसहकारी । छाया यथा पथिकानां गच्छतां नैव सः धरति ॥ १८ ॥ व्याख्या - स्थानयुक्तानामधर्म: पुद्गलजीवानां स्थिते: सहकारिकारणं भवति । तत्र दृष्टान्तः - छाया यथा पथिकानाम् । स्वयं गच्छतो जीवपुद्गलान्स नैव धरतीति । तद्यथास्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरूपं परमस्वास्थ्यं यद्यपि निश्चयेन स्वरूपे स्थितिकारणं भवति तथा "सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं अनंतणाणादिगुणसमिद्धोऽहं । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य । १ । " इति गाथाकथितसिद्ध भक्तिरूपेणेह पूर्व सविकल्पावस्थायां सिद्धोऽपि यथा भव्यानां बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति तथैव स्वकीयोपादानकारणेन स्वयमेव तिष्ठतां जीवपुद्गलानामधर्मद्रव्यं स्थितेः सहकारिकारणम् । लोकव्यवहारेण तु छायावद्वा पृथिवीवद्वेति सूत्रार्थः ॥ एवमधमं द्रव्यकथनेन गाथा गता ॥१८॥ अथाकाशद्रव्यमाह; - [ प्रथम अधिकार अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं । जेन्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १९ ॥ अवकाशदानयोग्यं जोवादीनां विजानीहि आकाशम् । जैनं लोकाकाशं अलोकाकाशं इति द्विविधम् ॥ १९ ॥ अधर्म द्रव्य है जैसे पथिकों ( बटोहियों ) की स्थिति में छाया सहकारी है । और गमन करते हुए जीव तथा पुद्गलोंको वह अधर्मद्रव्य नहीं ठहराता है ॥ १८ ॥ व्याख्यार्थ - स्थितिसहित जो पुद्गल तथा जीव हैं उनकी स्थिति में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है । उसमें दृष्टान्त - जैसे छाया पथिकों की स्थितिमें सहकारी कारण है और स्वयं गमन करते हुए जीव और पुद्गलोंको वह अधर्मद्रव्य कदापि नहीं ठहराता है । सो ऐसे है - यद्यपि निश्चयसे अपने आत्मज्ञानसे उत्पन्न सुखामृतरूप जो परमस्वास्थ्य है वह निजरूप में स्थितिका कारण होता है; परन्तु "मैं सिद्ध हूँ, शुद्ध हूँ, अनन्त ज्ञान आदि गुणोंका धारक हूँ, शरीरप्रमाण हूँ, नित्य हूँ, असंख्यात प्रदेशोंका धारक हूँ तथा अमूर्त हूँ । १ ।" इस गाथामें कही हुई सिद्ध रूपसे इस संसार में पहले सविकल्प अवस्थामें सिद्ध भी जैसे भव्य जीवोंके बहिरंग सहकारी कारण होते हैं उसी प्रकार अपने-अपने उपादान कारणसे स्वयं ही ठहरते हुए जीव और पुद्गलोंके अधर्मद्रव्य स्थितिका सहकारी कारण होता है । और लोकके व्यवहारसे जैसे छाया अथवा पृथिवी ठहरते हुए पथिकों की स्थिति में सहकारी होती है वैसे ही स्वयं ठहरते हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति में अधर्मद्रव्य सहकारी होता है । यह सूत्रका भावार्थ है । ऐसे अधर्मद्रव्य के निरूपणद्वारा यह गाथा समाप्त हुई ॥ १८ ॥ अब आकाशद्रव्यका कथन करते हैं, - गाथाभावार्थ - जो जीव आदि द्रव्योंको अवकाश देनेवाला है उसको श्रीजिनेन्द्र करके कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो । वह लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका है || १९|| Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः - - व्याख्या-जीवादीनामवकाशदानयोग्यमाकाशं विजानीहि हे शिष्य । किं विशिष्टं "जेव्ह" जिनस्येदं जैनं, जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् । तच्च लोकालोकाकाशभेदेन द्विविधमिति । इदानीं विस्तरः-सहजशुद्धसुखामृतरसास्वादेन परमसमरसीभावेन भरितावस्थेषु केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतेषु लोकाकाशप्रमितासंख्येयस्वकीयशद्धप्रदेशेष यद्यपि निश्चयनयेन सिद्धास्तिष्ठन्ति. तथाप्यपचरितासद्भूतव्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यते इत्युक्तोऽस्ति । स च ईदृशो मोक्षो यत्र प्रदेशे परमध्यानेनात्मा स्थितः सन् कर्मरहितो भवति, तत्रैव भवति नान्यत्र । ध्यानप्रदेशे कर्मपुद्गलान् त्यक्त्वा ऊर्ध्वगमनस्वभावेन गत्वा मुक्तात्मानो यतो लोकाने तिष्ठन्तीति तत उपचारेण लोकाग्रमपि मोक्षः प्रोच्यते। यथा तीर्थभूतपुरुषसेवितस्थानमपि भूमिजलादिरूपमुपचारेण तीर्थ भवति । सुखबोधार्थ कथितमास्ते यथा तथैव सर्वद्रव्याणि यद्यपि निश्चयनयेन स्वकीयप्रदेशेषु तिष्ठन्ति तथाप्युपचरितासद्भूतव्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवतां श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तदेवानामिति ॥१९॥ तमेव लोकाकाशं विशेषेण द्रढयति; धम्माऽधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये । आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥२०॥ धर्माधर्मों कालः पुद्गलजीवाः च सन्ति यावतिके। आकाशे सः लोकः ततः परतः अलोकः उक्तः ॥२०॥ व्याख्यार्थ-हे शिष्य ! जीवादि द्रव्योंको अवकाश ( रहनेको स्थान ) देनेकी योग्यता जिसमें है उसको जिन भगवान् सम्बन्धी अथवा श्रीजिनेन्द्र करके कहा हुआ आकाशद्रव्य जानो। और वह आकाश लोकाकाश तथा अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका है। अब इसका वर्णन विस्तारसे करते हैं। स्वाभाविक तथा शुद्ध सुखरूप अमृतरसके आस्वाद रूप परम समरसीभावसे पूर्ण अवस्थाओंसे युक्त तथा केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणोंके आधारभूत होनेसे जो लोकाकाश प्रमाण असंख्यात अपनी आत्माके प्रदेश हैं, उनमें यद्यपि निश्चयनयकी अपेक्षासे सिद्ध जीव निवास करते हैं, तथापि उपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे सिद्ध मोक्षशिलामें रहते हैं ऐसा कहा जाता है। यह पहले कह चुके हैं। और वह ऐसा मोक्ष जिस प्रदेशमें आत्मा परमध्यानयुक्त होकर कर्मरहित होता है वहाँ ही है, अन्यत्र कहीं नहीं। ध्यान करनेके स्थानमें कर्म पुद्गलोंको छोड़कर तथा ऊर्ध्वगमनस्वभावसे गमन कर मुक्त जीव जिस हेतुसे लोकके अग्रभागमें जाकर निवास करते हैं उस हेतुसे लोकका जो अग्रभाग है वह भी उपचारसे मोक्ष कहलाता है। जैसे कि तीर्थभूत पुरुषोंकरके सेवित भूमि तथा जल आदिरूप स्थान भी उपचारसे तीर्थ होता है। यह वर्णन यहाँपर शिष्योंको सुखसे समझानेके लिये किया गया है। जैसे सिद्ध निजप्रदेशोंमें रहते हैं उसी प्रकार निश्चयनयसे यद्यपि सभी द्रव्य अपने अपने प्रदेशोंमें स्थित रहते हैं, तथापि उपचरित असद्भुत व्यवहारनयसे लोकाकाशमें सब द्रव्य तिष्ठते हैं ऐसा यहाँपर भगवान् श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीका अभिप्राय जानना चाहिये ॥ १९॥ अब उसी लोकाकाशको विशेषणरूपसे दृढ़ करते हैं;गाथाभावार्थ-धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाशमें हैं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार व्याख्या - धर्माधर्मकालपुद्गलजीवाश्च सन्ति यावत्याकाशे स लोकः । तथा चोक्तंलोक्यन्ते दृश्यन्ते जीवादिपदार्था यत्र स लोक इति । तस्माल्लोकाकाशात्परतो बहिर्भागे पुनरनन्ताकाशमलोक इति । अत्राह मोमाभिधानो राजश्रेष्ठी । हे भगवन् ! केवलज्ञानस्यानन्तभागप्रमितमाकाशद्रव्यं तस्याप्यनन्तभागे सर्वमध्यमप्रदेशे लोकस्तिष्ठति । स चानादिनिधनः केनापि पुरुषविशेषेण न कृतो न हतो न धृतो न च रक्षितः । तथैवासंख्यातप्रदेशस्तत्रा संख्यातप्रदेशे लोकेऽनन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः पुद्गलाः, लोकाकाशप्रमितासंख्येयकालाणुद्रव्याणि प्रत्येकं लोकाकाशप्रमाणं धर्माधर्मद्वयमित्युक्तलक्षणा: पदार्थाः कथमवकाशं लभन्त इति ? भगवानाह - एकप्रदीपप्रकाशे नानाप्रदीप प्रकाशवदेक गूढ रसना गगद्याणके बहुसुवर्णवद्भस्मघटमध्ये सूचिकोष्टृदुग्धवदित्यादिदृष्टान्तेन विशिष्टावगाहनशक्तिवशादसंख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानमवगाहो न विरुध्यते । यदि पुनरित्थंभूतावगाहनशक्तिनं भवति तर्ह्यसंख्यातप्रदेशेष्वसंख्यातपरमाणूनामेव व्यवस्थानं तथा सति सर्वे जीवा यथा शुद्ध निश्चयेन शक्तिरूपेण निरावरणाः शुद्धबुद्धकस्वभावास्तथा व्यक्तिरूपेण व्यवहारनयेनापि न च तथा प्रत्यक्षविरोधादागमविरोधाच्चेति । एवमाकाशद्रव्यप्रतिपादनरूपेण सूत्रद्वयं गतम् ॥२०॥ ४६ वह तो लोकाकाश है और उस लोकाकाशके आगे अलोकाकाश है ॥ २० ॥ व्याख्यार्थ -- धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल तथा जीव ये पाँचों द्रव्य जितने आकाशके भाग में रहते हैं उतने आकाश भागका नाम लोक अथवा लोकाकाश है । ऐसा कहा भी है कि - जहाँपर जीव आदि पदार्थ देखने में आते हैं वह लोक है । उस लोकाकाशसे परे अर्थात् बाह्य भागमें जो अनन्त आकाश है वह अलोक अथवा अलोकाकाश है । अब यहाँपर मोम है नाम जिसका ऐसा राजश्रेष्ठी प्रश्न करता हैं कि हे भगवन् ! केवलज्ञानका जो अनन्त भाग है उस प्रमाण तो आकाशद्रव्य है और उस आकाशके अनन्त भागोंमेंसे एक भाग में सबके निचले भाग में लोक है और वह लोक आदि तथा अन्तसे रहित है, न किसी पुरुषका बनाया हुआ है, न किसीसे विनाशित है, न किसीसे धारण किया हुआ है और न किसीसे रक्षा किया हुआ है । और असंख्यात प्रदेशों का धारक है । उस असंख्यात प्रदेशोंके धारक लोकमें अनन्त जीव, अनन्त गुणे पुद्गल, लोकाकाश प्रमाण असंख्यात कालाणु द्रव्य, लोकाकाश प्रमाण धर्मद्रव्य तथा लोकाकाश प्रमाण ही अधर्मद्रव्य इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणके धारक पदार्थ कैसे अवकाशको प्राप्त होते हैं ? इस शंकाका उत्तर कृपा कर दीजिये | अब भगवान् इसके उत्तरमें कहते हैं कि जैसे एक दीपक के प्रकाशमें अनेक दीपोंका प्रकाश अवकाशको पाता है उस तरह, अथवा जैसे एक गूढ रसविशेषसे भरे हुए शीशे के भांड बहुत सुवर्ण अवकाश पाता है उस प्रकार, अथवा भस्मसे भरे हुए घटमें जैसे सूई और ऊँटनीका दूध आदि समा जाते हैं उस विशिष्ट अवगाहन शक्तिके वशसे असंख्यात प्रदेशवाले लोकमें पूर्वोक्त जीवपुद्गलादिकोंका रहना विरोधको प्राप्त नहीं होता । और यदि इस प्रकार अवगाहनशक्ति न हो तो लोकके असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात परमाणुओंका ही निवास हो । और ऐसा होनेपर जैसे शुद्ध निश्चयनयसे सब जीव शक्तिरूपसे आवरणरहित तथा शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव के धारक हैं, वैसे ही व्यक्तिरूप व्यवहारनगसे भी हो जायें; और ऐसे हैं नहीं । क्योंकि, ऐसा माननेमें प्रत्यक्ष से और आगमसे विरोध है । इस प्रकार आकाशद्रव्यके निरूपण से दो सूत्र चरितार्थ हुए ॥ २० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पश्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ४७ अथ निश्चयव्यवहारकालस्वरूपं कथयति; दव्बपरिवहरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो ॥ २१ ।। द्रव्यपरिवर्तनरूपः यः सः कालः भवेत् व्यवहारः ।। परिणामादिलक्ष्यः वर्तनालक्षणः च परमार्थः ॥ २१ ॥ व्याख्या-"दश्वपरिवट्टरूवो जो" द्रव्यपरिवर्तरूपो यः “सो कालो हवेइ ववहारों" स कालो भवति व्यवहाररूपः । स च कथंभूतः "परिणामादोलक्खो" परिणामक्रियापरत्वापरत्वेन लक्ष्यत इति परिणामादिलक्ष्यः । इदानों निश्चयकाल: कथ्यतेः- “वट्टणलक्खो य परमट्ठो' वर्तनालक्षणश्च परमार्थकाल इति । तद्यथा--जीवपुदगलयोः परिवर्तो नवजीर्णपर्यायस्तस्य या समयघटिकादिरूपा स्थितिः स्वरूपं यस्य स भवति द्रव्यपर्यायरूपो व्यवहारकालः । तथा चोक्तं संस्कृतप्राभतेन-"स्थितिः कालसंज्ञका" तस्य पर्यायस्य सम्बन्धिनी याऽसौ समयघटिकादिरूपा स्थितिःसा व्यवहारकालसंज्ञा भवति न च पर्याय इत्यभिप्रायः। यत एव पर्यायसंबन्धिनी स्थितिर्व्यवहारकालसंज्ञां भजते तत एव जीवपुद्गलसम्बन्धिपरिणामेन पर्यायेण तथैव देशान्तरचलनरूपया गोदोहनपाकादिपरिस्पन्दलक्षणरूपया वा क्रियया तथैव दूरासन्नचलनकालकृतपरत्वापरत्वेन च लक्ष्यते ज्ञायते यः स परिणामक्रियापरत्वापरत्वलक्षण इत्युच्यते । अथ द्रव्यरूपनिश्चयकालमाह । स्वकीयोपादानरूपेण स्वयमेव परिणममानानां पदार्थानां कुम्भकारचक्रस्याधस्तनशिलावत्, शीत - अब निश्चयकाल तथा व्यवहारकालके स्वरूपका वर्णन करते हैं,---- गाथाभावार्थ--जो द्रव्योंके परिवर्तनरूप, परिणाम रूप देखा जाता है वह तो व्यवहारकाल है और वर्तना लक्षणका धारक जो काल है वह निश्चयकाल है ।। २१ ॥ व्याख्यार्थ-"दवपरिवटरूवो जो" जो द्रव्यपरिवर्तनरूप है "सो कालो हवेड ववहारो" वह व्यवहाररूप काल होता है। और वह कैसा है कि “परिणामादीलक्खो" परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्वसे जाना जाता है । इसलिये परिणामादिसे लक्ष्य है । अब निश्चयकालका कथन करते हैं । "वट्टणलक्खो य परमट्टो" जो वर्तनालक्षण काल है वह परमार्थ (निश्चय) काल है ।। अब इस व्यवहार तथा निश्चयकालका विस्तारसे वर्णन इस प्रकार है । जैसे-जीव तथा पुद्गलके परिवर्तरूप जो नूतन तथा जीर्ण पर्याय है उस पर्यायको जो समय, घटिका आदिरूप स्थिति है वही जिसका स्वरूप है वह द्रव्यपर्यायरूप व्यवहारकाल है। सो ही संस्कृतप्राभृतमें कहा भी है कि "स्थिति जो है वह कालसंज्ञक है'। तात्पर्य यह है कि उस द्रव्यके पर्यायसे सम्बन्ध रखनेवाली जो समय, घटिका आदिरूप स्थिति है वह स्थिति ही "व्यवहारकाल'' इस संज्ञाकी धारक होती है और वह जो द्रव्यकी पर्याय है सो व्यवहारकाल संज्ञाको नहीं धारण करती। और जो पर्यायसम्वन्धिनी स्थिति "व्यवहारकाल'' इस नामको धारण करती है इसो कारणसे जीव तथा पुद्गल सम्बन्धी परिणामरूप पर्यायसे, तथा देशान्तरमें संचलनरूप अथवा गोदोहन, पाक आदि परिस्पन्द लक्षणकी धारक क्रियासे, तथा दूर वा समोप देशमें चलनरूप कालकृत परत्व तथा अपरत्वसे यह काल जाना जाता है । इसीलिये वह काल, परिणाम, क्रिया, परत्व तथा अपरत्व लक्षणका धारक कहा जाता है। अब द्रव्यरूप निश्चयकालका कथन करते हैं। अपने-अपने उपादानरूप कारणसे Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार कालाध्ययने अग्निवत्, पदार्थपरिणतेर्यत्सहकारित्वं सा वर्त्तना भव्यते । सैव लक्षणं यस्य स वर्त्तनालक्षण: कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकालः इति व्यवहारकालस्वरूपं निश्चयकालस्वरूपं च विज्ञेयम् । कश्चिदाह "समरूप एव निश्चयकालस्तस्मादन्यः कालाणुद्रव्यरूपो निश्चयकालो नास्त्यदर्शनात् ।" तत्रोत्तरं दीयते - समयस्तावत्कालस्तस्यैव पर्यायः । स कथं पर्यायः इति चेत्, पर्यायस्योत्पन्नप्रध्वंसित्वात् । तथा चोक्तं "समओ उप्पण्ण पद्धंसी" स च पर्यायो द्रव्यं विना न भवति, पश्चात्तस्य समयरूपपर्याय कालस्योपादानकारणभूतं द्रव्यं तेनापि कालरूपेण भाव्यम् । इन्धनाग्निसहकारिकारणोत्पन्नस्यौदनपर्यायस्य तन्दुलोपादानकारणवत्, अथ कुम्भकारचक्रचोवरादिबहिरङ्गनिमित्तोत्पन्नस्य मृन्मयघटपर्यायस्य मृत्पिण्डोपादानकारणवत्, अथवा नरनारकादिपर्यायस्य जीवोपादानकारणवदिति । तदपि कस्मादुपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति वचनात् । अथ मतं "समयादिकालपर्यायाणां कालद्रव्य मुपादानकारणं न भवति; किन्तु समयोत्पत्तौ मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुस्तथा निमेषकालोत्पत्तौ नयनपुट विघटनं तथैव घटिकाकालपर्यायोत्पत्तौ घटिकासामग्रीभूतजलभाजन पुरुषहस्तादिव्यापारो, दिवसपर्याये तु दिनकरबिम्बमुपादानकारणमिति । नैवम् । यथा तन्दुलोपादानकारणोत्पन्नस्य सदोदनपर्यायस्य शुक्लकृष्णादिवर्णा, सुरभ्यसुरभिगन्धस्वयं ही परिणमनको प्राप्त होते हुए पदार्थोंके जैसे कुम्भकारके चक्र (चाक) के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है उस प्रकार, अथवा शीतकालमें छात्रोंके अध्ययनमें अग्नि सहकारी है उस प्रकार जो पदार्थ परिणति में सहकारिता है उसीको वर्त्तना कहते हैं; और वह वर्त्तना ही है लक्षण जिसका सो वर्त्तना लक्षणका धारक कालाणुद्रव्यरूप निश्चयकाल है । इस प्रकार व्यवहारकालका तथा निश्चयकालका स्वरूप जानना चाहिये । यहाँ कोई कहता है कि समयरूप ही निश्चयकाल है । उस समयसे भिन्न कालाणुद्रव्यरूप कोई निश्चयकाल नहीं है । क्योंकि, देखने में नहीं आता || अब इसका उत्तर देते हैं कि समय जो है सो तो कालका हो पर्याय है । कदाचित् कहो कि समय कालका पर्याय कैसे है ? तो उत्तर यह है कि पर्याय जो है सो "समओ उप्पण्णपद्धसी" इस आगमोक्त वाक्यके अनुसार उत्पन्न होता है और नाशको प्राप्त होता है और वह पर्याय द्रव्यके विना नहीं होता और फिर यदि समयको ही काल मान लो तो उस समय रूप पर्याय कालका उपादानकारणभूत जो द्रव्य है उसको भी कालरूप ही होना चाहिये। क्योंकि जैसे ईंधन अग्नि आदि सहकारी कारणसे उत्पन्न ओदन पर्याय ( पके चावल) का उपादानकारण चावल ही होता है; अथवा कुम्भकार, चाक, चीवर आदि बहिरंग निमित्तकारणोंसे उत्पन्न जो मृत्तिकादिरूप घटपर्याय है उसका उपादानकारण मृत्तिकाका पिण्ड ही है; वा नर नारक आदि जो जीवके पर्याय हैं उनका उपादानकारण जीव ही है; ऐसे ही समय घटिका आदि रूप कालका भी उपादानकारण काल ही होना चाहिये। यह नियम भी क्यों माना गया है कि "अपने उपादानकारणके समान ही कार्य होता है" ऐसा वचन है । अब कदाचित् तुम्हारा ऐसा मत हो कि "समय, घटिका आदि कालपर्यायोंका उपादानकारण कालद्रव्य नहीं है किन्तु समयरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में मन्दगति में परिणत पुद्गलपरमाणु उपादानकारण है, तथा निमेषरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में नेत्रोंके पुटोंका विघटन अर्थात् पलकका गिरना उठना उपादानकारण है, ऐसे ही घटिका रूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में घटिकाकी सामग्रीरूप जो जलका भाजन और पुरुषके हस्त आदिका व्यापार है वह उपादानकारण है और दिनरूप कालपर्यायकी उत्पत्ति में सूर्यका बिम्ब उपादानकारण होता है इत्यादि । सो यह मानना भी ठीक नहीं है। क्योंकि, जैसे तन्दुल (चावल) रूप ४८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः स्निग्धरूक्षादिस्पर्श-मधुरादिरसविशेषरूपा गुणा दृश्यन्ते । तथा पुद्गलपरमाणुनयनपुटविघटनजलभाजनपुरुषव्यापारादिदिनकरबिम्बरूपैः पुद्गलपर्यायैरुपादानभूतैः समुत्पन्नानां समयनिमिषघटिकादिकालपर्यायाणामपि शुक्लकृष्णादिगुणाः प्राप्नुवन्ति न च तथा। उपादानकारणसदृशं कार्यमिति वचनात् । कि बहुना। योऽसावनाद्यनिधनस्तथैवामूतॊ नित्यः समयाय पादानकारणभूतोऽपि समयादिविकल्परहितः कालाणुद्रव्यरूपः स निश्चयकालो, यस्तु सादिसान्तसमयघटिकाप्रहरादिविवक्षितव्यवहारविकल्परूपस्तस्यैव द्रव्यकालस्य पर्यायभूतो व्यवहारकाल इति । अयमत्र भावःयद्यपि काललब्धिवशेनानन्तसुखभाजनो भवति जीवस्तथापि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वस्य सम्यश्रद्धानज्ञानानुष्ठानसमस्तबहिब्रव्येच्छानिवृत्तिलक्षणतपश्चरणरूपा या निश्चयचतुर्विधाराधना सैव तत्रोपादानकारणं ज्ञातव्यं न च कालस्तेन स हेय इति ॥२१॥ अथ निश्चयकालस्यावस्थानक्षेत्रं द्रव्यगणनां च प्रतिपादयति लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ २२ ॥ लोकाकाशप्रदेशे एकैकस्मिन् ये स्थिताः हि एकैकाः। रत्नानां राशिः इव ते कालाणवः असंख्यद्रव्याणि ।। २२॥ - - उपादानकारणसे उत्पन्न जो ओदन ( भात ) पर्याय है उसके निज उपादानकारणमें प्राप्त गुणोंके समान ही शुक्ल, कृष्ण आदि वर्ण, अच्छी वा बुरी गन्ध, चिकना अथवा रूखा आदि स्पर्श, मधुर आदि रस, इत्यादि विशेष गुण दीख पड़ते हैं; वैसे ही पुद्गलपरमाणु, नयनपुटविघटन, जलभाजन, पुरुषव्यापार आदि तथा सूर्यका बिम्ब इन रूप जो उपादानभूत पुद्गलपर्याय हैं उनसे उत्पन्न हुए समय, निमिष, घटिका, दिन आदि जो कालपर्याय हैं उनको भी शुक्ल, कृष्ण आदि गुण प्राप्त होते हैं, परन्तु समय घटिका आदिमें उपादानकारणोंके कोई गुण नहीं दीख पड़ते। क्योंकि, उपादानकारणके समान कार्य होता है ऐसा वचन है । अब यहाँ अधिक कहना व्यर्थ है । जो आदि तथा अन्तसे रहित है, अमूर्त है, नित्य है, समय आदिका उपादानकारणभूत है तो भी समय आदि भेदोंसे रहित है, और कालाणद्रव्यरूप है वह तो निश्चयकाल है, और जो आदि तथा अन्तसे सहित है, समय, घटिका तथा प्रहर आदि विवक्षित व्यवहारके विकल्पोंसे युक्त है, वह उसी द्रव्यकालका पर्यायभूत व्यवहारकाल है । यहाँ तात्पर्य यह है कि यद्यपि यह जीव काललब्धिके वशसे अनन्त सुखका भाजन ( पात्र ) होता है, तथापि विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावका धारक जो निज परमात्माका स्वरूप है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान, आचरण और सम्पूर्ण बाह्य द्रव्योंकी इच्छाको दूर करनेरूप लक्षणका धारक तपश्चरणरूप ऐसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा तपरूप जो निश्चयसे चार प्रकारकी आराधना है वह आराधना ही उस जीवके अनन्त सुखकी प्राप्तिमें उपादानकारण है ऐसा जानना चाहिये । और काल उपादानकारण नहीं है, इसलिये वह काल हेय ( त्याज्य ) है ॥ २१ ॥ अब निश्चयकालकी स्थितिका क्षेत्र तथा कालद्रव्यको संख्याका प्रतिपादन करते हैं;गाथाभावार्थ-जो लोकाकाशके एक-एक प्रदेशपर रत्नोंकी राशिके समान परस्पर भिन्न Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार व्याख्या-"लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का" लोकाकाशप्रदेशेष्वेकैकेषु ये स्थिता एकैकसंख्योपेता "हु" स्फुटं । क इव ? "रयणाणं रासी इव" परस्परतादात्म्यपरिहारेण रत्नानां राशिरिव । "ते कालाणू" ते कालाणवः। कति संख्योपेताः ? "असंखदव्वाणि" लोकाकाशप्रमितासंख्येयद्रव्याणीति । तथाहि-यथाङ्गलिद्रव्यस्य यस्मिन्नेव क्षणे वनपर्यायोत्पत्तिस्तस्मिन्नेव क्षणे पूर्वप्राञ्जलपर्यायविनाशोऽङ्गलिरूपेण ध्रौव्यमिति द्रव्यसिद्धिः। यथैव च केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपेण कार्यसमयसारस्योत्पादों निर्विकल्पसमाधिरूपकारणसमयसारस्य विनाशस्तदुभयाधारपरमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमिति वा द्रव्यसिद्धिः। तथा कालाणोरपि मन्दगतिपरिणतपुद्गलपरमाणुना व्यक्तीकृतस्य कालाण पादानकारणोत्पन्नस्य य एव वर्तमानसमयस्योत्पादः स एवातीतसमयापेक्षया विनाशस्तदुभयाधारकालाणुद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमित्युत्पादव्ययध्रौव्यात्मककालद्रव्यसिद्धिः । लोकबहिर्भागे कालाणुद्रव्याभावात्कथमाकाशद्रव्यस्य परिणतिरिति चेत्, अखण्डद्रव्यत्वादेकदेशदण्डाहतकुम्भकारचक्रभ्रमणवत्, तथैवैकदेशमनोहरस्पर्शनेन्द्रियविषयानुभवसर्वाङ्गसुखवत्, लोकमध्यस्थितकालाणुद्रव्यधारणैकदेशेनापि सर्वत्र परिणमनं भवतीति कालद्रव्यं शेषद्रव्याणां परिणतेः सहकारिकारणं भवति । कालद्रव्यस्य किं सहकारिकारणमिति । यथाकाशद्रव्याणामाधारः स्वस्यापि, होकर एक एक स्थित हैं वे कालाणु हैं और असंख्यात द्रव्य हैं ।।२२।। व्याख्यार्थ-'लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया ह इक्किक्का" लोकाकाशके एक-एक प्रदेश में जो एक एक संख्यायुक्त स्पष्टरूपसे स्थित हैं। किसकी तरह ? "रयणाणं रासी इव" परस्पर तादात्म्यरहित रत्नोंकी राशिके सदृश अर्थात् रत्नराशिकी भाँति भिन्न-भिन्न स्थित हैं। "ते कालाणू" वे कालाणु हैं। कितनी संख्याके धारक हैं ? "असंखदव्वाणि' लोकाकाशपरिमाण असंख्यात द्रव्य हैं। अब द्रव्यसिद्धिमें प्रमाण कहते हैं। जैसे जिस क्षणमें अंगुलिरूप द्रव्यके वक्र ( बांके ) पर्यायकी उत्पत्ति होती है उसी क्षणमें उसके सरल पर्यायका नाश होता है और अंगुलीरूपसे उस अंगुलीमें ध्रौव्य है। इस रीतिसे उत्पत्ति, नाश तथा ध्रौव्य इन तीनों लक्षणोंसे युक्त होनेसे द्रव्यसिद्धि हो गई । और भी जैसे केवलज्ञान आदिकी व्यक्ति (प्रकटता) रूपसे कार्य-समयसारका अर्थात् केवलज्ञानादि रूपसे परिणत आत्माका उत्पाद होता है उसी समय निर्विकल्प ध्यानरूप जो कारण समयसार है उसका नाश होता है और उन दोनोंका आधारभूत जो परमात्मद्रव्य है उस रूपसे ध्रौव्य है, इस रीतिसे भी द्रव्यकी सिद्धि है। उसी प्रकार कालाणुके भी जो मन्द गतिमें परिणत पुद्गलपरमाणु द्वारा प्रकट किये हुए और कालाणुरूप उपादानकारणसे उत्पन्न हुए ऐसे वर्तमान समयका उत्पाद है वही अतीत (गये हुए) समयकी अपेक्षा उसका विनाश है और उन वर्तमान तथा अतीत दोनों समयोंका आधारभूत कालद्रव्यपनेसे ध्रौव्य है। ऐसे उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्यरूप लक्षणके धारक कालद्रव्यकी सिद्धि है । शंका-"लोकके बाह्य भागमें कालाणु द्रव्यके अभावसे अलोकाकाशमें परिणाम कैसे हो सकता है ?" यदि ऐसा कहो तो उत्तर यह है कि आकाश अखंड द्रव्य है इसीलिये जैसे चाकके एक देशमें विद्यमान दंडकी प्रेरणासे संपूर्ण कुम्भकारके चाकका परिभ्रमण हो जाता है, उस तरहसे अथवा जैसे एक देश में प्रिय ऐसे स्पर्शन इन्द्रियके विषयका अनुभव करनेसे समस्त शरीरमें सुखका अनुभव होता है उस प्रकार लोकके मध्य में स्थित जो कालाणुद्रव्यको धारण करनेवाला एकदेश आकाश है, उससे भी सर्व आकाशमें परिणमन होता है । शंका--जैसे कालद्रव्य, जीव, पुद्गल आदि द्रव्योंके परिणमनमें Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षद्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः तथा कालद्रव्यमपि परेषां परिणति सहकारिकारणं स्वस्यापि । अथ मतं यथा कालद्रव्यं स्वस्योपादानकारणं परिणतेः सहकारिकारणं च भवति तथा सर्वद्रव्याणि कालद्रव्येण किं प्रयोजनमिति । नैवम् । यदि पृथग्भूतसहकारिकारणेन प्रयोजनं नास्ति तहि सर्वद्रव्याणां साधारणगतिस्थित्यवगाहन विषये धर्माधर्माकाद्रव्यैरपि सहकारिकारणभूतैः प्रयोजनं नास्ति । किञ्च कालस्य घटिकादिवसादि ५१ प्रत्यक्षेण दृश्यते धर्मादीनां पुनरागमकथनमेव प्रत्यक्षेण किमपि कार्यं न दृश्यते । ततस्तेषामपि कालद्रव्यस्येवाभावः प्राप्नोति । ततश्च जीवपुद् गलद्रव्यद्वयमेव । स चागमविरोधः । किञ्च सर्वद्रव्याणां परिणति सहकारित्वं कालस्यैव गुण:, घ्राणेन्द्रियस्य रसास्वादनमिवान्यद्रव्यस्य गुणोऽन्यद्रव्यस्य कर्त्तुं नायाति द्रव्यसंकरदोषप्रसंगादिति । कश्चिदाह - यावत्कालेनैकाकाशप्रदेशं परमाणुरतिक्रामति ततस्तावत्कालेन समयो भवतीत्युक्तमागमे एकसमयेन चतुर्दशरज्जुगमने यावंत आकाशप्रदेशास्तावन्तः समया प्राप्नुवन्ति । परिहारमाह - एकाकाशप्रदेशातिक्रमेण यत्समयव्याख्यानं कृतं तन्मन्दगत्यपेक्षपा, यत्पुनरेकसमये चतुर्दशरज्जुगमनव्याख्यानं तत्पुनः शीघ्रगत्य सहकारी कारण है वैसे ही कालद्रव्यके परिणमनमें सहकारी कारण कौन है ? उत्तर - जैसे आकाश द्रव्य संपूर्ण द्रव्योंका आधार है और अपना आधार भी आप ही है, इसी प्रकार काल द्रव्य भी अन्य सब द्रव्योंके परिणमन में और अपने परिणमन में भी सहकारी कारण है । अब कदाचित् कहो कि जैसे कालद्रव्य अपना तो उपादान कारण है और परिणमनका सहकारी कारण है, वैसे ही जीव आदि सब द्रव्यों को अपने उपादान कारण और परिणतिके सहकारी कारण मानो । उन जीव आदिके परिणमनमें कालद्रव्यसे क्या प्रयोजन है ? समाधान - ऐसा नहीं । क्योंकि, यदि अपने से भिन्न बहिरंग सहकारी कारणसे प्रयोजन नहीं है तो सब द्रव्यों में साधारण रूप (समानता ) से विद्यमान जो गति, स्थिति, तथा अवगाहन हैं उनके विषय में सहकारी कारणभूत जो धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्य हैं उनसे भी कोई प्रयोजन नहीं है । और भी, कालका तो घंटिका ( घड़ी ) दिन आदि कार्य प्रत्यक्षसे दीख पड़ता है और धर्म द्रव्य आदिका कार्य तो केवल आगम ( शास्त्र ) के कथन से ही माना जाता है; उनका कोई कार्य प्रत्यक्षसे नहीं दीख पड़ता । इसलिये, जैसे कालद्रव्यका अभाव मानते हो उसी प्रकार उन धर्म, अधर्म तथा आकाश द्रव्योंका भी अभाव अवश्य प्राप्त होता है । और जब इन काल आदि चारोंका अभाव मान लोगे तो जीव तथा पुद्गल ये दो ही द्रव्य रह जायेंगे । और दो द्रव्योंके माननेपर आगमसे विरोध होगा । और सब द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होना यह केवल काल द्रव्यका ही गुण है । जैसे घ्राण इन्द्रिय ( नासिका ) से रसका आस्वाद नहीं हो सकता, ऐसे ही अन्य द्रव्यका गुण भी अन्य द्रव्यके करने में नहीं आता । क्योंकि, ऐसा माननेसे द्रव्यसंकर दोषका प्रसंग होगा ( अर्थात् अन्य द्रव्यका लक्षण अन्य द्रव्य में चला जायगा, जो कि सर्वथा अनुचित है ) । अब यहाँ कोई कहता है कि जितने कालमें एक आकाश के प्रदेशको परमाणु अतिक्रम करता है अर्थात् एक प्रदेशसे दूसरे प्रदेश में गमन करता है उतने कालका नाम समय होता है यह शास्त्र में कहा है। और इस हिसाब से चौदह रज्जु गमन करनेमें जितने आकाशके प्रदेश हैं उतने समय ही लगने चाहिये; परन्तु शास्त्र में यह भी कहा है कि पुद्गलपरमाणु एक समय में चौदह रज्जुपर्यन्त गमन करता है सो यह कथन कैसे संभव हो सकता है ? इसका खंडन कहते हैं कि आगममें जो परमाणुका एक समय में एक आकाशके प्रदेश में गमन करना कहा है सो तो मन्द गमनकी अपेक्षासे है । और जो परमाणुका एक समय में चौदह रज्जुका Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार पेक्षया । तेन कारणेन चतुर्दशरज्जुगमनेऽप्येकसमयः । तत्र दृष्टान्तः-कोऽपि देवदत्तो योजनशतं मन्दगत्या दिनशतेन गच्छति । स एव विद्याप्रभावेण शीघ्रगत्या दिनेनैकेनापि गच्छति तत्र कि दिनशतं भवति । किन्त्वेक एव दिवसः। तथा चतुर्दशरज्जुगमनेऽपि शीघ्रगमनेनैक एव समयः । किञ्च स्वयं विषयानुभवरहितोऽप्ययं जीवः परकीयविषयानुभवं दृष्टं श्रुतं च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाषं करोति तदपध्यानं भण्यते तत्प्रभृतिसमस्तविकल्पजालरहितं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखरसास्वादसहितं यत्तद्वीतरागचारित्रं भवति । यत्पुनस्तदविनाभूतं तन्निश्चयसम्यक्त्वं चेति भण्यते । तदेव कालत्रयेऽपि मुक्तिकारणम् । कालस्तु तदभावे सहकारिकारणमपि न भवति ततः स हेय इति । तथा चोक्तं "कि पल्लविएण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गए काले । सिद्धिहंहि जेवि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ॥" इदमत्र तात्पर्य-कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं परं किन्तु वीतरागसर्वज्ञवचनं प्रमाणमिति मनसि निश्चित्य विवादो न कर्तव्यः । कस्मादिति चेत्-विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धिरिति ॥२२॥ एवं कालद्रव्यव्याख्यानमुख्यतया पंचमस्थले सूत्रद्वयम् गतम् । इत्यष्टगाथासमुदायेन पञ्चभिः स्थलैरजीवद्रव्यव्याख्यानेन द्वितीयान्तराधिकारः समाप्तः। गमन कहा है वह शीघ्र गमनकी अपेक्षासे है। इस कारण परमाणुको शीघ्रगतिसे चौदह रज्जुप्रमाण गमन करने में भी एक ही समय लगता है । इस विषयमें दृष्टान्त यह है कि जैसे जो देवदत मन्द गमन (धीरी चाल) से सौ योजन सौ दिनमें जाता है, वही देवदत्त विद्याके प्रभावसे शीघ्र गमन आदि करके सौ योजन एक दिनमें भी जाता है तो क्या उस देवदत्तको शीघ्रगतिसे सो योजन गमन करनेमें सौ दिन लगेंगे ? किन्तु एक ही दिन लगेगा । इसी प्रकार शीघ्र गतिसे चौदह रज्जु गमन करने में भी परमाणुको एक ही समय लगता है। और भी यहाँ विशेष जानने योग्य है कि, यह जीव स्वयं ( निज स्वभावसे ) विषयोंके अनुभवसे रहित है तथापि अन्यके देखे हुए अथवा सुने हुए विषयके अनुभवको मनमें स्मरण करके जो विषयोंकी इच्छा करता है उसको अपध्यान ( बुरा ध्यान ) कहते हैं। उस विषयकी अभिलाषाको आदि ले, संपूर्ण विकल्पोंका जो समूह है उससे रहित और आत्मज्ञानसे उत्पन्न स्वाभाविक आनंदरूप सुखके रसके आस्वादसे सहित जो है वह वीतरागचारित्र है । और जो उस वीतराग चारित्रसे व्याप्त है वह निश्चयसम्यक्त्व तथा वीतरागसम्यक्त्व कहलाता है। वह निश्चयसम्यक्त्व ही भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालोंमें मुक्तिका कारण है । और काल तो उस निश्चयसम्यक्त्वके अभावमें सहकारी कारण भी नहीं होता है, इस कारण वह कालद्रव्य हेय ( त्याग करने योग्य ) है । सो ही कहा है कि "बहुत कथनसे क्या प्रयोजन है ? जो श्रेष्ठ मनुष्य भूतकालमें सिद्ध हुए हैं तथा भविष्यमें होंगे. वह सब सम्यक्त्वका माहात्म्य है" | अब यहाँ तात्पर्य यह है कि कालद्रव्यके तथा अन्य द्रव्योंके विषयमें जो कुछ विचारना हो वह सब परम आगमके अविरोधसे ही विचारना चाहिये और "वीतराग सर्वज्ञका वचन प्रमाण है" ऐसा मनमें निश्चय करके उनके कथनमें विवाद नहीं करना चाहिये। क्योंकि, विवादमें राग तथा द्वेष उत्पन्न होते हैं और उन रागद्वेषोंसे संसारकी वृद्धि होती है ।। २२॥ ऐसे कालद्रव्यके व्याख्यानकी मुख्यतासे पंचम स्थल में दो सूत्र समाप्त हुए। और उक्त रीतिसे आठ गाथाओंके समुदायसे पांच स्थलोंसे पुद्गल आदि पांच प्रकारके अजीव द्रव्यके निरूपणरूपसे दूसरा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पश्चास्तिकाय वर्णन ] वृहद्रव्यसंग्रहः अतः परं सूत्रपञ्चकपर्यन्तं पञ्चास्तिकायव्याख्यानं करोति । तत्रादौ गाथापूर्वार्द्धन षड्द्रव्यव्याख्यानोपसंहार उत्तरार्धेन तु पञ्चास्तिकायव्याख्यानप्रारम्भः कथ्यते; एवं छब्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं । उत्तं कालविजत्तं णादव्वा पंच अस्थिकाया दु ।। २३ ।। एवं षड्भेदं इदं जीवाजीवप्रभेदतः द्रव्यम् । उक्तं कालवियुक्तं ज्ञातव्याः पञ्च अस्तिकायाः तु ॥ २३ ॥ व्याख्या-“एवं छन्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं उत्तं" एवं पूर्वोक्तप्रकारेण षड्भेदमिदं जीवाजीवप्रभेदतः सकाशादद्रव्यमुक्तं कथितं प्रतिपादितम् । 'कालविजुत्तं णावव्वा पंच अत्थिकाया दु" तदेव षड्विधं द्रव्यं कालेन वियुक्तं रहितं ज्ञातव्याः पञ्चास्तिकायास्तु पुनरिति ॥ २३ ।। पञ्चेति संख्या ज्ञाता तावदिदानीमस्तित्वं कायत्वं च निरूपयति; संति जदो तेणेदे अत्थीत्ति भणंति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अस्थिकाया य ।। २४ ।। सन्ति यतः तेन एते अस्ति इति भगति जिनवराः यस्मात् । काया इव बहुदेशाः तस्मात् कायाः च अस्तिकायाः च ॥ २४ ॥ व्याख्या-'संति जदो तेणेदे अत्थीत्ति भणंति जिणवरा" सन्ति विद्यन्ते यत एते जीवाद्या अब इसके पश्चात् पाँच सूत्र पर्यन्त पंचास्तिकायका व्याख्यान करते हैं। और उनमें भी प्रथम गाथाके पूर्वार्धसे छहों द्रव्योंके व्याख्यानका उपसंहार और उत्तरार्धसे पंचास्तिकायके व्याख्यानका आरंभ करते हैं-- ___ गाथाभावार्थ-इस प्रकार एक जीव द्रव्य और पाँच अजीव द्रव्य ऐसे छह प्रकारके द्रव्यका निरूपण किया। इन छहों द्रव्योंमेंसे एक कालके विना शेष पाँच अस्तिकाय जानने चाहिये ।।२३।। व्याख्यार्थ---"एवं छन्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं उत्तं" ऐसे पूर्वोक्त प्रकारसे जीव तथा अजीवके भेदसे यह द्रव्य छह प्रकारका कहा गया । “कालविजुत्तं णादव्वा पंच अस्थिकाया दु" और कालरहित वही छह प्रकारका द्रव्य अर्थात् कालके विना शेष पाँच द्रव्योंको पाँच अस्तिकाय समझना चाहिये ।। २३ ।। अब अस्तिकायसंबन्धिनी पाँच यह संख्या तो जानी हुई है ही, इसलिये अस्तित्व तथा कायत्वका निरूपण करते हैं. गाथाभावार्थ-पूर्वोक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पाँचों द्रव्य विद्यमान हैं इसलिये जिनेश्वर इनको ‘अस्ति' (है) ऐसा कहते हैं और ये कायके समान बहु प्रदेशोंको धारण करते हैं इसलिये इनको ‘काय' कहते हैं। अस्ति तथा काय दोनोंको मिलानेसे ये पाँचों 'अस्तिकाय होते हैं ।। २४ ॥ व्याख्यार्थ–“संति जदो तेणेदे अत्थीति भणंति जिणवरा" जीवसे आदि लेके आकाश Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार कापर्यन्ताः पञ्च तेन कारणेनैतेऽस्तीति भणन्ति जिणवराः सर्वज्ञाः । " जम्हा काया इव बहुदेसा तम्हा काया य" यस्मात्काया इव बहुप्रदेशास्तस्मात्कारणात्कायाश्च भणति जिनवराः । " अत्थिकाया य" एवं न केवलं पूर्वोक्तप्रकारेणास्तित्वेन युक्ता अस्तिसंज्ञास्तथैव कायत्वेन युक्ताः कायसंज्ञा भवन्ति किन्तु मेला नास्तिकायसंज्ञाश्च भवन्ति ॥ इदानों संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽप्यस्तित्वेन सहाभेदं दर्शयति । तथाहि - शुद्ध जीवास्तिकाये सिद्धत्वलक्षणः शुद्धद्रव्यव्यञ्जनपर्यायः, केवलज्ञानादयो विशेषगुणाः अस्तित्ववस्तुत्व | गुरुलघुत्वादयः सामान्यगुणाश्च । तथैवाव्याबाधनिन्तसुखाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारस्योत्पादो रागादिविभावरहितपरमस्वास्थ्यरूपस्य कारणसमयसारस्य व्ययस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यत्वेन ध्रौव्यमित्युक्तलक्षणैर्गुण पर्यायैरुत्पादव्ययध्रौव्यैश्च सह मुक्तावस्थायां संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सत्तारूपेण प्रदेशरूपेण च भेदो नास्ति । कस्मादिति चेत्मुक्तात्मसत्तायां गुणपर्यायाणामुत्पादव्ययध्रौव्याणां चास्तित्वं सिद्धयति, गुणपर्यायोत्पादव्ययध्रौव्यसत्तायाश्च मुक्तात्मास्तित्वं सिद्धयतीति परस्परसाधितसिद्धत्वादिति । कायत्वं कथ्यते - बहुप्रदेशप्रचयं दृष्ट्वा यथा शरीरं कायो भण्यते तथानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतानां लोकाकाशप्रमितासंख्येयशुद्धप्रदेशानां प्रचयं समूहं संघातं मेलापकं दृष्ट्वा मुक्तात्मनि कायत्वं भण्यते । यथा शुद्धगुण ५४ पर्यन्त ये पूर्वोक्त पाँच द्रव्य विद्यमान हैं इसलिये सर्वज्ञ देव इनको "अस्ति" ( है ) ऐसा कहते हैं । "जम्हा काया इव बहुदेसा तम्हा काया य" और काय अर्थात् शरीरके सदृश ये बहुत प्रदेशोंके धारक हैं इस कारण से जिनेश्वर इनको 'काय' कहते हैं । "अत्थिकाया य" पूर्वोक्त प्रकार अस्तित्व से युक्त ये पाँचों केवल अस्तिसंज्ञक ही नहीं हैं, तथा कायत्वसे युक्त केवल काय संज्ञाके धारक ही नहीं हैं, किन्तु अस्ति और काय इन दोनों को मिलानेसे "अस्तिकाय" संज्ञाके धारक होते हैं । अब इन पाँचोंके संज्ञा, लक्षण, तथा प्रयोजन आदिसे यद्यपि परस्पर भेद हैं तथापि अस्तित्व के साथ अभेद है यह दर्शाते हैं : -- जैसे शुद्ध जीवास्तिकायमें सिद्धत्व लक्षण शुद्ध द्रव्य व्यञ्जन पर्याय है, केवल ज्ञान आदि विशेष गुण हैं, तथा अस्तित्व, वस्तुत्व और अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण हैं । और जैसे मुक्तिदशामें अव्याबाध अर्थात् बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त गुणोंकी व्यक्ति ( प्रकटता ) रूप कार्यं समयसारका उत्पाद, राग आदि विभावोंसे शून्य परम स्वास्थ्य स्वरूप कारणसमयसारका व्यय ( नाश ); और इन दोनोंके अर्थात् उत्पाद तथा व्ययके आधारभूत परमात्मरूप जो द्रव्य है उस रूपसे धौव्य ( स्थिरत्व ) है । इस प्रकार पूर्वकथित लक्षणयुक्त गुण तथा पर्यायोंसे और उत्पाद, व्यय तथा धौव्यके साथ मुक्त अवस्था में संज्ञा, लक्षण तथा प्रयोजन आदिका भेद होनेपर भी सत्तारूपसे और प्रदेशरूपसे किसीका किसीके साथ भेद नहीं है । क्योंकि, जीवोंकी मुक्तिअवस्थामें गुण, द्रव्य तथा पर्यायोंकी और उत्पाद, व्यय तथा धौव्यरूप लक्षणोंकी विद्यमानता ( सत्ता ) सिद्ध होती है और गुण, पर्याय, उत्पाद, व्यय तथा श्रव्यकी सत्ताके अस्तित्वको मुक्त आत्मा जो है वह सिद्ध करता है । इस प्रकार गुण पर्याय आदि मुक्त आत्माकी और मुक्त आत्मा गुण पर्यायकी सत्ताको परस्पर सिद्ध करते हैं । अब इनके कायत्वका निरूपण करते हैं, - बहुतसे प्रदेशों में व्याप्त होके स्थितिको देखके जैसे शरीरको कार्यत्व कहते हैं अर्थात् जैसे शरीरमें अधिक प्रदेश होने से शरीरको काय कहते है, उसी प्रकार अनंत ज्ञान आदि गुणों के आधारभूत जो लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात शुद्ध प्रदेश हैं उनके समूह, संघात अथवा मेलको देखके, मुक्त जीव में भी कायत्वका व्यवहार अथवा कथन होता है । जैसे शुद्ध गुण, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः पर्यायोत्पादव्ययीव्यैः सह मुक्तात्मनः सत्तारूपेण निश्चयेनाभेदो दर्शितस्तथा यथासंभवं संसारिजीवेषु पुद्गलधर्माधर्माकाशकालेषु च द्रष्टव्यः । कालद्रव्यं विहाय कायत्वं चेति सूत्रार्थः ।। २४ ।। अथ यत्वव्याख्याने पूर्वं यत्प्रदेशास्तित्वं सूचितं तस्य विशेषव्याख्यानं करोतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु कस्य द्रव्यस्य कियन्तः प्रदेशा भवन्तीति प्रतिपादयति; - होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अनंत आयासे । मुत्ते तिहि पसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ।। २५ ।। भवन्ति असंख्याः जीवे धर्माधर्मयो: अनन्ताः आकाशे । मूर्त्ते त्रिविधाः प्रदेशाः कालस्य एकः न तेन सः कायः ।। २५ ।। ५५ व्याख्या- - "होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे" भवन्ति लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशाः प्रदीपवदुपसंहार विस्तारयुक्तेऽप्येकजीवे, नित्यं स्वभावविस्तीर्णयोर्धर्माधर्मयोरपि । "अनंत आयासे" अनन्तप्रदेशा आकाशे भवन्ति । "मुत्ते तिविह पदेसा" मूर्त्ते पुद्गलद्रव्ये संख्याता संख्यातानन्ताणूनां पिण्डा: स्कन्धास्त एव त्रिविधाः प्रदेशा भण्यन्ते न च क्षेत्रप्रदेशाः । कस्मात् ? पुद्गलस्यानन्तप्रदेशक्षेत्रेऽवस्थानाभावादिति । " कालस्सेगो" कालाणुद्रव्यस्यैक एव प्रदेशः । " ण तेण सो काओ” तेन कारणेन स कायो न भवति । कायस्यैकप्रदेशत्वविषये युक्ति प्रदर्शयति । तद्यथा - किञ्चिदूनचरमशरीरप्रमाणस्य सिद्धत्व पर्यायस्योपादानकारणभूतं शुद्धात्मद्रव्यं तत्पर्यायप्रमाणमेव । यथा पर्यायोंसे तथा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षणसे सहित रहनेवाले मुक्त आत्माके निश्चय नयसे सत्तारूपसे अभेद दर्शाया गया है, ऐसे ही संसारी जीवों में तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्यों में भी यथासंभव परस्पर अभेद देख लेना चाहिये । और कालद्रव्यको छोड़कर अन्य सब द्रव्योंके कायत्व रूपसे भी अभेद है । इस प्रकार सूत्रका अर्थ है ||२४|| अब कायत्वके व्याख्यानमें जो पहले प्रदेशों का अस्तित्व सूचन किया है उसका विशेष व्याख्यान करते हैं यह तो अग्रिम गाथाकी एक भूमिका है, और किस द्रव्यके कितने प्रदेश हैं यह दूसरी भूमिका प्रतिपादन करती है; - गाथाभावार्थ - जीव, धर्मं तथा अधर्म द्रव्यमें असंख्यात प्रदेश हैं और आकाशमें अनन्त हैं। मूर्त (पुद्गल ) में संख्यात, असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश हैं और कालके एक ही प्रदेश है इसलिये काल काय नहीं है ||२५|| व्याख्यार्थ - " होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे" प्रदीपके समान संकोच तथा विस्तारसे युक्त एक जीव में भी और सदा स्वभावसे विस्तारको प्राप्त हुए धर्म तथा अधर्म इन दोनों द्रव्यों में भी लोकाकाशके प्रमाण असंख्यात प्रदेश होते हैं । "अनंत आयासे" आकाशमें अनन्त प्रदेश होते हैं । "मुत्ते तिविह पदेसा" मूर्त्त अर्थात् पुद्गल द्रव्यमें जो संख्यात असंख्यात तथा अनन्त परमाणुओंके पिण्ड अर्थात् स्कन्ध हैं वे ही तीन प्रकारके प्रदेश कहे जाते हैं, न कि क्षेत्ररूप प्रदेश तीन प्रकारके हैं। क्योंकि, पुद्गल के अनन्त प्रदेशक्षेत्र में स्थितिका अभाव है । "कालस्सेगो" कालद्रव्यका एक ही प्रदेश है । "ण तेण सो काओ" इसी हेतुसे अर्थात् एक प्रदेशी होने से वह कालद्रव्य काय नहीं है । अब कालके एकप्रदेशी होने में युक्ति कहते हैं । जैसे –अन्तिम शरीरसे किंचित् न्यून प्रमाणके धारक सिद्धत्व पर्यायका उपादानकारणभूत जो Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार वा मनुष्यदेवादिपर्यायोपादानकारणभूतं संसारिजीवद्रव्यं तत्पर्यायप्रमाणमेव, तथा कालद्रव्यमपि समयरूपस्य कालपर्यायस्य विभागेनोपादानकारणभूतमविभाग्येक प्रदेश एव भवति । अथवा मन्दगत्या गच्छतः पुद्गलपरमाणोरेकाकाशप्रदेशपर्यन्तमेव कालद्रव्यं गतेः सहकारिकारणं भवति ततो ज्ञायते तदप्येकप्रदेशमेव। कश्चिदाह-पुद्गलपरमाणोर्गतिसहकारिकारणं धर्मद्रव्यं तिष्ठति, कालस्य किमायातम् । नैव वक्तव्यं धर्मद्रव्ये गतिसहकारिकारणे विद्यमानेऽपि मत्स्यानां जलवन्मनुष्याणां शकटारोहणादिवत्सहकारिकारणानि बहून्यपि भवन्तीति । अथ मतं कालद्रव्यं पुद्गलानां गतिसहकारिकारणं कुत्र भणितमास्ते। तदुच्यते ।।"पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणादु" इत्युक्तं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः पञ्चास्तिकायप्राभूते। अस्यार्थः कथ्यते। धर्मद्रव्ये विद्यमानेऽपि जीवानां कर्मनोकर्मपुद्गला गतेः सहकारिकारणं भवन्ति, अणुस्कन्धभेदभिन्नपुद्गलानां तु कालद्रव्यमित्यर्थः ॥ २५ ।। अथैकप्रदेशस्यापि पुद्गलपरमाणोरुपचारेण कायत्वमुपदिशति; एयपदेसो वि अणू णाणाखंघप्पदेसदो होदि । बहुदेसो उवयारा तेण य काओ भणंति सव्वण्हु ।। २६ ।। शुद्ध आत्मद्रव्य है वह सिद्धत्वपर्यायके प्रमाण ही है। अथवा जैसे मनुष्य, देव आदि पर्यायोंका उपादानकारणभूत जो संसारी जीवद्रव्य है वह उस मनुष्य, देव आदि पर्यायके प्रमाण ही है, उसी प्रकार कालद्रव्य भी समयरूप जो कालका पर्याय है उसका विभागसे उपादानकारण है तथा अविभागसे एक प्रदेश ही होता है । अथवा मन्द गतिसे गमन करते हुए पुद्गलपरमाणुके एक आकाशके प्रदेशपर्यन्त ही कालद्रव्य गतिका सहकारी कारण होता है, इस कारण जाना जाता है कि वह कालद्रव्य भी एक ही प्रदेशका धारक है। अब यहाँ कोई कहता है कि पुद्गलपरमाणुकी गतिमें सहकारी कारण तो धर्मद्रव्य विद्यमान है ही, इसमें कालद्रव्यका क्या प्रयोजन है ? सो ऐसा नहीं कह सकते । क्योंकि, धर्मद्रव्यके विद्यमान रहते भी मत्स्योंकी गतिमें जलके समान तथा मनुष्योंकी गतिमें गाड़ीपर बैठना आदिके समान पुद्गलकी गतिमें बहुतसे भी सहकारी कारण होते हैं। अब कदाचित् कहो कि “कालद्रव्य पुद्गलोंकी गतिमें सहकारी कारण है" यह कहां कहा हुआ है ? सो कहते हैं। श्रीकुन्दकुन्द आचार्य देवने पंचास्तिकाय नामक प्राभूतमें "पुग्गलकरणा जीवा खंधा खलु कालकरणा दु" ऐसा कहा है। इसका अर्थ कहते हैं कि धर्मद्रव्यके विद्यमान होते भी जीवोंकी गतिमें कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल सहकारी कारण होते हैं और अणु तथा स्कन्ध इन भेदोंसे भेदको प्राप्त हुए पुद्गलोंके गमनमें कालद्रव्य सहकारी कारण होता है। यह गाथाका अर्थ है ॥ २५ ॥ अब पुद्गलपरमाणु यद्यपि एकप्रदेशी है तथापि उपचारसे उसको काय कहते हैं ऐसा उपदेश करते हैं; गाथाभावार्थ-एक प्रदेशका धारक भी परमाणु अनेक स्कन्धरूप बहुत प्रदेशोंसे बहुप्रदेशी होता है इस कारण सर्वज्ञदेव उपचारसे पुद्गलपरमाणुको 'काय' कहते हैं ॥ २६॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ५७ एकप्रदेशः अपि अणुः नानास्कन्धप्रदेशतः भवति । बहुदेशः उपचारात् तेन च कायः भणन्ति सर्वज्ञाः ॥ २६ ॥ व्याख्या-“एयपदेशो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो" एकप्रदेशोऽपि पुद्गलपरमाणु नास्कन्धरूपबहुप्रदेशतः सकाशाद्बहुप्रदेशो भवति । "उवयारा" उपचाराद् व्यवहारनयात् "तेण य काओ भणंति सन्वण्हु" तेन कारणेन कायमिति सर्वज्ञा भणन्तीति । तथाहि-यथायं परमात्मा शुद्धनिश्चयनयेन द्रव्यरूपेण शुद्धस्तथैकोऽप्यनादिकर्मबन्धवशास्निग्धरूक्षस्थानीयरागद्वेषाभ्यां परिणम्य नरनारकादिविभावपर्यायरूपेण व्यवहारेण बहुविधो भवति । तथा पुद्गलपरमाणुरपि स्वभावेनैकोऽपि शुद्धोऽपि रागद्वेषस्थानीयबन्धयोग्यस्निग्धरूक्षगुणाभ्यां परिणम्य द्वघणुकादिस्कन्धरूपविभावपर्यायैर्बहुविधो बहुप्रदेशो भवति तेन कारणेन बहुप्रदेशलक्षणकायत्वकारणस्वादुपचारेण कायो भण्यते । अथ मतं यथा-पद्गलपरमाणोद्रव्यरूपेणेकस्यापि द्वयणुकादिस्कन्धपर्यायरूपेण बहुप्रदेशरूपं कायत्वं जातं तथा कालाणोरपि द्रव्येणेकस्यापि पर्यायेण कायत्वं भवतीति । तत्र परिहारः-स्निग्धरूक्षहेतुकस्य बन्धस्याभावान्न भवति । तदपि कस्मात् । स्निग्धरूक्षत्वं पुद्गलस्यैव धर्मो यतः कारणादिति। अणुत्वं पुद्गलसंज्ञा, कालस्याणुसंज्ञा कथमिति चेत् तत्रोत्तरम्-अणुशब्देन व्यवहारेण पुद्गला उच्यन्ते निश्चयेन तु वर्णादिगुणानां पूरणगलनयोगात्पुद्गला इति वस्तुवृत्त्या पुनरणुशब्दः सूक्ष्मवाचकः । तद्यथा-परमेण प्रकर्षेणाणुः । अणु कोऽर्थः व्याख्यार्थ-एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि बहुदेसो" यद्यपि पुद्गलपरमाणु एकप्रदेशी है तथापि नानाप्रकारके द्वयणुक आदि स्कन्धरूप बहत प्रदेशोंके कारण बहुप्रदेशी होता है । "उवयारा" उपचार अर्थात् व्यवहारनयसे । "तेण य काओ भणंति सव्वण्हु" इसी हेतुसे सर्वज्ञ जिनदेव उसको ( पुद्गलपरमाणुको ) 'काय' कहते हैं। सो ही पुष्ट करते हैं कि जैसे यह परमात्मा शुद्ध निश्चयनयसे द्रव्यरूपसे शुद्ध तथा एक है तथापि अनादिकर्मबन्धनके वशसे स्निग्ध तथा रूक्ष गुणोंके स्थानापन्न ( एवज ) जो राग और द्वेष हैं उनसे परिणामको प्राप्त होकर, व्यवहारसे मनुष्य, नारक आदि विभाव पर्यायरूपसे अनेक प्रकारका होता है, ऐसे ही पुद्गल परमाणु भी यद्यपि स्वभावसे एक और शुद्ध है तथापि राग द्वेषके स्थानभूत जो बंधके योग्य स्निग्ध, रूक्ष गुण हैं उनसे परिणमनको प्राप्त होकर व्यणुक आदि स्कन्धरूप जो विभाव पर्याय हैं उनसे अनेक प्रदेशोंका धारक होता है। इसी हेतुसे बहुप्रदेशतारूप कायत्वके कारणसे पुद्गलपरमाणुको सर्वज्ञदेव उपचारसे 'काय' कहते हैं । अब यहाँपर यदि ऐसा किसोका मत हो कि जैसे द्रव्यरूपसे एक भी पुद्गलपरमाणुके द्वयणुक आदि स्कन्ध पर्यायरूपसे बहुप्रदेशरूप कायत्व सिद्ध हुआ है ऐसे ही द्रव्यरूपसे एक होनेपर भी कालाणुके समय, घटिका आदि पर्यायोंसे कायत्व सिद्ध होता है । इस शंकाका परिहार करते हैं कि स्निग्ध रूक्ष गुण हैं कारण जिसमें ऐसे बंधका कालद्रव्यमें अभाव है इस कारण वह 'काय' नहीं हो सकता। सो भी क्यों ? कि स्निग्ध तथा रूक्षपना जो है सो पुद्गलका ही धर्म है इसलिये कालमें स्निग्ध-रूक्षत्व हैं नहीं और उनके बिना बंध नहीं होता और बंधके बिना कालमें कायत्व नहीं सिद्ध होता। कदाचित् कहो कि 'अणु' यह पुद्गलकी संज्ञा है। कालकी 'अणु' संज्ञा कैसे हुई ? तो इसका उत्तर सुनो-"अणु" इस शब्दसे व्यवहारसे पुद्गल कहे जाते हैं और निश्चयसे तो वर्ण आदि गुणोंके पूरण तथा गलनके संबंधसे पुद्गल कहे जाते हैं, और यथार्थमें तो 'अणु' शब्द सूक्ष्मका वाचक है, जैसे परम अर्थात् Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार सूक्ष्म इति व्युत्पत्त्या परमाणुः। स च सूक्ष्मवाचकोऽणुशब्दो निविभागपुद्गलविवक्षायां पुद्गलाणुं वदति । अविभागिकालद्रव्यविवक्षायां तु कालाणुं कथयतीत्यर्थः ॥ २६ ॥ अथ प्रदेशलक्षणमुपलक्षयति; जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउदृद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ।। २७ ।। यावतिकं आकाशं अविभागिपुद्गलाण्वष्टब्धम् । तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानाहम् ।। २७॥ व्याख्या-"जावदियं आयासं अविभागीपुरगलाणुउदृद्धं तं खु पदेसं जाणे" यावत्प्रमाणमाकाशमविभागिपुद्गलपरमाणुना विष्टब्धं व्याप्तं तदाकाशं खु स्फुटं प्रदेशं जानीहि हे शिष्य । कथंभूतं "सव्वाणुटाणदाणरिह" सर्वाणूनां सर्वपरमाणूनां सूक्ष्मस्कन्धानां च स्थानदानस्यावकाशदानस्याहं योग्यं समर्थमिति । यत एवेत्थंभूतावगाहनशक्तिरस्त्याकाशस्य तत एवासंख्यातप्रदेशेऽपि लोके अनन्तानन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणपुद्गला अवकाशं लभन्ते । तथा चोक्तं जीवपुद्गलविषयेऽवकाशदानसामर्थ्यम् । “एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहिं अणंतगुणा सव्वेण वितीदकालेण ॥१॥ उग्गाढगाढणिचिदो पुग्गलकाएहि सव्वदो लोगो। सुहुमेहि बादरेहि य गंतागंतेहिं विविहेहिं ॥२॥' अथ मतं मूर्तपुद्गलानां भेदो भवतु नास्ति विरोधः। अमूर्ताखण्डस्याप्रकर्ष ( अधिकता ) से जो अणु हो सो परमाणु है। इस व्युत्पत्तिसे परमाणु शब्द जो है वह अति सूक्ष्म पदार्थको कहनेवाला है। और वह सूक्ष्म वाचक 'अणु' शब्द निर्विभाग पुद्गलकी विवक्षामें तो 'पुद्गलाणु'को कहता है और अविभागी ( विभागरहित ) कालद्रव्यके कहनेकी जब इच्छा होती है तब 'कालाणु'को कहता है ।। २६ ।। अब प्रदेशका लक्षण दिखाते हैं गाथाभावार्थ-जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है उसको सब परमाणुओंको स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो ।। २७ ।। व्याख्यार्थ-"जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउदृद्धं तं खु पदेसं जाणे" हे शिष्य ! जितना आकाश विभागरहित पुद्गलपरमाणुसे व्याप्त है उसको स्पष्ट रूपसे प्रदेश जानो। वह प्रदेश कैसा है कि “सव्वाणुट्टाणदाणरिहं" सब परमाणु और सूक्ष्म स्कन्धोंको अवकाश ( स्थान ) देनेके लिये समर्थ है। इस प्रकारकी अवगाहनशक्ति जो आकाशमें है इसी हेतुसे असंख्यातप्रदेशप्रमाण लोकाकाशमें अनन्तानन्त जीव तथा उन जीवोंसे भी अनन्तगुणे पुद्गल अवकाशको प्राप्त होते हैं। सो ही जीव तथा पुद्गलके विषयमें इसके अवकाश देनेका सामर्थ्य आगममें कहा है। "एक निगोद शरीरमें द्रव्यप्रमाणसे भूतकालके सब सिद्धोंसे अनंतगुणे जीव देखे गये हैं। १ । यह लोक सब तरफसे विविध तथा अनन्तानन्त सूक्ष्म और बादर पुद्गलकायोंद्वारा अतिसघनताके साथ भरा हुआ है । २ ।" अब कदाचित् किसीका ऐसा मत हो कि "मूर्तिमान् पुद्गलोंका तो अणु तथा द्वयणुक स्कन्ध आदि विभाग हो, इसमें कुछ विरोध नहीं है, परन्तु अखंड तथा अमूर्त आकाश Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्र व्य-पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः काशद्रव्यस्य कथं विभागकल्पनेति । तन्न | रागाधुपाधिरहितस्वसंवेदनप्रत्यक्षभावनोत्पन्नसुखामृतरसास्वादतृप्तस्य मुनियुगलस्यावस्थानक्षेत्रमेकमनेक वा। यद्य कं तहि द्वयोरेकत्वं प्राप्नोति न च तथा । भिन्नं चेत्तदा निविभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति ॥ २७ ॥ एवं सूत्रपञ्चकेन पञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा तृतीयोऽन्तराधिकारः॥ इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिदेवविरचिते द्रव्यसंग्रहग्रन्थे नमस्कारादिसप्तविंशतिगाथाभिरन्तराधिकारत्रयसमुदायेन षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादक नामा प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥१॥ द्रव्यकी विभाग कल्पना कैसे हो सकती है ?" यह शंका ठीक नहीं । क्योंकि, राग आदि उपाधियोंसे रहित, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भावनासे उत्पन्न जो सुखरूप अमृतरस है उसके आस्वादनसे तृप्त ऐसे मुनियुगल ( दो मुनियों ) के रहनेका स्थान एक है अथवा अनेक ? यदि दोनोंका निवासक्षेत्र एक ही है तब तो दोनोंकी एकता हुई; परन्तु ऐसा नहीं है। और यदि भिन्न मानो तो घटके आकाश तथा पटके आकाशकी तरह विभागरहित आकाश द्रव्यकी भी विभागकल्पना सिद्ध हुई ॥ २७॥ ऐसे पाँच सूत्रोंद्वारा पंच अस्तिकायोंका निरूपण करनेवाला तृतीय अन्तराधिकार समाप्त हुआ। इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिदेवविरचितद्रव्यसंग्रहस्य श्रीब्रह्मदेवनिर्मितसंस्कृतटीकायाः जयपुरनिवासिशास्त्रीत्युपाधिधारकश्रीजवाहरलालदि०जैनप्रणीतभाषानुवादे नमस्कारादिसप्तविंशतिगाथाभिरन्तराधिकारत्रयसमुदायेन षड्द्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोऽन्त राधिकारः समाप्तः ॥ १॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलिका अतः परं पूर्वोक्तषड्द्रव्याणां चूलिकारूपेण विस्तरव्याख्यानं क्रियते । तद्यथा परिणामि-जीव-मुत्तं, सपदेसं एय-खेत्त-किरिया य । णिच्चं कारण-कत्ता, सव्वगदमिदरंहि यपवेसे ॥ १ ॥ दुण्णि य एयं एयं, पंच-त्तिय एय दुण्णि चउरो य । पंच य एयं एयं, एदेसं एय उत्तरं णेयं ॥ युग्मम् ।। २२ ।। व्याख्या-"परिणामि" इत्यादिव्याख्यानं क्रियते। परिणामपरिणामिनो जीवपुद्गलौ स्वभावविभावपर्यायाभ्यां कृत्वा, शेषचत्वारि द्रव्याणि विभावव्यञ्जनपर्यायाभावान्मुख्यवृत्त्या पुनरपरिणामीनीति । "जोव" शुद्धनिश्चयनयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं शुद्धचैतन्यं प्राणशब्देनोच्यते तेन जीवतीति जीवः । व्यवहारनयेन पुनः कर्मोदयजनितद्रव्यभावरूपैश्चतुभिः प्राणैर्जीवति, जीविष्यति, जीवितपूर्वो वा जीवः । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणि पुनरजीवरूपाणि । "मुत्तं" शुद्धात्मनो ____ अब इसके पश्चात् षद्रव्योंकी चूलिका (परिशिष्ट अथवा उपसंहार ) रूपसे विशेष व्याख्यान करते हैं । सो इस प्रकार है ___ गाथाभावार्थ-पूर्वोक्त षद्रव्योंमेंसे परिणामी द्रव्य जीव और पुद्गल ये दो हैं । चेतन द्रव्य एक जीव है, मूर्तिमान एक पुद्गल हैं, प्रदेशसहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म तथा आकाश ये पाँच द्रव्य हैं, एक संख्यावाले धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य हैं, क्षेत्रवान् एक आकाश द्रव्य है, क्रियासहित जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, नित्यद्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार हैं, कारणद्रव्य-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच हैं, कर्ताद्रव्य--एक जीव है, सर्वगत ( सर्वमें व्यापनेवाला ) द्रव्य-एक आकाश है, और ये छहों द्रव्य प्रवेशरहित हैं अर्थात् एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यका प्रवेश नहीं होता है । इस प्रकार छहों मूलद्रव्योंके उत्तरगुण जानने चाहिए ॥ २ ॥ यहाँ इन दोनों गाथाओंको मिलाकर अर्थ कहा गया है। व्याख्यार्थ-"परिणामि" इत्यादि गाथाका व्याख्यान करते हैं-स्वभाव तथा विभाव पर्यायोंकरके परिणामसे परिणामी जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य हैं। और शेष ( बाकीके ) चार द्रव्य अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य विभावव्यंजनपर्यायके अभावसे मुख्यतासे अपरिणामी हैं। "जीव" शुद्ध निश्चयनयसे निर्मल ज्ञान तथा दर्शन स्वभावका धारक जो शुद्ध चैतन्य है उसोको प्राण शब्दसे कहते हैं, उस शुद्ध चैतन्यरूप प्राणसे जो जोता है वह जोव है; ( १ ) यह गाथा यद्यपि संस्कृतटीकाकी प्रतियों में नहीं है, तथापि टीकाकारने इसका आशय ग्रहण किया है और जयचंद्रजीकृत द्रव्यसंग्रहको वचनिका तथा मूल मुद्रित पुस्तकमें उपलब्ध होती है, अतः उपयोगी समझकर, यहाँ लिख दी गई है । ( २ ) ये दोनों गाथायें अन्य ग्रन्थकी है (वसुनन्दिश्रावका० २३, २४) इसलिये इनमें मूलक्रमप्राप्तसंख्या नहीं लगाई गई है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलिका ] बृहद्रव्यसंग्रहः विलक्षणस्पर्शरसगन्धवर्णवती मूर्तिरुच्यते, तत्सद्भावान्मूर्त्तः पुद्गलः । जीवद्रव्यं पुनरनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण मूर्तमपि शुद्धनिश्चयनयेनामूर्त्तम्, धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि चामूर्त्तानि । " सपदेसं" लोकमात्रप्रमितासंख्येयप्रदेशलक्षणं जीवद्रव्यमादि कृत्वा पञ्चद्रव्याणि पञ्चास्तिकायसंज्ञानि सप्रदेशानि । कालद्रव्यं पुनर्बहुप्रदेशत्वलक्षणकायत्वाभावादप्रदेशम् । " एय" द्रव्यार्थिकनयेन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि भवन्ति । जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि भवन्ति । " खेत्त" सर्वद्रव्याणामवकाशदानसामर्थ्यात् क्षेत्रमाकाशमेकम् । शेषपञ्चद्रव्याण्यक्षेत्राणि । " किरियाय" क्षेत्रात्क्षेत्रान्तरगमनरूपा परिस्पन्दवती चलनवती क्रिया सा विद्यते ययोस्तौ क्रियावन्तौ जोवपुद्गलौ । धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि पुननिष्क्रियाणि । “णिच्चं" धर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि यद्यप्यर्थपर्यायत्वेनानित्यानि तथापि मुख्यवृत्त्या विभावव्यञ्जनपर्यायाभावान्नित्यानि द्रव्यार्थिकनयेन च जीवपुद्गलद्रव्ये पुनर्यद्यपि द्रव्यार्थिकनयापेक्षया नित्ये तथाप्यगुरुलघुपरिणतिस्वरूपस्वभाव पर्यायापेक्षया विभावव्यञ्जनपर्यायापेक्षया चानित्ये । " कारण " पुद्गलधर्माधर्माकाशकालद्रव्याणि व्यवहारनयेन जीवस्य शरीरवाङ्मनः प्राणापानादिगति स्थित्यवगाहवत्त नाकार्याणि कुर्वन्तीति कारणानि भवन्ति । जीवद्रव्यं पुनर्यद्यपि गुरुशिष्यादिरूपेण परस्परोपग्रहं करोति तथापि पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां किमपि न करोतीत्यकारणम् । “कत्ता" शुद्धपारिणामिकपरमभावग्राहकेन और व्यवहारनयसे कर्मोंके उदयसे उत्पन्न द्रव्य तथा भावरूप चार प्रकारके जो इन्द्रिय, बल, आयु, और श्वासोच्छ्वास नामक प्राण है, उनसे जो जीता हैं, जीवेगा और पूर्वकालमें जीता था वह जीव है । और पुद्गल आदि पाँच द्रव्य जो हैं वे तो अजीवरूप हैं । "मुत्तं" अमूर्त जो शुद्ध आत्मा है उससे विलक्षण स्पर्श, रस, गंध, तथा वर्णवाली जो है उसको मूर्ति कहते है, उस मूर्तिके सद्भावसे अर्थात् उस मूर्तिका धारक होनेसे पुद्गलद्रव्य मूर्त हैं, और जीवद्रव्य यद्यपि अनुपचरित असतव्यवहारनयसे मूर्त्त है तथापि शुद्ध निश्चयनयसे अमूर्त है, तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अमूर्त हैं । "सपदेसं" लोकाकाशमात्र के प्रमाण असंख्यात प्रदेशोंको धारण करना है लक्षण जिसका ऐसे जीव द्रव्यको आदि लेकर पंचास्तिकाय नामके धारक जो पाँच द्रव्य हैं वे सप्रदेश ( प्रदेशसहित ) है, और बहुप्रदेशपना है लक्षण जिसका ऐसा जो कायत्व उसके न होनेसे कालद्रव्य अप्रदेश है । " एय" द्रव्यार्थिकनयसे धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव, पुद्गल तथा काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं । " खेत्तं" सब द्रव्यों को अवकाश ( स्थान ) देनेका सामर्थ्य होने से क्षेत्र एक आकाशद्रव्य है और शेष पाँच द्रव्य क्षेत्र नहीं है । "किरियाय" एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्र में गमनरूप अर्थात् हिलनेवाली अथवा चलनेवाली जो है वह क्रिया है, वह क्रिया जिनमें रहे वे क्रियावान् जीव तथा पुद्गल ये दो द्रव्य हैं, और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य क्रियासे शून्य हैं । “णिच्च" धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य यद्यपि अर्थ पर्यायतासे अनित्य हैं तथापि मुख्यवृत्तिसे इनमें विभावव्यंजनपर्याय नहीं है इसलिए ये नित्य हैं, और द्रध्यार्थिकनयसे भी नित्य हैं । जीव, पुद्गल ये दो द्रव्य यद्यपि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे नित्य हैं तथापि अगुरुलघुपरिणामरूप जो स्वभावपर्याय है उनकी अपेक्षासे तथा विभावव्यंजनपर्यांयकी अपेक्षासे अनित्य हैं । " कारण " पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये जो द्रव्य हैं इनमें से व्यवहारनयकर जीवके शरीर, वचन, मन, प्राण, अपान आदि कार्य तो पुद्गल द्रव्य करता है और गति, स्थिति, अवगाह तथा वर्त्तनारूप कार्यको क्रमसे धर्म आदि चार द्रव्य करते है; इसलिये पुद्गलादि ६१ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ चूलिका शुद्धद्रव्याथिक येन यद्यपि बन्धमोक्षद्रव्यभावरूप पुण्यपापघटपटादीनामकर्त्ता जीवस्तथाप्यशुद्धनिश्चयेन शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणतः सन् पुण्यपापबन्धयोः कर्त्ता फलभोक्ता भवति । विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मद्रव्यस्य सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपेण शुद्धोपयोगेन तु परिणतः सन् मोक्षस्यापि कर्त्ता तत्फलभोक्ता चेति । शुभाशुभशुद्धपरिणामानां परिणमनमेव कर्तृत्वं सर्वत्र ज्ञातव्यमिति । पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां च स्वकीयस्वकीयपरिणामेन परिणमनमेव कर्तृत्वम् । वस्तुवृत्त्या पुनः पुण्यपापादिरूपेणाकर्तृत्वमेव । " सव्वगदं" लोकालोकव्याप्त्यपेक्षया सर्वगतमाकाशं भण्यते । लोकव्याप्यपेक्षया धर्माधर्मौ च । जीवद्रव्यं पुनरेकजीवापेक्षया लोकपूरणावस्थां विहायासर्वगतं, नानाजीवापेक्षया सर्वगतमेव भवति, पुद्गलद्रव्यं पुनर्लोकरूपम हास्कन्धापेक्षया सर्वगतं, शेषपुद्गलापेक्षया सर्वगतं न भवति, कालद्रव्यं पुनरेककालाणुद्रव्यापेक्षया सर्वगतं न भवति, लोकप्रदेशप्रमाणनानाकालाणुविवक्षया लोके सर्वगतं भवति । "इदरंहि यपवेसे" यद्यपि सर्वद्रव्याणि व्यवहारेणकक्षेत्रावगाहेनान्योन्यप्रवेशेन तिष्ठन्ति तथापि निश्चयनयेन चेतनादिस्वकीयस्वरूपं न त्यजन्तीति ॥ अत्र षद्रव्येषु मध्ये वीतरागचिदानन्दैकादिगुणस्वभावं शुभाशुभमनोवचनकायव्यापाररहितं निजशुद्धात्मद्रव्यमेवोपादेयमिति भावार्थ: ॥ ६२ पाँच द्रव्य कारण हैं, और जीवद्रव्य यद्यपि गुरु, शिष्य आदि रूपसे परस्पर एक दूसरेका उपकार करता है तथापि पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंके प्रति यह जीव कुछ भी उपकार नहीं करता इसलिये अकारण है । "कत्ता" शुद्ध पारिणामिक - परमभावका ग्राहक जो शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है उसकी अपेक्षा यद्यपि बंध मोक्षके कारणभूत द्रव्य-भाव रूप जो पुण्य, पाप, घट पट आदि हैं उनका कर्त्ता जीव नहीं है तथापि अशुद्ध निश्चयनयसे शुभ और अशुभ उपयोगोंसे परिणत हुआ पुण्य तथा पाप बंधका कर्त्ता और उनके फलका भोक्ता होता है । तथा विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावका धारक जो निज शुद्ध आत्मा द्रव्य है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूप शुद्धोपयोगसे परिणत हुआ यह जीव मोक्षका भी कर्त्ता और उस मोक्षके फलका भोक्ता ( भोगनेवाला ) होता है । यहाँ सब जगह शुभ, अशुभ तथा शुद्ध परिणामोंका जो परिणमन है उसीको कर्त्ता जानना चाहिये । और पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंके तो अपने-अपने परिणामसे जो परिणमन है वही कर्तृत्व है तथा यथार्थ में तो पुण्य पाप आदि रूपसे अकर्तृता ही है । " सव्वगदं" लोक और अलोक इन दोनोंमें व्याप्तिकी अपेक्षासे आकाशको ही सर्वगत कहते हैं तथा लोक में व्याप्तिकी अपेक्षा धर्म और अधर्मं सर्वगत हैं । एवं जीव द्रव्य जो है सो एक जीवकी अपेक्षासे लोकपूरणरूप जो अवस्था है उसके सिवाय असर्वगत है और अनेक जीवोंकी अपेक्षा से सर्वगत ही होता है, तथा पुद्गलद्रव्य है सो लोकरूप महास्कन्धकी अपेक्षासे तो सर्वगत है और शेष पुद्गलोंकी अपेक्षासे असवंगत है; पुनः एक काला द्रव्यकी अपेक्षासेतो कालद्रव्य सर्वगत नहीं है और लोकप्रदेशप्रमाण नाना कालाणुओंकी अपेक्षासे कालद्रव्य लोक में सर्वगत है । "इदरंहि यपवेसे" यद्यपि व्यवहारनयसे सब द्रव्य एक क्षेत्र में अवगाह (रहने) से परस्पर प्रवेश द्वारा तिष्ठते हैं तथापि निश्चयनयसे चेतना आदि जो अपना-अपना स्वरूप है उसको नहीं छोड़ते हैं इस कारण परस्पर प्रवेशरहित है । इस उपर्युक्त कथनका तात्पर्य यह है कि इन छहों द्रव्यों में वीतराग, चिदानन्द, एक शुद्ध, बुद्ध आदि गुण ही है स्वभाव जिसके ऐसा, और शुभ तथा अशुभ जो मन, वचन और कायके व्यापार हैं उनसे रहित जो निज शुद्ध आत्मा द्रव्य है वही उपादेय है || Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलिका ] बृहद्रव्यसंग्रहः ६३ अत ऊध्वं पुनरपि षद्रव्याणां मध्ये हेयोपादेयस्वरूपं विशेषेण विचारयति । तत्र शुद्धनिश्चयनयेन शक्तिरूपेण शुद्धबुद्धैकस्वभावत्वात्सर्वे जीवा उपादेया भवन्ति । व्यक्तिरूपेण पुनः पञ्चपरमेष्ठिन एव । तत्राप्यर्हत्सिद्धद्वयमेव । तत्रापि निश्चयेन सिद्ध एव । परमनिश्चयेन तु भोगाकाङ्क्षादिरूप समस्त विकल्पजाल रहित परमसमाधिकाले सिद्धसदृशः स्वशुद्धात्मैवोपादेयः शेषद्रव्याणि हेयानीति तात्पर्यम् । शुद्धबुद्धकस्वभाव इति कोऽर्थः ? मिथ्यात्व रागादिसमस्त विभावरहितत्वेन शुद्ध इत्युच्यते केवलज्ञानाद्यनन्तगुण सहितत्वाद्बुद्धः । इति शुद्धबुद्धैकलक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । इति षद्रव्यचूलिका समाप्ता । चूलिकाशब्दार्थः कथ्यते - चूलिका विशेषव्याख्यानम्, अथवा उक्तानुक्तव्याख्यानम् उक्तानुक्तसंकीर्णव्याख्यानं चेति ।। इति षड्द्रव्यचूलिका समाप्ता ॥ अब इसके उपरान्त फिर भी षट्द्रव्योंमेंसे क्या हेय है और क्या उपादेय है इस स्वरूपको विशेष रीति से विचारते हैं । उनमें शुद्ध निश्चयनयसे शक्तिरूपसे शुद्ध, बुद्ध एक स्वभावके धारक सभी जीव हैं इस कारण सर्व जीव ही उपादेय ( ग्राह्य ) हैं । और व्यक्तिरूपसे अर्हत् सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु ये पाँच परमेष्ठी ही उपादेय हैं । इन पाँचोंमेंसे भी अर्हतसिद्ध ये दो ही उपादेय हैं । इन दोमेंसे भी निश्चयकी अपेक्षासे सिद्ध ही उपादेय है और परमनिश्चयसे भोगोंकी अभिलाषा आदि रूप जो संपूर्ण विकल्पोंके समूह हैं उनसे रहित जो परमध्यानका समय है उस समय में सिद्धोंके समान जो निज शुद्ध आत्मा है, वही उपादेय है । अन्य सब द्रव्य हेय है, यह तात्पर्य है । अब 'शुद्धबुद्वैकस्वभाव' इस पदका क्या अर्थ है सो कहते हैंमिथ्यात्व, राग आदि संपूर्ण विभावोंसे रहित होनेके कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है । तथा केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंसे सहित होनेसे आत्मा बुद्ध कहा जाता है। इस प्रकार जहाँ जहाँ 'शुद्धबुद्धैकस्वभाव' यह पद आवे वहाँ वहाँ सर्वत्र यही पूर्वोक्त लक्षण समझना चाहिये । इस रीति से द्रव्योंकी चूलिका समाप्त हुई। अब 'चूलिका' इस शब्दका अर्थ कहते हैं । "चूलिका" किसी पदार्थ के विशेष व्याख्यानको अथवा उक्त ( कहे हुए ) विषय में जो अनुक्त ( नहीं कहा हुआ ) विषय है उसके व्याख्यानको तथा उक्त तथा अनुक्त से मिला हुआ जो कथन है उसको कहते हैं । इस प्रकार छः द्रव्योंकी चूलिका समाप्त हुई । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) द्वितीयोऽधिकारः अतः परं जीवपुद्गलपर्यायरूपाणामाखवादिसप्तपदार्थानामेकादशगाथापर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तत्रादौ “आसवबंधण" इत्याद्यधिकारसूत्रगाथैका, तदनन्तरमास्रवपदार्थव्याख्यानरूपेण "आसवदि जेण" इत्यादि गाथात्रयं, ततः परं बन्धव्याख्यानकथनेन "वज्झदि कम्म" इति प्रभृतिगाथाद्वयं, ततोऽपि संवरकथनरूपेण "चेदणपरिणामो" इत्यादिसूत्रद्वयं, ततश्च निर्जराप्रतिपादनरूपेण “जहकालेण तवेण य" इति प्रभृतिसूत्रमेकं, तदनन्तरं मोक्षस्वरूपकथनेन "सव्वस्स कम्मणो" इत्यादि सूत्रमेकं, ततश्च पुण्यपापद्वयकथनेन "सुहअसुह" इत्यादि सूत्रमेकं चेत्येकादशगाथाभिः स्थलसप्तकसमुदायेन द्वितीयाधिकारे समुदायपातनिका । __ अत्राह शिष्यः-योकान्तेन जीवाजीवौ परिणामिनौ भवतस्तदा संयोगपर्यायरूप एक एव पदार्थः, यदि पुनरेकान्तेनापरिणामिनौ भवतस्तदा जीवाजीवद्रव्यरूपौ द्वावेव पदार्थों, तत आस्त्रवादि सप्तपदार्थाः कथं घटन्त इति । तत्रोत्तरं-कथंचित्परिणामित्वाद घटन्ते । कथंचित्परिणामित्वमिति कोऽर्थः ? यथा स्फटिकमणिविशेषो यद्यपि स्वभावेन निर्मलस्तथापि जपापुष्पाशुपाधि अब इस चूलिकाके पश्चात् जीव और पद्गल द्रव्यके पर्यायरूप जो आस्रव आदि सप्त पदार्थ हैं उनका एकादश गाथाओंद्वारा इस द्वितीय अधिकारमें व्याख्यान करते हैं। उसमें प्रथम "आसवबन्धण' इत्यादि २८ वीं एक गाथा अधिकार सूत्ररूप है और उसके अनन्तर आस्रवपदार्थके व्याख्यानरूपसे "आसवदि जेण" इत्यादि २९-३०-३१ वी तीन गाथायें हैं। उसके अनन्तर "वज्झदि कम्मं जेण" इत्यादि ३२ वीं और ३३ वीं दो गाथाओंमें बन्धपदार्थका निरूपण है। उसके पश्चात् "चेदणपरिणामो" इत्यादि ३४-३५ की दो गाथाओंमें संवरपदार्थका कथन है। फिर निर्जरापदार्थके प्रतिपादनरूपसे "जह कालेण तवेण य” इत्यादि ३६ वीं एक गाथा है। उसके अनन्तर मोक्षके स्वरूपनिरूपणरूपसे ''सव्वस्स कम्मणो" इत्यादि एक ३७ वीं गाथा है। उसके पश्चात् पुण्य, पाप इन दो पदार्थोंके कथनरूपसे "सुहअसुह' इत्यादि एक ३८ वी गाथा है । ऐसे एकादश गाथाओं द्वारा सप्त स्थलोंके समुदाय सहित द्वितीय अधिकारकी समुदायपातनिका समझनी चाहिये। अब यहाँपर शिष्य प्रश्न करता है कि हे गुरो ! यदि जीव तथा अजीव ये दोनों द्रव्य एकान्तसे ( सर्वथा ) परिणामी ही हैं तो संयोगपर्यायरूप एक ही पदार्थ सिद्ध होता है; और यदि सर्वथा अपरिणामी हैं तो जीव, अजीव द्रव्य रूप दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं। इस कारण आस्रव आदि सप्त पदार्थ कैसे सिद्ध होते हैं ? अब इसका उत्तर कहते हैं कि कथंचित् परिणामी होनेसे सप्त पदार्थों का कथन संगत होता है। "कथंचित्परिणामित्व" इसका क्या अर्थ है सो सुनो-जैसे मणियोंक भेद रूप जो स्फटिकमणि है वह यद्यपि स्वभावसे निर्मल है तथापि जपापुष्प (जवा अथवा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ६५ जनितं पर्यायान्तरं परिणति गृह्णाति । यद्यप्युपाधि गृह्णाति तथापि निश्चयेन शुद्धस्वभावं न त्यजति तथा जीवोsपि यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन सहजशुद्ध चिदानन्दैकस्वभावस्तथाप्यनादिक संबन्धपर्यायवशेन रागादिपरद्रव्योपाधिपर्यायं गृह्णाति । यद्यपि परपर्यायेण परिणमति तथापि निश्चयेन शुद्धस्वरूपं न त्यजति । पुद्गलोऽपि तथेति । परस्परसापेक्षत्वं कथंचित्परिणामित्वशब्दस्यार्थः । एवं कथंचित्परिणामित्वे सति जीवपुद्गलसंयोगपरिणतिनिर्वृत्तत्वादात्रवादिसप्तपदार्था घटन्ते । ते च पूर्वोक्तजीबाजीवाभ्यां सह नव भवन्ति तत एव नव पदार्थाः । पुण्यपापपदार्थद्वयस्याभेदनयेन कृत्वा पुण्यपापयोर्बन्धपदार्थस्य वा मध्ये अन्तर्भावविवक्षया सप्ततत्त्वानि भण्यन्ते । हे भगवन्, यद्यपि कथंचित्परिणामित्वबलेन भेदप्रधानपर्यायार्थिकनयेन नवपदार्थाः सप्ततत्त्वानि सिद्धानि तथापि तैः किं प्रयोजनम् । तथैवाभेदनयेन पुण्यपापपदार्थद्वयस्यान्तर्भावो जातस्तथैव विशेषाभेद नयविवक्षायामात्रवादिपदार्थानामपि जीवाजीवद्वयमध्येऽन्तर्भावे कृते जीवाजीवौ द्वावेव पदार्थाविति । तत्र परिहारः - हेयोपादेयतत्त्वपरिज्ञान प्रयोजनार्थमात्रवादिपदार्थाः व्याख्येया भवन्ति । तदेव कथयति — उपादेयतत्त्वमक्षयानन्त सुखं, तस्य कारणं मोक्षो, मोक्षस्य कारणं संवर गुड़हलका फूल ) आदिकी उपाधिसे उत्पन्न जो रक्तत्व आदि अन्य पर्याय है उस रूप परिणमता है अर्थात् सर्वथा निर्मल स्फटिक मणिके साथ जब जपापुष्पका योग होता है तब वह उस पुष्पके समान रक्तवर्णका ही धारक हो जाता है। यहाँ स्फटिकमणि यद्यपि उपाधिको ग्रहण करता है तथापि निश्चयसे अपना जो निर्मल स्वभाव है उसको नहीं छोड़ता है। ऐसे ही जीव भी यद्यपि शुद्धद्रव्यार्थिकनय से स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध चिदानन्दरूप स्वभावका धारक है तथापि अनादि कर्मबन्ध रूप जो पर्याय है उसके वशसे राग आदि परद्रव्यजनित जो उपाधि पर्याय है उसको ग्रहण करता है । यहाँ यद्यपि जीव परपर्यायके रूपसे परिणमन करता है तथापि निश्चयनयसे जो अपना शुद्ध स्वरूप है उसको नहीं छोड़ता है। इसी प्रकार पुद्गलद्रव्य भी अन्यकी उपाधिसे परिणमनको प्राप्त हो जाता है इस कारण परस्परकी अपेक्षासहित होना यही " कथंचित्परिणामित्व" शब्दका अर्थ है । इस रीति से कथंचित्परिणामित्व सिद्ध होनेपर जीव और पुद्गलके संयोगकी परिणति (परिणाम) से रचे हुए आस्रव आदि सप्त पदार्थ घटित होते हैं । और वे आस्रव आदि सप्त पदार्थ पूर्वोक्त जो जीव और अजीव दो द्रव्य हैं उन सहित नव होते हैं इसलिए नव पदार्थ कहे जाते हैं । तथा इन नव पदार्थों में जा पुण्य और पाप नामक दो पदार्थ हैं इनका पूर्व सप्त पदार्थोंसे अभेद करने से अथवा पुण्य और पाप पदार्थका बन्ध पदार्थ में अन्तर्भाव ( शामिल ) करनेसे सप्त तत्त्व कहे जाते हैं । शिष्य प्रश्न करता है कि हे भगवन् ! यद्यपि कथंचित्परिणामित्व माननेके बलसे भेदप्रधान पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा से नव पदार्थ तथा सप्त तत्त्व सिद्ध हो गये तथापि इनसे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? क्योंकि जैसे अभेदनयसे पुण्य पाप इन दो पदार्थोंका प्रथम सप्त पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी प्रकार विशेष अभेदनयकी विवक्षामें आस्रव आदि पदार्थोंका भी जीव और अजीव इन दोनों पदार्थों में अन्तर्भाव कर लेनेसे जीव तथा अजीव ये दो ही पदार्थ सिद्ध हो जायेंगे । अब इस शिष्यकी शंकाका परिहार करते हैं कि हे शिष्य ! कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है इस विषयका ज्ञान होने के प्रयोजनके लिये आस्रव आदि पदार्थ निरूपण करने योग्य होते हैं । अब इसी विषयको कहते हैं कि अविनाशी अनन्त सुख जो है वह उपादेय तत्त्व है । उस अक्षय अनन्त सुखका कारण मोक्ष है और उस मोक्षके कारण संवर और निर्जरा ये दोनों पदार्थ हैं । उन संवर और निर्जराका कारण, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार निर्जराद्वयं तस्य कारणं विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभाव निजात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणं निश्चयरत्नत्रयस्वरूपं तत्साधकं व्यवहाररत्नत्रयरूपं चेति । इदानीं हेयतत्त्वं कथ्यते -आकुलत्वोत्पादकं नारकादिदुःखं निश्चयेनेन्द्रियसुखं च यतत्त्वम् । तस्य कारणं संसारः, संसारकारणमात्रवबन्धपदार्थद्वयं तस्य कारणं पूर्वोक्तव्यवहारनिश्चयरत्नत्रयाद्विलक्षणं मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रत्रयमिति । एवं हेयोपादेयतत्त्वव्याख्याने कृते सति सप्ततत्त्वनवपदार्थाः स्वयमेव सिद्धाः । 1 इदानीं कस्य पदार्थस्य कः कर्त्तेति कथ्यते - निजनिरञ्जन शुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादपराङ्मुखो बहिरात्मा भण्यते । स चात्रवबन्ध पापपदार्थस्य कर्त्ता भवति । क्वापि काले पुनर्मन्दमिथ्यात्वमन्दकषायोदये सति भोगाकाङ्क्षादिनिदानबन्धेन भाविकाले पापानुबन्धिपुण्यपदार्थस्यापि कर्त्ता भवति । यस्तु पूर्वोक्तबहिरात्मनो विलक्षण: सम्यग्दृष्टिः स संवरनिर्जरामोक्षपदार्थत्रयस्य कर्त्ता भवति । रागादिविभावरहितपरमसामायिके यदा स्थातुं समर्थो न भवति तदा विषयकषायोत्पन्न दुर्ध्यानवञ्चनार्थं संसारस्थितिच्छेदं कुर्वन् पुण्यानुबन्धितीर्थकरनामप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यपदार्थस्य कर्त्ता भवति । कर्तृत्वविषये नयविभागः कथ्यते । मिथ्यादृष्टेर्जीवस्य पुद्गलद्रव्य पर्याय रूपाणामात्रवबन्धपुण्यपापपदार्थानां कर्तृत्वमनुपचरितासभूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायरूपाणां पुनरशुद्ध निश्चयन येनेति । सम्यग्दृष्टस्तु संवरनिर्जरामोक्षपदार्थानां विशुद्ध -- ज्ञानदर्शनस्वभावका धारक जो निजात्मा है उसके स्वरूपका सम्यग्श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण करनेरूप निश्चय रत्नत्रय स्वरूप है, और उस निश्चय रत्नत्रयको साधनेवाला व्यवहाररत्नत्रय है । अब यतत्त्वका कथन करते हैं-आकुलताको उत्पन्न करनेवाला जो नरकगति आदिका दुःख तथा इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ सुख है वह हेय (त्याज्य) तत्त्व है, उसका कारण संसार है और संसार के कारण आस्रव तथा बंध ये दो पदार्थ हैं, और उस आस्रवका तथा बंधका कारण पूर्वकथित जो व्यवहार और निश्चयरत्नत्रय है उससे विपरीत लक्षणके धारक मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र ये तीन हैं। इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्वका निरूपण करनेपर सप्ततत्त्व तथा नव पदार्थ स्वयं ही सिद्ध हो गये ॥ ra किस पदार्थका कौन कर्ता है इस विषयका उपदेश करते हैं । निज निरंजन शुद्ध आत्मा जो है उसकी भावना (चितवन) से उत्पन्न जो परम आनन्दरूप लक्षणवाला सुखामृतका रस है। उसके आस्वादसे पराङ्मुख ( रहित ) जो जीव है वह बहिरात्मा कहलाता है । वह बहिरात्मा आस्रव, बन्ध और पाप इन तीन पदार्थोंका कर्त्ता होता है; और किसी समय जब कषाय और मिथ्यात्वका उदय मन्द होता है तब भोगोंकी अभिलाषा आदि रूप निदानके बन्धसे पापसे सम्बन्ध रखनेवाले पुण्यपदार्थका भी कर्त्ता होता है । तथा जो पूर्वोक्त बहिरात्मासे विपरीत लक्षणका धारक सम्यग्दृष्टि जीव है वह संवर, निर्जरा तथा मोक्ष इन तीन पदार्थोंका कर्त्ता होता है, और यह सम्यग्दृष्टि जीव जिस समय राग आदि विभावोंसे रहित जो परम सामायिक है उसमें स्थित रहनेको समर्थ नहीं होता है उस समय विषयकषायोंसे उत्पन्न जो दुर्ध्यान उसके वंचनार्थ अर्थात् न होनेके लिये संसारकी स्थितिका नाश करता हुआ पुण्यसे सम्बन्ध रखनेवाला जो तीर्थंकर नाम प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्य पदार्थ है उसका कर्त्ता होता है । अब कर्तृत्व के विषय में नयों के Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः द्रव्यरूपाणां यत्कर्तृत्वं तदप्यनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण, जीवभावपर्यायरूपाणां तु विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेनेति । परमशुद्धनिश्चयेन तु "ण वि उप्पज्जइ, ण वि मरइ, बंधु ण मोक्खु करेइ । जिउ परमत्थे जोइया, जिणवरु एम भणेइ ॥१॥" इति वचनादबन्धमोक्षौ न स्तः । स च पूर्वोक्तविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय आगमभाषया किं भण्यते-स्वशुद्धात्मसम्यश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपेण भविष्यतीति भव्यः, एवंभूतस्य भव्यत्वसंज्ञस्य पारिणामिकभावस्य संबन्धिनी व्यक्तिभंण्यते । अध्यात्मभाषया पुनद्रव्यशक्तिरूपशद्धपारिणामिकभावविषये भावना भण्यते, पर्यायनामान्तरेण निर्विकल्पसमाधिर्वा शुद्धोपयोगादिकं वेति । यत एव भावना मुक्तिकारणं तत एव शुद्धपारिणामिकभावो ध्येयरूपो भवति ध्यानभावनारूपो न भवति । कस्मादिति चेत्-ध्यानभावनापर्यायो विनश्वरः स च द्रव्यरूपत्वादविनश्वर इति । इदमत्र तात्पयं-मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालरहितनिजशुद्धात्मभावनोत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखसंवित्तिरूपा च भावनामुक्तिकारणं भवति । तां च कोऽपि जनः केनापि पर्यायनामान्तरेण भणतीति । एवं पूर्वोक्तप्रकारेणानेकान्तव्याख्यानेनास्रवबन्धपुण्यपापपदार्थाः जीवपुद्गलसंयोगपरिणाम रूपविभाव पर्यायेणोत्पद्यन्ते। संवरनिर्जरामोक्षपदार्थाः पुनर्जीवपुद्गलसंयोगपरिणामविनाशोत्पन्नेन विवक्षितस्वभावपर्यायेणेति स्थितम् ॥ विभागका निरूपण करते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवके जो पुद्गल द्रव्यपर्यायरूप आस्रव, बन्ध तथा पुण्य पापपदार्थोंका कर्त्तापना है सो अनुपचरित असद्भ तव्यवहारनयकी अपेक्षासे है और जीव भाव ( देव मनुष्य आदि ) पर्याय रूप पदार्थोंका कर्तृत्व अशुद्ध निश्चयनयसे है। तथा सम्यग्दृष्टि जीव जो द्रव्यरूप संवर, निर्जरा तथा मोक्ष पदार्थका कर्ता है; सो भी अनुपचरित असद्भ त व्यवहार नयसे ही है । तथा जीव भावपर्याय रूपोंका जो कर्ता है सो विवक्षित एक देश शुद्ध निश्चय नयसे है । और परम शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे तो "जो परमार्थ दृष्टिसे देखें तो यह जीव न उत्पन्न होता है, न मरता है और न बन्ध तथा न मोक्षको करता है, इस प्रकार श्रीजिनेन्द्र कहते हैं।" इस वचनसे जीवके बन्ध और मोक्ष ही नहीं है। इसलिये विवक्षितैकदेश शुद्ध निश्चयनयसे ही जीवभावपर्यायोंका जीवको कर्तृत्व है। अब आगमभाषासे क्या कहते हैं सो दर्शाते हैं-निज शुद्ध आत्माके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान तथा आचरण रूपसे जो होगा उसे भव्य कहते हैं, इस प्रकारका जो भव्यत्व संज्ञाका धारक जीव है उसके पारिणामिकभावसे संबंध रखनेवाली व्यक्ति कही जाती है अर्थात् भव्यके पारिणामिकभावकी व्यक्ति (प्रकटता)है । और अध्यात्मभाषासे द्रव्यशक्तिरूप जो शुद्ध भाव है उसके विषयमें भावना कहते हैं। अन्य नामोंसे इसी द्रव्यशक्तिरूप पारिणामिकभावको भावनाको निर्विकल्प ध्यान तथा शुद्ध उपयोग आदि कहते हैं। भावना मुक्तिका कारण है । इसी कारण जो शुद्ध पारिणामिकभाव है वह ध्येय (ध्यान करने योग्य) रूप होता है और ध्यानरूप नहीं होता । ऐसा क्यों होता है यह पूछो तो उत्तर यह है कि ध्यानभावना पर्याय है सो तो विनाशका धारक है और ध्येयभावना पर्याय द्रव्यरूप होनेसे विनाशरहित है। तात्पर्य यहाँपर यह है कि मिथ्यात्व, राग आदि जो विकल्पोंके समूह हैं उनसे रहित जो निजशुद्ध आत्मा उसकी भावनासे उत्पन्न सहज ( स्वभावसे उत्पन्न ) आनन्द रूप एक सुखके ज्ञानको धारण करनेवाली जो भावना है वही मुक्तिका कारण है । उसी भावनाको कोई पुरुष किसी ( निर्विकल्प ध्यान, शुद्धोपयोग आदि रूप ) अन्य नामके द्वारा कहता है ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार तद्यथा आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपुण्णपावा जे । जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥ २८ ॥ आस्रवबन्धनसंवरनिर्जरमोक्षाः सपुण्यपापाः ये। जीवाजीवविशेषाः तान् अपि समासेन प्रभणामः ॥ २८॥ व्याख्या--."आसव" निरास्रवस्वसंवित्तिविलक्षणशुभाशुभपरिणामेन शुभाशभकर्मागमनमानवः । "बंधण" बन्धातीतशुद्धात्मोपलम्भभावनाच्युतजीवस्य कर्मप्रदेशः सह संश्लेषो वन्धः। “संवर" कर्मास्रवनिरोधसमर्थस्वसंवित्तिपरिणतजीवस्य शुभाशुभकर्मागमनसंवरणं संवरः। "णिज्जर" शुद्धोपयोगभावनासामर्थ्येन नीरसीभूतकर्मपुद्गलानामेकदेशगलनं निर्जरा । “मोक्खो" जीवपदगल संश्लेषरूपबन्धस्य विघटने समर्थः स्वशुद्धात्मोपलब्धिपरिणामो मोक्ष इति । “सपुण्णपावा जे" पुण्यपापसहिता ये "ते वि समासेण पभणामो" यथा जीवाजीवपदार्थों व्याख्यातो पूर्व तथा तानप्यास्त्रवादिपदार्थान् समासेण संक्षेपेण प्रभणामो वयं, ते च कथंभूताः "जीवाजीवविसेसा" __इस पूर्वोक्त प्रकारसे अनेकान्त ( स्याद्वाद ) का आश्रय कर कथन करनेसे आस्रव, बंध, पुण्य और पाप ये चार पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोगपरिणामरूप जो विभाव पर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं । और संवर, निर्जरा तथा मोक्ष ये तीन पदार्थ जीव और पुद्गलके संयोगरूप परिणामके विनाशसे उत्पन्न जो विवक्षित स्वभावपर्याय है उससे उत्पन्न होते हैं, यह निश्चय हुआ ॥ अव पूर्वोक्त पदार्थोंका निरूपण करते हैं, सो इस प्रकार है गाथाभावार्थ-अव जो आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य तथा पाप ऐसे सात जीव, अजीवके भेदरूप पदार्थ हैं; इनको भी संक्षेपसे कहते हैं । २८ ।। व्याख्यार्थ-''आसव" आस्रवसे रहित जो निज आत्माका ज्ञान है उससे विलक्षण जो शुभ तथा अशुभ परिणाम है उस परिणामसे जो शुभ और अशुभ कर्मोका आगमन है सो आस्रव है। "बंधण" वंधसे रहित जो शुद्ध आत्मा है उसकी प्राप्तिस्वरूप जो भावना है उस भावनासे गिरे हुए जीवका जो कर्मके प्रदेशोंके साथ परस्पर बंध है, इसको वंध कहते हैं । "संवर" कर्मों के आस्रवको रोकने में समर्थ जो निज आत्मज्ञान है उस ज्ञानमें परिणत जीवके जो शुभ तथा अशुभ कर्मोके आनेका निरोध है वह संवर है। "णिज्जर" शुद्ध उपयोगकी भावनाके बलसे नीरसीभूत ( शक्तिहीन हुए ) हुए ऐसे कर्मपुद्गलोंका जो एकदेशसे गलन अर्थात् नाश है उसको निर्जरा कहते हैं । 'मोक्खो" जोव तथा पुद्गलका जो परस्पर मेलन रूप बंध है उस बंधको नाश करने में समर्थ जो निजगुद्ध आत्माकी प्राप्तिरूप परिणाम है वह मोक्ष कहा जाता है। "सपुण्णपावा जे" पुण्य तथा पाप सहित जो आस्रव आदि पदार्थ हैं "ते वि समासेण पभणामो" उनको भी जैसे पहले जीव, अजीव कहे उसी प्रकार संक्षेपसे हम कहते हैं और वे कैसे हैं कि "जीवाजीवविसेसा" जीव तथा अजीवके विशेष अर्थात् पर्याय हैं । तात्पर्य यह कि चैतन्य आस्रव आदि तो जीवके अशुद्ध परिणाम Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः जीवाजीवविशेषाः। विशेषा इत्यस्य कोऽर्थः पर्यायाः। चैतन्या अशुद्धपरिणामा जीवस्य अचेतनाः कर्मपुद्गलपर्याया अजीवस्येत्यर्थः ॥ एवमधिकारसूत्रगाथा गता ॥२८॥ अथ गाथात्रयेणास्रवव्याख्यानं क्रियते, तत्रादौ भावास्रवद्रव्यास्रवस्वरूपं सूचयति; आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णेओ। भावासनो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ।। २९ ॥ आस्रवति येन कर्म परिणामेन आत्मनः स विज्ञेयः । भावास्रवः जिनोक्तः कस्रिवणं परः भवति ॥ २९ ।। व्याख्या-"आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विणेओ भावासवो' आस्रवति कर्म येन परिणामेनात्मनः स विज्ञेयो भावात्रवः। कर्मास्रवनिर्मूलनसमर्थशुद्धात्मभावनाप्रतिपक्षभूतेन येन परिणामेनास्रवति कर्म कस्यात्मनः स्वस्य स परिणामो भावास्रवो विज्ञेयः । स च कथंभूतः "जिणुत्तो' जिनेन वीतरागसर्वज्ञेनोक्तः। “कम्मासवणं परो होदि" कर्मास्त्रवणं परो भवति ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणामास्रवणमागमनं परः, पर इति कोऽर्थः-भावात्रवादन्यो भिन्नो भावात्रवनिमित्तेन तैलमृक्षितानां धूलिसमागम इव द्रव्यात्रवो भवतीति। ननु "आस्रवति येन कर्म" तेनैव पदेन द्रव्यास्रवो लब्धः, पुनरपि कर्मास्त्रवणं परो भवतीति द्रव्यास्रवव्याख्यानं किमर्थमिति हैं और अचेतन जो कर्मपुद्गलोंके पर्याय हैं वे अजीवके हैं । इस प्रकार आस्रव आदि अधिकारसूत्रकी गाथा समाप्त हुई ।॥ २८ ॥ __ अब तीन गाथाओंसे आस्रव पदार्थका व्याख्यान करते हैं, उसमें प्रथम ही भावास्रव तथा द्रव्यास्रवकी सूचना करते हैं; गाथाभावार्थ-जिस परिणामसं आत्माके कर्मका आस्रव होता है उसको श्रीजिनेन्द्रद्वारा कहा हुआ भावास्रव जानना चाहिये। और भावास्रवसे भिन्न ज्ञानावरणादिरूप कर्मोका जो आस्रव है सो द्रव्यास्रव है ॥२९।। व्याख्यार्थ-"आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विष्णेओ भावासवो" आत्माके जिस परिणाम से कर्मका आस्रव हो वह परिणाम भावास्रव है, यह जानना चाहिये। भावार्थ यह है कि कर्मास्रवके दूर करने में समर्थ जो शुद्ध आत्मा की भावना है उस भावनाके प्रतिपक्षभूत ( विरोधी) जिस परिणाम से अपने आत्माके कर्मका आस्रव होता है उस परिणामको भावास्रव जानना चाहिये । वह भावास्रव कैसा है कि "जिणुत्तो" जिन जो श्रीवीतराग सर्वज्ञ देव हैं उनसे कहा हुआ है। “कम्मासवणं परो होदि" कर्मोका जो आस्रवण है वह पर होता है अर्थात् ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मोका जो आस्रवण ( आगमन ) है वह पर है। पर शब्द का अर्थ यह है कि भावास्रवसे भिन्न । भावार्थ - जैसे तेलसे चुपड़े हुए पदार्थोके धूलका समागम होता है उसीप्रकार भावास्रवके निमित्तसे जीवके द्रव्यास्रव होता है। अब यहाँ कोई शंका करते हैं कि "आसवदि जेण कम्म" ( जिससे कर्मका आस्रव होता है ) इसी पदसे द्रव्यास्रवकी प्राप्ति हो गई फिर "कम्मासवणं परो होदि" ( इससे भिन्न कर्मास्रव होता है ) इस पदसे द्रव्यास्रवका व्याख्यान किस प्रयोजनके लिये किया ? समाधान-यह शंका जो तुमने कही सो ठीक नहीं । क्योंकि, "जिस Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार यदुक्तं त्वया । तन्न । येन परिणामेन किं भवति आस्रवति कर्म तत्परिणामस्य सामथ्यं दर्शितं न च द्रव्यास्त्रवव्याख्यानमिति भावार्थः ॥ २९ ॥ ७० अथ भावास्रवस्वरूपं विशेषेण कथयति ; मिच्छत्ताविरदिपमादजोग कोधादओऽथ विष्णेया । पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ।। ३० ।। अथ विज्ञेयाः । पञ्च पञ्च पञ्चदश त्रयः चत्वारः क्रमशः भेदाः तु पूर्वस्य ॥ ३० ॥ मिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगक्रोधादयः व्याख्या - "मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ" मिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगक्रोधादयः । अभ्यन्तरे वीतरागनिजात्मतत्त्वानुभूतिरुचिविषये विपरीताभिनिवेशजनकं, बहिविषये तु परकीयशुद्धात्मतत्त्वप्रभृतिसमस्तद्रव्येषु विपरीताभिनिवेशोत्पादकं च मिथ्यात्वं भण्यते । अभ्यन्तरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्न परमसुखामृत रतिविलक्षणा बर्हिविषये पुनरव्रतरूपा चेत्यविरतिः । अभ्यन्तरे निष्प्रमादशुद्धात्मानुभूतिचलनरूपः बहिविषये तु मूलोत्तरगुणमलजनकश्चेति प्रमादः । निश्चयेन निष्क्रियस्यापि परमात्मनो व्यवहारेण वीर्यान्तरायक्षयोपशमोत्पन्नो मनोवचनकायवर्गणापरिणामसे क्या होता है कि कर्मका आस्रव होता है" यह जो कथन है उससे परिणामका सामर्थ्य दिखाया गया है, द्रव्यास्रवका व्याख्यान नहीं किया गया । यह भावार्थ है ||२९|| अब भावास्रव के स्वरूपका विशेष रीतिसे कथन करते हैं; -- गाथाभावार्थ- - अब प्रथम जो भावास्रव है उसके मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, योग और क्रोध आदि कषाय ऐसे पाँच भेद जानने चाहिये; और मिथ्यात्व आदिके क्रमसे पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद समझने चाहिये । अर्थात् मिथ्यात्वके पाँच भेद, अविरतिके पाँच भेद, प्रमादके पन्द्रह भेद, योगके तीन भेद और क्रोध आदि कषायोंके चार भेद जानने चाहिये ||३०|| व्याख्यार्थ - मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओ" मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा क्रोध आदि वक्ष्यमाण लक्षण तथा संख्यायुक्त भाव आस्रवके भेद हैं । इनमें से अन्तरंग में जो वीतराग निज आत्मतत्त्वके अनुभव में रुचि है उसके विषय में विपरीत अभिनिवेश ( आग्रह ) का उत्पन्न करानेवाला तथा बाह्य विषय में परसंबन्धी शुद्ध आत्मतत्त्वसे आदि लेके संपूर्ण द्रव्यों में जो विपरीत अर्थात् उलटे आग्रहका उत्पन्न करानेवाला है, उसको मिथ्यात्व कहते हैं । तथा अभ्यन्तर में निज परमात्मा के स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न जो परम सुखरूप अमृत है, उस परम सुखमें जो रति (प्रीति) है उससे विलक्षण तथा बाह्य विषय में व्रत आदिका धारण न करने रूप जो है सो अविरति है । तथा अभ्यन्तरमें प्रमादरहित जो शुद्ध आत्मा है उसके अनुभवसे चलन (डिगाने ) रूप और बाह्य विषयमें जो मूल गुण तथा उत्तर गुण हैं उनमें अतिचार उत्पन्न करनेवाला प्रमाद है । निश्चयसे क्रियारहित परमात्माके भी जो व्यवहारसे वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशम से उत्पन्न तथा मन, वचन तथा काय वर्गणाको अवलम्बन करनेवाला, कर्मोंके ग्रहण करने में कारणभूत आत्माके प्रदेशोंका परिस्पन्द ( संचलन ) है उसको योग कहते हैं । तथा अभ्यन्तर में परम उपशममूर्तिवाला तथा केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंरूप स्वभावका धारक जो परमात्माका स्वरूप है उसमें क्षोभको उत्पन्न करनेवाले तथा बाह्य विषय में परके संबंधीपनेसे Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः वलम्बनः कर्मादानहेतुभूत आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योग इत्युच्यते । अभ्यन्तरे परमोपशममूर्तिकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्वभावपरमात्मस्वरूपक्षोभकारकाः बर्हिविषये तु परेषां सम्बन्धित्वेन क्रूरत्वाद्यावेशरूपाः क्रोधादयश्चेत्युक्तलक्षणा: पञ्चास्त्रवाः "अथ" अथो "विष्णेया" विज्ञेया ज्ञातव्याः । कतिभेदास्ते "पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु" पञ्चपञ्चपञ्चदशत्रिचतुर्भेवाः क्रमशो भवन्ति पुनः । तथाहि " एयंत बुद्धिदरसी विवरीओ बह्मतावसो विणओ | इंदो विय संसइदो मक्कडिओ चेव अण्णाणी । १।" इति गाथाकथितलक्षणं पञ्चविधं मिथ्यात्वम् । हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाकाङ्क्षारूपेणाविरतिरपि पञ्चविधा । अथवा मनःसहितपञ्चेन्द्रियप्रवृत्तिपृथिव्यादिषट्कार्याविराधनाभेदेन द्वादशविधा । "विकहा तह य कसाया इंदियणिद्दा य तह य पणयो य । चदु चतु पणमेगेगं हंति पमादा हु पण्णरसा । १।" इति गाथाकथितक्रमेण पञ्चदश प्रमादाः । मनोवचनकायव्यापारभेदेन त्रिविधो योगः, विस्तरेण पञ्चदशभेदो वा । क्रोधमानमायालोभभेदेन कषायाश्चत्वारः कषायनोकषायभेदेन पञ्चविंशतिविधा वा । एते सर्वे भेदाः कस्य सम्बन्धिनः "पुव्वस्स" पूर्वसूत्रोदितभावात्रवस्येत्यर्थः ॥ ३० ।। अथ द्रव्यास्त्रवस्वरूपमुद्योतयतिः - णाणावरणादीनं जोरगं जं पुग्गलं समासवदि । दव्वासवो स ओ अणेयभेओ जिंणक्खादो ॥ ३१ ॥ ज्ञानावरणादीनां योग्यं यत् पुद्गलं समास्रवति । द्रव्यास्रवः सः ज्ञेयः अनेकभेदः जिनाख्यातः ॥ ३१ ॥ ७१ 1 क्रूरता आदिके आवेश रूप जो क्रोध आदि हैं उनको कषाय कहते हैं । इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण के धारक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग तथा कषाय ये पाँच भावास्रव हैं । ये "अथ" पूर्वकथनके अर्थात् २९ वीं गाथामें कहे हुए कथनके पश्चात् "विष्णेया" जानने चाहिये। अब इन पाँच भावास्रवोंके कितने भेद हैं सो कहते हैं - " पण पण पणदस तिय चटु कमसो भेदा दु" और उन मिथ्यात्व आदिके क्रमसे पाँच, पाँच, पन्द्रह, तीन और चार भेद हैं । वे इस प्रकार हैं "बौद्धमतवाले आदि एकान्तमिथ्यात्वी हैं १, यज्ञ करनेवाले ब्राह्मण आदि विपरीतमिथ्यात्व के धारक हैं २, तापस आदि विनयमिथ्यात्वी हैं ३, इन्द्राचार्य आदि संशयमिथ्यात्वी हैं ४, और मस्करी आदि- अज्ञानमिथ्यात्वी हैं ५ ।' हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहमें इच्छारूप अविरति भी पाँच प्रकारकी है, अथवा यही अविरति मन और पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिरूप ६ भेद तथा छहकायके जीवोंकी विराधनारूप ६ भेद ऐसे दोनोंके मिलानेसे बारह प्रकारकी भी है । "चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय, निद्रा और राग ऐसे पन्द्रह प्रमाद होते हैं ।। १ ।। ” इस गाथाकथित क्रमसे प्रमाद पन्द्रह हैं । मनोव्यापार, वचनव्यापार और काव्यव्यापार इन भेदोंसे योग तीन प्रकारका है, अथवा विस्तारसे १५ प्रकारका है । क्रोध, मान, माया तथा लोभ इन भेदोंसे कषाय चार प्रकारके हैं, अथवा १६ कषाय और ९ नोकषाय इन भेदोंसे पच्चीस प्रकारके कषाय हैं । ये सब भेद किस आस्रवके सम्बन्धी हैं कि "पुव्वस्स" पूर्व गाथामें कहा हुआ जो भावास्रव है उसके भेद हैं । इस प्रकार गाथाका अर्थ है ।। ३०॥ अब द्रव्यासवके स्वरूपको प्रकट करते हैं -- गाथाभावार्थ - ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोंके योग्य जो पुद्गल आता है उसको द्रव्यासव जानना चाहिये । वह अनेक भेदोंसहित है, ऐसा श्रीजिनेन्द्र ने कहा है ||३१|| Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वित्तीय अधिकार व्याख्या - " णाणावरणादीनं" सहजशुद्ध केवलज्ञानमभेदेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाधारभूतं ज्ञानशब्दवाच्यं परमात्मानं वा आवृणोतीति ज्ञानावरणं, तदादिर्येषां तानि ज्ञानावरणादीनि तेषां ज्ञानावरणादीनां "जोग्गं" योग्यं "जं पुग्गलं समासवदि" स्नेहाभ्यक्तशरीराणां धूलिरेणुसमागम इव निष्कषाय शुद्धात्मसंवित्तिच्युतजीवानां कर्मवर्गणारूपं यत्पुद्गलद्रव्यं समास्रवति "दव्वासओ स "ओ" द्रव्यास्त्रवः स विज्ञेयः । "अणेयभेओ" स च ज्ञानदर्शनावरणीयवेदनीयमोहनीयायुर्नामगोत्रान्तरायसंज्ञानामष्टमूलप्रकृतीनां भेदेन तथैव "पण णव दु अट्टवीसा चउ तियणवदी य दोण्णि पंचे। बावण्णहीण बियसयपयडिविणासेण होंति ते सिद्धा ॥ १ ॥” इति गाथाकथितक्रमेणाष्टचत्वारिंशदधिकशतसंख्याप्रमितोत्तरप्रकृतिभेदेन तथा चासंख्येयलोकप्रमितपृथिवीकायनामकर्माद्युत्तरोत्तर प्रकृतिरूपेणानेकभेद इति “जिणक्खादो" जिनख्यातो जिनप्रणीत इत्यर्थः ॥ ३१ ॥ एवमात्रवव्याख्यानगाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् । ७२ अतः परं सूत्रद्वयेन बन्धव्याख्यानं क्रियते । तत्रादौ गाथापूर्वार्धेन भावबन्धमुत्तरार्धेन तु द्रव्यबन्धस्वरूपमा वेदयति; - झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो । कम्मादपसाणं अणोपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥ व्याख्यार्थ - - " णाणावरणादीनं" सहज शुद्ध केवलज्ञानको अथवा अभेदन की विवक्षा से केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंका आधारभूत 'ज्ञान' इस शब्द से कहने योग्य जो परमात्मा है उसको जो आवृत करे अर्थात् ढके सो ज्ञानावरण है । वह ज्ञानावरण है आदिमें जिनके ऐसे जो ज्ञानावरणादि हैं उनके "जोग्गं" योग्य "जं" जो "पुग्गलं" पुद्गल "समासवदि" आता है अर्थात् जैसे तैसे लिप्त (चुपड़े हुए) शरीरवाले जीवोंके धूलके कणोंका आगमन होता है उसी प्रकार कषायरहित शुद्ध आत्माके ज्ञानसे रहित जीवोंके जो कर्मवगणारूप पुद्गलद्रव्य आता है "दव्वासओ स णेओ" उसको द्रव्यास्रव जानना चाहिये । " अणेयभेओ" और वह अनेक प्रकारका है अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुः, नाम, गोत्र तथा अन्तराय नामक जो आठ मूल प्रकृतिके भेद हैं उनसे, अथवा "ज्ञानावरणीयके ५, दर्शनावरणीयके ९, वेदनोयके २, मोहनीय के २८, आयुके ४, नामके ९३, गोत्रके २, और अन्तरायके ५ इस प्रकार बावन कम दोसौ (१४८ ) प्रकृतियों का नाश होने से वे सिद्ध होते हैं ।" इस गाथामें कहे हुए क्रमसे एकसौ अड़तालीस संख्या प्रमाण जो उत्तरप्रकृतियाँ हैं उनके भेदोंसे तथा असंख्यात लोकप्रमाण जो पृथिवी काय नाम कर्म आदि उत्तरोत्तर प्रकृतिभेद हैं उनसे अनेक प्रकारका है । "जिणक्वादो" यह द्रव्यास्रवका सूत्र श्रीजिनेन्द्रदेवका कहा हुआ है । इस प्रकार गाथाका अर्थ है ||३१|| इस पूर्वोक्त प्रकार के आस्रवके व्याख्यानकी तीन गाथाओंसे प्रथम स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे दो गाथासूत्रोंसे बन्ध पदार्थका व्याख्यान करते हैं । उसमें प्रथम गाथाके पूर्वार्ध मे भाववन्ध और उत्तराध से द्रव्यबन्धके स्वरूपका उपदेश करते हैं । गाथाभावार्थ - जिस चेतनभावसे कर्म बँधता है वह तो भावबन्ध है, और कर्म तथा आत्मा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः बध्यते कर्म्म येन तु चेतनभावेन भावबन्धः सः । कर्मात्मप्रदेशानां अन्योन्यप्रवेशनं इतरः ॥ ३२ ॥ व्याख्या -- " बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबन्धो सो" बध्यते कर्म येन चेतनभावेन स भावबन्धो भवति । समस्तकर्मबन्धविध्वंसनसमर्थाखण्डैकप्रत्यक्षप्रतिभासमयपरमचैतन्यविलासलक्षणज्ञानगुणस्य, अभेदनयेनानन्तज्ञानादिगुणाधारभूतपरमात्मनो वा सम्बन्धिनी या तु निर्मलानुभूतिस्तद्विपक्षभूतेन मिथ्यात्वरागादिपरिणतिरूपेण वाऽशुद्धचेतनभावेन परिणामेन बध्यते ज्ञानावरणादि कर्म येन भावेन स भावबन्धो भण्यते । “कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो" कर्मात्मप्रदेशानामन्योन्यप्रवेशनमितरः । तेनैव भावबन्धनिमित्तेन कर्मप्रदेशानामात्मप्रदेशानां च क्षीरनीरवदन्योन्यं प्रवेशनं संश्लेषो द्रव्यबन्ध इति ॥ ३२ ॥ अथ तस्यैव बन्धस्य गाथापूर्वार्धन प्रकृतिबन्धादिभेदचतुष्टयं कथयति, उत्तरार्धेन तु प्रकृतिबन्धादीनां कारणं चेति ॥ ७३ डिडिदिअणुभाग पदेस भेदादु चदुविधो बंधो । जोगा पयपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ ३३ ॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेश भेदात् तु चतुविधो बन्धः । योगात् प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतः भवतः ॥ ३३ ॥ व्याख्या- - "पयडिट्ठि दिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो" प्रकृतिस्थित्यनुभाग प्रदेशभे के प्रदेशोंका परस्पर प्रवेशन रूप अर्थात् कर्म और आत्माके प्रदेशोंका एकाकार होनेरूप दूसरा द्रव्यबन्ध है || ३२ ॥ व्याख्यार्थ - " बज्झदि कम्मं जेण द्र चेदणभावेण भावबंधो सो” जिस चेतनके भावसे कर्म वंधता है; वह भावबन्ध हैं; अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धको नष्ट करने में समर्थ तथा अखण्ड ( पूर्ण ) एक प्रत्यक्ष ज्ञान स्वरूप जो परम चैतन्य विलास लक्षणका धारक ज्ञान गुण है, उससे अथवा अभेदनकी विवक्षासे अनन्तज्ञान आदि गुणोंका आधारभूत जो परमात्मा है उससे सम्बन्ध रखनेवाली जो निर्मल अनुभूति ( अनुभव ) है उससे विपक्षभूत ( विरोधी ) अथवा मिथ्यात्व, राग आदिमें परिणतिरूप अशुद्ध चेतनभावस्वरूप जो परिणाम है उससे जो कर्म बंधता है वह भावबन्ध कहलाता है । "कम्मादपदेसाणं अण्णोष्णपवेसणं इदरो" कर्म और आत्माके प्रदेशोंका परस्पर प्रवेशनरूप दूसरा है, अर्थात् उसी पूर्वोक्त भावबन्धके निमित्तसे कर्मके प्रदेशोंका और आत्माके प्रदेशोंका जो दूध तथा जलकी भांति एक दूसरेमें प्रवेश होना अर्थात् मिल जाना है, सो द्रव्यबन्ध है || ३२ ॥ ७ अब गाथाके पूर्वार्घसे उसी बन्धके प्रकृतिबन्ध आदि चार भेदोंको कहते हैं और उत्तरार्धसे उन प्रकृतिबन्ध आदिके कारणका कथन करते हैं । गाथाभावार्थ - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन भेदोंसे बन्ध चार प्रकारका है । इनमें योगोंसे प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध होते हैं और कषायोंसे स्थिति तथा अनुभाग बन्ध होते हैं ||३३|| व्याख्यार्थ - " पर्याडट्टिविअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो” प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध इन भेदोंसे बन्ध चार प्रकारका है । सो ही विशेषतासे दिखलाते Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार दाच्चतुविधो बन्धो भवति । तथाहि - ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः का प्रकृतिः ? देवतामुखवस्त्रमिव ज्ञानप्रच्छादनता । दर्शनावरणीयस्य का प्रकृतिः ? राजदर्शनप्रतिषेधक प्रतीहारवद्दर्शनप्रच्छादनता । सातासात वेदनीयस्य का प्रकृतिः ? मधुलिप्तखङ्गधारास्वादनवदल्प सुख बहुदुः खोत्पादकता । मोहनीयस्य का प्रकृति ? मद्यपानवद्धेयोपादेयविचारविकलता । आयुः कर्मणः का प्रकृति ? निगडवद्गत्यन्तरगमननिवारणता । नामकर्मणः का प्रकृति ? चित्रकारपुरुषवन्नानारूपकरणता । गोत्रकर्मणः का प्रकृतिः ? गुरुलघुभाजनका रककुम्भकारवदुच्चनीच गोत्रकरणता । अन्तरायकर्मणः का प्रकृतिः ? भाण्डागारिकवद्दानादिविघ्नकरणतेति । तथा चोक्तं - "पडपडिहारसिमज्जाहलिचित्त कुलालभंडयारीणं जह एदेसि भावा तहविह कम्मा मुणेयव्वा ॥ १ ॥” इति दृष्टान्ताष्टकेन प्रकृतिबन्धो ज्ञातव्यः | अजागोमहिष्यादिदुग्धानां प्रहरद्वयादिस्व कोयमधुररसावस्थानपर्यन्तं यथा स्थितिभण्यते तथा जीवप्रदेशेष्वपि यावत्कालं कर्मसंबन्धेन स्थितिस्तावत्कालं स्थितिबन्धो ज्ञातव्यः । यथा च तेषामेव दुग्धानां तारतम्येन रसगतशक्तिविशेषोऽनुभागो भण्यते तथा जीवप्रदेशस्थित कर्मस्कन्धानामपि सुखदुःखदानसमर्थशक्तिविशेषोऽनुभागबन्धो विज्ञेयः । सा च घातिकर्मसम्बन्धिनी शक्तिलतादार्वस्थिपाषाणभेदेन चतुर्धा । तथैवाशुभाघातिकर्मसंबन्धिनी निम्बकाञ्जीरविषहालाहलरूपेण । शुभाघातिकर्म संबन्धिनी पुनर्गुडखण्डशर्करामृतरूपेण चतुर्धा भवति । एकैकात्मप्रदेशे सिद्धा ७४ हैं- ज्ञानावरणी कर्मकी प्रकृति ( स्वभाव ) क्या है ? इस जिज्ञासामें उत्तर यह है कि जैसे देवताको मुखवस्त्र आवरण (पड़दा ) आच्छादित कर लेता है अर्थात् ढक लेता है उसी प्रकार ज्ञानावरणी कर्म ज्ञानको ढक लेता है । दर्शनावरणीकी प्रकृति क्या है ? राजाके दर्शनकी रुकावट जैसे द्वारपाल करता है उसी प्रकार दर्शनावरणी दर्शनको नहीं होने देता है । सातावेदनी और असातावेदनी नामक दो भेदोंका धारक जो वेदनी कर्म है उसकी क्या प्रकृति है ? मधु ( सहत ) से लिपटी हुई तलवारकी धार चाटने में जैसे अल्प सुख और अधिक दुःख उत्पन्न होता है, वैसे ही वेदनी कर्म भी अल्पसुख और अधिक दुःखको देनेवाला है । मद्य ( मदिरा ) पानके समान हेय ( त्यागने योग्य ), उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) पदार्थ के ज्ञानकी रहितता यह मोहनी कर्मकी प्रकृति है । Math समान दूसरी गतिमें जानेको रोकना यह आयुःकर्मकी प्रकृति है । चित्रकार ( चितेरा ) पुरुषके तुल्य नानाप्रकारके रूपका करना यह नामकर्मकी प्रकृति है । छोटे बड़े भाजन (घट आदि ) को करनेवाले कुंभारकी भांति उच्च तथा नीच गोत्रको करना यह गोत्र कर्मकी प्रकृति है । भंडारी के समान दान आदिमें विघ्न करना यह अन्तराय कर्मकी प्रकृति है । सो ही कहा है – “पट ( वस्त्र ), प्रतीहार ( द्वारपाल ), तलवार, मद्य, बेड़ी, चितेरा, कुम्भकार और भण्डारी इन आठोंका जैसा स्वभाव है वैसा ही क्रमसे ज्ञानावरण आदि आठों कर्मोंका स्वभाव है ।। १ ।।" इस प्रकार गाथामें कहे हुए आठ दृष्टान्तोंके अनुसार प्रकृतिबन्ध जानना चाहिये || तात्पर्य यह कि कर्मपुद्गलोंका ज्ञानावरण आदि शक्ति सहित हो जाना ही प्रकृतिबन्ध है । तथा वकरी, गौ, महिषी (भैंस) आदिके दुग्धों में जैसे दो प्रहर आदि अपने मधुर रस में रहने की स्थिति कही जाती है अर्थात् बकरीका दूध दो प्रहरतक अपने मधुर रसमें स्थित रहता है इत्यादि स्थितिका कथन है उसी प्रकार जीवके प्रदेशों में जितने काल पर्यन्त कर्मसम्बन्धसे स्थिति है उतने कालको स्थितिबन्ध जानना चाहिये । और जैसे उन पूर्वोक्त बकरी आदिके दूधमें तारतम्यसे ( न्यूनाधिकता से ) मधुर - रस में प्राप्त शक्तिविशेषरूप अनुभाग कहा जाता है उसी प्रकार जीवके प्रदेशों में Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः नन्तैकभागसंख्या अभव्यानन्तगुणप्रमिता अनन्तानन्तपरमाणवः प्रतिक्षणबन्धमायान्तीति प्रदेशबन्धः ॥ इदानीं बन्धकारणं कथ्यते । "जोगा पथडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ।" योगात्प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतो भवत इति । तथाहि - निश्चयेन निष्क्रियाणामपि शुद्धात्मप्रदेशानां व्यवहारेण परिस्पन्दनहेतुर्योगः, तस्मात्प्रकृतिप्रदेशबन्धद्वयं भवति । निर्दोषपरमात्मभावनाप्रतिबन्धकक्रोधादिकषायोदयात् स्थित्यनुभागबन्धद्वयं भवतीति । आस्रवे बन्धे च मिथ्यात्वाविरत्यादिकारणानि समानानि को विशेष इति चेत्, नैवं - प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमन मास्रव:, आगमनानन्तरं द्वितीयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थानं बन्ध इति भेदः । यत एव योगकषायाद्बन्धचतुष्टयं भवति तत एव बन्धविनाशार्थं योगकषायत्यागेन निजशुद्धात्मनि भावना कर्त्तव्येति तात्पर्यम् ॥ ३३ ॥ एवं बन्धव्याख्यानेन सूत्रद्वयेन द्वितीयं स्थलं गतम् ॥ अत ऊर्ध्वं गाथाद्वयेन संवरपदार्थः कथ्यते । तत्र प्रथमगाथायां भावसंवरद्रव्यसंवरस्वरूपं निरूपयति ; स्थित जो कर्मों के प्रदेश हैं उनके जो सुख तथा दुःख देने में समर्थ शक्ति विशेष है उसको अनुभागः बन्ध जानना चाहिये । और वह घाति कर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली शक्ति लता (बेल), काष्ठ, हाड़, और पाषाण भेदसे चार प्रकारकी है, इसी प्रकार अशुभ अघातिया कर्मों सम्बन्धिनी शक्ति निम्ब, कांजीर (काली जीरी), विष तथा हालाहल रूपसे चार प्रकारकी है, और शुभ अघातिया कर्मों सम्बन्धिनी शक्ति गुड़, खांड, मिश्री तथा अमृत इन भेदोंसे चार तरह की है । एक एक आत्माके प्रदेशमें सिद्धोंसे अनन्तैकभाग (अनन्त में से एक भाग) संख्याके धारक और अभव्यराशिसे अनन्तगुणें परिमाणके धारक ऐसे अनन्तानन्त परमाणु प्रत्येक क्षण में बन्धको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार प्रदेशबन्ध - स्वरूप है । अब बन्धके कारणको कहते हैं- "जोगा पर्याडपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति" योगसे प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध होते हैं और स्थिति तथा अनुभाग ये दो बन्ध कषायों से होते हैं । इसका स्पष्टीकरण यह है कि निश्चयनयसे जो क्रियारहित भी शुद्ध आत्माके प्रदेश हैं उनका व्यवहारसे जो परिस्पंदन ( चलायमान करनेका ) कारण है उसको योग कहते हैं । उस योगसे प्रकृति तथा प्रदेश नामक दो बन्ध होते हैं । और दोषरहित जो परमात्मा है उसकी भावना ( ध्यान ) के प्रतिबन्धक ( रोकनेवाले ) जो क्रोध आदि कषाय हैं उनके उदयसे स्थिति और अनुभाग में दो बन्त्र होते है । कदाचित् - आस्रव और बंधके होनेम मिथ्यात्व अविरति, आदि कारण समान हैं । इसलिये आस्रव और बंधमें क्या भेद है ? ऐसी शंका करो तो वह ठीक नहीं है । क्योंकि प्रथम क्षण में जो कर्मस्कन्धोंका आगमन है, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धोंके आगमन के पीछे द्वितीय, तृतीय आदि क्षणोंमें जो उन कर्मस्कन्धोंका जीवके प्रदेशों में स्थित होना है सो बंध है । यह भेद आस्रव और बंधमें है । जिस कारणसे कि योग और कषायोंसे प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग नामक चार बंध होते हैं उसी कारण से बंधका नाश करनेके अर्थ योग तथा कषायका त्याग करके अपने शुद्ध आत्मा में भावना करनी चाहिये । यह तात्पर्य है ॥ ३३ ॥ ७५ ऐसे बंधके व्याख्यान रूप जो दो गाथासूत्र हैं, उनके द्वारा द्वितीय अध्याय में द्वितीय स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे दो गाथाओंसे संवर पदार्थका कथन करते हैं । उनमें प्रथम गाथामें भावसंवर और द्रव्यसंवरके स्वरूपका निरूपण करते हैं; - Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो ।। ३४ ।। चेतनपरिणामो यः कर्मणः आस्रवनिरोधने हेतुः । सः भावसंवरः खलु द्रव्यात्रवरोधनेः अन्यः ॥ ३४ ॥ व्याख्या-"चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु" चेतनपरिणामो यः कथंभूतः कर्मास्त्रवनिरोधने हेतुः स भावसंवरो भवति खलु निश्चयेन । “दव्वासवरोहणे अण्णो" द्रव्यकर्मास्रवनिरोधने सत्यन्यो द्रव्यसंवर इति । तद्यथा-निश्चयेन स्वतः सिद्धत्वात्परकारणनिरपेक्षः, स चैवाविनश्वरत्वान्नित्यः परमोद्योतस्वभावत्वात्स्वपरप्रकाशनसमर्थः, अनाद्यनन्तत्वादादिमध्यान्तमुक्तः, दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानबन्धादिसमस्तरागादिविभावमलरहितत्वादत्यन्तनिर्मलः, परमचैतन्यविलासलक्षणत्वाच्चिदुच्छलननिर्भरः, स्वाभाविकपरमानन्दैकलक्षणत्वात्परमसुखमूर्तिः, निरास्त्रवसहजस्वभावत्वात्सर्वकर्मसंवरहेतुरित्युक्तलक्षणः परमात्मा तत्स्वभावेनोत्पन्नो योऽसौ शुद्धचेतनपरिणामः स भावसंवरो भवति । यस्तु भावसंवरात्कारणभूतादुत्पन्नः कार्यभूतो नवतरद्रव्यकर्मागमनाभावः स द्रव्यसंवर इत्यर्थः ॥ अथ संवरविषयनयविभागः कथ्यते। तथाहि-मिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायपर्यन्तमुपयुंपरि मन्दत्वात्तारतम्येन तावदशुद्धनिश्चयो वर्तते । तस्य मध्ये पुनर्गुणस्थानभेदेन शुभाशुभशुद्धानुष्ठान गाथाभावार्थ-जो चेतनका परिणाम कर्मके आस्रवको रोकने में कारण है, उसको निश्चय से भावसंवर कहते हैं । और जो द्रव्यास्रवको रोकनेमें कारण है सो दूसरा अर्थात् द्रव्यसंवर है ॥३४ ।। व्याख्यार्थ--"चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू सो भावसंवरो खलु" जो चेतनका परिणाम कर्मके आस्रवको रोकनेका कारण होता है, वह निश्चयसे भावसंवर है। "दव्वासवरोहणे अण्णो" द्रव्य कर्मो के आस्रवका निरोध होनेपर दूसरा द्रव्यसंवर होता है। सो इस प्रकार है-निश्चयनयसे स्वयं सिद्ध होनेसे अन्य कारणकी अपेक्षासे शून्य, अविनाशी होनेसे नित्य, परम उद्योत (प्रकाश) स्वभाव होनेसे अपने और परके प्रकाशनेमें समर्थ, अनादि अनन्त होनेसे आदि मध्य और अन्तरहित, देखे सुने और अनुभवमें किये हुए जो भोग हैं उनकी आकांक्षा (चाह) रूप जो निदान बंध आदि समस्त रागादिक विभावमल उनसे रहित होनेके कारण अत्यन्त निर्मल, परम चैतन्यविलासरूप लक्षणका धारक होनेसे चित् चमत्कार (चिन्मय) स्वरूप, स्वाभाविक परमानन्द स्वरूप होनेसे परम सुखकी मूत्तिका धारक और आस्रवरहित सहज स्वभाव होनेसे सब कर्मोंके संवर (रोकने) में कारण, इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणोंका धारक जो परमात्मा है उसके स्वभावसे उत्पन्न जो यह शुद्ध चेतनपरिणाम है सो भावसंवर है। और कारणभूत भावसंवरसे उत्पन्न हुआ जो कार्यरूप नवीन द्रव्यकर्मोके आगमनका अभाव है सो द्रव्यसंवर है । इस प्रकार गाथार्थ है। ___ अब संवरके विषयमें नयोंका विभाग कहते हैं। सो इस प्रकार है कि-मिथ्यात्वगुणस्थानको आदि लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानपर्यन्त ऊपर-ऊपर मन्दतासे तारतम्यसे अशुद्ध Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] वृहद्रव्य संग्रहः रूपयोगत्रयव्यापारस्तिष्ठति । तदुच्यते - मिथ्यादृष्टि सासादन मिश्र गुणस्थानेषूपर्युपरिमन्दत्वेनाशुभोपयोगो वर्त्तते, ततोऽप्यसंयत सम्यग्दृष्टिश्रावकप्रमत्तसंयतेषु पारम्पर्येण शुद्धोपयोगसाधक उपर्युपरि तारतम्येन शुभोपयोगो वर्त्तते, तदनन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशशुद्धनयरूप शुद्धोपयोगो वर्तते, तत्रैव मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने संवरो नास्ति, सासादनादिगुणस्थानेषु "सोलसपणवीसणभं दसचउछक्के क्क बंधवोछिण्णा । दुगतीसचदुरपुच्वे पणसोलस जोगिणो एक्को । १।" इति बन्धविच्छेदत्रिभङ्गीकथितक्रमेणोपर्युपरि प्रकर्षेण संवरो ज्ञातव्य इति । अशुद्धनिश्चयमध्ये मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानेषूपयोगत्रयं व्याख्यातं, तत्राशुद्धनिश्चये शुद्धोपयोगः कथं घटत इति चेत्तत्रोत्तरं - शुद्धोपयोगे शुद्धबुद्धेकस्वभावो निजात्मा ध्येयस्तिष्ठति तेन कारणेन शुद्धध्येयत्वाच्छुद्धावलम्बनत्वाच्छुद्ध । त्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च संवरशब्दवाच्यः शुद्धोपयोगः संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यायवदशुद्धो न भवति तथैव फलभूत केवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवत् शुद्धोऽपि न भवति किन्तु ताभ्यामशुद्धशुद्ध पर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चय रत्नत्रयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिरावरणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते । निश्चय वर्त्तता है । और उसके मध्य में गुणस्थानोंके भेदसे शुभ अशुभ और शुद्ध अनुष्ठानरूप तीन योगोंका व्यापार रहता है । सो कहते हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीनों गुणस्थानोंमें ऊपर-ऊपर मन्दतासे अशुभ उपयोग रहता है; अर्थात् जो अशुभोपयोग प्रथम गुणस्थान में है, उससे कम दूसरे में और दूसरेसे अल्प तीसरे में है । उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्त नामक जो तीन गुणस्थान हैं इनमें परंपरासे शुद्ध उपयोगका साधक ऊपर ऊपर तारतम्यसे शुभ उपयोग प्रवर्त्तता है । इनके पश्चात् अप्रमत्त आदि क्षीणकषायपर्यन्त ६ गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदविवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्ध उपयोग वर्त्तता है । इनमें व्यवस्था इस प्रकार हैं किमिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें तो संवर है ही नहीं और सासादन आदि गुणस्थानों में "सोलसपणवीसणभं दस चउछक्केक्क बंधवोछिण्णा । दुगतीस चतुरपुव्वे पणसोलस जोगिणो एक्को । १ ।' इस प्रकार बंधविच्छेद त्रिभंगीमें कहे हुए क्रमके अनुसार ऊपर-ऊपर अधिकता से सवर जानना चाहिये । ऐसे अंशुद्ध निश्चयनय के मध्य में मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अशुभ, शुभ और शुद्धरूप तीनों उपयोगों का व्याख्यान किया । इस अशुद्ध निश्चय में शुद्ध उपयोग किस प्रकार सिद्ध हो सकता हैं ऐसा प्रश्न करो तो उसमें उत्तर यह है कि शुद्ध उपयोगमें शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारक जो निज आत्मा है सो ध्येय होता है, इस कारण शुद्ध ध्येय ( ध्यान करनेयोग्य पदार्थ ) होनेसे शुद्ध अवलम्बन ( आधार ) पनेसे तथा शुद्ध आत्मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग सिद्ध होता है । और वह 'संवर' इस शब्दसे कहे जाने योग्य जो शुद्धोपयोग है सो संसारके कारणभूत जो मिथ्यात्व, राग आदि अशुद्ध पर्याय है उनकी तरह अशुद्ध नहीं होता है और इसी प्रकार फलभूत जो केवलज्ञान स्वरूप श ुद्ध पर्याय है उसकी भांति शुद्ध भी नहीं होता है; किन्तु उन अशुद्ध तथा शुद्ध दोनों पर्यायोंसे विलक्षण, शुद्ध आत्मा के अनुभवस्वरूप निश्चयरत्नत्रयरूप, मोक्षका कारण, एक देश में व्यक्तिरूप (प्रकटरूप) और एक देशमें आवरणरहित ऐसा तृतीय अवस्थान्तररूप कहा जाता है । ७७ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार कश्चिदाह - केवलज्ञानं सकलनिरावरणं शुद्धं तस्य कारणेनापि सकलनिरावरणेन शुद्धेन भाव्यम् उपादानकारणसदृशं कार्यं भवतीति वचनात् । तत्रोत्तरं दीयते युक्तमुक्तं भवता परं किन्तूपादानकारणमपि षोडशर्वाणकासुवर्णकार्यस्याधस्तनर्वाण कोपादानकारणवत् मृन्मयकलशकार्यस्य मृत्पिण्डस्थासकोश कुशूलोपादानकारणवदिति च कार्यादेकदेशेन भिन्नं भवति । यदि पुनरेकान्तेनोपादानकारणस्य कार्येण सहाभेदो भेदो वा भवति तहि पूर्वोक्तसुवर्णमृत्तिकादृष्टान्तsuarकार्यकारणभावो न घटते । ततः किं सिद्धं - एकदेशेन निरावरणत्वेन क्षायोपशमिकज्ञानलक्षणमेक देशव्यक्तिरूपं विवक्षितैकदेशे शुद्धनयेन संवरशब्दवाच्यं शुद्धोपयोगस्वरूपं मुक्तिकारणं भवति । यच्च लब्ध्यपर्याप्तसूक्ष्मनिगोदजीवे नित्योद्घाटं निरावरणं ज्ञानं श्रूयते तदपि सूक्ष्मनिगोदसर्व जघन्यक्षयोपशमापेक्षया निरावरणं न च सर्वथा । कस्मादिति चेत् — तदावरणे जीवाभावः प्राप्नोति । वस्तुत उपरितनक्षायोपशमिकज्ञानापेक्षया केवलज्ञानापेक्षया च तदपि सावरणं संसारिणां क्षायिकज्ञानाभावाच्च क्षायोपशमिकमेव । यदि पुनर्लोचनपटलस्यैकदेश निरावरणवत्केवलज्ञानांश ७८ यहाँ कोई शंका करता है कि केवलज्ञान समस्त आवरणोंसे रहित और शुद्ध है इसलिये केवलज्ञानका कारण भी समस्त आवरणों रहित तथा शुद्ध होना चाहिये। क्योंकि, उपादानकारणके समान कार्य होता है ऐसा वचन है। अब इस शंकाका उत्तर दिया जाता है कि आपने ठीक कहा परन्तु उपादानकारण भी सोलह वानीके सुवर्णरूप कार्यके अधोभागवर्त्तिनी ( पूर्ववत्तिनी) वर्णिकारूप उपादानकारणके समान और मृत्तिकारूप कलशकार्यके प्रति मृत्तिकाका पिण्ड, स्थास, कोश, एवं कुशूलरूप उपादान कारणके सद्दश कार्यसे एक देशसे भिन्न होता है अर्थात् सोलह बानीके सोनेके प्रति जैसे पहले की सब पन्द्रह वर्णिकायें उपादान कारण हैं और घटके प्रति जैसे मृत्तिकापिंड, स्थास, कोश, कुशूल आदि उपादान कारण हैं सो सोलह बानीके सुवर्णं और घटरूप कार्य से एकदेशभिन्न हैं ( सर्वथा सोलह बानीके सुवर्णस्वरूप तथा घटरूप नहीं है ) इसी प्रकार समस्त उपादानकारण कार्यसे एकदेश भिन्न होते हैं । और यदि सर्वथा उपादानकारणका कार्य के साथ अभेद हो तो पूर्वोक्त जो सुवर्ण और मृत्तिकाके दो दृष्टान्त हैं उनके समान कार्य और कारणभाव ही नहीं सिद्ध हो अर्थात् सोलह बानीके सुवर्णको ही सोलह बानीके सुवर्णरूप कार्यके प्रति उपादानकारण माना जावे अथवा घटको ही घटके प्रति उपादानकारण माने तो यह इसका कारण है यह इसका कार्य है इस प्रकारका कार्यकारणभाव नहीं हो सकता । इस कारण क्या सिद्ध हुआ कि एकदेश निरावरणतासे क्षायोपशमिक ज्ञानरूप लक्षणका धारक एकदेश व्यक्तिरूप और विवक्षित एक देश में शुद्धनयसे "संवर" इस शब्दसे वाच्य जो शुद्ध उपयोगका स्वरूप है सो मुक्तिका कारण होता है । और जो लब्धिअपर्याप्त सूक्ष्म निगोद जीवमें नित्य उद्घाट ( खुला हुआ ) तथा आवरण-रहित ज्ञान सुना जाता है वह भी सूक्ष्म निगोदमें सर्व जघन्य जो क्षयोपशम है उसकी अपेक्षासे आवरणरहित है; सर्वथा नहीं । ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि यदि ज्ञानका आवरण ही हो तो जोवका अभाव प्राप्त होता है । यथार्थ में तो उपरिवर्त्ती क्षायोपशमिक ज्ञानकी अपेक्षासे और केवलज्ञानकी अपेक्षासे वह ज्ञान भी आवरणसहित है और संसारी जीवोंके क्षायिकज्ञानका अभाव है इसलिये क्षायोपशमिक ही है । और यदि नेत्रपटलके एकदेशमें निरावरणके तुल्य वह ज्ञान केवलज्ञानांशरूप हो तो उस एकदेशसे भी लोक तथा अलोकका प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाय अर्थात् लोक अलोक प्रत्यक्षमें जान पड़ें, परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९ सप्ततत्त्व नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः रूपं भवति तहि तेनैकदेशेनापि लोकालोकप्रत्यक्षतां प्राप्नोति न च तथा दृश्यते। किन्तु प्रचुरमेघप्रच्छादितादित्यबिम्बवनिबिडलोचनपटलवद्वा स्तोकं प्रकाशयतीत्यर्थः॥ अथ क्षयोपशमलक्षणं कथ्यते---सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिकाः कर्मशक्तयः सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेनात्मगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयाभाव एव क्षयस्तेषामेवास्तित्वमुपशम उच्यते सर्वघात्युदयाभावलक्षणक्षयेण सहित उपशमः तेषामेकदेशघातिस्पर्द्धकानामुदयश्चेति समुदायेन क्षयोपशमो भण्यते। क्षयोपशमे भवः क्षायोपशमिको भावः। अथवा देशघातिस्पद्धकोदये सति जोव एकदेशेन ज्ञानादिगुणं लभते यत्र स क्षायोपशमिको भावः। तेन कि सिद्ध-पूर्वोक्तसूक्ष्मनिगोदजीवे ज्ञानावरणीयदेशघातिस्पर्द्धकोदये सत्येकदेशेन ज्ञानगुणं लभ्यते तेन कारणेन तत् क्षायोपशमिकं ज्ञानं न च क्षायिकं कस्मादेकदेशोदयसद्भावादिति । अयमत्रार्थः यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षणं क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि ध्यातृपुरुषेण यदेव सकलनिरावरणमखण्डकसकलविमलकेवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाहं न च खण्डज्ञानरूय इति भावनीयम् । इति संवरतत्त्वव्याख्यानविषये नयविभागो ज्ञातव्य इति ॥ ३४॥ अथ संवरकारणभेदान् कथयतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु कैः कृत्वा संवरो भवतीति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददातोति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति भगवान् किन्तु अधिक मेघों (बादलों) से आच्छादित सूर्यके बिम्बके समान अथवा निबिड नेत्रपटलके समान वह किचित् किंचित् प्रकाश करता है, यह तात्पर्य है ॥ अब क्षयोपशमका लक्षण कहते हैं-सब प्रकारसे आत्माके गणोंको प्रच्छादन करनेवाली जो कर्मोकी शक्तियाँ हैं उनको सर्वघातिस्पर्द्धक कहते हैं। और विवक्षित एकदेशसे जो आत्माके गुणोंको प्रच्छादन करनेवाली कर्मशक्तियाँ हैं वे देशघातिस्पर्द्धक कहलाती हैं। सर्वघातिस्पर्द्धकोंके उदयका जो अभाव है सो हो क्षय है और उन्हीं सर्वघातिस्पर्द्धकोंका जो अस्तित्व (विद्यमानता) है वह उपशम कहलाता है। सर्वघातिस्पर्द्धकोंके उदयका अभावरूप जो क्षय है उस सहित जो उन एकदेश धातिस्पर्द्ध कोंका उदयरूप उपशम सो क्षयोपशम, ऐसे समुदायसे क्षयोपशम कहा जाता है । क्षयोपशममें जो हो वह क्षायोपशमिक भाव है । अथवा देशघातिस्पद्धकोंके उदयके भी होते हुए जीव जहाँपर एकदेशसे ज्ञानादि गुण प्राप्त करता है वह क्षायोपशमिक भाव है। इससे क्या सिद्ध हुआ कि पूर्वोक्त सूक्ष्म निगोद जीवमें ज्ञानावरणीयकर्मके देशघातिस्पद्धकोंका उदय होनेपर एकदेशसे ज्ञान आदि गुण प्राप्त होते हैं इस कारण वह ज्ञान क्षायोपशमिक है और क्षायिक नहीं; क्योंकि एकदेशमें उदयका सद्भाव है। यहाँपर तात्पर्य यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्यान करनेवाले पुरुष को 'जोही सकल आवरणोंसे रहित, अखण्ड-एक-सकल-विमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप है । सो हो मैं हूँ और खण्ड ज्ञानरूप नहीं" ऐसा ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार संवरतत्त्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिये ॥ ३४ ।। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य । चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।। ३५ ।। व्रतसमितिगुप्तयो धम्र्मानुप्रेक्षाः परीषहजयः च । चारित्रं बहुभेदं ज्ञातव्याः भावसंवरविशेषाः ॥ ३५ ॥ [ द्वितीय अधिकार व्याख्या- 'वदसमिदीगुत्तीओ' व्रतसमितिगुप्तयः " धम्माणुपेहा" धर्मस्तथैवानुप्रेक्षाः "परीसहजओ य" परीषहजयश्च "चारित्तं बहुभेया" चारित्रं बहुभेदयुक्तं "णायव्वा भावसंवरविसेसा " एते सर्वे मिलिता भावसंवरविशेषा भेदा ज्ञातव्याः । अथ विस्तरः- निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वभावनोत्पन्न सुखसुधास्वा दबलेन समस्तशुभाशुभरागादिविकल्पनिवृत्तिव्रतम्, व्यवहारेण तत्साधकं हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च यावज्जीवनिवृत्तिलक्षणं पञ्चविधं व्रतम् । निश्चयेनानन्तज्ञानादिस्वभावे निजात्मनि सम् सम्यक् समस्तरागादिविभाव परित्यागेन तल्लीनतच्चिन्तनतन्मयत्वेन अयनं गमनं परिणमनं समितिः, व्यवहारेण तद्द्बहिरङ्गसहकारिकारणभूताचारादिचरणग्रन्थोक्ता ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञाः पञ्च समितयः । निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारणरागादिभयात्स्वस्यात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनं अब संवरके कारणोंके भेद कहते हैं, यह तो एक भूमिका है और किनसे संवर होता है ? इस प्रश्न में उत्तर देनेवाली दूसरी भूमिका है, इन दोनों पातनिका ( भूमिका) ओंको मनमें धारण करके, भगवान् श्रीनेमिचन्द्रस्वामी इस अग्रिम गाथासूत्रका प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ- पाँच व्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहोंका जय तथा अनेक प्रकारका चारित्र इस प्रकार ये सब भावसंवरके भेद जानने चाहिये || व्याख्यार्थ - " वदसमिदीगुत्तीओ" व्रत, समिति और गुप्तियाँ, "धम्माणुपेहा" धर्मं तथा अनुप्रेक्षा " परीसहजओ य" और परीषहोंका जीतना "चारितं बहुभेया" अनेक प्रकारका चारित्र " णायव्वा भाव संवरविसेसा" ये सब मिले हुए भावसंवरके भेद जानने चाहिये। अब इस उक्त विषयका विस्तार से वर्णन करते हैं - निश्चयनयसे विशुद्ध ज्ञान और दर्शनरूप स्वभावका धारक जो निज आत्मतत्त्व उसकी भावनासे उत्पन्न जो सुखरूपो अमृत उसके आस्वाद के बलसे सम्पूर्ण शुभ तथा अशुभ राग आदि विकल्पोंसे जो रहित होना सो व्रत है, और व्यवहारसे उस निश्चय व्रतको साधनेवाला हिंसा, अनृत ( झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रहसे जीवनपर्यन्त रहिततारूप लक्षणका धारक पाँच प्रकारका व्रत है । निश्चयनयकी विवक्षासे अनन्तज्ञान आदि स्वभावका धारक जो निज आत्मा है उसमें 'सम् ' भले प्रकार अर्थात् समस्त राग आदि विभावोंके त्याग द्वारा आत्मामें लीन होना, आत्माका ध्यान करना, आत्मरूप होना आदिरूपसे जो अयन कहिये गमन अर्थात् परिणमन सो समिति है । व्यवहारसे उस निश्चय समितिके बहिरंग सहकारी कारणभूत और आचार आदि चारित्र विषयक ग्रन्थोंमें कही हुई ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपणा, और उत्सर्ग इन नामोंकी धारक पाँच समितियाँ हैं । निश्चयसे सहज - शुद्ध - आत्माकी भावनारूप लक्षणके धारक गूढ ( गुप्त ) स्थान में संसारके कारणभूत जो रागादि हैं उनके भयसे अपना आत्माका जो गोपन ( छिपाना ), प्रच्छादन, झंपन, प्रवेशन अथवा रक्षण करना है सो गुप्ति है, व्यवहारसे बहिरंग साधनाके अर्थ जो मन, वचन तथा कायके व्यापारको रोकना है सो गुप्ति Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थं वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः प्रवेशनं रक्षणं गुप्तिः, व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनार्थं मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्तिः । निश्चयेन संसारे पतन्तमात्मानं धरतीति विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणनिजशुद्धात्मभावनात्मको धर्मः, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्रनरेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमामार्दवार्जव सत्य शौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यलक्षणो दशप्रकारो धर्मः । द्वादशानुप्रेक्षाः कथ्यन्ते - अध्रुवाशरणसंसारैकत्वान्यत्वशुचित्वात्रवसंवर निर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः । ताश्च कथ्यन्ते । तद्यथा - द्रव्यार्थिकनयेन टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेनाविनश्वरस्वभावनिजपरमात्मद्रव्यादन्यद् भिन्नं यज्जीव संबन्धे अशुद्धनिश्चयनयेन रागादिविभावरूपं भावकर्म, अनुपचरितासभूतव्यवहारेण द्रव्यकर्मनो कर्मरूपं च तथैव तत्स्वस्वामिभावसम्बन्धेन गृहीतं यच्चेतनं वनितादिकम्, अचेतनं सुवर्णादिकं तदुभयमिश्रं चेत्युक्तलक्षणं सत्सर्वमध्रुवमिति भावयितव्यम् । तद्भावनासहितपुरुषस्य तेषां वियोगेऽपि सत्युच्छिष्टेष्विव ममत्वं न भवति तत्र ममत्वाभावादविनश्वरनिजपरमात्मानमेव भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भावयति, यादृशविनश्वरमात्मानं भावयति तादृशमेवाक्षयानन्तसुखस्वभावं मुक्तात्मानं प्राप्नोति । इत्यध्रुवानुप्रेक्षा गता ॥१॥ ८१ अथ निश्चयरत्नत्रयपरिणतं स्वशुद्धात्मद्रव्यं तद्बहिरङ्ग-सहकारिकारणभूतं पञ्चपरमेष्ठ्याराधनञ्च शरणम्, तस्माद्बहिर्भूता ये देवेन्द्रचक्रवर्त्तिसुभटकोटिभटपुत्रादिचेतना गिरिदुर्गभूविवरहै । निश्चयसे संसार में गिरते हुए आत्माको जो धारण करे सो विशुद्ध ज्ञान तथा दर्शन लक्षण निजशुद्ध आत्मा की भावनास्वरूप धर्म है । व्यवहारसे उसके साधनके लिये इन्द्र, चक्रवर्ती आदिका जो वंदने योग्य पद है उसमें धारण करनेवाला उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यरूप लक्षणका धारक दश प्रकारका धर्म है ॥ तप, त्याग, अब बारह अनुप्रेक्षाओंका कथन करते हैं - अध्रुव, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म इनका जो विचार करना है सो अनुप्रेक्षा हैं । उनको कहते हैं । सो ऐसे हैं - द्रव्यार्थिक नयसे टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वभावपनेसे अविनाशी स्वभावका धारक जो निज परमात्मा द्रव्य है उससे भिन्न जो अशुद्ध निश्चयनय से रागादि विभावरूप भावकर्म और अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारसे द्रव्यकर्म तथा नोकर्मरूप, तथा उसके स्वस्वामिभाव संबंधसे ग्रहण किया हुआ स्त्री आदि चेतनद्रव्य, सुवर्ण आदि अचेतनद्रव्य और चेतन तथा अचेतनसे मिला हुआ मिश्र पदार्थ इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणों सहित जो ये हैं सो सब अध्रुव हैं, इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये। उस भावनासहित जो पुरुष है उसके उनके वियोग होनेपर भी उच्छिष्ट ( जूंठे) भोजनोंके समान ममत्व नहीं होता है । और उनमें ममत्वका अभाव होनेसे अविनाशी निज परमात्माको ही भेद तथा अभेदरूप रत्नत्रयकी भावनासे भावन करता (भाता है और जैसे अविनश्वर आत्माको भाता है, वैसे ही अक्षय - अनन्त सुखरूप स्वभावका धारक जो मुक्त आत्मा है उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार अध्रुव भावना पूर्ण हुई || १॥ अब अशरण अनुप्रेक्षाका वर्णन करते है । निश्चयरत्नत्रय में परिणत जो निजशुद्धात्मद्रव्य है सो और उसका बहिरंग सहकारी कारणभूत जो पंचपरमेष्ठियों का आराधन है सो शरण है । उससे बहिर्भूत ( भिन्न ) जो देव, इन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्र आदि चेतन, पर्वत, किला, भूविवर ( भोहरा ), मणि, मन्त्र, आज्ञा, प्रसाद और औषध आदि अचेतन तथा चेतन ११ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् गीय अधिकार मणिमन्त्राज्ञाप्रसादौषधादयः पुनरचेतनास्तदुभयात्मका मिश्राश्च मरणकालादौ महाटव्यां व्याघ्रगहीतमृगबालस्येव महासमुद्रे पोतच्युतपक्षिण इव शरणं न भवन्तीति विज्ञेयम् । तद्विज्ञाय भोगाकाङक्षारूपनिदानबन्धादिनिरालम्बने स्वसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतसालम्बने स्वशुद्धात्मन्येवावलम्बनं कृत्वा भावनां करोति । यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकालशरणभूतं शरणागतवज्रपञ्जरसदृशं निजशुद्धात्मानं प्राप्नोति । इत्यशरणानुप्रेक्षा व्याख्याता ॥२॥ अथ शुद्धात्मद्रव्यादितराणि सपूर्वापूर्वमिश्रपुद्गलद्रव्याणि ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मरूपेण शरीरपोषणार्थाशनपानादिपञ्चेन्द्रियविषयरूपेण चानन्तवारान् गृहीत्वा विमुक्तानीति द्रव्यसंसारः। स्वशुद्धात्मद्रव्यसंबन्धिसहजशुद्धलोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशेभ्यो भिन्ना ये लोकक्षेत्रप्रदेशास्तत्रैकैकं प्रदेशं व्याप्यानन्तवारान् यत्र न जातो न मृतोऽयं जीवः स कोऽपि प्रदेशो नास्तीति क्षेत्रसंसारः। शुद्धात्मानुभूतिरूपनिर्विकल्पसमाधिकालं विहाय प्रत्येकं दशकोटाकोटिसागरेण प्रमितोत्सपिण्यवसर्पिण्येकैकसमये नानापरावर्तनकालेनानन्तवारानयं जीवो यत्र न जातो न मृतः स समयो नास्तीति कालसंसारः। अभेदरत्नत्रयात्मकसमाधिबलेन सिद्धगतौ स्वात्मोपलब्धिलक्षणसिद्धपर्यायरूपेण योऽसावुत्पादो भवस्तं विहाय नारकतिर्यग्मनुष्यभवेषु तथैव देवभवेषु च निश्चयरत्नत्रयभावनारहितभोगाकाङ्क्षानिदानपूर्वकद्रव्यतपश्चरणरूपजिनदीक्षाबलेन नवगैवेयकपर्यन्तं “सक्को सक्कऔर अचेतन इन दोनोंसे मिश्र, ये सब पदार्थ मरण आदिके समयमें जैसे महावनमें व्याघ्रसे पकड़े हुए हिरणके बच्चेको अथवा महासमुद्र में जहाजसे च्युत ( रहित ) हुए पक्षीको कोई शरण नहीं है, उसी प्रकार शरण नहीं होते हैं, यह जानना चाहिये । और अन्य वस्तुको अपना शरण न जानकर, भोगकी वांछारूप निदानबंध आदिकके अवलम्बन ( आधार ) से रहित तथा स्व ( आत्म ) ज्ञानसे उत्पन्न सुखरूप अमृतका धारक जो निज-शुद्ध-आत्मा है, उसीका अवलंबन करके, उसकी भावनाको करता है। और जैसे आत्माको यह शरणभूत भाता है, वैसे ही सब कालमें शरणभूत और शरणमें आये हुएके लिए वज्रके पींजरेके समान जो निजशुद्ध आत्मा है, उसको प्राप्त होता है । इस प्रकार द्वितीय अशरण अनुप्रेक्षाका व्याख्यान हुआ ।।२।। ___ अब तृतीय संसारानुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं। शुद्ध आत्मद्रव्यसे भिन्न जो सपूर्व, अपूर्व तथा मिश्र ऐसे पुद्गलद्रव्य हैं उनको ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मरूपसे तथा शरीरके पोषणके लिये भोजन पान आदि पाँचों इन्द्रियोंके विषयरूपसे इस जीवने अनन्त बार ग्रहण करके छोड़े हैं । इस प्रकार द्रव्यसंसार है। निजशुद्ध आत्मारूप द्रव्यसंबंधी जो सहज शुद्ध लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेश हैं, उनसे भिन्न जो लोकरूप क्षेत्रके प्रदेश हैं उनमें, एक एक प्रदेशको व्याप्त करके, जिस प्रदेश में अनंत वार यह जीव नहीं उत्पन्न हुआ हो और न मरा हो, वह कोई भी प्रदेश नहीं हैं। यह क्षेत्रसंसार है। निजशुद्ध आत्माके अनुभव रूप निर्विकल्प समाधि ( ध्यान ) के समयको त्यागकर, दशकोटाकोटीसागर प्रमाण जो उत्सर्पिणी काल और दशकोंटाकोटिसागर प्रमाण ही जो अवसर्पिणी काल है, उसके एक एक समयमें अनेक परावर्तन कालसे यह जोव यहाँपर अनन्त बार न जन्मा हो और न मरा हो वह समय नहीं है। इस प्रकार कालसंसार है । अभेद रत्नत्रय स्वरूप ध्यानके बलसे सिद्धगतिमें निज आत्माकी प्राप्ति लक्षण सिद्ध पर्यायरूप जो उत्पाद (जन्म) है उसको त्यागकर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंके भवोंमें निश्चयरत्नत्रयकी भावनासे रहित और भोग वांछादि निदान सहित जो द्रव्यतपश्चरणरूप जिनदीक्षा ( मुनिपना ) है उसके बलसे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः महिस्सो दक्खिणइन्दा य लोयवाला य। लोयंतिया य देवा तच्छ चुदा णिवुदि जन्ति । १।" इति गाथाकथितपदानि तथागमनिषिद्धान्यन्यपदानि च त्यक्त्वा भवविध्वंसकनिजशुद्धात्मभावनारहितो भवोत्पादकमिथ्यात्वरागादिभावनासहितश्च सन्नयं जीवोऽनन्तवारान् जीवितो मृतश्चेति भवसंसारो ज्ञातव्यः। अथ भावसंसारः कथ्यते। तद्यथा-सर्वजघन्यप्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यमनोवचनकायपरिस्पन्दरूपाणि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि चतुःस्थानपतितानि सर्वजघन्ययोगस्थानानि भवन्ति । तथैव सर्वोत्कृष्ट प्रकृतिबन्धप्रदेशबन्धनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टमनोवचनकायव्यापाररूपाणि तद्योग्यश्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि चतुःस्थानपतितानि सर्वोत्कृष्टयोगस्थानानि च भवन्ति । तथैव सर्वजघन्यस्थितिबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थानानि तद्योग्यासंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति । तथैव च सर्वोत्कृष्टकषायाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च भवन्ति । तथैव सर्वजघन्यानुभागबन्धनिमित्तानि सर्वजघन्यानुभागाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि भवन्ति । तथैव च सर्वोत्कृष्टानुभागबन्धनिमित्तानि सर्वोत्कृष्टानुभागाध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि च विज्ञेयानि । तेनैव प्रकारेण स्वकीयस्वकीयजघन्योत्कृष्टयोर्मध्ये तारतम्येन मध्यमानि च भवन्ति । तथैव जघन्यादुत्कृष्टपर्यन्तानि ज्ञानावरणादिमूलोत्तरप्रकृतीनां नव ग्रैवेयकपर्यन्त "प्रथम स्वर्गका इन्द्र, प्रथम स्वर्गकी महा इन्द्राणी शची, दक्षिण दिशाके इन्द्र, लोकपाल और लौकान्तिक देव ये सब स्वर्गसे च्युत होकर निर्वृति (मोक्ष ) को प्राप्त होते है ॥१।।'' ऐसे गाथामें कहे हुए पूर्वोक्त पद तथा अन्य अन्य भी जो आगममें निषिद्ध ( मना किये हुए ) उत्तम पद हैं उनको छोड़कर, भवका नाश करनेवाली जो निज आत्माकी भावना है उससे रहित तथा भवको उत्पन्न करनेवाले मिथ्यात्व, राग आदि जो भाव हैं उनसे सहित हुआ यह जीव अनन्तवार जन्मा है और मरा है । इस प्रकार यह पूर्वकथित भवसंसारका स्वरूप जानना चाहिए । __ अब भावसंसारका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-सबसे जघन्य प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंधके कारणभूत और उसके योग्य श्रेणीके असंख्येय भागप्रमाण वृद्धिहानिरूप चार स्थानोंमें पतित जो सर्व जघन्य मन, वचन तथा कायके परिस्पन्द हैं, वे सर्बजघन्य योगस्थान होते हैं । इसी प्रकार सबसे अधिक प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंधके निमित्त, उनके योग्य श्रेणीके असंख्येय भागप्रमाण चार स्थानोंमें पतित जो सर्वोत्कृष्ट मन, वचन और कायके व्यापार हैं, वे सर्वोत्कृष्ट योगस होते हैं। इसी प्रकार सर्वजघन्य स्थिति बधके कारण जो सर्वजघन्य कषायोके अध्यवसायस्थान हैं, वे भी उनके योग्य असंख्येय लोकप्रमाण तथा वृद्धिहानिरूप षट् स्थानोंमें पतित होते हैं । एवमेव जो सर्वोत्कृष्ट कषायोंके अध्यवसाय स्थान हैं, वे भी असंख्येय लोक प्रमाण और षट् स्थानोंमें पतित होते हैं । और इसी प्रकार सबसे जघन्य अनुभागबंधके कारण जो सबसे जघन्य ( निकृष्ट ) अनुभागोंके अध्यवसायस्थान हैं वे भी असंख्यात लोकप्रमाण तथा षट् स्थानोंमें पतित होते हैं। तथा इसी प्रकार सबसे उत्कृष्ट अनुभाग बंधके निमित्तभूत जो सर्वोत्कृष्ट अनुभागके अध्यवसायस्थान हैं उनको भी असंख्यात लोकप्रमाण और षट् स्थानोंमें पतित जानने चाहिये । और इस पूर्वोक्त प्रकारसे ही अपने अपने जघन्य और उत्कृष्टोंके बीचमें तारतम्यसे मध्यम भेद भी होते हैं। और एवमेव जघन्यसे उत्कृष्टपर्यन्त ज्ञानावरण आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंके स्थितिबंधके स्थान होते हैं। वे सच परमागममें कही हुई . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार स्थितिबन्धस्थानानि च । तानि सर्वाणि परमागमकथितानुसारेणानन्तवारान् भ्रमितान्यनेन जीवेन परं किन्तु पूर्वोक्तसमस्तप्रकृतिबन्धादीनां सद्भावविनाशकारणानि विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाणि यानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि तान्येव न लब्धानि । इति भावसंसारः।। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपं पञ्चप्रकारं संसारं भावयतोऽस्य जीवस्य संसारातीतस्वशुद्धात्मसंवित्तिनाशकेषु संसारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगेषु परिणामो न जायते, किन्तु संसारातीतसुखास्वादे रतो भूत्वा स्वशुद्धात्मसंवित्तिबलेन संसारविनाशकनिजनिरञ्जनपरमात्मन्येव भावनां करोति । ततश्च यादृशमेव परमात्मानं भावयति तादृशमेव लब्ध्वा संसारविलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति । अयं तु विशेषः-नित्यनिगोदजीवान् विहाय पञ्चप्रकारसंसारव्याख्यानं ज्ञातव्यम् । कस्मादिति चेत्-नित्यनिगोदजीवानां कालत्रयेऽपि त्रसत्वं नास्तीति । तथा चोक्तं----"अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तों तसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुंचंति । १ ।" अनुपममद्वितीयमनादिमिथ्यादृशोऽपि भरतपुत्रास्त्रयोविंशत्यधिकनवशतपरिमाणास्ते च नित्यनिगोदवासिनः क्षपितकर्माण इन्द्रगोपाः संजातास्तेषां च पुञ्जीभूतानामुपरि भरतहस्तिना पादो दत्तस्ततस्ते मृत्वापि वर्द्धनकुमारादयो आज्ञाके अनुसार इस जीवने अनन्तवार प्राप्त किये हैं, परन्तु पूर्वोक्त संपूर्ण प्रकृतिबंध आदिके सद्भावके नाशके कारण जो विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावका धारक निज परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और चारित्ररूप जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हैं, उन्हींको इस जीवने प्राप्त नहीं किये । इस प्रकार भावसंसारका स्वरूप है। इस पूर्वोक्त प्रकारसे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप जो पाँच प्रकारका संसार है उसको भावते हुए इस जीवके संसारसे हटानेका कारण जो निजशुद्ध आत्माका ज्ञान है उसका नाश करनेवाले और संसारकी वृद्धिके कारणभूत ऐसे जो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं उनमें परिणाम नहीं होता है, किन्तु वह जीव संसारसे अतीत (नहीं होनेवाला) जो सुख है उसके आस्वादमें रत (तत्पर) होकर, निजशुद्ध आत्माके ज्ञानके बलसे संसारको नष्ट करनेवाला जो निज निरंजन परमात्मा है, उसीमें भावना करता है। और इसके पश्चात् जैसे परमात्माको भावता है, वैसे ही परमात्माको प्राप्त होके, संसारसे विलक्षण जो मोक्ष है, उसमें अनन्तकाल निवास करता है। यहाँपर विशेष यह है कि नित्य निगोदके जीवोंको छोड़कर; इस उक्त पंच प्रकारके संसारका व्याख्यान जानना चाहिये, अर्थात् नित्य निगोद जीव इस पंच प्रकारके संसारमें परिभ्रमण नहीं करते हैं। क्योंकि नित्य निगोदवर्ती जो जीव हैं उनके तीन कालमें भी असता अर्थात् वेइन्द्रीपने आदिका धारण करना नहीं है। सो ही कहा है-“ऐसे अनंत जीव हैं कि जिन्होंने त्रस पर्यायको प्राप्त ही नहीं किया। और भाव कलंकों (अशुभपरिणामों) से भरपूर हैं, जिससे वे निगोदके निवासको नहीं छोड़ते है। और यह बात अनुपम और अद्वितीय है कि "अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि ऐसे भी नौसौ तेईस (९२३) भरतजीके पुत्र जो कि नित्य निगोदके निवासी थे और नित्य निगोदमें कर्मोंकी निर्जरा होने से वे इन्द्रगोप (सावनकी डोकरी) नामक कोड़े हुए, सो उन सबके ढेरपर भरतके हाथीने पैर रख दिया इससे वे मरकर भरतजीके वर्द्धनकुमार आदि पुत्र हुए और वे किसीके साथ भी न बोलते थे। इस कारण, भरतजीने समवसरणमें Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रह भरतपुत्रा जातास्ते च केनचिदपि सह न वदन्ति । ततो भरतेन समवसरणे भगवान् पृष्टो, भगवता च प्राक्तनं वृत्तान्तं कथितम् । तच्छ्रुत्वा ते तपो गृहीत्वा क्षणस्तोककालेन मोक्षं गताः । आचाराराधनाटिप्पणे कथितमास्ते । इति संसारानुप्रेक्षा गता ॥३॥ अथैकत्वानुप्रेक्षा कथ्यते। तद्यथा-निश्चयरत्नत्रयैकलक्षणकत्वभावनापरिणतस्यास्य जीवस्य निश्चयनयेन सहजानन्दसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतं केवलज्ञानमेवैकं सहजं शरीरम् । शरीरं कोऽर्थः स्वरूपं न च सप्तधातुमयौदारिकशरीरम् । तथैवातरौद्रदुानविलक्षणपरमसामायिकलक्षणैकत्वभावनापरिणतं निजात्मतत्त्वमेवैकं सदा शाश्वतं परमहितकारि न च पुत्रकलत्रादिः । तेनैव प्रकारेण परमोपेक्षासंयमलक्षणैकत्वभावनासहितः स्वशुद्धात्मपदार्थ एक एवाविनश्वरहितकारी परमोऽर्थः न च सुवर्णाद्यर्थः । तथैव निर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणानाकुलत्वस्वभावात्मसुखमेवैकं सुखं न चाकुलत्वोत्पादकेन्द्रियसुखमिति । कस्मादिदं देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादिकं जीवस्य निश्चयेन निराकृतमिति चेत्, यतो मरणकाले जीव एक एव गत्यन्तरं गच्छति न च देहादीनि । तथैव रोगव्याप्तिकाले विषयकषायादिदुर्ध्यानरहितःः स्वशुद्धात्मकैकसहायो भवति । तदपि कथमिति चेत् ? यदि चरमदेहो भवति तहि केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपं मोक्षं नयति, अचरमदेहस्य तु संसारस्थिति स्तोकां कृत्वा देवेन्द्राद्यभ्युदयसुखं दत्वा च पश्चात् पारम्पर्येण मोक्षं भगवान्से पूछा, तो भगवान्ने पुराना सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर, उन सब वर्द्धनकुमारादि पुत्रोंने तप ग्रहण किया और बहुत ही अल्प कालमें मोक्ष चले गये" | यह कथा आचाराराधनाकी टिप्पणीमें कही हुई है । इस प्रकार संसार अनुप्रेक्षाका व्याख्यान समाप्त हुआ ॥३।। अब एकत्व अनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं। वह इस प्रकार है-निश्चय रत्नत्रयरूप एक लक्षणका धारक जो एकत्व है उसकी भावनामें परिणत इस जीवके निश्चयनयसे सहज आनन्द, सुख आदि अनन्त गुणोंका आधाररूप जो केवल ज्ञान है वह एक ही सहज (स्वभाव से उत्पन्न) शरीर है । यहाँ 'शरीर' इस शब्दका अर्थ स्वरूप समझना, न कि सात धातुओंसे निर्मित औदारिक शरीर । इसी प्रकार आर्त और रौद्र इन दोनों ध्यानोंसे विलक्षण (उलटी) जो परमसामायिकरूप एकत्व भावना है उसमें परिणत जो एक अपना आत्मतत्त्व है वही सदा अविनाशी और परम हितक करनेवाला है; और पुत्र, मित्र, कलत्र आदि हितके कर्ता नहीं। पूर्वोक्त रीतिसे ही परम उपेक्षा संयमरूप जो एकत्व भावना है, उससे सहित जो निज शुद्धात्म पदार्थ है, वह एक ही अविनाशी तथा हितकारी परम अर्थ (धन ) है; और सुवर्ण आदिरूप अर्थ ( धन ) परम अर्थ नहीं है । एवमेव निर्विकल्प ध्यानसे उत्पन्न तथा निर्विकार परम आनन्दमय लक्षण और आकुलतारहित स्वभावका धारक ऐसा आत्मसुख ही एक सुख है; और आकुलताको उत्पन्न करनेवाला इन्द्रियजन्य जो सुख है सो सुख नहीं। ये पूर्वोक्त जो जीवके शरीर, बन्धुजन, सुवर्ण आदि अर्थ, और इन्द्रियसुख आदि हैं इनका निश्चयनयसे खंडन क्यों किया है, ऐसी शंका करो तो समाधान यह है कि जब मरणका समय आता है तब यह जीव एक (अकेला) ही दूसरी गतिमें गमन करता है और देह आदि इस जीवके साथ नहीं जाते, किन्तु यहाँके यहाँ ही रह जाते हैं। और जब यह जीव रोगोंसे व्याप्त होता है तब विषय तथा कषाय आदिरूप जो खोटे ध्यान हैं उनसे रहित एक निजशुद्ध आत्मा ही इसका सहायक होता है । और वह सहायक भी कैसा होता है ? इसका उत्तर यह है कि यदि उस जीवका अंतिम शरीर हो तब तो केवलज्ञान आदिकी प्रकटतारूप जो Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार प्रापयतीत्यर्थः । तथा चोक्तं- “सग्गं तवेण सव्वो, वि पावए किंतु झाणजोयेण। जो पावइ सो पावइ, परं भवे सासयं सोक्खं । १।" एवमेकत्वभावनाफलं ज्ञात्वा निरन्तरं निजशुद्धात्मकत्वभावना कतंव्या । इत्येकत्वानुप्रेक्षा गता ॥४॥ तथान्यत्वानुप्रेक्षां कथयति । तथा हि-पूर्वोक्तानि यानि देहबन्धुजनसुवर्णाद्यर्थेन्द्रियसुखादीनि कर्माधीनत्वे विनश्वराणि तथैव हेयभूतानि च, तानि सर्वाणि टोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावत्वेन नित्यात्सर्वप्रकारोपादेयभूतान्निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारस्वभावान्निजपरमात्मपदार्थान्निश्चयनयेनान्यानि भिन्नानि । तेभ्यः पुनरात्माप्यन्यो भिन्न इति । अयमत्र भाव एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमित्यादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानुप्रेक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण । इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्य तदेव । इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा समाप्ता ॥५॥ अतः परमशुचित्वानुप्रेक्षा कथ्यते। तद्यथा-सर्वाशुचिशुक्रशोणितकारणोत्पन्नत्वात्तथैव "वसासृरमांसमेदोऽस्थिमज्जाशुक्राणि धातवः" इत्युक्ताशुचिसप्तधातुमयत्वेन तथा नासिकादिनवरन्ध्रद्वारैरपि स्वरूपेणाशुचित्वात्तथैव मूत्रपुरीषाद्यशुचिमलानामुत्पत्तिस्थानत्वाच्चाशुचिरयं देहः । न केवलमशुचिकारणत्वेनाशुचिः स्वरूपेणाशुच्युत्पादकत्वेन चाशुचिः। शुचि सुगन्धमाल्यवस्त्रामोक्ष है उसमें ले जाता है और यदि अंतिम शरीर न हो तो वह शुभ ध्यानरूप शुद्ध आत्मा उस जीवकी जो संसारको स्थिति है उसको अल्प करके और देव, इन्द्र आदि पर्यायसंबंधी सुखोंको देकर, फिर परम्परासे मोक्षकी प्राप्ति करता है। यह भावार्थ है। सो ही कहा भी है-'तपके करनेसे स्वर्ग सब कोई पाते हैं, परन्तु शुभ ध्यानके योगसे जो कोई स्वर्ग पाता है वह अग्रिम भवमें शाश्वत सुख अर्थात् मोक्षको पाता है ॥ १॥" ऐसे एकत्व भावनाके फलको जानकर, सदा निजशुद्ध आत्माके एकत्वरूप भावना ही करनी चाहिये । इस प्रकार एकत्व नामक चतुर्थ अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ४॥ अब पंचम अन्यत्व अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं। सो इस प्रकार है--पूर्व एकत्वभावनामें कहे हुए जो देह, बंधुजन, सुवर्ण आदि अर्थ और इन्द्रियसुख आदि हैं वे सब कर्मों के आधीन हैं इसी कारण विनाशस्वभावके धारक हैं तथा हेय ( त्याज्य ) स्वरूप भी हैं। इस कारण टोत्कीर्ण एवं ज्ञायक रूप एक स्वभावसे नित्य, सब प्रकारोंसे उपादेयभूत और विकाररहित परमचैतन्य चित्-चमत्कारस्वभावका धारक जो निज परमात्मपदार्थ है, उससे वे सब निश्चयनयकी अपेक्षासे भिन्न हैं। और आत्मा भी उनसे भिन्न है। भावार्थ यहाँ पर यह है कि-एकत्व अनुप्रेक्षामें तो 'मैं एक हूँ' इत्यादि प्रकारसे विधिरूप व्याख्यान है और इस अन्यत्व अनुप्रेक्षामें 'देह आदिक पदार्थ मुझसे भिन्न हैं, ये मेरे नहीं हैं' इत्यादि निषेधरूपसे वर्णन है। इस प्रकार एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओंमें विधि तथा निषेधरूप ही विशेष ( भेद ) है और तात्पर्य तो दोनोंका एक ही है। ऐसे अन्यत्व अनुप्रेक्षा समाप्त हुई ।। ५॥ ___ अब आगे अशुचित्व अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-सबसे अपवित्र ऐसे शुक्र (पिताका वीर्य ) और शोणित ( माताका रुधिर ) रूप कारणसे उत्पन्न होनेके कारण तथा "वसा, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि (हाड़), मज्जा, और शुक्र ये धातु हैं," इस प्रकार पूर्वोक्त अपवित्र जो सप्त धातु हैं इन रूप होनेसे तथा नाक आदि नौ छिद्रोंद्वारा स्वरूपसे भी अशुचि होनेसे और इसी भाँतिसे मूत्र, पुरीष (विष्ठा) आदि अशुचि मलोंकी उत्पत्तिका स्थान होनेसे यह देह Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ८७ दोनामशुचित्वोत्पादकत्वाच्चाशुचिः । इदानी शुचित्वं कथ्यते-सहजशुद्धकेवलज्ञानादिगुणानामाधारभूतत्वात्स्वयं निश्चयेन शुचिरूपत्वाच्च परमात्मैव शुचिः । “जीवो बम्हा जीवह्मि चेव चरिया विज्ज जो जदिणो। तं जाण ब्रह्मचेरं विमक्कपरदेहभत्तोए।१" इति गाथाकथितनिर्मलब्रह्मचर्य तत्रैव निजपरमात्मनि स्थितानामेव लभ्यते। तथैव "ब्रह्मचारी सदा शुचिः” इति वचनातथाविधब्रह्मचारिणामेव शुचित्वं न च कामक्रोधादिरतानां जलस्नानादिशौचेऽपि। तथैव च"जन्मना जायते शूद्रः क्रियया द्विज उच्यते। श्रुतेन श्रोत्रियो ज्ञेयो ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणः।१।" इति वचनात्त एव निश्चयशुद्धाः ब्राह्मणाः । तथा चोक्तं नारायणेन युधिष्ठिरं प्रति विशुद्धात्मनदीस्नानमेव परमशुचित्वकारणं न च लौकिकगङ्गादितीर्थे स्नानादिकम् । “आत्मा नदी संयमतोयपूर्णा सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः । तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।।" इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा गता ॥६॥ अत ऊर्ध्वमानवानुप्रेक्षा कथ्यते । समुद्रे सच्छिद्रपोतवदयं जीव इन्द्रियाद्यास्रवैः संसारसागरे पततीति वात्तिकम् । अतीन्द्रियस्वशुद्धात्मसंवित्तिविलक्षणानि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणीन्द्रियाणि भण्यन्ते । परमोपशममूर्तिपरमात्मस्वभावस्य क्षोभोत्पादकाः क्रोधमानमायालोभकषाया अभिअशुचि है। और केवल अशुचि कारणसे उत्पन्न होनेके कारण ही यह अशुचि नहीं है; किन्तु यह शरीर स्वरूपसे भी अशुचि है और अशुचि मल आदिका जनक होनेसे भी अशुचि है। और पवित्र जो सुगन्ध, माला, वस्त्र आदि हैं उनमें भी यह शरीर अपने संसर्गसे अपवित्रता उत्पन्न करता है, इस कारण भी अशुचि है। अब पवित्रताका कथन करते हैं-सहज शुद्ध ऐसे जो केवल ज्ञान आदि गुण हैं उनका आधारभूत होनेसे और निश्चयसे अपने आप पवित्र होनेसे यह परमात्मा ही शुचि है । "जीव ब्रह्म है, जीवहीमें जो मुनिकी चर्या (प्रवृत्ति) होवे उसको, छोड़ी है परदेहकी सेवा जिसने ऐसा ब्रह्मचर्य जानो ।१।" इस गाथामें कहा हुआ जो निर्मल ब्रह्मचर्य है, सो उस परमात्मामें स्थित हुए जीवोंके ही मिलता है। और इसी प्रकार "ब्रह्मचारी सदा पवित्र है" इस वचनसे उन पूर्वोक्त प्रकारके ब्रह्मचारियोंके ही पवित्रता है। और जो काम तथा क्रोध आदिमें तत्पर जीव हैं उनके जलस्नान आदि शौचोंके करनेपर भी पवित्रत्व नहीं है। क्योंकि, इसी प्रकार "जन्मसे शूद्र होता है, क्रियासे द्विज कहलाता है, श्रुत (शास्त्र) से श्रोत्रिय जानना चाहिये और ब्रह्मचर्यसे ब्राह्मण जानना चाहिये ।१।" ऐसा वचन है। इसलिये पूर्वोक्त परमात्मामें तत्पर जो हैं, वे ही निश्चयनयसे शुद्ध ब्राह्मण हैं। और नारायणने युधिष्ठिरको कहा है कि शुद्ध जो आत्मारूप नदी है उसमें स्नानका करना ही परम पवित्रताका कारण है, किन्तु लौकिक जो गंगा आदि तीर्थों में स्नानका करना आदि है सो शुचित्वका कारण नहीं। इस विषयमें जो श्लोक है उसका अर्थ यह है- 'संयमरूपी जलसे पूर्ण, सत्यको धारण करनेवाली शीलरूप तट और दयामय तरङ्गोंकी धारक ऐसी जो आत्मारूप नदी है उसमें हे पाण्डुपुत्र (युधिष्ठिर) ! स्नान कर; क्योंकि, अन्तरात्मा जलसे शुद्ध नहीं होता । १।" इस प्रकार अशुचित्व अनुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त हुआ।।६।। ___ अब इसके अनन्तर सप्तम आस्रवानुप्रेक्षाको कहते हैं । "जैसे छिद्रसहित नौका ( नाव ) समुद्र में डूबती है, ऐसे ही इन्द्रिय आदि छिद्रों द्वारा यह जीव संसाररूप समुद्र में गिरता है" यह वात्तिक है। इन्द्रियोंके अगोचर जो निजशुद्ध आत्माका ज्ञान है उससे विलक्षण स्पर्शन, रसन ( जिह्वा, ) नासिका, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ कहलाती हैं। परम उपशम स्वरूपका Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार धीयन्ते । रागादिविकल्पनिवृत्तिरूपायाः शुद्धात्मानुभूते: प्रतिकूलानि हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहप्रवृत्तिरूपाणि पञ्चाव्रतानि । निष्क्रियनिर्विकारात्मतत्त्वाद्विपरीता मनोवचनकायव्यापाररूपाः परमागमोक्ताः सम्यक्त्वक्रिया मिथ्यात्वक्रियेत्यादिपञ्चविंशतिक्रियाः उच्यन्ते । इन्द्रियकषायावतक्रियारू पासवाणां स्वरूपमेतद्विज्ञेयम् यथा समुद्रेऽनेकरत्नभाण्डपूर्णस्य सच्छिद्रपोतस्य जलप्रवेशे पातो भवति न च वेलापत्तनं प्राप्नोति । तथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणामूल्यरत्नभाण्डपूर्णजीवपोतस्य पूर्वोक्तास्रवद्वारैः कर्मजलप्रवेशे सति संसारसमुद्रे पातो भवति न च केवलज्ञानाव्याबाधसुखाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति । एवमात्र वगतदोषानुचिन्तनमानवानुप्रेक्षा ज्ञातव्येति ॥७॥ ___ अथ संवरानुप्रेक्षा कथ्यते—यथा तदेव जलपात्रं छिद्रस्य झम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति; तथा जीवजलपात्रं निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन इन्द्रियाद्यास्रवच्छिद्राणां झम्पने सति कर्मजलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणरत्नपूर्णमुक्तिवेलापत्तनं प्राप्नोतीति । एवं संवरगतगुणानुचिन्तनं संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या ॥ ८॥ अथ निर्जरानुप्रेक्षा प्रतिपादयति । यथा कोऽप्यजीर्णदोषेण मलसञ्चये जाते सत्याहारं त्यक्त्वा किमपि हरीतक्यादिकं मलपाचकमग्निदीपकं चौषधं गृह्णाति । तेन च मलपाकेन धारक जो परमात्माका स्वभाव है उसके क्षोभको उत्पन्न करनेवाले क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय कहे जाते हैं। राग आदि विकल्पोंसे रहित जो शुद्ध आत्माका अनुभव है उससे प्रतिकूल ऐसे हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचोंमें प्रवृत्तिरूप पाँच अव्रत हैं । क्रियारहित और निर्विकार ऐसा जो आत्मतत्त्व है उससे विपरीत मन, वचन तथा कायके व्यापाररूप एवं शास्त्रमें कही हुई सम्यक् क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया इत्यादि पच्चीस क्रिया कही जाती हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त इन्द्रिय, कषाय, अव्रत तथा क्रियारूप आस्रवोंका स्वरूप जानना चाहिये। जैसे समुद्र में अनेक रत्नोंके भांडोंसे भरे हए छिद्रसहित पोत ( जहाज ) का जलके प्रवेश होनेपर पतन होता है और वह पोत समुद्रके किनारे जो पत्तन ( नगर ) है उसको नहीं प्राप्त होता है । उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप जो अमूल्य रत्नोंके भांडे हैं उनसे पूर्ण इस जीव नामा पोतमें पूर्वोक्त इन्द्रिय आदि आस्रवोंद्वारा जब कर्मरूपी जलका प्रवेश हो जाता है तब संसाररूपी समुद्र में ही पतन होता है। और केवलज्ञान अव्याबाध सुख आदि अनन्त गुणमय रत्नोंसे पूर्ण जो मुक्तिस्वरूप वेलापत्तन ( संसार समुद्र के किनारेका शहर ) हैं, उसको यह जीव नहीं प्राप्त होता है। इत्यादि प्रकारसे आस्रव में प्राप्त दोषोंका जो विचार करना है, वह आस्रवानुप्रेक्षा जाननी चाहिये ।। ७ ।। अब संवर अनुप्रेक्षाका वर्णन करते हैं। जैसे वही समुद्रका पोत अपने छिद्रोंके बन्द हो जानेसे जलके प्रवेशका अभाव होनेपर निर्विघ्नतापूर्वक वेलापत्तनको प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार जीवरूपी पोत अपने शुद्ध आत्माके ज्ञानके बलसे इन्द्रिय आदि आस्रवरूप छिद्रोंके मुंद जानेसे कर्मरूप जलके प्रवेशका अभाव होनेपर निर्विघ्न केवलज्ञान आदि अनन्त गुण रत्नोंसे पूर्ण जो मुक्तिरूप वेलापत्तन है, उसको प्राप्त होता है। ऐसे संवरमें विद्यमान जो गुण हैं उनके चिंतनस्वरूप संवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिये ॥ ८ ॥ ___ अब निर्जरानुप्रक्षाका प्रतिपादन करते हैं जैसे किसी मनुष्यके अजीर्ण दोषसे मलका संचय ( पेट में मलका जमाव ) हो जावे तो वह मनुष्य आहारको छोड़ करके, मलको पचानेवाले Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः मलानां पातने गलने निर्जरणे सति सुखी भवति । तथायं भव्यजीवोऽप्यजीर्णजनकाहारस्थानीयमिथ्यात्व रागाद्यज्ञानभावेन कर्ममलसञ्चये सति मिथ्यात्वरागादिकं त्यक्त्वा परमौषधस्थानीयं जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमभावनाप्रतिपादकं कर्ममलपाचकं शुद्धध्यानाग्निदीपकं च जिनवचनौषधं सेवते । तेन च कर्ममलानां गलने निर्जरणे सति सुखी भवति । किञ्च यथा कोsपि धीमानजीर्णकाले यदुःखं जातं तदजीर्णे गतेऽपि न विस्मरति ततश्चाजीर्णजनकाहारं परिहरति तेन च सर्वदैव सुखीभवति । तथा विवेकिजनोऽपि "आर्ता नरा धर्मपरा भवन्ति" इति वचनाद्दुःखोत्पत्तिकाले ये धर्मपरिणामा जायन्ते तान् दुःखे गतेऽपि न विस्मरति । ततश्च निजपरमात्मानुभूतिबलेन निर्जरार्थं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षादिविभावपरिणामपरित्यागरूपैः संवेगवैराग्यपरिणामैवर्तत इति । संवेगवैराग्यलक्षणं कथ्यते - " धम्मे य धम्मफलह्मि दंसणे य हरिसो य हुंति संवेगो । संसारदेहभोगेसु विरत्तभावो य वैरग्गं । १।" इति निर्जरानुप्रेक्षा गता ॥९॥ ८९ अथ लोकानुप्रेक्षां प्रतिपादयति । तद्यथा - अनन्तानन्ताकाशबहुमध्यप्रदेशे घनोदधिधनवाततनुवाताभिधानवायुत्रयवेष्टितानादिनिधनाकृत्रिमनिश्चला संख्यात प्रदेशो लोकोऽस्ति । तस्याकारः कथ्यते - अधोमुखार्द्धमुरजस्योपरि पूर्णे मुरजे स्थापिते यादृशाकारो भवति तादृशाकारः परं किन्तु मुरजो वृत्तो लोकस्तु चतुष्कोण इति विशेषः । अथवा प्रसारितपादस्य कटितटन्यस्तहस्तस्य तथा अग्निको तीव्र करनेवाले किसी हरड़े आदि औषधको ग्रहण करता है । और जब उस औषधसे मल पक जाते हैं, गल जाते हैं अथवा निर्जर जाते हैं तब वह मनुष्य सुखी होता है । उसी प्रकार यह भव्यजीव भी अजीर्णको उत्पन्न करनेवाले आहारके स्थानभूत ( एवज ) जो मिथ्यात्व, राग तथा अज्ञान आदि भाव हैं उनसे कर्मरूपी मलका संचय होनेपर मिथ्यात्व, राग आदिको छोड़कर, परम औषधके स्थानभूत जीवन-मरणमें, लाभ-अलाभ में और सुख-दुःख आदिमें समान भावनाको उत्पन्न करनेवाला, कर्ममलको पकानेवाला तथा शुद्ध ध्यानरूप अग्निको दीप्त करनेवाला जो जिनवचनरूप औषध है उसका सेवन करता है । और उससे जब कर्मरूपी मलोंका गलन तथा निर्जरण हो जाता है तब वह सुखी होता है । और भी विशेष है कि जैसे कोई बुद्धिमान् अजीर्णके समय में जो दुःख हुआ उसको अजोर्णके नाश हो जानेपर भी नहीं भूलता है और उसके स्मरणपूर्वक अजीर्णको उत्पन्न करनेवाले आहारको छोड़ देता है और इस कारण सदा ही सुखी होता है; वैसे ही विवेकी ( ज्ञानी ) मनुष्य भी "दुःखी मनुष्य धर्म में तत्पर होते हैं" इस वाक्यानुसार दुःखके उत्पन्न होने के समय जो धर्मरूप परिणाम होते हैं उनको दुःख नष्ट हो जानेपर भी नहीं भूलता है । और इसके पश्चात् निज परम आत्माके अनुभव के बलसे निर्जराके निमित्त जो देखे, सुने तथा अनुभव में किये हुए भोगवांछादिरूप विभाव परिणाम हैं उनके परित्याग ( त्याग ) रूप संवेग तथा वैराग्यरूप परिणामों के साथ रहता है | संवेग और वैराग्यका लक्षण कहते हैं- "धर्ममें, धर्मके फलमें और दर्शन में जो हर्ष होता है सो तो संवेग है; और संसार, देह तथा भोगों में विरक्त भावरूप वैराग्य है । १ ।" ऐसे निर्जरानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ ९ ॥ अब लोकानुप्रेक्षाका निरूपण करते हैं । वह इस प्रकार है-अनंतानन्त जो आकाश है उसके बहुत ही मध्य प्रदेशमें घनोदधि, घनवान और तनुवात नामक तीन पवनोंसे वेष्टित ( बेढा हुआ ), आदि और अन्तरहित, अकृत्रिम, निश्चल और असंख्यात प्रदेशका धारक लोक है । उसके आकारका कथन करते हैं- नीचे मुख किये हुए आधे सृदंगके ऊपर पूरा मृदंग रखने पर ८ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार चोर्ध्वस्थितपुरुषस्य यादृशाकारो भवति तादृशः । इदानीं तस्यैवोत्सेधायामविस्ताराः कथ्यन्तेचतुर्दशरज्जुप्रमाणोत्सेधस्तथैव दक्षिणोत्तरेण सर्वत्र सप्तरज्जुप्रमाणायामो भवति । पूर्वपश्चिमेन पुनरधोविभागे सप्तरज्जुविस्तारः। ततश्चाधोभागात क्रमहानिरूपेण हीयते यावन्मध्यलोक एकरज्जुप्रमाणविस्तारो भवति । ततो मध्यलोकादूर्ध्वं क्रमवृद्धया वर्द्धते यावद् ब्रह्मलोकान्ते रज्जुपञ्चकविस्तारो भवति । ततश्चोवं पुनरपि हीयते यावल्लोकान्ते रज्जुप्रमाणविस्तारो भवति । तस्यैव लोकस्य पुनरुदूखलस्य मध्याधोभागे छिद्रे कृते सति निक्षिप्तवंशनालिकेव चतुःकोणा त्रसनाडी भवति । सा चैकरज्जुविष्कम्भा चतुर्दशरज्जूत्सेधा विज्ञया । तस्यास्त्वधोभागे सप्तरज्जवोऽधोलोकसंबन्धिन्यः। ऊर्ध्वभागे मध्यलोकोत्सेधसंबन्धिलक्षयोजनप्रमाणमेरूत्सेधः सप्तरज्जव ऊर्ध्वलोकसंबन्धिन्यः ।। अतः परमधोलोकः कथ्यते । अधोभागे मेरोराधारभूता रत्नप्रभाख्या प्रथमपृथिवी। तस्याधोऽधः प्रत्येकमेकैकरज्जुप्रमाणमाकाशं गत्वा यथाक्रमेण शर्करावालुकापधमतमोमहातमःसंज्ञाः षड् भूमयो भवन्ति । तस्मादधोभागे रज्जुप्रमाणं क्षेत्रं भूमिरहितं निगोदादिपञ्चस्थावरभूतं च तिष्ठति । रत्नप्रभादिपृथिवीनां प्रत्येकं घनोदधिधनवाततनुवातत्रयमाधारभूतं भवतीति विज्ञेयम् । कस्यां पृथिव्यां कति नरकबिलानि सन्तीति प्रश्ने यथाक्रमेण कथयति-तासु त्रिशत्पञ्चविंशतिपञ्चदशदशत्रिपञ्चौनकनरकशतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ८४००००० । अथ रत्नप्रभादि जैसा आकार होता है वैसा आकार लोकका है, परन्तु मृदंग गोल है और लोक चौकोर है, यह भेद है। अथवा फैलाये हैं पाद (पैर) जिसने और कटिके तटपर रक्खे हैं हाथ जिसने ऐसे खड़े हुए मनुष्यका जैसा आकार होता है, वैसा लोकका आकार है। अब उसी लोककी ऊँचाई, लंबाई तथा विस्तारका निरूपण करते हैं-चौदह रज्जु प्रमाण ऊँचा तथा दक्षिण उत्तर में सब जगह सात रज्जु लम्बा यह लोक है और पूर्व पश्चिममें नीचेके भागमें सात रज्जु विस्तार है और फिर उस अधोभागसे क्रमहानिरूपसे इतना घटता है कि, मध्य ( बीच ) में एक रज्जु विस्तारका धारक हो जाता है फिर मध्यलोकसे ऊपर क्रमवृद्धिसे बढ़ता है सो बढ़ता-बढ़ता ब्रह्मलोक अर्थात् पंचम स्वर्गके अन्तमें पाँच रज्जुके विस्तारका धारक होता है । उसके ऊपर फिर भी घटता है सो यहाँतक घटता है कि, लोकके अन्तमें जाकर, एक रज्जुप्रमाण विस्तारवाला होता है। और इसी लोकके मध्यमें उदूखल ( ऊखल ) के मध्यभागसे नीचेकी ओर छिद्र करके एक बाँसका नली रक्खी जावे उसका जैसा आकार होता है उसके समान एक चौकोर त्रस नाडी है, वह एक रज्जु व्यासकी धारक और चौदह रज्जु ऊँची जाननी चाहिए। उस त्रस नाडीके अधोभागकी जो सात रज्जु हैं वे अधोलोक सम्बन्धी हैं और ऊर्ध्वभागमें मध्यलोककी ऊँचाई सम्बन्धी लक्ष योजन प्रमाण मेरुकी ऊँचाई है इस सहित सात रज्जु ऊर्ध्व लोकसम्बन्धी हैं । इसके आगे अधोलोकका कथन करते हैं. अधोभागमें मेरुकी आधारभूता रत्नप्रभा नामा प्रथम पृथिवी है। उस रत्नप्रभा पृथिवीके नीचे-नीचे प्रत्येक एक एक रज्जु प्रमाण आकाशमें चलकर क्रमानुसार शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा, और महातमःप्रभा नामकी धारक ६ भूमियाँ हैं । उनके अधोभागमें जो भूमिरहित एक रज्जुप्रमाण क्षेत्र है वह निगोद आदि पंच स्थावरोंसे भरा हुआ है। रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथिवीके घनोदधि, घनवात और तनुवात नामक जो तीन वातवलय हैं वे आधारभूत हैं अर्थात् रत्नप्रभादि पृथिवी इन तीनों Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः पृथिवीनां क्रमेण पिण्डस्य प्रमाणं कथयति । पिण्डस्य कोऽर्थः मन्द्रत्वस्य बाहुल्यस्येति । अशीतिसहस्राधिकैकलक्षं तथैव द्वात्रिंशदष्टाविंशतिचतुविशतिषोडशाष्टसहस्रप्रमितानि योजनानि ज्ञातव्यानि । तिर्यविस्तारस्तु चतुर्दिग्भागे यद्यपि त्रसनाड्यपेक्षयकरज्जुप्रमाणस्तथापि त्रसरहितबहिर्भागे लोकान्तप्रमाणमिति । तथा चोक्तं "भुवामन्ते स्पृशन्तीनां लोकान्तं सर्वदिक्षु च"। अत्र विस्तारेण तिर्यविस्तारपर्यन्तमन्द्रत्वेन मन्दरावगाहयोजनसहस्रबाहुल्या मध्यमलोके या चित्रा पृथिवी तिष्ठति तस्या अधोभागे षोडशसहस्रबाहुल्यः खरभागस्तिष्ठति । तस्मादप्यधश्चतुरशीतियोजनसहस्रबाहुल्यः पङ्कभागस्तिष्ठति । ततोऽप्यधोभागे अशीतिसहस्रबाहुल्यो अब्बहुलभागस्तिष्ठतीत्येवं रत्नप्रभा पृथिवी त्रिभेदा ज्ञातव्या। तत्र खरभागेऽसुरकुलं विहाय नवप्रकारभवनवासिदेवानां तथैव राक्षसकुलं विहाय सप्तप्रकारव्यन्तरदेवानां आवासा ज्ञातव्या इति । पङ्कभागे पुनरसुराणां राक्षसानां चेति । अब्बहुलभागे नारकास्तिष्ठन्ति । तत्र बहुभूमिकप्रासादवदधोऽधः सर्वपृथिवीषु स्वकीयस्वकीयबाहुल्यात् सकाशादध उपरि चैकैकयोजनसहस्रं विहाय मध्यभागे भूमिक्रमेण पटलानि भवन्ति त्रयोदशैकादशनवमप्तपञ्चव्येकवातवलयोंके आधारसे हैं, यह जानना चाहिये। किस पथिवीमें कितने नरकोंके बिल हैं ? इस प्रश्नपर यथाक्रमसे उत्तर कहते हैं कि, उनमें प्रथम भूमिमें तीस लाख, द्वितीयमें पचीस लाख, तृतीयमें पन्द्रह लाख, चतुर्थमें दश लाख, पंचममें तीन लाख, षष्ठीमें पाँच कम एक लाख तथा सप्तमी पृथिवीमें पाँच, इस प्रकार सब मिलकर चौरासी लाख (८४०००००) नरकोंके बिल हैं। अब रत्नप्रभा आदि भूमियोंका क्रमसे पिंडप्रमाण कहते हैं। यहाँ पिंड शब्दका अर्थ गंभीरता (गहराई ) है। उनमें प्रथम पथिवीका पिंड एक लाख अस्सी हजार योजन, दुसरीका एक लाख तीसरीका एक लाख अटाईस हजार, चौथीका एक लाख चौबीस हजार, पाँचवींका एक लाख बीस हजार. छठीका एक लाख सोलह हजार और सातवींका एक लाख आठ हजार योजनप्रमाण पिंड जानना चाहिये। और तिर्यग् अर्थात् तिरछा विस्तार तो यद्यपि त्रसनाडीकी अपेक्षासे एक रज्जुप्रमाण है तथापि त्रसोंसे रहित जो बाह्यभाग है उसमें लोकके अन्ततक है । सो ही कहा है कि, “अन्तको स्पर्श करती हुई भूमियोंका प्रमाण सब दिशाओंमें लोकान्त प्रमाण है।" अब यहाँ विस्तारसे तिर्यविस्तार पर्यन्त मंद्रतासे मेरुके अवगाह रूप जो एक हजार योजन हैं, उन प्रमाण बाहुल्य ( गहराई ) को धारण करनेवाली जो मध्यलोकमें चित्रा पृथिवी है, उसके नीचे के भागमें सोलह हजार योजन बाहुल्यका धारक खर भाग है। उस खर भागके भी नीचे चौरासी हजार योजन प्रमाण बाहुल्यवाला पंक भाग स्थित है। उसके भी नीचेके भागमें अस्सी हजार योजनके बाहुल्यका धारक अब्बहुल भाग है। इस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी है सो खरभाग, पंक भाग और अव्बहुल भागरूपी भेदोंसे तीन प्रकारकी जाननी चाहिये। उनमें खर भागमें असुरकुमार जातिके देवोंके समूहको छोड़कर, नव प्रकारके भवनवासी और इसी प्रकार राक्षसोंके समूहके विना सात प्रकारके व्यन्तर देवोंके आवास ( निवासस्थान ) जानने चाहिये । पंकभागमें असुर तथा राक्षसोंके निवास हैं। अब्बहुल भागमें नारक हैं ।। उनमें बहतसे खनोंवाले प्रासाद ( महल) के समान नीचे-नीचे सब पृथिवियोंमें अपने-अपने वाहुल्यसे नीचे और ऊपर एक-एक हजार योजनको छोड़कर, जो बीचका भाग है उसमें भूमि ( तल्ला, खण्ड, अथवा मंजिला ) के क्रमसे पटल होते हैं। उनमें प्रथम भूमिमें तेरह, दूसरीमें बत्तीस Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार संख्यानि, तान्येव सर्वसमुदायेन पुनरेकोनपञ्चाशत्प्रमितानि । पटलानि कोऽर्थः ? प्रस्तारा इन्द्रका अन्तर्भूमय इति । तत्र रत्नप्रभायां सीमन्तसंज्ञे प्रथमपटल विस्तारे नृलोकवत् यत्संख्येययोजनविस्तारवत् मध्यबिलं तस्येन्द्रकसंज्ञा। तस्यैव चतुर्दिग्विभागे प्रतिदिशं पंक्तिरूपेणासंख्येययोजनविस्ताराग्येकोनपञ्चाशदबिलानि । तथैव विदिक्चतुष्टये प्रतिदिशं पंक्तिरूपेण यान्यष्टचत्वारिशद्बिलानि तान्यप्यसंख्यातयोजनविस्ताराणि । तेषामपि श्रेणीबद्धसंज्ञा। दिग्विदिगष्टकान्तरेषु पंक्तिरहितत्वेन पुष्पप्रकरवत्कानिचित्संख्येययोजनविस्ताराणि कानिचिदसंख्येययोजनविस्ताराणि यानि तिष्ठन्ति तेषां प्रकीर्णकसंज्ञा। इतीन्द्रकश्रेणीबद्धप्रकीर्णकरूपेण त्रिधा नरका भवन्ति । इत्यनेन क्रमेण प्रथमपटलव्याख्यानं विज्ञेयम् । तथैव पूर्वोक्तकोनपञ्चाशत्पटलेष्वयमेव व्याख्यानक्रमः किन्त्वष्टश्रेणिष्वेकैकपटलं प्रत्येकैकं हीयते यावत्सप्तमपृथिव्यां चतुर्दिग्भागेष्वेकं बिलं तिष्ठति। रत्नप्रभादिनरकदेहोत्सेधः कथ्यते प्रथमपटले हस्तत्रयम् ततः क्रमवृद्धिवशात्त्रयोदशपटले सप्तचापानि हस्त त्रयमङ्गलषट्कं चेति । ततो द्वितीयपृथिव्यादिषु चरमेन्द्रकेषु द्विगुणद्विगुणे क्रियमाणे सप्तमपृथिव्यां चापशतपञ्चकं भवति । उपरितने नरके य उत्कृष्टोत्सेधः सोऽधस्तने नरके विशेषाधिको जघन्यो भवति, तथैव पटलेषु च ज्ञातव्यः। आयुःप्रमाणं कथ्यते । प्रथमपृथिव्यां ग्यारह, तीसरीमें नव, चौथीमें सात, पांचवीमें पाँच, छठीमें तीन और सातवीं पृथिवीमें एक; ऐसे ये सब समदायसे उनचास (४९) संख्या प्रमाण पटल हैं। यहाँ ‘पटल' शब्दका अर्थ प्रस्तार (तह) इन्द्रक अथवा अन्तर्भूमि है। उनमें रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवीमें सीमन्त नामक पहले पटलके विस्तारमें जो ढाई द्वीपके समान संख्येय ( ४५००००० ) योजन विस्तारका धारक बीचका बिल है उसकी इन्द्रक संज्ञा है । उस इन्द्रककी चारों दिशाओं में प्रत्येक दिशामें असंख्येय योजन विस्तारके धारक उनचास बिल हैं। और इसी प्रकार चारों विदिशाओंमें प्रत्येक विदिशामें पंक्तिरूप ( कतारदार ) जो अडतालीस (४८) बिल हैं वे भी असंख्यात योजन प्रमाण विस्तारके धारक हैं, इन दोनों प्रकारके बिलोंकी ही "श्रेणीबद्ध" यह संज्ञा है अर्थात् इन्द्रकको दिशा और विदिशाओं में जो पंक्तिरूप बिल हैं वे श्रेणीबद्ध कहलाते हैं। चारों दिशा और चारों विदिशा इन आठोंके बीच में जो पंक्ति ( सिलसिले ) के बिना होनेसे बिखरे हए पुष्पोंके समान कितने ही संख्यात योजन विस्तारके धारक और कितने ही असंख्यात योजन विस्तारके धारक बिल हैं, उनका "प्रकीर्णक" यह नाम है। ऐसे इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णकरूपसे तीन प्रकारके नरक होते हैं। इस पर्वोक्त क्रमसे प्रथम पटलका व्याख्यान जानना चाहिये । इसी प्रकार पर्वोक्त जो सातों पथिवियोंमें उनचास पटल हैं उनमें भी यही व्याख्यानका क्रम है। परन्तु विशेष यह है कि, आठों दिशाओंकी जो आठों बोणियाँ हैं उनमें प्रत्येक पटलमें एक-एक बिल घटता है, सो यहाँ तक कि, सप्तम पृथिवीमें चारों दिशाओं में एक-एक बिल ही रह जाता है ।। अब रत्नप्रभादि पृथिवियोंमें जो नारक निवास करते हैं उनके देहकी ऊँचाईका कथन करते हैं-प्रथम पटलमें तीन हाथका उत्सेध है और यहाँसे क्रम-क्रम बढ़नेके वशसे तेरहवें पटलमें सात धनुष, तीन हाथ और ६ अंगुलका उत्सेध है। इसके अनंतर द्वितीय आदि पृथिवियोंके अन्तके इन्द्रक विमानोंमें दूनादूना वृद्धिरूप करनेसे सप्तम पृथिवीमें पाँचसौ धनुषका उत्सेध होता है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्व्यसंग्रहः ९३ प्रथमे पटले जघन्येन दशवर्षसहस्राणि तत आगमोक्तक्रमवृद्धिवशादन्तपटले सर्वोत्कर्षेणैकसागरोपमम्। ततः परं द्वितीयपृथिव्यादिषु क्रमेण त्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिशत्सागरोपममुत्कृष्टजीवितम् । यच्च प्रथमपृथिव्यामुत्कृष्टं तद्वितीयायां समयाधिकं जघन्यं, तथैव पटलेषु च । एवं सप्तमपृथिवीपर्यन्तं ज्ञातव्यम् । स्वशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणनिश्चयरत्नत्रयविलक्षणैस्तीवमिथ्यात्वदर्शनज्ञानचारित्रैः परिणतानामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियसरठपक्षिससिंहस्त्रीणां क्रमेण रत्नप्रभादिषु षट्पथिवीषु गमनशक्तिरस्ति सप्तम्यां तु कर्मभूमिजमनुष्याणां मत्स्यानामेव । किञ्च यदि कोऽपि निरन्तरं नरके गच्छति तदा पृथिवीक्रमेणाष्टसप्तषट्पञ्चचतुस्त्रिद्विसंख्यवारानेव । किन्तु सप्तमनरकादागताः पुनरप्येकवारं तत्रान्यत्र वा नरके गच्छन्तीति नियमः । नरकादागता जीवा बलदेववासुदेवप्रतिवासुदेवचक्रवतिसंज्ञाः शलाकापुरुषाः न भवन्ति । चतुर्थपञ्चमषष्ठसप्तमनरकेभ्यः समागताः क्रमेण तीर्थकरचरमदेहभावसंयतश्रावका न भवन्ति । तर्हि किं भवन्ति ? “णिरयादो णिस्सरदो णरतिरिएकम्मसण्णिपज्जत्तो। गव्वभवे उप्पज्जदि सत्तमणिरयादु तिरिएव । १।"॥ इदानीं नारकदुःखानि कथ्यन्ते। तद्यथा--विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजपरमात्मतत्त्व ऊपरके नरकमें जो उत्कृष्ट उत्सेध है उससे कुछ अधिक नीचेके नरक में जघन्य उत्सेध होता है। इसी प्रकार पटलोंमें भी जानना चाहिये। अब नारकोंके आयुका प्रमाण वर्णन करते हैं। प्रथम पृथिवीके प्रथम पटलमें जघन्यतासे दश हजार वर्षकी आयु है, उसके पश्चात् आगममें कही हुई क्रमानुसार वृद्धिसे अन्तका जो तेरहवाँ पटल है उसमें सर्वोत्कृष्टतासे एक सागर प्रमाण आय है। इसके अनन्तर क्रमसे दूसरी पृथिवीमें तीन सागर, तीसरीमें सात सागर, चौथी में दश सागर, पाँचवीमें सत्रह सागर, छठीमें बाईस सागर और सातवीमें तैंतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है। जो प्रथम पृथिवीमें उत्कृष्ट आयु है, वह दूसरीमें कुछ समय अधिक जघन्य आयु है । एवमेव जो प्रथम पटलमें उत्कृष्ट आयु है सो दूसरे में समयाधिक जघन्य है । ऐसे सप्तम पृथिवीतक जानना चाहिये। निजशुद्ध आत्माके ज्ञानरूप लक्षणका धारक जो निश्चयरत्नत्रय है उससे विलक्षण जो तीव्र मिथ्यादर्शन, ज्ञान और चारित्र है इनसे परिणत असंज्ञी पंचेन्द्रिय सरठ, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्री पर्यायके धारक जो जीव हैं उनके क्रमसे रत्नप्रभादि षट पथिवियोंमें गमन करनेकी शक्ति है अर्थात् असंज्ञी पंचेन्द्रिय प्रथम भूमिमें, सरठ दूसरीमें, पक्षी तीसरीमें, सर्प चौथीमें, सिंह पाँचवीं में तथा स्त्रीका जीव छठी भूमिमें जाकर नारक हो सकता है और सातवीं पृथिवीमें कर्मभूमिके उत्पन्न हुए मनुष्य और मगरमच्छ ही जा सकते हैं। और भी विशेष यह है कि यदि कोई जीव निरन्तर नरकमें जाता है तो प्रथम पृथिवीमें क्रमसे आठ बार, दूसरीमें सात बार, तीसरीमें छ: बार, चौथीमें पाँच बार, पाँचवीमें चार बार, छटीमें तीन बा और सातवीमें दो बार ही जाता है। और सातवें नरकसे आये हुए जीव फिर भी एक बार उसी वा अन्य किसी नरकमें जाते हैं, यह नियम है । सातवें नरकसे आये हुए जोव बलदेव, नारायण, प्रतिनारायण और चक्रवतिसंज्ञक शलाकापुरुष नहीं होते । और चौथे नरकसे आये हुए तीर्थंकर, पाँचवेसे आये हुए चरमशरीरी, छठेसे आये हुए भावलिंगी मुनि और सातवेंसे आये हुए श्रावक नहीं होते हैं । तो क्या होते हैं ? सो कहते हैं--"नरकसे आये हुए जीव मनुष्य, तिर्यंच, कर्मभूमिमें संज्ञीपर्याप्त तथा गर्भज होते हैं और सातवें नरकसे आये हुए तिर्यग् गतिमें ही उत्पन्न होते हैं।" अब नारक जीवोंके दुःखोंका कथन करते है। वह इस प्रकार है-विशुद्ध ज्ञान तथा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार सम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानभावनोत्पन्न निर्विकार परमानन्दैकलक्षणसुखामृत रसास्वादरहितैः पञ्चेन्द्रियविषयसुखास्वादलम्पटैमिथ्यादृष्टिजीवैर्यदुपार्जितं नरकायुर्न रकगत्यादिपापकर्म तदुदयेन नरके समुत्पद्य पृथिवीचतुष्टये तीव्रोष्णदुःखं पञ्चम्यां पुनरुपरितनत्रिभागे तीव्रोष्णदुःखमधोभागे तीव्रशीतदुःखं, षष्ठीसप्तम्योरतिशीतोत्पन्न दुःखमनुभवन्ति । तथैव छेदनभेदनक्रकच विदारणयन्त्रपीडनशूला रोहणादितीव्रदुःखं सहन्ते । तथा चोक्तं - "अच्छिणिमोलणमित्तं णत्थि सुहं दुःखमेव अणुबद्ध । णिरये रयियाणं अहोणिसं पञ्चमाणानं । १ । प्रथमपृथिवीत्रय पर्यन्तमासुरोदीरितं चेति । एवं ज्ञात्वा नारकदुःखविनाशार्थं भेदाभेदरत्नत्रय भावना कर्त्तव्या । संक्षेपेणाधोलोकव्याख्यानं ज्ञातव्यम् ॥ ९४ अतः परं तियंगुलोकः कथ्यते -- जम्बूद्वीपादिशुभनामानो द्वीपाः, लवणोदादिशुभनामानः समुद्राश्च द्विगुणद्विगुणविस्तारेण पूर्वं पूर्व परिवेष्ट्घ वृत्ताकाराः स्वयम्भूरमणपर्यन्तास्तिर्यग्विस्तारेण विस्तीर्णास्तिष्ठन्ति यतस्तेन कारणेन तिर्यग्लोको भण्यते, मध्यलोकञ्च । तद्यथा - तेषु सार्द्धतृतीयोद्धारसागरोपमलोमच्छेदप्रमितेष्वसंख्यातद्वीपसमुद्रेषु मध्ये जम्बूद्वीप स्तिष्ठति । स च जम्बूवृक्षोपलक्षितो मध्यभागस्थित मेरुपर्वतसहितो वृत्ताकारलक्षयोजनप्रमाणस्तदृद्विगुणविष्कम्भेण योजनलक्षद्वयप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे लवणसमुद्रेण वेष्ठितः । सोऽपि लवणसमुद्रस्तदृद्विगुण दर्शनरूप स्वभावका धारक जो निजशुद्ध परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरणकी भावनासे उत्पन्न जो विकाररहित परम आनंदमय सुखरूपी अमृत उसके आस्वादसे रहित और पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके सेवनमें लम्पट ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवोंने जो नरक आयु तथा नरक गति आदि रूप पाप कर्म उपार्जन किया उसके उदयसे वे नरकमें उत्पन्न होते हैं । वहाँपर पहलेकी जो चार पृथिवियाँ हैं उनमें तीव्र उष्णता (गर्मी) का दुःख, और पाँचवीं पृथिवीमें ऊपर के त्रिभाग में अर्थात् पंचम पृथिवीके पहले तीसरे हिस्से में तीव्र उष्णताका दुःख और नीचेके दो त्रिभाग हैं उनमें तीव्र शीत ( ठंड वा जाड़े ) का दुःख तथा छुट्टी और सातवीं पृथिवीमें अत्यन्त शीतसे उत्पन्न हुए दुःखका अनुभव करते हैं । और इसी प्रकार छेदने, भेदने, करोतीसे चीरने, घानीमें पेरने और शूली पर चढ़ाने आदिरूप तीव्र दुःखको सहन करते हैं । सो ही कहा है कि "नरक में रातदिन दुःखरूप अग्निमें पचते हुए नारकोंके नेत्रोंके टिमकार मात्र भी सुख नहीं है, किन्तु सदा दुःख ही लगा रहता है । १ ।" और पहली तीन पृथिवियोंतक असुरकुमार जातिके देवोंसे प्रकट किये हुए दुःखको भी सहते हैं । ऐसा जानकर, नरकसम्बन्धी दुःखके नाशके लिये भेद तथा अभेद रूप जो रत्नत्रय है उसकी भावना करनी चाहिये। ऐसे संक्षेप रीति से अधोलोकका व्याख्यान समाप्त हुआ । अब इसके अनंतर तिर्यग् लोक अर्थात् मध्यलोकका वर्णन करते हैं | अपने दूने दू विस्तार से पूर्वपूर्व द्वीपको समुद्र और समुद्रको द्वीप इस क्रमसे बेढ़ करके, गोल आकारवाले जंबूद्वीप आदि शुभ नामोंके धारक द्वीप और लवणोद आदि शुभ नामोंके धारक समुद्र, स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त तिर्यक् विस्तारसे विस्तृत होकर ( फैल कर ) स्थित हैं; इस कारणसे इसको तिर्यक् लोक कहते हैं और मध्यलोक भी कहते हैं । वह इस प्रकार हैसाढेतीन उद्धार सागर समान लोमोंके टुकड़ोके बराबर जो असंख्यात द्वीप समुद्रके मध्य ( बीच ) में जंबू द्वीप स्थित है वह जंबू ( जामुन ) के वृक्षसे चिह्नित तथा मध्य भाग में स्थित जो मेरु है उससे सहित है । तथा गोलाकार लाख योजनप्रमाण है । और गोलाकार दो लाख Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः विस्तारेण योजनलक्षचतुष्टयप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे धातकीखण्डद्वोपेन वेष्टितः । सोऽपि धातकीखण्डद्वीपस्तद्विगुणविस्तारेण योजनाष्टलक्षप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे कालोदकसमुद्रेण वेष्टितः । सोऽपि कालोदकसमुद्रस्तद्विगुणविस्तारेण षोडशयोजनलक्षप्रमाणेन वृत्ताकारेण बहिर्भागे पुष्करद्वीपेन वेष्टितः। इत्यादिद्विगुणद्विगुणविष्कम्भः स्वयम्भूरमणद्वीपस्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्तो ज्ञातव्यः। यथा जम्बूद्वीपलवणसमुद्रविष्कम्भद्वयसमुदयाद्योजनलक्षत्रयप्रमितात्सकाशाद्धातकीखण्ड एकलक्षणाधिकस्तथैवासंख्येयद्वीपसमुद्र विष्कम्भभ्यः स्वयम्भूरमणसमुद्रविष्कम्भ एकलक्षणाधिको ज्ञातव्यः । एवमुक्तलक्षणेष्वसंख्येयद्वीपसमुद्रेषु व्यन्तरदेवानां पर्वताद्युपरिगता आवासाः, अधोभूभागगतानि भवनानि, तथैव द्वीपसमुद्रादिगतानि पुराणि च, परमागमोक्तभिन्नलक्षणानि । तथैव खरभागपङ्कभागस्थितप्रतरासंख्येयप्रमाणासंख्येयव्यन्तरदेवावासाः, तथैव द्वासप्ततिलक्षाधिककोदिसप्तप्रमितभवनवासिदेवसंबन्धिभवनान्यकृत्रिमजिनचैत्यालयसहितानि भवन्ति । एवमतिसंक्षेपेण तिर्यग्लोको व्याख्यातः॥ ___अथ तिर्यग्लोकमध्यस्थितो मनुष्यलोको व्याख्यायते तन्मध्यस्थितजम्बूद्वीपे सप्तक्षेत्राणि भण्यन्ते । दक्षिणदिग्विभागादारभ्य भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतसंज्ञानि सप्तक्षेत्राणि भवन्ति । क्षेत्राणि कोऽर्थः ? वर्षा वंशा देशा जनपदा इत्यर्थः । तेषां क्षेत्राणां विभागकारकाः षट् योजनप्रमाण अपनेसे दूने विष्कंभ ( परिधि ) का धारक जो बाह्य भागमें लवण समुद्र है उससे वेष्टित ( बेढ़ा हुआ ) है । वह लवण समुद्र भी अपने विस्तारसे दूने विस्तारवाला जो चार लाख योजन प्रमाण गोलाकार बाह्य भागमें धातकी खंड नामक द्वीप है उससे वेष्टित है। वह धातकी खंड द्वीप भी अपनेसे दूने विस्ताररूप आठ लाख योजन प्रमाण जो बाह्य भागमें कालोदक समुद्र है उससे वेष्टित है। वह कालोदक समुद्र भी अपने दूने विस्ताररूप सोलह लाख योजनप्रमाण गोलाकार बाह्य भागमें जो पुष्कर द्वीप है उससे वेष्टित है। इसको आदि ले, यह दूना-दूना विष्कंभ स्वयंभूरमण द्वीप तथा स्वयंभरमण समद्रपर्यन्त जानना चाहिये । और जैसे जंबूद्वीपका विष्कंभ एक लाख योजन, लवण समुद्रका विष्कंभ दो लाख योजन, इन दोनोंके समुदायरूप जो तीन लाख योजन प्रमाण है, उससे धातकी खंड एक लाख योजन अधिक अर्थात् चार लाख योजन है। इसी प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रोंका जो विष्कंभ है उससे एक लाख योजन अधिक स्वयंभूरमण समुद्रका विष्कंभ जानने योग्य है। ऐसे पूर्वोक्त लक्षणके धारक असंख्यात द्वीप समुद्रोंमें व्यन्तर देवोंके पर्वत आदिके ऊपर प्राप्त आवास ( स्थान ), अधोभूभाग (नीचेकी पृथिवीके भाग) में प्राप्त भवन और द्वीप तथा समुद्र आदिमें मिले हुए पुर हैं। ये आवास, भवन तथा पुर परमागममें कहे हुए जो भिन्न-भिन्न लक्षण हैं, उनके धारक हैं। और इसी प्रकार रत्नप्रभा भूमिके खर भाग और पंक भागमें स्थित प्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण संख्यात व्यन्तर देवोंके आवास हैं और सात करोड़ बहत्तर लाख ज्याके धारक भवनवासी देवों सम्बन्धी भवन हैं वे सब अकृत्रिम जिन चैत्यालयोंसहित हैं । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेपसे तिर्यग् लोक (मध्यलोक) का व्याख्यान किया गया। __ अब तिर्यग् लोक ( मध्यलोक ) के मध्यमें स्थित जो मनुष्य लोक ( ढाई द्वीप ) है उसका व्याख्यान करते हैं। उसमें प्रथम ही तिर्यग लोकके बीच में स्थित जो जंबूद्वीप है उसमें जो सात क्षेत्र हैं उनका कथन करते हैं । दक्षिण दिशाके भागसे आरम्भित होकर भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत इन नामोंके धारक सात क्षेत्र हैं। यहाँ क्षेत्र शब्दसे वर्ष, वंश, देश Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार कुलपर्वताः कथ्यन्ते-दक्षिणदिग्भागमादीकृत्य हिमवन्महाहिमवनिषधनीलरुक्मिशिखरिसंज्ञा भरतादिसप्तक्षेत्राणामन्तरेषु पूर्वापरायताः षट् कुलपर्वताः भवन्ति । पर्वता इति कोऽर्थः ? वर्षधरपर्वताः सीमापर्वता इत्यर्थः। तेषां पर्वतानामुपरि क्रमेण ह्रदा कथ्यन्ते। पद्ममहापद्मतिगिच्छकेसरिमहापुण्डरीकपुण्डरीकसंज्ञा अकृत्रिमा षट् ह्रदा भवन्ति । ह्रदा इति कोऽर्थः ? सरोवराणीत्यर्थः। तेभ्यः पद्मादिषहदेभ्यः सकाशादागमकथितक्रमेण निर्गता याश्चतुर्दश महानद्यस्ताः कथ्यन्ते । तथाहि - हिमवत्पर्वतस्थपद्मनाममहाहदादर्धकोशावगाहक्रोशार्धाधिकषट्योजनप्रमाणविस्तारपूर्वतोरणद्वारेण निर्गत्य तत्पर्वतस्यैवोपरि पूर्वदिग्विभागेन योजनशतपञ्चकं गच्छति ततो गङ्गाकूटसमीपे दक्षिणेन व्यावृत्य भूमिस्थकुण्डे पतति तस्माद् दक्षिणद्वारेण निर्गत्य भरतक्षेत्रमध्यमभागस्थितस्य दीर्घत्वेन पूर्वापरसमुद्रस्पशिनो विजयार्द्धस्य गुहाद्वारेण निर्गत्य तत आर्यखण्डार्द्धभागे पूर्वेण व्यावृत्य प्रथमावगाहापेक्षया दशगुणेन गव्यूतिपञ्चकावगाहेन तथैव प्रथमविष्कम्भापेक्षया दशगुणेन योजनार्द्धसंहितद्विषष्टियोजनप्रमाणविस्तारेण च पूर्वसमुद्रे प्रविष्टा गङ्गा । तथा गङ्गावसिन्धुरपि तस्मादेव हिमवत्पर्वतस्थपद्मदात्पर्वतस्यैवोपरि पश्चिमद्वारेण निर्गत्य पश्चाद्दक्षिणदिग्विभागेनागत्य विजया गुहाद्वारेण निर्गत्यार्यखण्डा भागे पश्चिमेन व्यावृत्य पश्चिमसमुद्रे प्रविष्टेति । एवं दक्षिणदिग्विभागसमागतगङ्गासिन्धुभ्यां पूर्वापरायतेन विजया पर्वतेन च षट्खण्डीकृतं भरतक्षेत्रम् । अथवा जनपद अर्थका ग्रहण है। उन क्षेत्रोंको भिन्न-भिन्न करनेवाले जो छः कुलपर्वत (कुलाचल) हैं उनके नाम कहते हैं-दक्षिण दिशाके भागको आदि लेकर हिमवत् १ महाहिमवत् २ निषध ३ नील ४ रुक्मी ५ और शिखरी ६, इन नामोंके धारक, पूर्व पश्चिम लंबे कुलपर्वत उन भरत आदि सप्त क्षेत्रोंके बीच में हैं। पर्वत इसका अर्थ वर्षधरपर्वत अथवा सीमापर्वत है। उन पर्वतोंके ऊपर क्रमसे जो ह्रद हैं वे कहे जाते हैं-पद्म १ महापद्म २ तिगिछ ३ केसरी ४ महापुंडरीक ५ और पुंडरीक ६ इन नामोंवाले अकृत्रिम षट् हद हैं। ह्रदका अर्थ सरोवर है। अब उन पद्म आदि ६ ह्रदोंसे आगममें कहे हुए क्रमके अनुसार जो चौदह महानदियाँ निकली हैं उनका वर्णन करते हैं। वे इस प्रकार हैं-हिमवत् पर्वतपर स्थित जो पद्मनामक महाह्रद है उससे अर्ध कोस प्रमाण गहराई और साढ़े छः योजन प्रमाण चौड़ाईको धारक गंगा नामक नदी पूर्वतोरण द्वारसे निकलकर, उसी हिमवत् पर्वतके ऊपर पूर्व दिशामें पाँचसौ योजनतक जातो है; फिर वहाँसे गंगाकूटके पास दक्षिण दिशाको मुड़कर, भूमिमें स्थित जो कुण्ड है उसमें वह गंगा गिरती है, वहाँसे दक्षिण द्वार ( दरवाजे ) से निकलकर, भरत क्षेत्रके मध्यभागमें स्थित जो लंबाईसे पूर्व पश्चिम समुद्रको स्पर्शित करनेवाला विजयार्द्ध पर्वत है उसकी गुहाके द्वारसे निकलकर, वहाँसे आर्यखण्डके अर्धभागमें पूर्वसे लौटकर, प्रथम अवगाहकी अपेक्षा दशगुणी अर्थात् ५ गव्यूति ( कोस ) की गहराई और इसी प्रकार प्रथमके विष्कंभसे दशगुण जो साढ़े बासठ योजन प्रमाण विस्तार है उस सहित गंगानदी पूर्व समुद्रमें प्रवेश करती है। और इस गंगाको भाँति सिन्धुनामक महानदी भी उसी हिमवत्पर्वतपर विद्यमान पद्मह्रदके पश्चिमद्वारसे निकलकर, पर्वतपर ही गमन करके फिर दक्षिण दिशाको आकर, विजया - की गुहाके द्वारसे निकलकर, पश्चिमको मुड़कर, आर्यखंडके अर्द्धभागमें आकर, पश्चिम समुद्र में प्रवेश करती है । इस प्रकार दक्षिण दिशाको आयी हुई जो गंगा और सिंधु नामक दो नदियाँ हैं, इनसे और पूर्व तथा पश्चिमके समुद्रतक लम्बा जो विजयार्द्ध पर्वत है उससे षट् खण्ड (छ: विभागोंमें बटा) हुआ भरत क्षेत्र है ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः अथ महाहिमवत्पर्वतस्थमहापद्महदाइक्षिणदिग्विभागेन हैमवतक्षेत्रमध्ये समागत्य तत्रस्थनाभिगिरिपर्वतं योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्धे प्रदक्षिणं कृत्वा रोहित्पूर्वसमुद्र गता। तथैव हिमवत्पर्वतस्थितपग्रहदादुत्तरेणागत्य तमेव नाभिगिरि योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्द्धप्रदक्षिणं कृत्वा रोहितास्या पश्चिमसमुद्रं गता। इति रोहिद्रोहितास्यासंगं नदीद्वन्द्वं हैमवतसंज्ञजघन्यभोगभूमिक्षेत्रे ज्ञातव्यम्। अथ निषधपर्वतस्थिततिगिञ्छनामहूदाद्दक्षिणेनागत्य नाभिगिरिपर्वतं योजनार्धनास्पृशन्ती तस्यैवार्धप्रदक्षिणं कृत्वा हरित्पूर्वसमुद्रं गता। तथैव महाहिमवत्पर्वतस्थमहापद्मनामहदादुत्तरदिग्विभागेनागत्य तमेव नाभिगिरि योजनार्धनास्पृशन्तो तस्यैवार्धप्रदक्षिणं कृत्वा हरिकान्ता नाम नदी पश्चिमसमुद्रं गता। इति हरिरिकान्तासंज्ञं नदीद्वयं हरिसंज्ञमध्यमभोगभूमिक्षेत्रे विज्ञेयम् । अथ नीलपर्वतस्थितकेसरिनामहदाद्दक्षिणेनागत्योत्तरकुरुसंज्ञोत्कृष्टभूमिक्षेत्रे मध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदन्तपर्वतं नित्त्वा च प्रदक्षिणेन योजनार्धन मेरुं विहाय पूर्वभद्रशालवनस्य मध्येन पूर्वविदेहस्य च मध्ये शोतानामनदी पूर्वसमुद्रं गता। तथैव निषधपर्वतस्थिततिगिञ्छहदादुत्तरदिग्विभागेनागत्य देवकुरुसंज्ञोत्तमभोगभूमिक्षेत्रमध्येन गत्वा मेरुसमीपे गजदन्तपर्वतं भित्त्वा च प्रदक्षिणेनायोजनार्धन मेरुं विहाय पश्चिमभद्रशालवनस्य मध्येन पश्चिमविदेहस्य च मध्येन शीतोदा पश्चिमसमुद्रं गता। एवं शीताशीतोदासंज्ञं नदीद्वयं विदेहाभिधाने कर्मभूमिक्षेत्रे ज्ञातव्यम् । यत्पूर्व गङ्गासिन्धुनदीद्वयस्य विस्तारावगाहप्रमाणं भणितं तदेव क्षेत्रे अब पूर्वकथनके पश्चात् वर्णन करते हैं-महाहिमवत् पर्वतपर स्थित जो महापद्मनामा ह्रद है, वहाँसे चलकर, दक्षिण दिशाकी ओरसे हैमवत क्षेत्रके मध्यमें आकर, वहाँपर स्थित जो नाभिगिरि नामक पर्वत है, उसको आधे योजनतक स्पर्श करती हुई, उसी पर्वतकी आधी प्रदक्षिणा करती हुई रोहित् नामा नदी पूर्वसमुद्रको गई है। और इसी प्रकार रोहितास्या नामा जो नदी है वह हिमवत् पर्वतके पद्महदसे उत्तरको आकर, उसी नाभिगिरिको अर्ध योजनपर्यन्त स्पर्श करती हुई, उसी पर्वतकी आधी प्रदक्षिणा करके पश्चिम समुद्रमें गई है। ऐसे रोहित और रोहितास्या नामकी धारक दो नदियाँ हैमवत नामक जो जघन्य भोगभूमिका क्षेत्र है उसमें जाननी चाहिये। और हरित नामा नदी निषध पर्वतके तिगिछहदसे दक्षिणको आकर, आधे योजनतक नाभिगिरि पर्वतको छूती हुई उसी पर्वतकी आधी प्रदक्षिणा करके पूर्वसमुद्र में गई है। एवमेव हरिकान्ता नामा नदो महाहिमवत् पर्वतके महापद्म नामक ह्रदसे उत्तर दिशाकी ओर आकर, उसी नाभिगिरिको आधे योजनतक स्पर्शती हुई उसकी अर्ध प्रदक्षिणा देकर, पश्चिम समुद्रमें गई है। ऐसे हरित् और हरिकान्ता नामक दो नदियाँ हरि नामका धारक जो मध्यम भोगभूमिका क्षेत्र है उसमें जाननी चाहिये । अब शीता नामा नदी नील पर्वतके केसरी नामा ह्रदसे दक्षिणको आकर, उत्तरकुरु नामक उत्कृष्ट भोगभूमिक्षेत्रके बीच में होकर, मेरुके पास जाकर, गजदंत पर्वतको भेदकर और आधे योजन पर्यन्त प्रदक्षिणासे मेरुको छोड़कर, पूर्व भद्रशालवन और पूर्व विदेहके मध्यमें होकर, पूर्व समुद्रको गई है। इसी प्रकार शीतोदा नामा नदी निषधपर्वतपर विद्यमान जो तिगिंछह्रद है, वहाँसे उत्तरको आकर, देवकुरु संज्ञक उत्तम भोगभूमि क्षेत्रके बीचमेंसे जाकर मेरुके पास गजदन्तपर्वतको भेदकर और आधे योजन प्रदक्षिणासे मेरुको छोड़कर, पश्चिम भद्रशालवनके और पश्चिमविदेहके मध्यमें गमन करके, पश्चिम समुद्रको गई है। ऐसे शीता और शीतोदा नामक नदियोंका युगल विदेहनामक कर्मभूमिके क्षेत्रमें जानना Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार क्षेत्रे नदीयुगलं प्रति विदेहपर्यन्तं द्विगुणं द्विगुणं ज्ञातव्यम् । अथ गङ्गा चतुर्दशसहस्र परिवारनदीसहिता, सिन्धुरपि तथा तद्विगुणसंख्यानं रोहिद्रोहितास्याद्वयम्, ततोऽपि द्विगुणसंख्यानं हरिद्धरिकान्ताद्वयमिति । तथा षड्विंशत्यधिकयोजनशतपञ्चकमे कोनविंशतिभागीकृत कयोजनस्य भागषट्कं च यद्दक्षिणोत्तरेण कर्मभूमिसंज्ञभरत क्षेत्रस्य विष्कम्भप्रमाणं तद्विगुणं हिमवत्पर्वते, तस्माद द्विगुणं हैमवतक्षेत्रे, इत्यादि द्विगुणं द्विगुणं विदेहपर्यन्तं ज्ञातव्यम् । तथा पद्महृदो योजनसहस्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो दशयोजनावगाहो योजनैकप्रमाणपद्मविष्कम्भस्तस्मान्महापद्म द्विगुणस्तस्मादपि तिमिञ्छे द्विगुण इति ॥ अथ यथा भरते हिमवत्पर्वतान्निर्गतं गङ्गासिन्धुद्वयं तथोत्तरे कर्मभूमिसंज्ञैरावतक्षेत्रे शिखरि - पर्वतान्निर्गतं रक्तारक्तोदानदीद्वयम् । यथा च हैमवतसंज्ञे जघन्यभोगभूमिक्षेत्रे महाहिमवद्धिमवन्नामपर्वतद्वयात्क्रमेण निर्गतं रोहित्रोहितास्यानदोद्वयं तथोत्तरे हैरण्यवतसंज्ञजघन्यभोगभूमिक्षेत्रे शिखरिरुक्मिसंज्ञपर्वतद्वयात्क्रमेण निर्गतं सुवर्णकुलारूप्यकूलानदीद्वयम् । तथैव यथा हरिसंज्ञमध्यमभोगभूमिक्षेत्रे निषधमहाहिमवन्नामपर्वतद्वयात्क्रमेण निर्गतं हरिद्धरिकान्तानदीद्वयं तथोत्तरे रम्यकसंज्ञमध्यमभोगभूमिक्षेत्रे रुक्मिनीलनामपर्वतद्वयात्क्रमेण निर्गतं नारीनरकान्तानदीद्वयमिति विज्ञेयम् । सुषमसुषमादिषट्काल संबन्धिपरमागमोक्तायुरुत्सेधादिसहिता दशसागरोपमकोटिचाहिये || जो विस्तार और अवगाहका प्रमाण पहले गंगा और सिंधु नामक दो नदियों का कहा है, उससे दूना-दूना प्रत्येक क्षेत्रमें जो नदियोंका युगल है, उसका विस्तार जानना चाहिये । अब गंगा चौदह हजार परिवारकी नदियोंसहित है। सिंधु भी चौदह हजार परिवार नदियोंकी धारक है । इनसे दूने अर्थात् अट्ठाईस हजार संख्या प्रमाण परिवारकी धारक रोहित तथा रोहितास्याको समझना चाहिये और हरित् हरिकान्ता ये दो नदियाँ इनसे भी दूने परिवारकी धारक हैं । और पाँचसो छब्बीस योजन तथा एक योजनके उन्नीस भागों में से ६ भाग प्रमाण दक्षिण और उत्तरसे कर्मभूमि संज्ञक भरतक्षेत्रके विष्कभका प्रमाण है । उससे दूना हिमवत्पर्वतमें, हिमवत् पर्वत से दूना हैमवत क्षेत्र में ऐसे उत्तरोत्तर दूना-दूना विष्कंभ विदेह क्षेत्रपर्यन्त जानना चाहिये । और पद्महृद जो एक हजार योजन लम्बा, पाँचसौ योजन चौड़ा तथा दश योजन गहरा है और जो उसमें एक योजन प्रमाण विष्कंभका धारक कमल है, उससे दूना महापद्महृदमें और उससे दूना तिगिछहृद में जानना चाहिये || अब जैसे भरतक्षेत्र में हिमवत् पर्वतसे गंगा तथा सिंधु ये दो नदियाँ निकली हैं वैसे ही उत्तर दिशा में कर्मभूमि संज्ञक जो ऐरावत क्षेत्र है उसमें शिखरी पर्वतसे निकली हुई रक्ता तथा रक्तोदा नामक दो नदियाँ हैं । और जैसे हैमवत नामक जघन्य भोगभूमिके क्षेत्रमें महाहिमवत् और हिमवत् नामक दो पर्वतोंसे क्रमानुसार रोहित तथा रोहितास्या ये दो नदियाँ निकली हैं, इसी प्रकार उत्तर में हैरण्यवत संज्ञक जो जघन्य भोगभूमि क्षेत्र है उसमें शिखरी और रुक्मी नामक दो पर्वतोंसे क्रमानुसार सुवर्णकूला तथा रूप्यकूला ये दो नदियाँ निकली हैं । इसी प्रकार हरिसंज्ञक मध्यम भोगभूमि क्षेत्र में निषध और महाहिमवत् नामक दो पर्वतोंसे जैसे क्रमानुसार हरित तथा हरिकान्ता ये दो नदियाँ निकली हैं, उसी प्रकार उत्तरमें रम्यक नामा मध्यम भोगभूमिके क्षेत्र में रुक्मी और नीलसंज्ञक दो पर्वतोंसे नारी तथा नरकान्ता इन दो नदियोंको क्रमानुसार निकली हुई जानना चाहिये | सुषमसुषमा आदि छहों कालों सम्बन्धी जो परमागममें कहे हुए आयु तथा I Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ९९ कोटि प्रमितावसर्पिणी तथोत्सर्पिणी च यथा भरते वत्तंते तथैवैरावते च । अयन्तु विशेषः, भरतम्लेच्छखण्डेषु विजयार्धनगेषु च चतुर्थकालसमयाद्यन्ततुल्य कालोऽस्ति नापरः । किं बहुना यथा खवाया एकभागे ज्ञाते द्वितीयभागस्तथैव ज्ञायते तथैव जम्बूद्वीपस्थ क्षेत्रपर्वतनदीहदादीनां यदेव दक्षिणविभागे व्याख्यानं तदुत्तरेऽपि विज्ञेयम् । अथ देहममत्वमूलभूतमिथ्यात्व रागादिविभावरहिते केवलज्ञानदर्शनसुखाद्यनन्तगुणसहिते च निजपरमात्मद्रव्ये यया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभावनया कृत्वा विगतदेहा देहरहिताः सन्तो मुनयः प्राचुर्येण यत्र मोक्षं गच्छन्ति स विदेहो भण्यते । तस्य जम्बूद्वीपस्य मध्यमवत्तनः किमपि विवरणं क्रियते । तद्यथा - नवनवतिसहस्रयोजनोत्सेध एकसहस्रावगाह आंदो भूमितले दशयोजन सहस्रप्रवृत्तविस्तार उपर्युपरि पुनरेकादशांशहानिक्रमेण हीयमानत्वे सति मस्तके योजनसहस्रविस्तार आगमोक्त कृत्रिम चैत्यालयदेववन देवावासाद्यागमकथिताने काश्चर्यसहितो विदेहक्षेत्रमध्ये महामेरुर्नाम पर्वतोऽस्ति । स च गजो जातस्तस्मान्मेरुगजात्सकाशादुत्तरमुखे दन्तद्वयाकारेण यन्निर्गतं पर्वतद्वयं तस्य गजदन्तद्वयसंज्ञेति, तथोत्तरे भागे नीलपर्वते लग्नं तिष्ठति । तयोर्मध्ये यत्त्रिकोणाकारक्षेत्रमुत्तमभोगभूमिरूपं तस्योत्तरकुरुसंज्ञा । तस्य च मध्ये मेरोरीशानदिग्विभागे शोतानीलपर्वतयोर्मध्ये परमागमवणतानाद्य कृत्रिमपार्थिवो जम्बूवृक्षस्तिष्ठति । तस्या एव शीताया उभयतटे यमलगिरिसंज्ञं उत्सेध आदि हैं उनसहित दशकोटाकोटि सागर प्रमाण अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी काल जैसे भरत में है वैसे ही ऐरावत में भी है। और यह विशेष है कि भरतके म्लेच्छखंडों में और विजयार्धं पर्वतों में चतुर्थकालकी आदि तथा अन्तके समान काल है, इस सिवाय दूसरा नहीं । विशेष क्या कहैं -- जैसे खट्वा (खाट) का एक भाग जान लिया जावै तो उसका दूसरा भाग भी उसी प्रकार समझ लिया जाता है; इसी प्रकार जंबूद्वीपके क्षेत्र, नदी, पर्वत और हृद आदिका जो दक्षिणदिशा संबंधी व्याख्यान है वही उत्तरदिशा में भी जानना चाहिये || अब शरीरमें ममत्वके कारणभूत जो मिथ्यात्व तथा राग आदि विभाव हैं उनसे रहित और केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अनन्त सुख आदि अनन्त गुणोंसे सहित जो निज परमात्मद्रव्य है, उसमें जिस सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप भावना करके मुनिजन विगतदेह अर्थात् देहरहित होकर अधिकतासे मोक्षको गमन करते हैं उसको विदेह कहते हैं । इसलिये जंबूद्वीप मध्य में वर्तमान जो विदेह क्षेत्र है उसका विस्तारसे वर्णन करते हैं । वह इस प्रकार हैंनिन्यानवे हजार योजन ऊँचा, एक हजार योजन गहरा और प्रथम भूमितल में दशहजार योजन प्रमाण गोल विस्तारका धारक तथा ऊपर ऊपर एकादशांश (ग्यारहवें हिस्से ) हानि क्रमसे घटते घटते होनेपर मस्तक (शिखर) पर एक हजार योजन विस्तारका धारक और शास्त्र में कहे हुए अकृत्रिम चैत्यालय, देव, वन तथा देवोंके स्थान आदि नाना प्रकार के आश्चर्योंसहित ऐसा विदेह क्षेत्र में महामेरुनामक पर्वत है । वही मानों गज (हाथी) हो गया । अतः उस मेरुरूप गंज से उत्तर दिशा में दो दन्तोंके आकारसे जो दो पर्वत निकले हुए हैं, उनकी 'दो गजदन्त' यह संज्ञा है । और वे दोनों उत्तर भाग में जो नील पर्वत है उसमें लगे हुए हैं । उन दोनों गजदन्तोंके मध्यमें जो त्रिकोण आकारवाला ( तिकोना ) उत्तम भोगभूमिरूप क्षेत्र है, उसका 'उत्तरकुरु' यह नाम है । और उसके मध्य में मेरुकी ईशान दिशा में शीता नदी और नील पर्वतके बीच में परमागममें कहा हुआ अनादि, अकृत्रिम तथा पृथ्वीका विकाररूप जंबू वृक्ष है। उसी शीता नदीके दोनों किनारों Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार पर्वतद्वयं विज्ञेयम् । तस्मात्पर्वतद्वयाद्दक्षिणभागे कियन्तमध्वानं गत्वा शीतानदीमध्ये अन्तरान्तरेण पद्मादिपञ्चकमस्ति । तेषां हृदानामुभयपार्श्वयोः प्रत्येकं सुवर्णरत्नमयजिनगृहमण्डिता लोकानुयोगव्याख्यानेन दश दश सुवर्णपर्वता भवन्ति । तथैव निश्चयव्यवहार रत्नत्रयाराधकोत्तमपात्रपरमभक्तिदत्ताहारदानफले नोत्पन्नानां तिर्यग्मनुष्याणां स्वशुद्धात्मभावनोत्पन्ननिविकारसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादविलक्षणस्य चक्रवत्तिभोगसुखादप्यधिकस्य विविधपञ्चेन्द्रियभोगसुखस्य प्रदायका ज्योतिर्गृहप्रदीप तूर्य भोजनवस्त्रमाल्यभाजनभूषणरागमदोत्पादकरसाङ्गसंज्ञा दशप्रकार कल्पवृक्षाः भोगभूमिक्षेत्रं व्याप्य तिष्ठन्तीत्यादिपरमागमोक्तप्रकारेणानेकाश्चर्याणि ज्ञातव्यानि । तस्मादेव रुजाद्दक्षिण दिग्विभागेन गजदन्तद्वयमध्ये देवकुरुसंज्ञमुत्तमभोगभूमिक्षेत्रमुत्तरकुरुवद्विज्ञेयम् ॥ ܘܘܨ तस्मादेव मेरुपर्वतात्पूर्वस्यां दिशि पूर्वापरेण द्वाविंशतिसहस्रयोजन विष्कम्भं सवेदिकं भद्रशालवनमस्ति । तस्मात्पूर्वदिग्भागे कर्मभूमिसंज्ञः पूर्वविदेहोऽस्ति । तत्र नीलकुलपर्वताद्दक्षिणभागे शीतानद्या उत्तरभागे मेरोः प्रदक्षिणेन यानि क्षेत्राणि तिष्ठन्ति तेषां विभागः कथ्यते । तथाहिमेरोः पूर्वदिशाभागे या पूर्व भद्रशालवनवेदिका तिष्ठति तस्याः पूर्वदिग्भागे प्रथमं क्षेत्रं भवति, तदनन्तरं दक्षिणोत्तरायतो वक्षारनामा पर्वतो भवति, तदनन्तरं क्षेत्रं तिष्ठति, ततोऽप्यनन्तरं विभङ्गा नदी भवति, ततोऽपि क्षेत्रं, तस्मादपि वक्षारपर्वतस्तिष्ठति, ततश्च क्षेत्रं, ततोऽपि विभङ्गानदी, तदनन्तरं क्षेत्रं, ततः परं वक्षारपर्वतोऽस्ति, तदनन्तरं क्षेत्रं, ततो विभङ्गा नदी, ततश्च क्षेत्रं, पर यमगिरि नामक दो पर्वत जानने चाहिये। उन दोनों यमलगिरि पर्वतोंसे दक्षिण दिशा में कितने ही मार्गके चले जानेपर शीता नदीके बीच-बीच में पद्म आदि पाँच ह्रद हैं । उन हृदों के दोनों पार्श्वो (पसवाड़ों) में से प्रत्येक पार्श्व में लोकानुयोगके व्याख्यानके अनुसार सुवर्ण तथा रत्ननिर्मित ऐसे जिनचैत्यालयोंसे भूषित दश दश सुवर्णपर्वत हैं। इसी प्रकार निश्चय तथा व्यवहाररूप रत्नत्रयकी आराधना करनेवाले जो उत्तम पात्र हैं, उनको परम भक्ति से दिया हुआ जो आहारदान उसके फलसे उत्पन्न ऐसे तिर्यंच और मनुष्योंको निज शुद्ध आत्माकी भावना से उत्पन्न, निर्विकार एवं सदा आनंदरूप सुखामृत रसके आस्वाद से विलक्षण और चक्रवर्तीके जो भोगसुख हैं उनसे भी अधिक ऐसे नानाप्रकारके पंचेन्द्रियों संबन्धी भोगसुखोंको देनेवाले ज्योतिरङ्ग, गृहाङ्ग, प्रदीपांग, तूर्यांग, भोजनांग, वस्त्रांग, माल्यांग, भाजनांग, भूषणांग तथा राग एवं मदको उत्पन्न करनेवाले रसांग इन उक्त नामोंके धारक दश प्रकारके कल्पवृक्ष हैं । वे भोगभूमि क्षेत्रको व्याप्त करके स्थित हैं । इत्यादि परमागमकथित प्रकारसे अनेक आश्चर्य समझने चाहिये । और उसी मेरुगज से निकले हुए दक्षिण दिशा में जो 'दो गजदन्त' हैं उनके मध्य में उत्तर कुरुके समान देवकुरु नामक उत्तम भोगभूमिका क्षेत्र जानने योग्य है । उसी मेरुपर्वत से पूर्व दिशा में पूर्व पश्चिमको बाईस हजार योजन विष्कंभका धारक वेदीसहित भद्रशाल वन है । उससे पूर्व दिशा में कर्मभूमि संज्ञक पूर्व विदेह है । वहाँ नील नामक कुलाचलसे दक्षिण दिशा में और शीता नदीके उत्तर भाग में मेरुकी प्रदक्षिणा रूप जो क्षेत्र हैं उनके विभागों का कथन करते हैं । सो इस प्रकार है - मेरुसे पूर्वदिशा के भाग में जो पूर्वभद्रशालवनकी वेदिका स्थित है, उससे पूर्व दिशा के भाग में प्रथम क्षेत्र है, उसके पीछे दक्षिण उत्तर लंबा वक्षार नामक पर्वत है, उसके पीछे क्ष ेत्र है, उसके भो आगे विभंगा नामा नदी है, उससे भी आगे क्षेत्र है, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ततो वक्षारपर्वतस्ततः क्षेत्रं, तदनन्तरं पूर्वसमुद्रसमीपे यद्देवारण्यं तस्य वेदिका चेति नवभित्तिभिरक्षेत्राणि ज्ञातव्यानि। तेषां क्रमेण नामानि कथ्यन्ते-कच्छा १ सुकच्छा २ महाकच्छा ३ कच्छावती ४ आवर्ता ५ लागलावा ६ पुष्कला ७ पुष्कलावती ८ चेति । इदानों क्षेत्रमध्यस्थितनगरीणां नामानि कथ्यन्ते-क्षेमा १ क्षेमपुरी २ रिष्टा ३ रिष्टपुरी ४ खड्गा ५ मञ्जूषा ६ औषधी ७ पुण्डरीकिणी ८ चेति ॥ अत ऊध्वं शोताया दक्षिणविभागे निषधपर्वतादुत्तरविभागे यान्यष्टक्षेत्राणि तानि कथ्यन्ते । तद्यथा-पूर्वोक्ता या देवारण्यवेदिका तस्याः पश्चिमभागे क्षेत्रमस्ति, तदनन्तरं वक्षारपर्वतस्ततः परं क्षेत्रं, ततो विभङ्गा नदी, ततश्च क्षेत्रं, तस्माद्वक्षारपर्वतस्ततश्च क्षेत्रं, ततो विभङ्गा नदी, ततः क्षेत्र, ततो वक्षारपर्वतः, ततः क्षेत्रं, ततो विभङ्गा नदी, तदनन्तरं क्षेत्रं, ततो वक्षारपर्वतस्ततः क्षेत्रं, ततो मेरुदिग्भागे पूर्वभद्रशालवनवेदिका भवतीति नभित्तिमध्येऽष्टौ क्षेत्राणि ज्ञातव्यानि । इदानीं तेषां क्रमेण नामानि कथ्यन्ते-वच्छा १, सुवच्छा २, महावच्छा ३, वच्छावती ४, रम्या ५, रम्यका ६, रमणीया ७, मङ्गलावती ८ चेति । इदानीं तन्मध्यस्थितनगरीणां नामानि कश्यन्तेसुसीमा १, कुण्डला २, अपराजिता ३, प्रभाकरी ४, अङ्का ५, पद्मा ६, शुभा ७, रत्नसंचया ८ चेति, इति पूर्वविदेहक्षेत्रविभागव्याख्यानं समाप्तम् ॥ उस क्षेत्रके अनन्तर भी वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, फिर भी विभंगा नदी है; उसके अनन्तर क्षेत्र है, उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, उससे आगे फिर विभंगा नदी और फिर क्षेत्र है, उससे आगे फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उसके अनन्तर पूर्व समुद्रके पास जो देवारण्य नामक वन है, उसकी वेदिका है। ऐसे नौ भित्तियों (दीवारों) से आठ क्षेत्र जानने चाहिये । उनके क्रमसे नाम कहते हैं-कच्छा १, सुकच्छा २, महाकच्छा ३, कच्छावती ४, आवर्ता ५, लाङ्गलावर्ता ६, पुष्कला ७, और पुष्कलावती ८, ऐसे यह क्रमानुसार आठों क्षेत्रोंके नाम हैं। अब क्षेत्रोंके मध्य में स्थित जो नगरियाँ हैं, उनके नाम कहते हैं। वे क्रमसे ये हैं-क्षेमा १, क्षेमपुरी २, रिष्टा ३, रिष्टपुरी ४, खड्गा ५, मंजूषा ६, औषधी ७, और पुंडरीकिणो ८ ।। इसके आगे शीता नदीसे दक्षिण भागमें निषध पर्वतसे उत्तर भागमें जो आठ क्षेत्र हैं उनको कहते हैं । वे इस प्रकार हैं-पहले कही हुई जो देवारण्यकी वेदी है उसके पश्चिम भागमें क्षेत्र है, तदनन्तर वक्षार पर्वत है, उसके आगे क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके पश्चात् क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, और फिर क्षेत्र है, तत्पश्चात् विभंगा नदी है, फिर क्षेत्र है, पुनः वक्षार पर्वत हैं, फिर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, फिर वक्षार पर्वत है, फिर क्षेत्र है, उससे आगे मेरुकी (उत्तर) दिशाके भागमें पूर्वभद्रशाल वनकी वेदी है। ऐसे नौ भित्तियोंके मध्यमें आठ क्षेत्र जानने योग्य हैं। उन क्षेत्रोंके क्रमसे नाम कहते हैं-वच्छा १, सुवच्छा २, महावच्छा ३, वच्छावती ४, रम्या ५, रम्यका ६, रमणीया ७, और मंगलावती ८। अब उन क्षेत्रों में स्थित जो नगरियाँ हैं उनके नाम कहते हैं-सुसीमा १, कुण्डला २, अपराजिता ३, प्रभाकरी ४, अंका ५, पद्मा ६, शुभा ७, और रत्नसंचया ८। इस प्रकार पूर्वविदेहक्षेत्रके विभागोंका व्याख्यान समाप्त हुआ ।। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२. श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार अथ मेरोः पश्चिमदिग्भागे पूर्वापरद्वाविंशतिसहस्रयोजनविष्कम्भो पश्चिमभद्रशालवनानन्तरं पश्चिमविदेहस्तिष्ठति । तत्र निषधपर्वतादुत्तरविभागे शीतोदानद्या दक्षिणभागे यानि क्षेत्राणि तेषां विभाग उच्यते । तथाहि-मेरुदिग्भागे या पश्चिमभद्रशालवनवेदिका तिष्ठति तस्याः पश्चिमभागे क्षेत्रं भवति, ततो दक्षिणोत्तरायतो वक्षारपर्वतस्तिष्ठति, तदनन्तरं क्षेत्रं, ततो विभङ्गा नदी, ततश्च क्षेत्रं, ततो वक्षारपर्वतस्ततः परं क्षेत्रं, ततो विभङ्गानदी, ततः क्षेत्रं, ततो वक्षारपर्वतस्ततः क्षेत्रं, तदनन्तरं पश्चिमसमुद्रसमीपे यद्भतारण्यवनं तिष्ठति तस्य वेदिका चेति नवभित्तिषु मध्येऽष्टी क्षेत्राणि भवन्ति । तेषां नामानि कथ्यन्ते-पद्मा १. सपद्मा २. महापद्मा ३. पद्मकावती४. शंखा ५ नलिना ६, कुमुदा ७, सलिला ८ चेति । तन्मध्यस्थितनगरीणां नामानि कथयन्ति-अश्वपुरो १, सिंहपुरी २, महापुरी ३, विजयापुरी ४, अरजापुरी ५, विरजापुरी ६, अशोकापुरी ७, विशोकापुरी ८ चेति ॥ अत ऊर्ध्वं शीतोदाया उत्तरभागे नीलकुलपर्वताद्दक्षिणे भागे यानि क्षेत्राणि तिष्ठन्ति तेषां विभागभेदं कथयति । पूर्वभणिता या भूतारण्यवनवेदिका तस्याः पूर्वभागे क्षेत्रं भवति । तदनन्तरं वक्षारपर्वतस्तदनन्तरं क्षेत्र, ततो विभङ्गा नदी, ततः क्षेत्रं, ततो वक्षारपर्वतः, ततश्च क्षेत्रं, ततश्च विभङ्गा नदी, ततोऽपि क्षेत्रं, ततो वक्षारपर्वतस्ततः क्षेत्र, ततो विभङ्गा नदी, ततः क्षेत्रं, ततश्च वक्षारपर्वतस्तत: क्षेत्रं, ततो मेरुदिशाभागे पश्चिमभद्रशालवनवेदिका चेति नभित्तिषु मध्येऽष्टौ क्षेत्राणि भवन्ति । तेषां क्रमेण नामानि कथ्यन्ते-वत्रा १, सुवप्रा २, महावप्रा ३, वप्रका अब मेरुसे पश्चिम दिशाके भागमें पूर्व पश्चिममें बाईस हजार योजन विष्कंभका धारक पश्चिम भद्रशालवनके पश्चात् पश्चिम विदेह है। वहाँ निषध पर्वतसे उत्तरके विभागमें और शीतोदा नदीके दक्षिण विभागमें जो क्षेत्र है, उनका विभाग कहा जाता है । सो ही दिखाते हैंमेरु दिशाके (उत्तरके) भागमें जो पश्चिम भद्रशालवनकी वेदिका है, उसके पश्चिम भागमें क्षेत्र है, उससे आगे दक्षिण उत्तर लंबा वक्षार पर्वत है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, और फिर क्षेत्र है, उसके आगे वक्षार पर्वत है, उसके पश्चात् क्षेत्र है, फिर विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है, उस क्षेत्रके पश्चात् वक्षार पर्वत है, पश्चात् क्षेत्र है, उसके अनंतर पश्चिम समुद्रके समापमें जो भूतारण्य नामक वन है उसकी वेदिका है । ऐसे नौ भित्तियोंके मध्यमें आठ क्षेत्र होते हैं। उनके नाम कहते हैं-पद्मा १, सुपद्मा २, महापद्मा ३, पद्मकावती ४, शंखा ५, नलिना ६, कुमुदा ७, और सलिला ८ । उन क्षेत्रोंके मध्य में स्थित नगरियोंके नाम कहते हैं-अश्वपुरी १, सिंहपुरी २, महापुरो ३, विजयापुरी ४, अरजापुरी ५, विरजापुरी ६, अशोकापुरी ७, और विशोकापुरी ८॥ अब इसके अनन्तर शीतोदाके उत्तर भागमें और नील कुलाचलसे दक्षिणभागमें जो क्षेत्र हैं उनके विभाग-भेदका वर्णन करते हैं। पहले कही हुई जो भूतारण्यवनकी वेदिका है उसके पूर्वभागमें क्षेत्र है १ और उसके पश्चात् वक्षार नामा पर्वत है, उसके अनंतर पुनः क्षेत्र है २ उसके पश्चात् विभंगा नदी है, उसके पश्चात् पुनः क्षेत्र है ३ उसके पश्चात् पुनः वक्षार पर्वत है, उसके अनंतर पुनः क्षेत्र है ४ उसके पश्चात् पुनः विभंगा नदी है, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र है ५ उसके पश्चात् पुनः वक्षार पर्वत है, उसके पश्चात् पुनः क्षेत्र है ६ उसके पश्चात् पुनः विभंगा नदी है, उसके अनन्तर क्षेत्र है ७ उसके पश्चात् वक्षार पर्वत है, उसके अनन्तर पुनः क्षेत्र है ८ उसके अनन्तर मेरुको दिशाके भागमें पश्चिम भद्रशालवनको वेदिका है। इस रीतिसे नौ भित्तियोंके मध्य में आठ क्षेत्र हैं। अब क्रमसे उनके नाम कहते हैं-वप्रा १, सुवप्रा २, महावप्रा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः वती ४, गन्धा ५, सुगन्धा ६, गन्धिला ७, गन्धमालिनी ८ चेति । तन्मध्यस्थितनगरीणां नामानि कथ्यन्ते-विजया १, वैजयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४, चक्रपुरी ५, खड्गपुरी ६, अयोध्या ७, अवध्या ८ चेति ॥ ___अथ भरतक्षेत्रे यथा गङ्गासिन्धुनदीद्वयेन विजयार्धपर्वतेन च म्लेच्छखण्डपञ्चकमार्यखण्डं चेति षट् खण्डानि जातानि । तथैव तेषु द्वात्रिंशत्क्षेत्रेषु गङ्गासिन्धुसमाननदीद्वयेन विजयार्धपर्वतेन च प्रत्येकं षट् खण्डानि ज्ञातव्यानि । अयं तु विशेषः । एतेषु सर्वदैव चतुर्थकालादिसमानकालः, उत्कर्षेण पूर्वकोटिजीवितं, पञ्चशतचापोत्सेधश्चेति विज्ञेयम्। पूर्वप्रमाणं कथ्यते। "पुवस्स हु परिमाणं सरि खलु सदसहस्सकोडीओ। छप्पण्णं च सहस्सा बोधव्वा वासगणनाओ।१।" इति संक्षेपेण जम्बूद्वीपव्याख्यानं समाप्तम् । तदनन्तरं यथा सर्वद्वीपेषु सर्वसमुद्रेषु च द्वीपसमुद्रमर्यादाकारिका योजनाष्टकोत्सेधा वज्रवेदिकास्ति तथा जम्बूद्वीपेऽप्यस्तीति विज्ञेयम् । तद् बहिर्भागे योजनलक्षद्वयवलयविष्कम्भ आगमकथितषोडशसहस्रयोजनजलोत्सेधाद्यनेकाश्चर्यसहितो लवणसमुद्रोऽस्ति । तस्मादपि बहिर्भागे योजनलक्षचतुष्टयवलयविष्कम्भो धातकीखण्डद्वीपोऽस्ति । तत्र च दक्षिणभागे लवणोदधिकालोदधिसमुद्रद्वयवेदिकास्पर्शी दक्षिणोत्तरायामः सहस्रयोजनविष्कम्भः शतचतुष्टयोत्सेध इक्ष्वाकारनामपर्वतोऽस्ति । तथोत्तरविभागेऽपि । तेन पर्वतद्वयेन खण्डीकृतं पूर्वापरधातकीखण्डद्वयं ज्ञातव्यम् । ३, वप्रकावती ४, गंधा ५, सुगंधा ६, गंधिला ७, और गंधमालिनी ८, ये अष्ट क्षेत्र हैं। अब उन क्षेत्रोंके मध्य में वर्तमान नगरियोंके नाम कहते हैं-विजया १, वैजयन्ती २, जयन्ती ३, अपराजिता ४, चक्रपुरी ५, खड्गपुरी ६, अयोध्या ७, और अवध्या ८, ये क्रमसे हैं । अब भरतक्षेत्रमें जैसे गंगा और सिंध इन दोनों नदियोंसे तथा विजयार्ध पर्वतसे पांच म्लेच्छ खंड और एक आर्य खंड ऐसे छ: खंड हुए हैं, उसी प्रकार पूर्वोक्त जो बत्तीस विदेह क्षेत्र हैं उनमें गंगा सिंधु समान दो नदियों और विजया पर्वतसे प्रत्येक क्षेत्रके छ: खंड जानने चाहिए। और यह विशेष ( अधिकता ) है कि इन सब क्षेत्रोंमें सदा ही चौथे कालकी आदिमें जैसा काल रहता है वैसा ही हैं। उत्कर्ष ( उत्कृष्टता ) से कोटि पूर्व प्रमाण तो आयु है, और पाँचसौ धनुष प्रमाण शरीरका उत्सेध है, यह जानना चाहिये । पूर्वका प्रमाण कहते हैं—'सत्तर लाख कोडि छप्पन हजार ये वरसगणनासे पूर्वका प्रमाण जानना चाहिये ।" ऐसे संक्षेपसे जंबूद्वीपका व्याख्यान समाप्त हुआ। उस जंबूद्वीपके पश्चात् जैसे सब द्वीप और समुद्रोंमें द्वीप और समुद्रकी मर्यादा ( सीमा वा हद ) करनेवाली आठ योजन ऊँची वज्रकी वेदिका ( दीवार ) है, उसी प्रकारसे जंबूद्वीपमें भी है, यह जानना चाहिये। उस वेदिकाके बाह्य भागमें दो लाख योजन प्रमाण गोलाकार विष्कंभधारक, शास्त्रमें उक्त सोलह हजार योजन जलकी ऊँचाई आदि अनेक आश्चर्यों सहित लवणसमुद्र है । उस लवणसमुद्रके बाह्य भागमें चार लाख योजन गोल विष्कंभका धारक धातकीखंड द्वीप है। और वहाँपर दक्षिण भागमें लवणोदधि और कालोदधि इन दोनों समुद्रोंकी वेदिकाको स्पर्श करनेवाला, दक्षिणसे उत्तरकी ओर लंबा, एक हजार विष्कंभका धारक तथा चारसौ योजन ऊँचा इक्ष्वाकारनामा पर्वत है। और इसी प्रकार उत्तर भागमें भी एक इक्ष्वाकार पर्वत है। इन दोनों पर्वतोसे खंडरूप हुए ऐसे, पूर्वधातकीखंड तथा पश्चिमधातकीखंड ऐसे दो खंड जानने चाहिये । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार तत्र पूर्वधातकोखण्डद्वीपमध्ये चतुरशीतिसहस्रयोजनोत्सेधः सहस्रयोजनावगाहः क्षुल्लकमेरुरस्ति । तथा पश्चिमधातकोखण्डेऽपि । यथा जम्बूद्वीपमहामेरौ भरतादिक्षेत्रहिमवदाविपर्वतगङ्गादिनदीपद्मादिह्रदानां दक्षिणोत्तरेण व्याख्यानं कृतं तथात्र पूर्वधातकोखण्डमेरौ पश्चिमधातकोखण्डमेरो च ज्ञातव्यम् । अत एव जम्बूद्वीपापेक्षया संख्यां प्रति द्विगुणानि भवन्ति भरतक्षेत्राणि, न च विस्तारायामापेक्षया । कुलपर्वताः पुविस्तारापेक्षयैव द्विगुणा नत्वायाम प्रति । तत्र धातकोखण्डद्वीपे यथा चक्रस्यारास्तथाकाराः कुलपर्वता भवन्ति । यथा चाराणां विवराणि छिद्राणि मध्यान्यभ्यन्तरे सङ्कीर्णानि बहिर्भाग विस्तीर्णानि तथा क्षेत्राणि ज्ञातव्यानि ॥ ___ इत्थंभूतं धातकोखण्डद्वीपमष्टलक्षयोजनवलयविष्कम्भः कालोदकसमुद्रः परिवेष्टय तिष्ठति । तस्माद्बहिर्भागे योजनलक्षाष्टकं गत्वा पुष्करद्वोपस्य वलयाकारेण चतुर्दिशाभागे मानुषोत्तरनामा पर्वतस्तिष्ठति । तत्र पुष्करार्धेऽपि धातकोखण्डद्वीपवद्दक्षिणोत्तरेणेक्ष्वाकारनामपर्वतद्वयं पूर्वापरेण क्षुल्लक मेरुद्वयं च । तथैव भरतादिक्षेत्रविभागश्च बोद्धव्यः। परं किन्तु जम्बूद्वीपभरतादिसंख्यापेक्षया भरतक्षेत्रादिद्विगुणत्वं न च धातकीखण्डापेक्षया। कुलपर्वतानां तु धातकीखण्डकुलपर्वतापेक्षया द्विगुणो विष्कम्भ आयामश्च । उत्सेधप्रमाणं पुनर्दक्षिणभागे विजयाधपर्वते योजनानि पञ्चविंशतिः, हिमवति पर्वते शतं, महाहिमवति द्विशतं, निषधे चतुःशतं, तथोत्तरभागे उनमें जो पूर्वधातकीखंड नामा द्वीप है उसके मध्यमें चौरासी हजार योजन ऊँचा और एक हजार योजन गहरा छोटा मेरु है। और उसीप्रकार पश्चिमधातकीखंडमें भी एक छोटा मेरु है। और जैसे जंबूद्वीपके महामेरुमें भरत आदि क्षेत्र, हिमवत् आदि पर्वत, गंगा आदि नदी और पद्म आदि ह्रदोंका दक्षिण उत्तर रूपसे व्याख्यान किया है; वैसे ही इस पूर्वधातकीखंडके मेरु और पश्चिम धातकीखडके मेरुमें जानना चाहिये। और इसी कारण धातकीखंडमें जंबूद्वीपकी अपेक्षा गिनतीमें ही भरत आदि दूने होते हैं; परन्तु विस्तार तथा आयामकी अपेक्षासे नहीं। और जो कुलपर्वत हैं वे तो विस्तारको अपेक्षा ही द्विगुण हैं, न कि आयाम ( लंबाई ) की अपेक्षासे । उस धातकीखंड द्वीपमें जैसे चक्रके आरा होते हैं वैसे आकारके धारक कुलाचल हैं। और जिस प्रकार चक्रके आरोंके छिद्र भीतरसे तो संकीर्ण ( सँकड़े ) होते हैं और बाह्य देशमें विस्तीर्ण ( बड़े ) होते हैं, इसी प्रकार क्षेत्रोंको समझना चाहिये ।। ___ इस प्रकार जो धातकीखंड द्वीप है उसको आठ लाख योजनप्रमाण विष्कंभका धारक कालोदक समद्र बेढे हए स्थित है। उस कालोदक समद्रके बाह्य भागमें आठ लाख योजन चलके पुष्करवर द्वीपके अर्ध भागमें गोलाकार रूपसे चारों दिशाओं में मानषोत्तर नामा पर्वत विद्यम है। उस पुष्करार्ध द्वीपमें भी धातकीखंड नामक द्वीपके समान दक्षिण तथा उत्तर दिशामें इक्ष्वा र नामके धारक दो पर्वत, पूर्वपश्चिममें दो छोटे मेरु, और इसी प्रकार भरत आदि क्षेत्रोंका विभाग जानना चाहिये। परन्तु विशेष यह है कि जंबूद्वीपके भरत आदिको अपेक्षासे यहाँपर द्विगुण-द्विगुण ( दूने-दूने ) भरत आदि क्षेत्र हैं और धातकीखंडकी अपेक्षासे भरत आदि दूने नहीं हैं । और कुलपर्वतोंका विष्कंभ तथा आयाम धातकीखंडके कुलपर्वतोंकी अपेक्षासे द्विगुण हैं। और ऊँचाईका प्रमाण जो दक्षिण भागमें विजयार्धपर्वत है उसमें पच्चीस योजन है, हिमवत् पर्वतमें सौ योजन, महाहिमवान् पर्वतमें दोसौ योजन, निषधमें चारसौ योजन प्रमाण है। तथा उत्तर Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १०५ च। मेरुसमीपगजदन्तेषु शतपञ्चकं, नदीसमीपे वक्षारेषु चान्त्यनिषधनीलसमीपे चतुःशतं च, शेषपर्वतानां च मेरुं त्यक्त्वा यदेव जम्बूद्वीपे भणितं तदेवार्धतृतीयद्वीपेषु च विज्ञेयम् । तथा नामानि च क्षेत्र पर्वतन दोदेशनगरादीनां तान्येव । तथैव क्रोशद्वयोत्सेधा पञ्चशतधनुविस्तारा पद्मरागरनमयी वनादीनां वेदिका सर्वत्र समानेति । अत्रापि चक्राकारवत्पर्वता आरविवरसंस्थानानि क्षेत्राणि ज्ञातव्यानि । मानुषोत्तरपर्वतादभ्यन्तरभाग एव मनुष्यास्तिष्ठन्ति न च बहिर्भागे । तेषां च जघन्यजीवितमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम्, उत्कर्षेण पल्यत्रयं मध्ये मध्यमविकल्पा बहवस्तथा तिरश्चां च । एवमसंख्येयद्वीपसमुद्र विस्तीर्णतिर्यग्लोकमध्येऽर्धतृतीयद्वीपप्रमाणः संक्षेपेण मनुष्यलोको व्याख्यातः ॥ अथ मानुषोत्तर पर्वत सकाशादबहिभांगे स्वयम्भूरमणद्वीपार्ध परिक्षिप्य योऽसौ नागेन्द्रनामा पर्वतस्तस्मात्पूर्वभागे ये संख्यातीता द्वीपसमुद्रास्तिष्ठन्ति तेषु यद्यपि व्यन्तरा निरन्तरा इति वचनाद् व्यन्तरदेवावासास्तिष्ठन्ति तथापि पल्यप्रमाणायुषां तिरश्चां संबन्धिनी जघन्य भोगभूमिरिति ज्ञेयम् । नागेन्द्रपर्वताद्वहिर्भागे स्वयम्भूरमणद्वीपार्धे समुद्रे च पुनवदेहवत्सर्वदेव कर्मभूमिश्चतुर्थकालश्च । परं किन्तु मनुष्या न सन्ति । एवमुक्तलक्षणतिर्यग्लोकस्य तदन्तरं मध्यमभागर्वात्तनो मनुष्यलोकस्य च प्रतिपादनेन संक्षेपेण मध्यमलोकव्याख्यानं समाप्तम् । अथ मनुष्यलोके द्विहीनशत भाग में भी इसी प्रकार उत्सेध प्रमाण हैं। मेरुके समीप भागमें जो गजदंत हैं उनमें पाँचसौ योजनकी ऊँचाई है । नदीके निकटवर्ती जो वक्षार पर्वत हैं उनमें तथा अन्तिम नील और निषध पर्वतके पास चारसो योजनकी ऊँचाई है । और मेरुको छोड़कर जो शेष ( बाकीके ) पर्वत हैं उनमें जो जंबूद्वीपमें कही है सो ही ढाई द्वीप में जाननी चाहिये । तथा क्षेत्र, पर्वत, नदी, देश, नगर आदि नाम भी वे ही हैं जो कि जंबूद्वीप में हैं । और इसी प्रकार दो कोश ऊँची पाँचसौ धनुष चोड़ी पद्मराग रत्ननिर्मित जो वन आदिकी वेदिका है वह सब द्वीपों में समान है । इस पुष्करार्धद्वीप में भी चक्र आकार समान पर्वत हैं और आरोंके छिद्रोंके समान क्षेत्र हैं, यह समझना चाहिये । मानुषोत्तरपर्वत के अभ्यन्तर ( अंदर ) के भाग में ही मनुष्य निवास करते हैं और बाह्य भागमें नहीं; और उन मनुष्योंका जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्तके तथा उत्कृष्ट आयु तीन पल्यके बराबर है। मध्य में मध्यम विकल्प बहुत से हैं । तिर्यंचोंका आयु भी मनुष्योंके आयुके सदृश ही है । इस प्रकार असंख्यात द्वीप समुद्रोंसे विस्तारको प्राप्त जो तिर्यग्लोक है, उसके मध्य में ढाई द्वीप प्रमाण जो मनुष्यलोक है, उसका संक्षेपसे व्याख्यान किया || अब मानुषोत्तर पर्वतसे बाह्य भागमें स्वयंभूरमण नामा द्वीपके अर्धभागको बेढ़कर जो नागेन्द्र नामक पर्वत है उस पर्वतके पूर्व भागमें जो असंख्यात द्वीप समुद्र हैं उनमें यद्यपि व्यन्तर देव निरन्तर रहते हैं इस वचनसे व्यन्तर देवोंके आवास हैं तथापि एक पल्य प्रमाण आयुके धारक तिर्यंचों संबंधिनी जघन्य भोगभूमि है ऐसा जानना चाहिये । तथा नागेन्द्रपर्वत से बाह्य भाग में जो स्वयंभृरमण नामक आधा द्वीप और पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र है उसमें विदेह क्षेत्रके समान सदा ही कर्मभूमि और चतुर्थ काल रहता है । परन्तु विशेष यह है कि वहाँपर मनुष्य नहीं । इसप्रकार पूर्वोक्त लक्षण के धारक तिर्यग् लोकके तथा उसके पश्चात् उस तिर्यक् लोकके मध्य में विद्यमान जो मनुष्य लोक है उसके संक्षेपसे निरूपणद्वारा मध्यलोकका व्याख्यान समाप्त हुआ । और मनुष्यलोक में तीन सौ अट्ठानवे (३९८ ) और तिर्यक्लोक में नन्दीश्वरद्वीपमें बावन, कुण्डलद्वीपमें चार ९ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार चतुष्टयं तिर्यग्लोके तु नन्दीश्वरकुण्डलरुचकाभिधानद्वीपत्रयेषु क्रमेण द्विपञ्चाशच्चतुष्टयचतुष्टयसंख्याश्च कृत्रिमाः स्वतंत्र जिनगृहा ज्ञातव्याः || अत ऊर्ध्व ज्योतिर्लोकः कथ्यते । तद्यथा- - चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्राणि प्रकीर्णतारकाश्चेति ज्योतिष्कदेवाः पञ्चविधा भवन्ति । तेषां मध्येऽस्माद्भूमितलादुपरि नवत्यधिकसप्तशतयोजनान्याकाशे गत्वा तारकविमानाः सन्ति, ततोऽपि योजनदशकं गत्वा सूर्यविमानाः, ततः परमशीतियोजनानि गत्वा चन्द्रविमानाः, ततोऽपि त्रैलोक्यसारकथितक्रमेण योजनचतुष्टयं गते अश्विन्यादिनक्षत्रविमानाः, ततः परं योजनचतुष्टयं गत्वा बुधविमानाः, ततः परं योजनत्रयं गत्वा शुक्रविमानाः, ततो योजनत्रये गते बृहस्पतिविमानाः, ततो योजनत्रयानन्तरं मङ्गलविमानाः, ततोऽपि योजन त्रयानन्तरं शनैश्चर विमाना इति । तथा चोक्तं "णउदुत्तरसत्तसया दश सीदी चउदुगं तु तिचक्कं । तारारविससिरिक्खा बुहभग्गव अगिरारसणी । १ ।” ते च ज्योतिष्कदेवा अर्धतृतीयद्वीपेषु निरन्तरं मेरोः प्रदक्षिणेन परिभ्रमणगत कुर्वन्ति । तत्र घटिकाप्रहरदिवसादिरूपः स्थूलव्यवहारकालः समय निमिषादि सूक्ष्मव्यहारकालवत् यद्यप्यनादिनिधनेन समयघटिकादिविवक्षित विकल्परहितेन काला द्रव्यरूपेण निश्चयका लेनोपादानभूतेन जन्यते तथापि चन्द्रादित्यादिज्योतिष्क देव विमानगमनागमनेन कुम्भकारेण निमित्तभूतेन मृत्पिण्डोपादानजनितघट इव व्यज्यते प्रकटीक्रियते ज्ञायते तथा रुचकद्वीपमें चार, इस प्रकार सब मिलकर मध्यलोकमें चारसौ अट्ठावन ( ४५८ ) अकृत्रिम स्वतंत्र चैत्यालय जानने चाहिये || अब इसके अनन्तर ज्योतिष्कलोकका वर्णन करते हैं । वह इस प्रकार है - चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णकतारा ऐसे ज्योतिष्क देव पाँच प्रकारके होते हैं । उनके मध्य में इस पृथ्वीतलसे ऊपर सातसो नब्बे (७९०) योजन आकाशमें जाकर तारोंके विमान हैं, और वहाँसे दश योजन ऊपर जाकर सूर्योंके विमान हैं। उसके पश्चात् ८० योजन ऊपर जाकर चन्द्रमाके विमान हैं। उसके अनंतर " त्रैलोक्यसार" में कहे हुए क्रमानुसार चार योजन ऊपर जाकर अश्विनी आदि नक्षत्रों के विमान हैं। उसके पश्चात् चार योजन ऊपर जाकर बुधके विमान हैं। उसके अनन्तर तीन योजन ऊपर जाकर शुक्र के विमान हैं । और वहाँसे तीन योजन ऊपर चलकर बृहस्पति के विमान हैं। उसके पश्चात् तीन योजनपर मंगलके विमान हैं । और वहाँ से भी तीन योजनके अनन्तर शनैश्चर के विमान हैं । सो ही कहा है- "सातसौ नब्बे, दस, अस्सो, चार, चार, तीन तीन, तीन, और तीन योजन ऊपर क्रमसे तारा, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनैश्चर इनके विमान हैं |१| " वे ज्योतिष्कदेव ढाई द्वीपमें निरन्तर ( सदा ) मेरुकी प्रदक्षिणापूर्वक परिभ्रमण ( गमन ) करते हैं । उन ढाई द्वीपोंमें घटिका, प्रहर दिवस आदिरूप स्थूल ( मोटा ) व्यवहार काल है । समय निमिष आदि सूक्ष्म कालके समान यद्यपि यह काल अनादिनिधन ( आदि और अतरहित ) और समय घटिका आदि विवक्षित भेदोंसे रहित जो कालाणुद्रव्यरूप उपादानभूत निश्चयकाल है उससे उत्पन्न होता है; तथापि जैसे निमित्तभूत कुंभकारद्वारा मृत्तिकापिंड है उपादानकारण जिसका ऐसा घट प्रकट किया जाता है, उसीप्रकार चन्द्र, सूर्य आदि ज्योतिष्कदेवों के विमानोंके गमनागमन ( जाने आने ) से यह काल जाना जाता है, इस कारण उपचारसे "व्यवहार काल ज्योतिष्कदेवों का किया हुआ है" ऐसा कहा जाता है । और जो निश्चयकाल है वह तो जैसे कुंभकारके चक्र (चाक) के भ्रमणमें उस चक्रके नीचेकी शिला (कीली) बहिरंग सहकारी कारण है Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः १०७ तेन कारणेनोपचारेण ज्योतिष्कदेवकृत इत्यभिधीयते । निश्चयकालस्तु तद्विमानगतिपरिणतेर्बहिरङ्गसहकारिकारणं भवति कुम्भकारचक्रभ्रमणस्याधस्तनशिलावदिति ॥ इदानीमधंतृतीयद्वीपेषु चन्द्रादित्यसंख्या कथ्यते । तथाहि-जम्बूद्वीपे चन्द्रद्वयं सूर्यद्वयं च, लवणोदे चतुष्टयं, धातकीखण्डद्वीपे द्वादश चन्द्रादित्याश्च, कालोदकसमुद्र द्विचत्वारिंशच्चन्द्रादित्याश्च, पुष्करार्धे द्वीपे द्वासप्ततिचन्द्रादित्याश्चेति । ततः परं भरतैरावतस्थितजम्बद्वीपचन्द्रसूर्ययोः किमपि विवरणं क्रियते । तद्यथा-जम्बूद्वीपाभ्यन्तरे योजनानामशीतिशतं बहिर्भागे लवणसमुद्रसंबन्धे त्रिंशदधिकशतत्रयमिति समुदायेन दशोत्तरयोजनशतपञ्चकं चारक्षेत्रं भण्यते तच्चन्द्रादित्ययोरेकमेव । तत्र भरतेन बहिर्भागे तस्मिश्चारक्षेत्रे सर्यस्य चतुरशीतिशतसंख्या मार्गा भवन्ति, चन्द्रस्य पञ्चदशैव । तत्र जम्बूद्वीपाभ्यन्तरे कर्कटसङ्क्रान्तिदिने दक्षिणायनप्रारम्भे निषधपवंतस्योपरि प्रथममार्गे सूर्यः प्रथमोदयं करोति । यत्र सूर्य विमानस्थं निर्दोषपरमात्मनो जिनेश्वरस्याकृत्रिम जिनबिम्ब प्रत्यक्षेण दृष्ट्वा अयोध्यानगरीस्थितो निर्मलसम्यक्त्वानुरागेण भरतचक्री पुष्पाञ्जलिमुत्क्षिप्याधं ददातीति। तन्मार्गस्थितभरतक्षेत्रादित्यस्यैरावतादित्येन सह तथापि चन्द्रस्यान्यचन्द्रेण सह यदन्तरं भवति तद्विशेषेणागमतो ज्ञातव्यम् ॥ अथ 'सदभिस भरणी अद्दा सादी असलेस जेटुमबरवरा। रोहिणिविसहपुणव्वसु तिउत्तरा उस प्रकार उन ज्योतिष्कदेवोंके विमानोंकी गति परिणति ( गमनरूप परिणाम )में बहिरंग सहकारी कारण होता है। __अब ढाई द्वीपोंमें जो चन्द्र और सूर्य हैं उनकी संख्याका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-जंबूद्वीपमें दो चन्द्रमा और दो सूर्य हैं, लवणोदकसमुद्र में चार चन्द्रमा और चार सूर्य हैं, धातकीखण्ड द्वीपमें बारह चन्द्रमा और बारह सूर्य हैं, कालोदक समुद्रमें बयालीस चन्द्रमा और तयालीस हो सूर्य हैं तथा पुष्करार्ध द्वीपमें बहत्तर चन्द्रमा और बहत्तर ही सूर्य हैं। इसके अनन्तर भरत और ऐरावतमें स्थित जो जंबूद्वीपके चन्द्र तथा सूर्य हैं उनका कुछ थोड़ासा विवरण करते हैं। वह इस प्रकार है -जम्बूद्वीपके भीतर एकसौ अस्सी और बाह्य भागमें अर्थात् लवणसमुद्रके संबंध में तीनसौ तोस योजन ऐसे दोनों मिलकर पाँचसौ दश योजन प्रमाण सूर्यका चारक्षेत्र ( गमनका क्षेत्र ) कहलाता है । सो चन्द्र तथा सूर्य इन दोनोंका एक ही है। इनमें भरतक्षेत्रसे बाह्य भागमें उस चारक्षेत्र में सूर्य के एकसौ चौरासी मार्ग होते हैं और चन्द्रमाके १५ ही मार्ग हैं। उनमें जम्बूद्वीपके भीतर कर्कट संक्रान्तिके दिवस जब कि दक्षिण अयनका प्रारम्भ होता है तब निषध पर्वतके ऊपर प्रथम मार्गमें सूर्य प्रथम उदय करता है। जहाँपर सूर्यके विमानमें वर्तमान जो निर्दोष परमात्मा श्रीजिनेन्द्र हैं उनके अकृत्रिम जिनबिंबको अयोध्या नगरीमें स्थित भरतक्षेत्रका चक्रवर्ती निर्मल सम्यक्त्वके अनुरागसे अवलोकन करके, पुष्पांजलि उछालकर, अर्घ देता है। उस प्रथम मार्गमें स्थित जो भरतक्षेत्रका सूर्य है उसका ऐरावत क्षेत्रके सूर्यके साथ तथा चंद्रमाका चंद्रमाके साथ और भरतक्षेत्रके सूर्य चंद्रमाओंका मेरुके साथ जो अन्तर ( फासला वा दूरी) रहता है वह विशेषतासे आगमोंसे जानना चाहिये । अब "शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वातो, आश्लेषा, ज्येष्ठा ये छः नक्षत्र जघन्य हैं । रोहिणी. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार मज्झिमा सेसा । १।" इति गाथाकथित क्रमेण यानि जघन्योत्कृष्टमध्यनक्षत्राणि तेषु मध्ये कस्मिन्नक्षत्रे कियन्ति दिनान्यादित्यस्तिष्ठतीति । "इंदुरवीदो खिखा सत्तट्ठियपंचगयणखंड हिया । अहिहिदरिक्खखंडा इंदुरवी अत्थण्णमुहुत्ता । १।" इत्यनेन गाथासूत्रेणागमकथितक्रमेण पृथक् पृथगानीय मेलापके कृते सति षडधिकषष्टितत्रिशतसंख्यदिनानि भवन्ति । तस्य दिनसमूहार्धस्य यदा द्वीपाभ्यन्तराद्द क्षिणेन बहिर्भागेषु दिनकरो गच्छति तदा दक्षिणायनसंज्ञा, यदा पुनः समुद्रात्सकाशादुत्तरेणाभ्यन्तरमार्गेषु समायाति तदोत्तरायणसंज्ञेति । तत्र यदा द्वोपाभ्यन्तरे प्रथममार्गपरिधौ कर्कट संक्रान्तिदिने दक्षिणायनप्रारम्भे तिष्ठत्यादित्यस्तदा चतुर्णवतिसहस्र पञ्चविंशत्यधिकपञ्च योजनशतप्रमाण उत्कर्षेणादित्यविमानस्य पूर्वापरेणातपविस्तारो ज्ञेयः । तत्र पुनरष्टादशमुहू तेंदिवसो भवति द्वादशमुहूर्त्ते रात्रिरिति । ततः क्रमेणातपहानौ सत्यां मुहूर्त्तद्वयस्यैकषष्टिभागीकृतस्यैको भागो दिवसमध्ये दिनं प्रति हीयते यावल्लवणसमुद्रेऽवसानमार्गे माघमासे मकरसंक्रान्तावुत्तरायणदिवसे त्रिषष्टिसहस्राधिकषोडशयोजनप्रमाणो जघन्येनादित्यविमानस्य पूर्वापरेणातपविस्तारो भवतिं । तथैव द्वादशमुहूर्त्तेदिवसो भवत्यष्टादशमुहूत्र्त्ते रात्रिश्चेति । शेषं विशेषव्याख्यानं लोकविभागादौ विज्ञेयम् । विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । इनके अतिरिक्त शेष जो नक्षत्र हैं वे मध्यम हैं । १ ।" इस गाथामें कहे हुए क्रमके अनुसार जो जघन्य, उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र हैं, उनमें किस नक्षत्रमें कितने दिन सूर्य ठहरता है सो कहते हैं" एक मुहूर्त में चंद्र १७६८ सूर्य १८३० और नक्षत्र १८३५ गगनखंडों में गमन करते हैं इसलिये अधिकभागोंसे नक्षत्रखंडोंके भाग देनेसे जो मुहूर्त्त प्राप्त होते हैं, उन मुहूर्त्तोको चंद्र और सूर्य के आसन्न मुहूर्त्त जानने चाहियें । अर्थात् उतने मुहूर्तों तक चंद्रमा और सूर्यकी एक नक्षत्र पर स्थिति जाननी चाहिये ।" इस प्रकार इस गाथामें कहे हुए क्रमसे भिन्नभिन्न दिनोंको लेकर, उनको जोड़ने से तीनसौ छयासठ (३६६) दिन होते हैं। जब द्वीपके भीतर से दक्षिण दिशाके बाह्य मार्गों में सूर्य गमन करता है तब तीनसौ छ्यासठ दिनके आधे जो एकसौ तिरासी (१८३) दिन हैं उनकी दक्षिणायन संज्ञा होती है, और इसी प्रकार जब सूर्य समुद्रसे उत्तर दिशाके अभ्यन्तर मार्गों में आता है तब शेष जो १८३ दिन हैं उनका उत्तरायण यह नाम होता है । उनमें जब द्वीपके अभ्यन्तर भाग में कर्कट संक्रान्तिके दिन दक्षिण अयनसे प्रारंभ में सूर्यं प्रथम मार्गकी परिधि में स्थित होता है तब चौरानवे हजार पाँचसौ पचीस योजन प्रमाण सूर्यके विमानका पूर्व पश्चिमसे आतप ( धूप ) का विस्तार ( फैलाव ) होता है यह जानना चाहिये । और उस समय अठारह मुहूतोंसे दिन और बारह मुहूत्तोंसे रात्रि होती है । फिर यहाँसे क्रम क्रमसे आतपकी हानि होनेपर दो मुहूर्तों के इकसठ भागों में से एक भाग प्रतिदिन दिवससे घटता है । यह तबतक घटता है जबतक कि लवणसमुद्रके अन्तके मार्ग में माघमासमें मकर संक्रान्ति में उत्तरायण दिवसके प्रारंभ में जघन्यतासे सूर्यके विमानका आतप विस्तार त्रेसठ हजार सोलह योजनप्रमाण होता है । उस समय उसी प्रकार बारह मुहूत्तोंसे दिन और अठारह मुहूतोंसे रात्रि होती है । इसके अतिरिक्त अन्य जो विशेष वर्णन है सो लोकविभाग आदिमें जानना चाहिये || Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १०९ ये तु मनुष्यक्षेत्रादहिर्भागे ज्योतिष्क विमानास्तेषां चलनं नास्ति । ते च मानुषोत्तरपतादवहिर्भागे पञ्चाशत्सहस्राणि योजनानां गत्वा वलयाकारं पंक्तिक्रमेण पूर्वक्षेत्रं परिवेष्टच तिष्ठन्ति । तत्र प्रथमवलये चतुश्चत्वारिंशदधिकशतप्रमाणाश्चन्द्रास्तथादित्याश्चान्तरान्तरेण तिष्ठन्ति । ततः परं योजनलक्षे लक्षे गते तेनैव क्रमेण वलयं भवति । अयन्तु विशेषः - वलये वलये चन्द्रचतुष्टयं सूर्यचतुष्टयं च वर्धते यावत्पुष्करार्धबहिर्भागे वलयाष्टकमिति ततः पुष्करसमुद्रप्रवेशे वेदिकायाः सकाशात्पञ्चाशत्सहस्र प्रमितयोजनानि जलमध्ये प्रविश्य यत्पूर्वं चत्वारिंशदधिकशतप्रमाणं प्रथमवलयं व्याख्यातं तस्माद् द्विगुणसंख्यानं प्रथमवलयं भवति । तदनन्तरं पूर्ववद्यो - जनलक्ष लक्षे गते वलयं भवति चन्द्रचतुष्टयस्य सूर्यचतुष्टयस्य च वृद्धिरित्यनेनैव क्रमेण स्वयम्भूरसमुद्र बहिर्भागवेदिकापर्यन्तं ज्योतिष्कदेवानामवस्थानं बोद्धव्यम् । एते च प्रतरासंख्येयभागप्रमिता असंख्येया ज्योतिष्कविमाना अकृत्रिम सुवर्णमय रत्नमयजिन चैत्यालयमण्डिता ज्ञातव्याः । इति संक्षेपेण ज्योतिष्कलोकव्याख्यानं समाप्तम् ॥ अथानन्तरमूर्ध्वलोकः कथ्यते । तथाहि - सौधर्मेशानसनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्त कापिष्टशुक्र महाशुक्रशता र सहस्रारानतप्राणतारणाच्युतसंज्ञाः षोडश स्वर्गास्ततोऽपि नवग्र वेयकसंज्ञास्ततश्च नवानुदिशसंज्ञं नवविमान संख्यमेकपटलं ततोऽपि पञ्चानुत्तरसंज्ञं पञ्चविमानसंख्यमेकपटलं चेत्युक्तक्रमेणोपर्युपरि वैमानिकदेवास्तिष्ठन्तीति वात्तिकं संग्रहवाक्यं समुदायकथनमिति और जो मनुष्य क्षेत्र ( ढाई द्वीप) से बहिर्भाग में ज्योतिष्क विमान हैं उनका चलन ( गमन ) नहीं है; तथा वे मानुषोत्तर पर्वतके बाह्य भाग में पचास हजार योजन गमन कर, वलयाकार (गोलाकार) पंक्तिरूप क्रमसे पूर्वं (पहिले) क्षेत्रको बेढ़ (घेर) कर रहते हैं । उनमें जो प्रथम वलय है उसमें एकसौ चवालीस (१४४) चन्द्रमा तथा सूर्य अन्तरान्तर ( दूर-दूर से निवास करते हैं । उसके पश्चात् एक-एक लाख योजन चले जानेपर इसी पूर्वोक्त क्रमानुसार वलय होता है । और विशेष यह है कि वलय- वलय ( हर एक वलय) में चार चन्द्रमा तथा चार सूर्य बढ़ते हैं सो ये पुष्करार्ध के बाह्य भागमें जो आठ वलय हैं वहाँतक बढ़ते हैं । उसके पश्चात् पुष्कर समुद्र के प्रवेशमें जो वेदिका है उससे पचास हजार योजन प्रमाण जलभाग में जाकर, जो पहले प्रथम वलय में एकसौ चवालीस चन्द्र तथा सूर्योका कथन किया है उससे द्विगुण अर्थात् दो सौ अट्ठासी चंद्रमा और सूर्योका धारक प्रथम वलय है । उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार एक एक लाख योजन चले जानेपर वलय हैं और प्रत्येक वलय में चार चन्द्रमा और चार सूर्योकी वृद्धि होती है। सो इसी क्रम से स्वयंभूरमण समुद्रकी अन्तकी वेदिका पर्यन्त ज्योतिष्क देवों का निवास जानना चाहिये । और ये सब प्रत्तरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात ज्योतिष्क विमान अकृत्रिम सुवर्णं तथा रत्नमय जो जिनचैत्यालय हैं उनसे भूषित हैं ऐसा समझना चाहिये । इस प्रकार संक्षेपसे ज्योतिष्क लोकका वर्णन समाप्त हुआ || अब इसके अनंतर ऊर्ध्वलोकका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है- सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन नामोंके धारक सोलह स्वर्ग हैं । वहाँसे आगे नव ग्रैवेयक नामवाले विमान हैं, और इनके भी अनन्तर नव विमानोंकी संख्याका धारक नवानुदिश नामक एक पटल है, तथा इसके भी अनन्तर पाँच विमानोंकी संख्यावाला पञ्चानुत्तर संज्ञक एक पटल है, Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार यावत् । आदिमध्यान्तेषु द्वादशाष्टचतुर्योजन वृत्तविष्कम्भा चत्वारिंशत्प्रमितयोजनोत्सेधा या मेरुचूलिका तिष्ठति तस्योपरि कुरुभूमिजमर्त्यवालाग्रान्तरितं पुनर्ऋजुविमानमस्ति । तदादि कृत्वा चूलिका सहितलक्षयोजनप्रमाणं मेरुत्सेधमानमर्द्धाधिकैकरज्जुप्रमाणं यदाकाशक्षेत्रं तत्पर्यन्तं सौधर्मेशानसंज्ञं स्वर्गयुगलं तिष्ठति । ततः परमर्द्धाधिकैकरज्जुपर्यन्तं सनत्कुमार माहेन्द्रसंज्ञं स्वर्गयुगलं भवति, तस्मादर्द्धरज्जुप्रमाणाकाशपर्यन्तं ब्रह्मब्रह्मोत्तराभिधानं स्वर्गयुगलमस्ति, ततोऽप्यर्द्धरज्जुपर्यन्तं लान्तवकापिष्ट नामस्वर्गयुगलमस्ति, ततश्चार्द्धरज्जुपर्यन्तं शुक्र महाशुक्राभिधानं स्वर्गद्वयं ज्ञातव्यम्, तदनन्तरमर्द्धरज्जुपर्यन्तं शतारसहस्रारसंज्ञं स्वर्गयुगलं भवति, ततोऽप्यर्द्धरज्जुपर्यन्तमानतप्राणतनाम स्वर्गयुगलं, ततः परमर्द्धरज्जुपर्यन्तमाकाशं यावदारणाच्युताभिधानं स्वर्गद्वयं ज्ञातव्यमिति । तत्र प्रथमयुगलद्वये स्वकीयस्वकीयस्वर्गनामानश्चत्वार इन्द्रा विज्ञेयाः, मध्ययुगलचतुष्टये पुनः स्वकीयस्वकीयप्रथमस्वर्गाभिधान एकेक एवेन्द्रो भवति, उपरितनयुगलद्वयेऽपि स्वकीयस्वकीयस्वर्गनामानश्चत्वार इन्द्रा भवन्तीति समुदायेन षोडशस्वर्गेषु द्वादशेन्द्रा ज्ञातव्याः । षोडशस्वर्गादूर्ध्वमेक रज्जुमध्ये नवग्रैवेयकनवानुदिशपञ्चानुत्तरविमानवासिदेवास्तिष्ठन्ति । ततः परं तत्रैव द्वादशयोजनेषु गतेष्वष्टयोजनबाहुल्या मनुष्यलोकवत्पञ्चाधिकचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तारा मोक्षशिला भवति । तस्योपरि घनोदविघनवाततनुवातत्रयमस्ति । तत्र तनुवातमध्ये इस प्रकार पूर्वोक्त क्रमसे वैमानिक देव निवास करते हैं । यह वार्त्तिक अर्थात् संग्रह वाक्य अथवा समुदायसे कथन है । आदिमें बारह, मध्यमें आठ और अन्तमें चार योजन प्रमाण गोल विष्कंभ ( व्यास ) की धारक, चालीस योजन प्रमाण ऊँची जो मेरुकी चूलिका है; उसके ऊपर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न जो मनुष्य हैं उनके बालके अग्रभाग जितने अन्तर (फासले) पर ऋजुविमान है। उस ऋजुविमानको आदिमें करके चूलिकासहित एक लाख योजनप्रमाण मेरुकी ऊँचाईका प्रमाण है, और वहाँसे डेढ़ रज्जुप्रमाण जो आकाशक्षेत्र है वहाँ तक सौधर्म तथा ईशान नामक दो स्वर्ग हैं । इनके अनन्तर डेढ़ रज्जुपर्यन्त सनत्कुमार और माहेन्द्र नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँसे अर्ध रज्जुप्रमाण आकाशतक ब्रह्म तथा ब्रह्मोत्तर संज्ञक स्वर्गीका युगल है | वहाँसे भी आधे रज्जुतक लांतव और कापिष्ट नामक दो स्वर्ग हैं । वहाँ भी आधे रज्जुप्रमाण आकाश में शुक्र तथा महाशुक्र नामक स्वर्गोंका युगल जानना चाहिये । उसके अनन्तर आधे रज्जुतक शतार और सहस्रार नामक स्वर्गीका युगल है । तत्पश्चात् आधे रज्जुपर्यन्त आकाशतक आरण और अच्युत नामक दो स्वर्ग जानने चाहिये। उनमें पहलेके जो दो युगल हैं उनमें तो अपने-अपने स्वर्गके नामके धारक चार इन्द्र हैं अर्थात् पहले चार स्वर्गो में स्वर्गों के नामवाले ही (सौधर्म, ईशान आदि) चार इन्द्र हैं । और बीचके जो चार युगल हैं उनमें अपने-अपने प्रथम स्वर्गके नामका धारक एक-एक ही इंद्र है अर्थात् ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गका एक इन्द्र है और ब्रह्म स्वर्गका इन्द्र कहलाता है । ऐसे बारहवें स्वर्गतक आठ स्वर्गीमें चार इन्द्र जानने चाहिये । और इनके ऊपर जो दो युगल हैं उनमें भी अपने अपने स्वर्गके नामके धारक ( आनत, प्राणत आदि) चार इन्द्र होते हैं । इस प्रकार समुदायसे सोलह स्वर्गो में बारह इन्द्र जानने चाहिये | सोलह् स्वर्गोसे ऊपर एक रज्जुमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में निवास करनेवाले देव हैं। उसके आगे इस एक रज्जुमें ही बारह योजन चले जानेपर आठ योजन प्रमाण मोटाईको धारक और मनुष्यलोक (ढाईद्वीप) के समान पैंतालीस लाख (४५००००० ) योजन Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः लोकान्ते केवलज्ञानाद्यनन्तगुणसहिताः सिद्धास्तिष्ठन्ति ॥ इदानों स्वर्गपटल संख्या कथ्यते - सौधर्मेशानयोरेकत्रिंशत्, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त, ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोश्चत्वारि, लान्तवकापिष्टयोर्द्वयम्, शुक्रमहाशुक्रयोः पटलमेकम्, शतारसहस्रारयोरेकम्, आनतप्राणतयोस्त्रयम्, आरणाच्युतयोस्त्रयमिति । नवसु ग्रे वैयकेषु नवकं, नवानुदिशेषु पुनरेकं पञ्चानुत्तरेषु चैकमिति समुदायेनोपर्युपरि त्रिषष्टिपटलानि ज्ञातव्यानि । तथा चोक्तं " इगतीस सत्तचत्तारिदोण्णि एक्के क्क छक्क चदुकप्पे । तित्तियएक्के किंदियणामा उडु आदि तेवट्ठी ॥ " अतः परं प्रथमपटलव्याख्यानं क्रियते । ऋजु विमानं यदुक्तं पूर्वं मेरुचूलिकाया उपरि मनुष्यक्षेत्र प्रमाणविस्तारस्येन्द्रकसंज्ञा । तस्य चतुर्दिग्भागेष्वसंख्येययोजनविस्ताराराणि पंक्तिरूपेण सर्वद्वीपसमुद्रेषूपरि प्रतिदिशं यानि त्रिषष्टिविमानानि तिष्ठन्ति तेषां श्रेणीबद्धसंज्ञा । यानि च पंक्तिरहितपुष्पप्रकरवद्विदिक्चतुष्टये तिष्ठन्ति तेषां संख्येया संख्येययोजनविस्ताराणां प्रकीर्णकसंज्ञेति समुदायेन प्रथमपटललक्षणं ज्ञातव्यम् । तत्र पूर्वापरदक्षिणश्रेणित्रयविमानानि । तन्मध्ये विदिद्वयविमानानि च सौधर्मसंबन्धीनि भवन्ति, शेषविदिग्द्वयविमानानि च पुनरोशानसंबन्धीनि । अस्मात्पलादुपरि जिनदृष्टमानेन संख्येयान्यसंख्येयानि योजनानि गत्वा तेनैव क्रमेण तस्य प्रमाण विस्तारकी धारक मोक्षशिला है । उस मोक्षशिलाके ऊपर घनोदधि, घनवात तथा तनुवात नामक तीन वात (वायु) हैं । इनमें जो तनुवात है, वहाँपर लोकके अन्तभागमें केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों सहित श्रीसिद्ध परमेष्ठी निवास करते हैं । १११ अब स्वर्गके पटलोंकी संख्याका वर्णन करते हैं । सौधर्म और ईशान इन दो स्वर्गोमें इकतीस पटल हैं, सनत्कुमार तथा माहेन्द्र में सात पटल हैं, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में चार पटल हैं, लान्तव तथा कापिष्टमें दो पटल हैं, शुक्र और महाशुक्रमें एक पटल है, शतार और सहस्रारमें एक पटल है, आनत तथा प्राणतमें तीन पटल हैं और आरण तथा अच्युत इन दो स्वर्गो में भी तीन पटल हैं नव ग्रैवेयकों में नव पटल हैं, नव अनुदिशोंमें एक पटल है, और पंचानुत्तरों में एक पटल है । ऐसे समुदायसे ऊपर-ऊपर तिरेसठ पटल जानने चाहिये । सो ही कहा है- "सौधर्म युग्ममें ३१ सनत्कुमार युगल में ७, ब्रह्मयुगल में ४, लांतव युग्ममें २, शुक्र युग्ममें १, शतार युग्ममें १, आनत आदि चार स्वर्गों में ६, प्रत्येक तीनों ग्रैवेयकोंमें तीन-तीन, नव अनुदिशों में एक, पंचानुत्तरोंमें एक ऐसे समुदायसे ६३ इन्द्रक होते हैं । | इसके आगे प्रथम पटलका व्याख्यान किया जाता है । जो पहले मेरुकी चूलिकाके ऊपर ऋजुविमान कहा गया है उस मनुष्यक्षेत्र ( ढाईद्वीप ) प्रमाण विस्तारके धारक ऋजुविमानकी इंद्रक यह संज्ञा है । उसकी चारों दिशाओंके भागमें जो प्रत्येक दिशा में सब द्वीप समुद्रोंके ऊपर असंख्यात योजन विस्तारके धारक पंक्तिरूपसे तिरेसठ विमान हैं उनकी श्रेणीबद्ध संज्ञा है । और ज्ञो विमान पंक्तिसे बिना पुष्पोंके प्रकरके समान चारों विदिशाओं में हैं उन संख्यात, असंख्यात योजन प्रमाण विस्तारवाले विमानोंकी प्रकीर्णक संज्ञा है । ऐसे समुदाय से प्रथम पटलका लक्षण जानना चाहिये। उन विमानोंमें जो पूर्व पश्चिम और दक्षिण इन तीन श्रेणियोंके विमान हैं वे, और इन तीनों दिशाओंके बीच में जो दो विदिशाओं में स्थित विमान हैं ये सब प्रथम सौधर्मस्वर्ग सम्बन्धी हैं । तथा शेष दो विदिशाओं के विमान और उत्तर श्रेणी के विमान जो हैं वे ईशानस्वर्ग सम्वन्धी हैं । इस पटलके ऊपर भगवान् करके देखे हुए प्रमाणके Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार द्वितीयादिपटलानि भवन्ति । अयं च विशेषः - श्रेणीचतुष्टये पटले पटले प्रतिदिशमेकैक विमानं होयते यावत्पञ्चानुत्तरपटले चतुर्दिक्ष्वैकैकविमानं तिष्ठति । एते सौधर्मादिविमानाश्चतुरशीतिलक्षसप्तनवतिसहस्र त्रयोविंशतिप्रमिता अकृत्रिम सुवर्णमयजिनगृहमण्डिता ज्ञातव्या इति । ११२ अथ देवानामायुः प्रमाणं कथ्यते । भवनवासिषु जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण पुनरसुरकुमारेषु सागरोपमम्, नागकुमारेषु पल्यत्रयं, सुपर्णे साधंद्वयं द्वीपकुमारे द्वयं शेषकुलषट्के सार्धपत्यमिति । व्यन्तरे जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण पल्यमधिकमिति । ज्योतिष्कदेवे जघन्येन पल्याष्टमविभागः, उत्कर्षेण चन्द्रे लक्षवर्षाधिकं पल्यं, सूर्ये सहस्राधिकं पल्यं, शेषज्योतिष्कदेवानामागमानुसारेणेति । अथ सौधर्मेशानयोर्जघन्येन साधिकपल्यं, उत्कर्षेण साधिकसागरोपमद्वयं, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः साधिकसागरोपमसप्तकं, ब्रह्मब्रह्मोत्तरयोः साधिकसागरोपमदशकं, लान्तवकापिष्ठयोः साधिकानि चतुर्दशसागरोपमानि शुक्रमहाशुक्रयोः षोडश साधिकानि, शतारसहस्रारयोरष्टादश साधिकानि आनतप्राणतयोविंशतिरेव, आरणाच्युतयोर्द्वाविंशतिरिति । अतः परमच्युतादूर्ध्वं कल्पातीत नवग्रैवेयकेषु द्वाविंशतिसागरोपमप्रमाणादूर्ध्वमेकैकसागरोपमे वर्धमाने सत्येकत्रिशत्सागरोपमान्यवसाननवग्रैवेयके भवन्ति । नवानुदिशपटले द्वात्रिंशत्, पञ्चानुत्तरपटले त्रयस्त्रशत्, अनुसार संख्यात तथा असख्यात योजन जाकर इसी पूर्वोक्त क्रमसे द्वितीय, तृतीय, आदि पटल होते हैं । और विशेष यह है कि पटल पटलमें प्रत्येक दिशाकी प्रत्येक श्रेणीमें एक-एक विमान घटता है सो यहाँतक घटता है कि पंचानुत्तर पटलमें चारों दिशाओं में एक एक ही विमान रह जाता है । और ये सब सौधर्म स्वर्ग आदि सम्बन्धी विमान चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस (८४९७०२३) संख्या प्रमाण हैं । और अकृत्रिम सुवर्णमय जिनचैत्यालयोंसे मंडित हैं ऐसे जानने चाहिये । अब देवोंके आयुका प्रमाण कहते हैं । भवनवासियों में न्यूनसे न्यून दश हजार वर्षका जघन्य आयु होता है और उत्कर्षसे असुरकुमारोंमें एक सागर, नागकुमारोंमें तीन पल्य, सुपर्ण - कुमारों में ढाई पल्य, द्वीपकुमारोंमें दो पल्य और वाकी जो ६ प्रकारके भवनवासी हैं उनमें डेढ़ पत्यप्रमाण आयु है । व्यन्तरोंमें दस हजार वर्षका जघन्य और कुछ अधिक एक पल्यका उत्कृष्ट आयु है । ज्योतिष्क देवोंमें जघन्य आयु पल्यके आठवें भाग प्रमाण है, उत्कृष्टतासे चन्द्रमामें एक पल्य एक लाख वर्ष और सूर्यमें एक पल्य एक हजार वर्षका आयु है । शेष ज्योतिष्क देवोंका उष्कृष्ट आयु आगमके अनुसार जानना चाहिए। अब कल्पवासियोंमें जो सौधर्म तथा ईशान स्वर्गके देव हैं उनके जघन्यतासे कुछ अधिक एक पल्य और उत्कृष्टतासे कुछ अधिक दो सागर प्रमाण आयु है । सनत्कुमार तथा माहेन्द्र देवोंमें कुछ अधिक सात सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दश सागर, लांतव कापिष्टमें कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार और सहस्रार में किंचित् अधिक अठारह सागर, आनत तथा प्राणतमें पूरे बोस हो सागर, और आरण अच्युतमें वाईस सागर प्रमाण आयु है । अब इसके अनन्तर अच्युत स्वर्गके ऊपर कल्पातीत जो नव ग्रैवेयक हैं उनमें प्रत्येक ग्रैवेयकमें बाईस सागर प्रमाण आयुमें क्रमानुसार एक-एक सागर बढ़ायें जानेपर अन्तके नवें ग्रैवेयक में इकतीस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु होता है। नौ अनुदिशोंके पटल में बत्तीस सागर और Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन बृहद्रव्य संग्रहः ११३ उत्कृष्टायुःप्रमाणं ज्ञातव्यम्। तदायुः सौधर्मादिषु स्वर्गेषु यदुत्कृष्टं तत्परस्मिन् परस्मिन् स्वर्गे सर्वार्थसिद्धि विहाय जघन्यं चेति । शेषं विशेषव्याख्यानं त्रिलोकसारादौ बोद्धव्यम् ॥ किञ्च आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुद्धकस्वभावे परमात्मनि सकलविमलकेवलज्ञानलोचनेनादर्श बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकनं वा स निश्चयलोकः। "सण्णाओ य तिलेस्सा इंदिय वसदाय अझरुद्दाणि । णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा होति ।।" इति गाथोदितविभावपरिणाममादि कृत्वा समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्पत्यागेन निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमालादैकसुखामृतरसास्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा । शेषा पुनर्व्यवहारेणेत्येवं संक्षेपेण लोकानुप्रेक्षाव्याख्यानं समाप्तम् ।। अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षां कथयति । तथाहि एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिाध्यायुष्कवरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसंयमविषयसुखव्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्त्तनेषु परं परं दुर्लभेषु कथंचित्काकतालीयन्यायेन लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिदुर्लभः। कस्मादिति पंचानुत्तर पटलमें तेतीस सागर जितना उत्कृष्ट आयुका प्रमाण जानना चाहिये। और जो आयु सौधर्म आदि स्वर्गों में उत्कृष्ट है वह सर्वार्थसिद्धिके बिना अन्य सब स्वर्गों में आगे-आगे जघन्य है अर्थात् जो सौधर्म ईशान स्वर्गमें उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागर प्रमाण आयु है वह सनत्कुमार माहेन्द्रमें जघन्य है। इस क्रमसे सर्वार्थसिद्धिके पहले-पहले जघन्य आयु जानना। इसके अतिरिक्त जो अधिक व्याख्यान है सो त्रिलोकसार आदिमेंसे समझना चाहिये ।। __ और आदि मध्य तथा अन्तसे रहित, शुद्ध बुद्ध एक स्वभावका धारक जो परमात्मा है उसमें सकल (पूर्ण)रूपसे विमल ( स्वच्छ ) जो केवल ज्ञान नामक नेत्र है उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बोंका भान होता है उसी प्रकार शुद्ध आत्मा आदि पदार्थ आलोके जाते हैं अर्थात् देखे जाते हैं, जाने जाते हैं, परिच्छिन्न किये जाते हैं इस कारण वह निज शुद्ध आत्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोक नामके धारक निज-शुद्ध परमात्मामें जो अवलोकन ( देखना ) है वह निश्चय लोक है । "संज्ञा, तीन लेश्या, इन्द्रियोंके वशीभूतपना, आर्त, रौद्र ध्यान तथा दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पापको देनेवाले होते हैं।' इस गाथामें कहे हुए विभावपरिणामको आदि लेकर, सम्पूर्ण जो शुभ तथा अशुभरूप संकल्पविकल्प हैं उनके त्यागसे और निजशुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न जो परम आह्लादरूप एक सुखरूपी अमृतके आस्वादका अनुभव है उससे जो भावना होती है वही निश्चयसे लोकानुप्रेक्षा है। और इसके अतिरिक्त शेष जो पूर्वोक्त भावना है वह व्यवहारसे है । इसप्रकार संक्षेपसे लोकानुप्रेक्षाका वर्णन समाप्त हुआ | अब बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन करते हैं। सो इस प्रकार है-एकेन्द्रिय, विकलेंद्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य, देश, कुल, रूप, इंद्रियों में पटुता, नीरोग, आयु, उत्तम बुद्धि, उत्तम धर्मका सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषयसुखोंसे रहित होना, क्रोध आदि कषायोंका दूर होना ये; जो पूर्वोक्त सब हैं. इनमें पूर्व-पूर्व की अपेक्षा पर-पर अर्थात् एकेन्द्रियताकी अपेक्षा विकलेन्द्रियता आदि दुर्लभ हैं। यदि कथंचित् काकतालीय न्यायसे इन सबकी प्राप्ति हो जाय तो भी इन सबकी प्राप्तिरूप जो ज्ञान है उसमें फलभूत जो निजशुद्ध Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्व विषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति । तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः । तद्भावनारहितानां पुनरपि संसारे पतनमिति । तथा चोक्तम् - "इत्यतिदुर्लभरूपां बोधि लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् । संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ॥१॥" पुनश्चोक्तं मनुष्य भवदुर्लभत्वम् - "अशुभ परिणामबहुलता लोकस्य विपुलता महामहती । योनिवि - पुलता च कुरुते सुदुर्लभां मानुषों योनिम् । १।" बोधिसमाधिलक्षणं कथ्यते - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति । एवं संक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ ११४ अथ धर्मानुप्रेक्षां कथयति । तद्यथा - संसारे पतन्तं जीवमुद्धृत्य नागेन्द्र नरेन्द्रदेवेन्द्रादिवन्द्ये अव्याबाधानन्तसुखाद्यनन्तगुणलक्षणे मोक्षपदे धरतीति धर्मः । तस्य च भेदाः कथ्यन्तेअहिंसालक्षणः सागारानगारलक्षणो वा 'उत्तमक्षमादिलक्षणो वा निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मको वा शुद्धात्मसंवित्यात्मकमोहक्षोभरहितात्मपरिणामो वा धर्मः । अस्य धर्मस्यालाभेऽतीतानन्तकाले " णिच्चिदरधाउसत्तय तरुदस वियर्लेदियोसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चउदस मणुयेसु आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यानरूप परमसमाधि है वह दुर्लभ है । परमसमाधि दुर्लभ क्यों है ऐसी शंका करो तो समाधान यह है कि - परम समाधि को रोकनेवाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबंध आदि जो विभाव परिणाम हैं उनकी जीवके प्रबलता है इसलिये परम समाधिका होना दुर्लभ है । इस कारण उस परम समाधिकी दुर्लभताकी ही निरंतर भावना करनी चाहिये। क्योंकि, जो जीव उसकी भावना नहीं करते उनका फिर भी संसार में पतन होता है । सो ही कहा है- “कि जो मनुष्य अत्यन्त दुर्लभरूप बोधिको प्राप्त होकर, प्रमादी होता है वह वराक ( दीनजीव ) संसाररूपी भयंकर वनमें चिरकाल तक भ्रमण करता है । १ ।” और पुनः मनुष्यभवकी दुर्लभता के विषय में कहा है- " अशुभ परिणामोंकी अधिकता, संसारकी विशालता, और बड़ी-बड़ी योनियोंकी अधिकता ये सब मनुष्ययोनिको दुर्लभ करती हैं; अर्थात् जीवों के अशुभ परिणाम बहुत हैं, तीनों लोकों में उनके लिये स्थान बहुत हैं और उत्पन्न होने को नयाँ भी अधिक हैं अतः मनुष्य भवका प्राप्त होना दुर्लभ है । अब बोधि और समाधिका लक्षण कहते हैं । पहले नहीं मिले हुए जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र हैं इनका जो मिलना है वह तो बोधि कहलाती है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकोंको निर्विघ्नतापूर्वक जो अन्य भवमें साथ ले जाना सो समाधि है । ऐसे संक्षेपसे दुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त किया ।। अब धर्मानुप्रेक्षाका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - संसार में गिरते हुए जीवको उठाकर जो धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र आदिकों के पूज्य पदमें अथवा बाधारहित अनंत सुख आदि अनंत गुणोंरूप लक्षणका धारक जो मोक्षपद है उसमें धरता है वह धर्म है । अब उस धर्म के भेद कहे जाते हैं-अहिंसारूप लक्षणका धारक धर्म है. गृहस्थ और मुनि इन भेदोंवाला धर्म है, अथवा उत्तम क्षमा आदि लक्षणवाला दश प्रकारका धर्म है अथवा निश्चय और व्यवहाररूप रत्नत्रयस्वरूप धर्म है, अथवा शुद्ध आत्माके ज्ञानस्वरूप जो मोह तथा क्षोभरहित आत्माका परिणाम है उसरूप धर्म है । इस धर्मकी प्राप्ति न होनेसे अतीत ( गये हुए ) अनंत कालमें नित्यनिगोद वनस्पति में सात लाख, इतर निगोद वनस्पतिमें सात लाख, पृथ्वीकाय में सात लाख, काय में सात लाख, तेजकाय में सात लाख, वायुकाय में सात लाख, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख, बे इन्द्री, जल Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ११५ सदसहस्सा। १।" इति गाथाकथितचतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये परमस्वास्थ्यभावनोत्पन्ननिाकुलपारमार्थिकसुखविलक्षणानि पञ्चेन्द्रियसुखाभिलाषजनितव्याकुलत्वोत्पादकानि दुःखानि सहमानः सन् भ्रमितोऽयं जीवो यदा पुनरेवं गुणविशिष्टस्य धर्मस्य लाभो भवति तदा राजाधिराजार्द्धमाण्डलिकमहामाण्डलि कबलदेववासुदेवकामदेवसकलचक्रवत्तिदेवेन्द्रगणधरदेवतीर्थङ्करपरमदेव प्रथमकल्याणत्रयपर्यन्तं विविधाभ्युदयसुखं प्राप्य पश्चादभेदरत्नत्रयभावनाबलेनाक्षयानन्तसुखादिगुणास्पदमहत्पदं सिद्धपदं च लभते तेन कारणेन धर्म एव परमरसरसायनं निधिनिधानं कल्पवृक्षः कामधेनुश्चिन्तामणिरिति। कि बहुना ये जिनेश्वरप्रणीतं धर्म प्राप्य दृढमतयो जातास्त एव धन्याः। तथा चोक्तम्- "धन्या ये प्रतिबुद्धा धर्मे खलु जिनवरैः समुपदिष्टे । ये प्रतिपन्ना धर्म स्वभावनोपस्थितमनीषाः ।१।" इति संक्षेपेण धर्मानुप्रेक्षा समाप्ता ॥ इत्युक्तलक्षणा अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मतत्त्वानुचिन्तनसंज्ञा निरास्रवशुद्धात्मतत्त्वपरिणतिरूपस्य संवरस्य कारणभूता द्वादशानुप्रेक्षाः समाप्ताः ॥ अथ परोषहजयः कथ्यते-क्षुत्पिपासाशोतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्या तेइंद्री और चौइंद्री इनमें दो दो लाख, देव, नारकी और तियंच इन तीनोंमें चार चार लाख तथा मनुष्योंमें चौदह लाख योनि हैं । १ ।" इस गाथामें कही हुई चौरासी लाख योनियोंमें परम स्वास्थ्यकी भावनासे उत्पन्न, व्याकुलतारहित ऐसे पारमार्थिक सुखसे विलक्षण ( भिन्न ) और पांचों इन्द्रियोंके सुखोंकी अभिलाषा ( वांछा ) से उत्पन्न, व्याकुलताको पैदा करनेवाले ऐसे जो दुःख हैं उनको सहते हुए इस जीवने परिभ्रमण किया। जब इस जीवको पूर्वोक्त प्रकारके धर्मकी प्राप्ति होती हैं तब राजाधिराज, महाराज, अर्धमंडलेश्वर, महामंडलेश्वर, बलदेव, नारायण, कामदेव, चक्रवर्ती, देव, इंद्र, गणधर देव, तीर्थंकर परमदेवके पदों तथा तीर्थंकरोंके गर्भ, जन्म तथा तप कल्याणकों पर्यन्तके जो अनेक प्रकारके अभ्युदय सुख हैं उन सुखोंको प्राप्त होकर, तदनन्तर अभेद रत्नत्रयको भावनाके बलसे अक्षय और अनंत गुणोंका स्थान जो अरहंत पद है उसको और सिद्ध पदको प्राप्त होता है। इसकारण धर्म ही परम रसका रसायन है, धर्म ही निधियोंका निधान ( भंडार ) है, धर्म ही कल्पवृक्ष है, धर्म ही कामधेनु गाय है और धर्म ही चिंतामणि रत्न है । विशेष क्या कहें जो जिनेश्वरके कहे हुए धर्मको प्राप्त होकर, दृढ़ बुद्धिके धारक ( सम्यग्दृष्टि ) हुए हैं वे ही धन्य हैं । सो ही कहा है-“जिन्होंने जिनवरसे उपदिष्ट धर्मको जाना है और आत्मज्ञानमें तत्पर बुद्धिके धारक जिन्होंने उस धर्मको ग्रहण किया है वे सब धन्य हैं । १।" इसप्रकार संक्षेपसे धर्मानुप्रेक्षा समाप्त हुई ॥ इसप्रकार पूर्वोक्त लक्षणकी धारक अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, और धर्मतत्त्व इनका अनुचिंतन ( विचार ) रूप है नाम जिनका ऐसी और आस्रवरहित-शुद्ध आत्मतत्त्वकी परिणतिरूप जो संवर है उसकी कारणरूप ऐसी बारह अनुप्रेक्षा ( भावना ) समाप्त हुई । अब परीषहोंका जय ( जीतना ) जो है उसका कथन करते हैं-क्षुधा १, प्यास २, शीत ३, उष्ण ( गर्मी) ४, दश मशक ५, नग्नता ६, अरति ७, स्त्री 4 चर्या ( गमन) ९, निषद्या ( बस्ती ) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् क्रोशवधयाच नालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाऽज्ञानादर्शनानीति विज्ञेयाः । तेषां क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि सुखदुःखजीवितमरणलाभालाभनिन्दाप्रशंसादिसमतारूपपरमसामायिकेन नवतर शुभाशुभकर्म संवरण चिरन्तनशुभाशुभकर्मनिर्जरणसमर्थेनायं निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानन्दलक्षणसुखामृतसंवित्ते रचलनं स परीषहजय इति ॥ [ द्वितीय अधिकार द्वाविंशतिपरीषहा अथ चारित्रं कथयति । शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चय रत्नत्रयपरिणते स्वशुद्धात्मस्वरूपे चरणमवस्थानं चारित्रम् । तच्च तारतम्यभेदेन पञ्चविधम् । तथाहि — सर्वे जीवाः केवलज्ञानमया इति भावनारूपेण समतालक्षणं सामायिकम्, अथवा परमस्वास्थ्यबलेन युगपत्समस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्पत्यागरूपसमाधिलक्षणं वा, निर्विकारस्वसंवित्तिबलेन रागद्वेषपरिहाररूपं वा स्वशुद्धात्मानुभूतिबलेनार्त्त रौद्र परित्यागरूपं वा समस्तसुखदुःखादिमध्यस्थरूपं चेति । अथ छेदोपस्थापनं कथयति - यदा युगपत्समस्तविकल्पत्यागरूपे परमसामायिके स्थातुमशक्तोऽयं जीवस्तदा समस्तहिंसा नृतस्ते या ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतमित्यनेन पञ्चप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावद्येभ्यो निवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थापनम् । अथवा छेदे व्रतखण्डे सति निविकारसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चित्तेन तत्साधकबहिरङ्गव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्यु १०, शय्या ११, आक्रोश ( कटु वचन ) १२, वध ( मारण) १३, याचना १४, अलाभ १५, रोग १६, तृणस्पर्श १७, मल १८, सत्कारपुरस्कार १९, प्रज्ञा २०, अज्ञान २१, और अदर्शन २२, ये बाईस परीषह जानने चाहिये । इन क्षुधा तृषा आदि वेदनाओंके तीव्र उदय होनेपर भी सुख, दुःख, जीवन, मरण, लाभ, अलाभ, निंदा, प्रशंसा आदिमें समानतारूप जो नवीन शुभ तथा अशुभ कर्मोंको रोकने में और पुराने शुभ अशुभ कर्माके निर्जरण करने में समर्थ ऐसा परम सामायिक है उस करके निज परमात्माको भावनासे उत्पन्न विकाररहित नित्यानंदरूप लक्षणका धारक जो सुखामृत हैं उसके ज्ञानसे जो नहीं चलना सो परीषहजय है | अब चारित्रका निरूपण करते हैं । शुद्ध उपयोगस्वरूप जो निश्चय रत्नत्रय उसमें परिणत जो आत्मरूप उसमें जो चरण कहिये स्थित होना सो चारित्र है । वह तारतम्य भेदसे पाँच प्रकारका है । सो ही दिखाते हैं-सब जीव केवल ज्ञानमय हैं ऐसी भावनारूपसे जो समता लक्षण परिणामका करना सो सामायिक हैं । अथवा परम स्वास्थ्य के बलसे एक ही समय में संपूर्ण शुभ और अशुभ संकल्प विकल्पोंका त्यागरूप जो समाधि ( ध्यान ) है वह है लक्षण जिसका सो सामायिक है । अथवा विकाररहित आत्मज्ञानके बलसे जो राग और द्वेषका परिहार ( त्याग ) है उसरूप सामायिक है । अथवा शुद्ध आत्मा के अनुभवके बलसे आर्त्त तथा रौद्र ध्यानका त्याग करने स्वरूप सामायिक है । अथवा समस्त सुख तथा दुःखोंमें जो मध्यस्थ रहना तद्रूप सामायिक है || अब छेदोपस्थापन नामक चारित्रके द्वितीय भेदका वर्णन करते हैं-जब एक ही समय में संपूर्ण विकल्पोंके त्यागरूप परम सामायिक में स्थित होनेको यह जीव असमर्थ होता है तब " समस्तहिंसा, अनृत ( असत्य ), स्तेय ( चोरी ), अब्रह्म तथा परिग्रह इन पाँचोंसे जो विरति ( रहितता) सो व्रत है" इस कथन के अनुसार विकल्प भेदसे पाँच प्रकारके व्रतोंका छेदन होनेपर जो राग आदि विकल्परूप सावद्योंसे जीवको छुड़ाकर निजशुद्ध आत्मामें उपस्थापन करे सो छेदोपस्थापन है । अथवा छेद अर्थात् व्रतका खंड ( भंग वा नाश ) होनेपर निर्विकार निज आत्माके ज्ञानरूप निश्चयप्रायश्चित्तके बलसे अथवा व्यवहारप्रायश्चित्तसे जो निज आत्मामें स्थितिका होना सो Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व - नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः ११७ पस्थापनं छेदोपस्थापनमिति । अथ परिहारविशुद्धि कथयति - "तीसं वासा जम्मे वासपुहत्तं च त्रिमूले । पच्चवखाणं पढिदो संज्झण दुगाउ अ विहारो | १|" इति गाथाकथितक्रमेण मिथ्यात्वरागादिविकल्पमलानां प्रत्याख्यानेन परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धिनैर्मल्यं परिहारविशुद्धिचारित्रमिति । अथ सूक्ष्मसाम्परायचारित्रं कथयति । सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसाम्परायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमिति । अथ यथाख्यातचारित्रं कथयति -- यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति ॥ इदानीं सामायिकादिचारित्रपञ्चकस्य गुणस्थानस्वामित्वं कथयति । प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वानिवृत्तिसंज्ञगुणस्थानचतुष्टये सामायिकचारित्रं भवति छेदोपस्थापनञ्च परिहारविशुद्धिस्तु प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वये, सूक्ष्मसांपरायचारित्र पुनरेकस्मिन्नेव सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने, यथाख्यातचारित्रमुपशान्तकषायक्षीणकषाय सयोगिजिनायो गिजिनाभिधानगुणस्थानचतुष्टये भवतीति । अथ संयमप्रतिपक्षं कथयति - संयमासंयमसंज्ञं दार्शनिकाद्यैकादशभेदभिन्नं देशचारित्रमेकस्मिन्नेव पञ्चमगुणस्थाने ज्ञातव्यम् । असंयमस्तु मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्राविरतसम्यग्दृष्टिसंज्ञगुणस्थानचतुष्टये भवति इति चारित्रव्याख्यानं समाप्तम् || छेदोपस्थापन है | अब परिहारविशुद्धिका कथन करते हैं "जो जन्मसे ३० वर्ष तककी अवस्थाको सुखमें व्यतीत करके वर्षपृथक्त्व । ८ वर्ष ) पर्यन्त तीर्थंकरके चरणों में प्रत्याख्यानको पढ़कर तीनों संध्याकालोंको छोड़कर प्रतिदिन दो कोश गमन करता है, उस मुनिके परिहारविशुद्धि संयम होता है । १ ।” इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार मिथ्यात्व राग इत्यादिक जो विकल्प मल हैं उनका प्रत्याख्यान ( परिहार अथवा त्याग ) करके अधिकता के साथ जो आत्माकी शुद्धि अर्थात् निर्मलता है सो परिहारविशुद्धिनामक तृतीय चारित्र है । अब सूक्ष्म सांपराय चारित्रका कथन करते हैंसूक्ष्म, इंद्रियोंके अगोचर ऐसा जो निजशुद्ध आत्मा उसके ज्ञानके बलसे सूक्ष्म लोभ नामक सांपरायकषायका जहाँपर पूर्णरूप से उपशमन अथवा क्षपण ( नाश ) होता है वह सूक्ष्मसांपरायचारित्र है । अव यथाख्यातचारित्रका वर्णन करते हैं-जैसा निष्कंप सहजशुद्ध स्वभावसे कषायरहित आत्माका स्वरूप है वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया हो सो यथाख्यातचारित्र है || अब सामायिक आदि जो पाँच चारित्र हैं उनके गुणस्थानोंके स्वामित्वका अर्थात् किस किस गुणस्थान में कौन कौन सा चारित्र होता है इस विषयका कथन करते हैं । प्रमत्त ६ अप्रमत्त ७ अपूर्वकरण ८ और अनिवृत्तिकरण ९ नामक जो चार गुणस्थान हैं इनमें सामायिक और छेदोपस्थापन ये दो चारित्र होते हैं । और परिहारविशुद्धि नामक चारित्र तो प्रमत्त तथा अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में ही होता है, और सूक्ष्मसांपराय चारित्र भी एक ही सूक्ष्म सांपराय नामक दशम गुणस्थान में होता है, तथा यथाख्यात चारित्र जो है वह उपशांत कषाय ११, क्षीणकषाय १२, सयोगिजिन १३, और अयोगिजिन १४ इन नामोंके धारक जो चार गुणस्थान हैं उनमें होता है । अब संयमके प्रतिपक्षी जो संयमासंयम और असंयम हैं वे किस-किस गुणस्थान में होते हैं यह वर्णन करते हैं । दार्शनिक आदि एकादश प्रतिमारूप एकादश भेदोंसे भेदको प्राप्त हुआ जो संयमासंयम नामक देश चारित्र है वह एक पंचम गुणस्थान में ही जानना Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ द्वितीय अधिकार एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापात्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि । यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । अत्राह सोमनामराजश्रेष्ठी । भगवन्नेतेषु व्रतादिसंवरकारणेषु मध्ये संवरानुप्रेक्षैव सारभूता, सा चैव संवरं करिष्यति किं विशेषप्रपञ्चेनेति । भगवानाह - त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिस्थानां यतीनां तथैव पूर्यते तत्रासमर्थानां पुनर्बहुप्रकारेण संवरप्रतिपक्षभूतो मोहो विजृम्भते तेन कारणेन व्रतादिविस्तरं कथयन्त्याचार्याः ||३५|| "असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं तु होइ चुलसीदी । सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइया हुंति बत्तीसं |१| जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो हुंति । अपरिणच्छिण्णेसु अ बंधो ठिदिकारणं णत्थि । २ ।" एवं संवरतत्त्वव्याख्याने सूत्रद्वयेन तृतीयं स्थलं गतम् ॥ ११८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ सम्यग्दृष्टिजीवस्य संवरपूर्वकं निर्जरातत्त्वं कथयति, - जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्म पुग्गलं जेण । भावेण सडदि या तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा || ३६ || चाहिये | और असंयम जो है वह तो मिथ्यादृष्टि १, सासादन २, मिश्र ३, और अविरत सम्यग्दृष्टि ४ नामक चार गुणस्थानोंमें होता है । ऐसे चारित्रका व्याख्यान समाप्त हुआ || इस पूर्वोक्त प्रकारसे भावसंवरके कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र इन सबका जो व्याख्यान किया, उस व्याख्यान में निश्चयरत्नत्रयको साधनेवाला जो व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभोपयोग है उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य हैं वे तो पापावके संवरमें कारण जानने चाहिये । और जो व्यवहार रत्नत्रय से सिद्ध होने योग्य शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं वे पुण्य तथा पाप इन दोनों आस्रवोंके संवरके कारण होते हैं यह समझना चाहिये । यहाँ सोम नामक राजशेठ कहता है कि हे भगवान् ! ये जो पूर्वोक्त व्रत, समिति आदिक संवरके कारण हैं इनमें संवरानुप्रेक्षा जो है सो ही सारभूत है और वही इस जीवके आस्रवका संवर कर देगी फिर आपने जो विशेष प्रपंच ( अधिक विस्तारसे कथन ) किया है, इससे क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्नका उत्तर भगवान् नेमिचन्द्रस्वामी देते हैं कि - मन वचन तथा काय इन तीनोंकी गुप्तिस्वरूप जो निर्विकल्प समाधि ( ध्यान ) हैं उसमें स्थित जो मुनि हैं उनके तो उस गुप्तिसे ही पूर्ति अर्थात् संवर हो जाता है और उसमें असमर्थ जो जीव हैं उनके नाना प्रकारसे संवरका प्रतिपक्षीभूत मोह उत्पन्न होता है इस कारण आचार्य व्रत आदिका कथन करते हैं ॥ ३५ ॥ क्रियावादियों के एकसौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानियोंके सड़सठ और वैनयिकों के बत्तीस ऐसे कुल मिलाकर तीनसौ तिरसठ भेद पाखंडियों के हैं | १ | योगसे प्रकृति और प्रदेशबंध होते हैं, कषायोंसे स्थिति तथा अनुभागबंध होता है और जिसके कषायस्थान उदयरूप नहीं है तथा क्षीण हो गये हैं ऐसे उपशांतकषाय व क्षीणकषाय और सयोगकेवली हैं उनमें तत्काल बंध स्थितिका कारण नहीं है । २ । इस प्रकार संवरतत्त्व के व्याख्यान में दो सूत्रों द्वारा तृतीय स्थल समाप्त हुआ || Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः यथाकालेन तपसा च भुक्तरसं कर्मपुद्गलं येन । भावेन सडति ज्ञेया तत्सडन चेति निर्जरा द्विविधा ||३६|| व्याख्या- 'या' इत्यादिव्याख्यानं क्रियते- "या" ज्ञातव्या । का ? " णिज्जरा" भावनिर्जरा । सा का ? निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानुभूतिसञ्जात सहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्यध्याहारः । " जेण भावेण " येन भावेन जीवपरिणामेन । किं भवति " सडदि" विशीर्यते पतति गलति विनश्यति । किं कर्तृ "कम्मवुग्गलं" कर्मारिविध्वंसकस्वकीयशुद्धात्मनो विलक्षणं कर्मपुद्गलद्रव्यं । कथंभूतं "भुत्तरसं" स्वोदयकालं प्राप्य सांसारिक सुखदुःख रूपेण भुक्तरसं दत्तफलं । केन कारणभूतेन गलति "जह कालेण" स्वकालपच्यमानाम्रफलवत्सविपाकनिर्जरापेक्षया, अभ्यन्तरे निजशुद्धात्मसंवित्तिपरिणामस्य बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन काललब्धिसंज्ञेन यथाकालेन न केवलं यथाकालेन "तवेणय" अकालपच्यमानानामानादिफलवदविपाक निर्जरापेक्षया अभ्यन्तरेण समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणेन बहिरङ्गेणान्तस्तत्त्वसंवित्ति - साधकसंभूतेनानशनादिद्वादशविधेन तपसा चेति "तस्सडणं" कर्म्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा । ११९ अब सम्यग्दृष्टि जीवके संवरपूर्वक निर्जरा होती है इसकारण निर्जरातत्त्वका कथन करते हैं । गाथाभावार्थ - जिस आत्माके परिणामरूप भावसे कर्मरूपी पुद्गल फल देकर नष्ट होते हैं वह तो भाव निर्जरा है और सविपाक निर्जराकी अपेक्षासे यथाकाल अर्थात् काललब्धिरूप कालसे तथा अविपाक निर्जराकी अपेक्षासे तपसे जो कर्मरूप पुद्गलोंका नष्ट होना है सो द्रव्यनिर्जरा है ।। ३६ ।। व्याख्यार्थं—“णेया” इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते हैं । "या" जानना चाहिये, किसको “णिज्जरा" भाव निर्जराको, वह क्या है ? कि विकारोंसे रहित और परम चैतन्यरूप जो चित् चमत्कार है उसके अनुभवसे उत्पन्न जो सहज आनंद स्वभाव सुखामृतके आस्वादरूप भाव है उसरूप है | यहाँपर भाव शब्दका अध्याहार ( विवक्षासे ग्रहण ) किया गया है । "जेण भावेण " जिस जीवके परिणामरूप भावसे क्या होता है कि "सडदि" जीर्ण होता है, गिरता है, गलता है अथवा नाशको प्राप्त होता है; कोन कर्त्ता ? "कम्म पुग्गलं" कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करनेवाला जो निजशुद्ध आत्मा है उससे विलक्षण कर्मरूपी पुद्गल द्रव्य; कैसा होकर ? "भुत्तरसं" अपने उदयकालको प्राप्त होकर संसार सम्बन्धी सुख तथा दुःखरूपसे भुक्तरस अर्थात् दिया है रस जिसने ऐसा होकर, किस कारणसे गलता है ? "जह कालेण" अपने समयमें पकते हुए आम्र के फलके समान तो सविपाक निर्जराकी अपेक्षासे, और अन्तरंग में निजशुद्ध आत्माके ज्ञानरूप परिणामके बहिरंग सहकारी कारणभूत जो काललब्धि है उस नामके धारक यथाकालसे, और केवल यथाकालसे हो नहीं किंतु "तवेण य" बिना समय पकते हुए आम्र आदि फलों के समान अविपाक निर्जराकी अपेक्षासे, तथा समस्त परद्रव्यों में इच्छाके रोकनेरूप अभ्यंतर तपसे और अन्तस्तत्त्व ( आत्मरूपत्व ) के ज्ञानको साधनेवाले अनशन ( उपवास ) आदि द्वादश प्रकारके बहिरंग तपसे "तस्सडणं" उस कर्मका जो गलना सो द्रव्य निर्जरा है । शंका- आपने जो पहले 'सडदि ' ऐसा कहा है उसीसे द्रव्यनिर्जरा प्राप्त हो गई फिर 'सडन' इस Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार ननु पूर्व यदुक्तं 'सडदि' तेनैव द्रव्यनिर्जरा लब्धा पुनरपि सडनं किमर्थं भणितम् ? तत्रोत्तरं-तेन सडदिशब्देन निर्मलात्मानुभूतिग्रहणभावनिर्जराभिधानपरिणामस्य सामर्थ्यमुक्तं न च द्रव्यनिर्जरेति । "इदि" इति द्रव्यभावरूपेण निर्जरा द्विविधा भवति ॥ अत्राह शिष्यः-सविपाकनिर्जरा नरकादिगतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति । तत्रोत्तरं-अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूविका निर्जरा सैव ग्राह्या । या पुनरज्ञानिनां निर्जरा सा गजस्नानवन्निष्फला। यतः स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुतरं बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या। या तु सरागसदृष्टीनां निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्मविनाशं करोति तथापि संसारस्थिति स्तोकां कुरुते । तद्भवे तीर्थकरप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति । वीतरागसदृष्टीनां पुनः पुण्यपापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति । उक्तं च श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः “जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसदसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमित्तेण ।१।" कश्चिदाह-सदृष्टीनां वीतरागविशेषणं किमर्थ रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेद विज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति । तत्र परिहारः । अन्धकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति । स च कूपे पतनं शब्दका कथन क्यों किया? इसका समाधान यह है कि पहले जो 'सडदि' शब्द कहा गया है उससे निर्मल आत्माके अनुभवको ग्रहण करनेरूप जो भावनिर्जरा नामक परिणाम है उसका सामर्थ्य कहा गया है और द्रव्यनिर्जराका कथन नहीं किया गया। 'इदि' इसप्रकार द्रव्य और भावरूपसे दो प्रकारको निर्जरा जाननी चाहिये । यहाँ शिष्य कहता है कि जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियोंमें अज्ञानियोंके भी होती हुई दीख पड़ती है। इसलिये सम्यगज्ञानियोंके सविपाक निर्जरा होती है यह नियम नहीं है ? इस विषयमें उत्तर यह है कि यहाँपर जो संवरपूर्वक निर्जरा है उसीको ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि, वही मोक्षका कारण है । और जो अज्ञानियोंके निर्जरा होती है वह तो गजस्नान ( हाथीके स्नान ) के समान निष्फल है। क्योंकि, अज्ञानी जीव थोड़े कर्मोंकी तो निर्जरा करता है और बहुतसे कर्मोको बाँधता है। इस कारण अज्ञानियोंको सविपाक निर्जराका यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये । तथा जो सराग सम्यग्दृष्टियों के निर्जरा है वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है और शुभ कर्मोका नाश नहीं करती तथापि संसारकी स्थितिको अल्प करती है अर्थात् जीवके संसारपरिभ्रमणको घटाती है। उसी भवमें तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्धका कारण हो जाती है और परम्परासे मोक्षकी कारणभूत है। और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि हैं उनके पुण्य तथा पाप दोनोंका नाश होनेपर उसो भवमें वह सविपाक निर्जरा मोक्षकी कारण हो जाती है । सोही श्रीमान् कुन्दकुन्द-आचार्यदेवने कथन किया है - "अज्ञानी जिन कर्मोका एक लाख करोड़ वर्षों में नाश करता है उन्हीं कर्मोको ज्ञानी जीव मनोवचनकायकी गुप्तिका धारक होकर एक उच्छ्वास मात्रमें नष्ट कर देता है । १ ।" यहाँ कोई शंकाका कथन करता है कि जो सम्यग्दृष्टि हैं उनके वीतराग यह विशेषण किसलिये लगाया गया है ? क्योंकि राग आदिक हेय ( त्याज्य ) हैं, ये मेरे नहीं हैं ऐसा भेदविज्ञान उत्पन्न होनेपर वह रागका अनुभव करे तो भी उसके ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष हो जाता है। इस शंकाका खंडन यह है कि, अन्धकारमें दो पुरुष हैं, एक हाथमें दोपक लिये हुए है और दूसरा बिना दीपकके है। वह दीपकरहित पुरुष न तो कूपके पतनको जानता Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्व- नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः सर्पादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे दोषो नास्ति । यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति । यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति । तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवन्तोति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत् अन्यः कोऽपि रागाविभेदविज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिकमनुभवति तावतांशेन सोऽपि बध्यत एव तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति । यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् । तथा चोक्तं - "चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहारो । चक्खू होदि णिरत्थं दट्ठूण विले पडतस्स " || ३६ || एवं निर्जराव्याख्याने सूत्रेणैकेन चतुर्थस्थलं गतम् ॥ अथ मोक्षतत्त्वमावेदयति ; - सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । यो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥३७॥ १२१ सर्वस्य कर्मणो यः क्षयहेतुः आत्मनः हि परिणामः । ज्ञेयः स भावमोक्षो द्रव्यविमोक्षश्च कर्मपृथग्भावः ॥ ३७॥ व्याख्या -- यद्यपि सामान्येन निरवशेषनिराकृत कर्म मलकलङ्कस्याशरीरस्थात्मन आत्यन्तिकस्वाभाविकाचिन्त्याद्भुतानुपमसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणास्पदमवस्थान्तरं मोक्षो भण्यते तथापि विशेषेण भावद्रव्यरूपेण द्विधा भवतीति वार्तिकम् । तद्यथा - "णेयो स भावमुक्खो" है और न सर्प आदिको जानता है इसलिये वह अन्धकारमें कुँये आदिमें अज्ञानसे गिर जावे तो दोष नहीं है । तथा जिसके हाथमें दीपक है वह मनुष्य यदि कूपपतन आदिसे नष्ट हो जावे तो उसके हाथमें जो दीपक था उसका कोई फल नहीं हुआ । और जो उस अन्धकारमें दीपकके प्रकाशसे कूपपतन आदिको छोड़ता है उसके दीपकका फल है । इसी दृष्टान्त के अनुसार कोई मनुष्य तो "राग आदि हेय हैं मेरे नहीं हैं" इसप्रकार के भेदविज्ञानको नहीं जानता है वह तो कर्मोंसे बँधता ही है । और दूसरा मनुष्य भेदविज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी जितने अंशोंसे रागादिकका अनुभव करता है उतने अंशों से वह भेदविज्ञानी पुरुष भी बँधता ही है । और उसके रागादि भेदविज्ञानका फल भी नहीं है और जो जीव राग आदिकमें भेदविज्ञान होनेपर राग आदिका त्याग करता है उसके भेदविज्ञानका फल है यह जानना चाहिये । सो ही कहा है- " नेत्रोंसे देखने का फल सर्प आदिके दोषोंसे मार्गमें बचना ही है; और जो नेत्रद्वारा सर्प आदिको देखकर भी सर्पके बिल में पैर धरता है उसके नेत्रोंका होना व्यर्थ (निष्फल ) है " ||३६|| इसप्रकार निर्जरातत्त्वके व्याख्यानसे एक सूत्रमें चतुर्थ स्थल समाप्त हुआ || अब मोक्षतत्त्वका उपदेश करते हैं; ------- गाथाभावार्थ - सब कर्मोके नाशका कारण जो आत्माका परिणाम है उसको भावमोक्ष जानना चाहिये । और कर्मोंकी जो आत्मासे सर्वथा भिन्नता है वह द्रव्यमोक्ष है ||३७|| व्याख्यार्थ - " यद्यपि सामान्यरूपसे संपूर्णतया कर्मरूप मलकलंकसे रहित जो शरीररहित आत्मा है उसके आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत तथा अनुपम ऐसे जो सकल विमल केवलज्ञान आदि गुण हैं उन सबका स्थान भूत जो अवस्थान्तर है वही मोक्ष कहा जाता है, Jain Education Inter20mal Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार यो ज्ञातव्यः स भावमोक्षः । स कः ? "अप्पणो हु परिणामो" निश्चयरत्नत्रयात्मककारण समयसाररूपो "हु" स्फुटमात्मनः परिणामः । कथंभूतः ? "सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू” सर्वस्य द्रव्यभावरूप मोहनीयादिघातिचतुष्टयकर्मणो यः क्षयहेतुरिति । द्रव्यमोक्षं कथयति । "दव्व विमुक्खो" अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । कोऽसौ ? "कम्मपुहभावो" टङ्कोत्कीर्णशुद्धबुद्ध कस्वभावपरमात्मन आयुरादिशेषाघातिकर्मणामपि य आत्यन्तिकपृथग्भावो विश्लेषो विघटनमिति ॥ तस्य मुक्तात्मनः सुखं कथ्यते । " आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निष्प्रतिद्वन्द्वभावम् । अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालमुत्कृष्टान्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् । १।” कश्चिदाह - इन्द्रियसुखमेव सुखं मुक्तात्मनामिन्द्रियशरीराभावे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखं कथं घटत इति । तत्रोत्तरं दीयते - सांसारिक सुखं तावत् स्त्रीसेवादिपञ्चेन्द्रियविषयप्रभवमेव, यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहितानां निर्व्याकुलचित्तानां पुरुषाणां सुखं तदतीन्द्रियसुखमत्रैव दृश्यते । पञ्चेन्द्रियमनोज नित विकल्पजालरहितानां निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणातोन्द्रियम् । यच्च भावकर्मद्रव्यकर्मरहितानां सर्वप्रदेशाह्लादैकपारमार्थिक परमानन्दपरिणतानां मुक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदत्यन्तविशेषेण ज्ञातव्यम् । अत्राह शिष्यः - संसारिणां निरन्तरं तथापि विशेषतासे भाव और द्रव्यरूपसे वह मोक्ष दो प्रकारका होता है" यह वार्तिक पाठ है । सो इस प्रकार है - "णेयो स भावमुक्खो" उसको भावमोक्ष जानना चाहिये, उसको किसको ? " अपणो हू परिणामो" निश्चयसे निश्चयरत्नत्रय लक्षण जो कारणसमयसार है उसरूप आत्माके परिणामको । कैसे आत्माके परिणामको ? " सव्वस्स कम्मण्णो जो खयहेदू" जो कि सब अर्थात् द्रव्य तथा भावरूप मोहनीय आदि चार घातिया कर्म हैं उनके नाशका कारण है उसको । अब द्रव्यमोक्षके स्वरूपको कहते हैं- "दव्वविमुक्खो" अयोगी गुणस्थानवर्त्ती जीवके अन्त्य समयमें द्रव्यमोक्ष होता है । वह द्रव्यमोक्ष कैसा है ? "कम्मपुहभावो" टंकोत्कीर्ण शुद्धबुद्ध स्वरूप एक स्वभावका धारक जो परमात्मा है उसके आयुः आदि जो शेष (बचे हुए ) चार अघातिया कर्म हैं उनका भी जो अतिशय करके भिन्न होना तथा नाश होना है उस स्वरूप है । अब उस मुक्तात्माके सुखका वर्णन करते हैं । "निज आत्मारूप उपादानकारणसे सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधासे शून्य, विशाल, वृद्धि तथा ह्रास (न्यूनता) से रहित, विषयों से शून्य, प्रतिद्वन्द्व अर्थात् प्रतिपक्षतासे वर्जित, अन्य द्रव्योंकी अपेक्षासे मुक्त, उपमारहित, अप्रमाण (अपार), नित्य और सर्व कालमें उत्तम तथा अनन्तसारतायुक्त ऐसा जो परमसुख है वह इस मोक्षसे उन सिद्धों हुआ है । १ ।" यहाँपर कोई शंका करता है कि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ जो सुख है वही सुख हैं, और सिद्ध जीवोंके इन्द्रियों तथा शरीरका अभाव है इसलिये पूर्वोक्त जो अतीन्द्रिय सुख है वह सिद्धोंके कैसे हो सकता है ? इसपर उत्तर देते हैं कि सांसारिक जो सुख है वह तो स्त्रीसेवन आदि रूप जो पाँचों इन्द्रियोंके विषय हैं उन्हींसे उत्पन्न होता है और जो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके व्यापारसे रहित तथा व्याकुलताशून्य चित्तवाले पुरुष हैं उनका जो सुख हैं वह अतीन्द्रिय सुख है । और इस लोक में ही देखा भी जाता है । और पाँचों इन्द्रियों तथा मनसे उत्पन्न जो विकल्पों के समूह हैं उनसे रहित और निर्विकल्प ध्यान में स्थित ऐसे परम योगियोंके राग आदिकी शून्यतापूर्वक जो स्वसंवेद्य ( निजके अनुभवसे जानने योग्य) आत्माका सुख है वह विशेष करके अतीन्द्रिय है। और भावकर्म तथा द्रव्यकर्मोसे रहित तथा संपूर्ण आत्मा के प्रदेशों में आह्लादका जनक ऐसा 1 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्द्रव्य-पश्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसग्रहः १२३ कर्मबन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति ? तत्र प्रत्युत्तरं । यथा शत्रोः क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया "खयउवसमिय-विसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । चत्तारिवि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते । १।" इति गाथाकथितलब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तीति । यत्पुनरन्तःकोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव आगमभाषया अधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्महननबुद्धि क्वापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । अन्यदपि दृष्टान्तनवकं मोक्षविषये ज्ञातव्यम्"रयणदीवदिणयरदहिउ, दुद्धउ धाउपहाणु । सुण्णुरुप्पफलिहउ अगणि, णव दिटुंता जाणि । १।" नन्वनादिकाले मोक्षं गच्छतां जीवानां जगच्छ्न्यं भविष्यतीति ? तत्र परिहारः। यथा-भाविकालसमयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति । जो पारमार्थिक परम सुख है उसमें परिणत ऐसे मुक्त जीवोंके जो अतीन्द्रिय सुख है वह अत्यन्त विशेषतासे अतीन्द्रिय जानना चाहिये । अब यहाँपर शिष्य कहता है कि हे गुरो, संसारी जीवोंके निरन्तर कर्मोका बंध होता है और इसी प्रकार कर्मोंका उदय भी सदा होता रहता है इस कारण शुद्ध आत्माके ध्यानका प्रस्ताव (प्रसंग) ही नहीं है फिर उनका मोक्ष कैसे होता है ? अब इस शिप्यके प्रश्नका उत्तर देते हैं कि जैसे कोई बुद्धिमान् अपने शत्रुकी क्षीण अवस्थाको देखकर, अपने मनमें विचार करता है कि यह मेरे मारनेका प्रस्ताव है अर्थात् शत्रु दुर्बल है इसलिये यह अवसर शत्रको मारनेका है। और इस विचारके पश्चात् उद्यम करके, वह बद्धिमान् अपने शत्रुको मारता है। इसी प्रकार कर्मोकी भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती इस कारण स्थितिबंध और अनुभागबंधकी न्यनता होनेसे जब कर्म लघ अर्थात क्षीण होते हैं तब बद्धिमान भव्य जीव भाषासे योपशम लब्धि. विशद्धिलब्धि. देशनालब्धि प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ये पाँच लब्धियाँ है. इनमें चार तो सामान्य हैं और पाँचवीं सम्यक्त्वचारित्रमें होती है। इस गाथासे कही हुई पाँच लब्धियों नामक तथा अध्यात्मभाषासे निज शद्ध आत्माके सन्मख परिणाम नामक जो निर्मल भावना विशेषरूप खड्ग है उससे पौरुष करके कर्मशत्रुको नष्ट करता है । और जो अन्तःकोटा. कोटिप्रमाण कर्मस्थितिरूप तथा इसीप्रकार लताकाष्ठके स्थानापन्न अनुभागरूपसे कर्मोका लघुत्व (क्षीणत्व) होने पर भी यह जीव आगमभाषासे अधःप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तथा अध्यात्मभाषासे निज शुद्ध आत्माके सन्मुख परिणामरूप जो कर्मोको नष्ट करनेकी बुद्धि है उसको किसी समयमें नहीं करेगा यह जो कथन है सो अभव्यत्व गुणका ही लक्षण जानना चाहिये । और अन्य भी नौ दृष्टान्त भोक्षके विषयमें जानने योग्य हैं-"रत्न, दोपक, सूर्य, दूध. दही, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ये नौ दृष्टान्त मोक्षके विषय में हैं।" ___अब यहाँ कोई शंका करता है कि अनादि कालसे मोक्षको जाते हुए जीवोंसे जगत्की शून्यता हो जायगी अर्थात् अनादिकालसे जो मोक्षको जीव जा रहे हैं तो न्यून होते-होते कभी न कभी जगत्में जीव सर्वथा न रहेंगे । इस शंकाका परिहार करते हैं कि जैसे क्रमसे जाते हुए जो Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार तथा मुक्ति गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति इति चेहि पूर्वकाले बहवोऽपि जीवा मोक्षं गता इदानीं जगतः शन्यत्वं किं न दृश्यते। किञ्चाभव्यानामभव्यसमानभव्यानां च मोक्षो नास्ति कथं शून्यत्वं भविष्यतीति ॥३७॥ एवं संक्षेपेण मोक्षतत्त्वव्याख्यानेनैकसूत्रेण पञ्चमं स्थलं गतम् । अत ऊर्ध्व षष्ठस्थले गाथापूर्वार्धन पुण्यपापपदार्थद्वयस्वरूपमुत्तरार्धेन च पुण्यपापप्रकृतिसंख्यां कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति; सुहअसुहभावजुत्ता पुण्ण पावं हवंति खलु जीवा । सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥३८।। शुभाशुभभावयुक्ताः पुण्यं पापं भवन्ति खलु जीवाः। सातं शुभायुः नाम गोत्रं पुण्यं पराणि पापं च ॥३८॥ व्याख्या-"पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा" चिदानन्दैकसहजशुद्धस्वभावत्वेन पुण्यपापबन्धमोक्षादिपर्यायरूपविकल्परहिता अपि सन्तानागतानादिकर्मबन्धपर्यायेण पुण्यं पापं च भवन्ति खलु स्फुटं जीवाः । कथंभूताः सन्तः "सुहअसुहभावजुत्ता" "उद्वम मिथ्यात्वविषं भावय दृष्टि च कुरु परां भक्तिम् । भावनमस्काररतो ज्ञाने युक्तो भव सदापि । १ । पञ्चमहाव्रतरक्षा कोपचतुष्कस्य भविष्यत् कालके समय हैं उनसे यद्यपि भविष्यत्कालके समयोंकी राशिमें न्यूनता होती है तथापि उस समयराशिका अंत कदापि नहीं, इसी प्रकार मुक्तिमें जाते हुए जीवोंसे यद्यपि जगत्में जीवराशिकी न्यूनता होती है तथापि उस जीवराशिका अंत नहीं है । यदि ऐसा कहो तो यह शंका भी होती है कि पूर्वकालमें बहुत जीव मोक्षको गये हैं तब इस समय जगत्को शून्यता क्यों नहीं दीख पड़ती ? तो इसपर यह भी उत्तर है कि अभव्य जीव तथा अभव्यके समान भव्यजीवोंका मोक्ष नहीं है । फिर जगत्की शून्यता कैसे होगी ? ॥३७॥ इस प्रकार संक्षेपसे मोक्षतत्त्वके व्याख्यानरूप एक सूत्रसे पञ्चम स्थल समाप्त हुआ; अब इसके आगे षष्ठ (छट्टे) स्थल में गाथाके पूर्वार्धसे पुण्य तथा पापरूप जो दो पदार्थ हैं उनके स्वरूपको और उत्तरार्धसे पुण्य प्रकृति तथा पाप प्रकृतियोंकी संख्याको कहता हूँ इस अभिप्रायको मनमें धारण कर, भगवान् इस सूत्रका प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ-शुभ तथा अशुभ परिणामोंसे युक्त जीव पुण्य और पापरूप होते हैं। सातावेदनी, शुभ आयु, शुभ नाम तथा उच्च गोत्र नामक कर्मोंकी जो प्रकृतियाँ हैं वे तो पुण्य प्रकृतियाँ हैं और शेष सब पापप्रकृतियाँ हैं ॥३८॥ व्याख्यार्थ-"पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा" चिदानन्दरूप सहज शुद्ध भावसे पुण्य, पाप बन्ध, तथा मोक्ष आदि पर्याय स्वरूप विकल्पोंसे रहित भी जीव हैं तथापि संतान (प्रवाह) से प्राप्त जो अनादि कर्मबन्ध पर्याय है उससे पुण्य तथा पाप भी होते हैं अर्थात् पुण्य पापको प्राप्त होते हैं। कैसे होते हुए जीव पुण्य पापको धारण करते हैं ? इसलिये यह विशेषण कहते हैं । "सुहअसुहभावजुत्ता" "मिथ्यात्वरूपी विषका वमन कर दो, सम्यग्दर्शनकी भावना करो, उत्कृष्ट भक्तिको करो, और भाव नमस्कारमें तत्पर होकर सदा ज्ञानमें लगे रहो । १ । पाँच महाव्रतोंकी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १२५ निग्रहं परमम् । दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तपः सिद्धिविधौ कुरूद्योगम् ।२।" इत्याद्वयकथितलक्षणेन शुभोपयोगभावेन परिणामेन तद्विलक्षणेनाशुभोपयोगपरिणामेन च युक्ताः परिणताः । इदानों पुण्यपापभेदान् कथयति "सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं" सद्वेद्यशुभायु मगोत्राणि पुण्यं भवति "पराणि पावं च" तस्मादपराणि कर्माणि पापं चेति । तद्यथा-सद्यमेकं, तिर्यग्मनुष्यदेवायुस्त्रयं, सुभगयशःकोत्तितीर्थकरत्वादिनामप्रकृतीनां सप्तत्रिंशत्, तथोच्चैर्गोत्रमिति समुदायेन द्विचत्वारिंशत्संख्याः पुण्यप्रकृतयो विज्ञेयाः। शेषा द्वयशोतिषापमिति। तत्र "दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य" इत्युक्तलक्षणषोडशभावनोत्पन्नतीर्थकरनामकर्मैव विशिष्टं पुण्यम् । षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया "मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः । १।" इति श्लोककथितपश्चविंशतिमलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्वभावनैव मुख्येति विज्ञेयम् । सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् । कथं पुण्यं करोतीति ? तत्र युक्तिमाह। यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणां तदर्थे रक्षा करो, क्रोध आदि चार कषायोंका पूर्ण रूपसे निग्रह करो, दुर्दान्त (प्रबल) इन्द्रियरूप शत्रुओंका विजय करो तथा बाह्य और आभ्यन्तर भेदसे दो प्रकारका जो तप है उसको सिद्ध करने में उद्योग करो ।२।" इस प्रकार दोनों आर्याछन्दोंसे कहे हुए लक्षणसहित शुभ उपयोगरूप भाव परिणामसे तथा उसके विपरीत अशुभ उपयोगरूप परिणामसे युक्त (परिणत) जो जीव हैं वे पुण्यपापको धारण करते हैं अथवा स्वयं पुण्यपापरूप हो जाते हैं । अब पुण्य तथा पापके भेदोंको कहते हैं । “सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं" साता वेदनी, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र ये कर्म तो पुण्यरूप हैं और इनसे भिन्न जो शेष कर्म हैं वे पापकर्म हैं। सो इस प्रकार है-साता वेदनी एक प्रकृति; तियंच, मनुष्य और देव इन भेदोंसे शुभ आयुकी प्रकृतियाँ तीन; सुभग, यशःकीत्ति तथा तीर्थकरपना आदि रूप नामकर्मकी प्रकृतियाँ सैंतीस और उच्च गोत्र एक; ऐसे सब मिलके समुदायसे बयालीस संख्याकी धारक पुण्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिये । बाकीकी जो बयासी (८२) प्रकृति आठों कर्मोकी हैं वे सब पापप्रकृतियाँ हैं । ____ उनमें "दर्शनविशुद्धि १, विनयसंपन्नता २, शील तथा व्रतोंमें अतिचाररहितता ३, निरन्तर ज्ञानमें उपयोग ४, संवेग ५, शक्तिपूर्वक त्याग ६, शक्तिपूर्वक तप ७, साधुसमाधि ८, वैयावृत्त्यका करना ९, अर्हतमें भक्ति १०, आचार्यभक्ति ११, बहुश्रुतभक्ति १२, प्रवचनभक्ति १३, आवश्यकोंमें हानि न करना अर्थात् षट्आवश्यकोंको निरन्तर धारण करना १४, मार्गप्रभावना १५, और प्रवचनवात्सल्य १६, ये तीर्थकर प्रकृतिके बंधके कारण हैं" इस कहे हुए लक्षणकी धारक जो सोलह भावना हैं उनसे उत्पन्न जो तीर्थकर नामकर्म है सो विशिष्ट पुण्य है। उक्त सोलह भावनाओंमें परमागम भाषासे "तीन मूढता, आठ मद, छः अनायतन और आठ शंका आदि दोष ऐसे पच्चीस सम्यग्दर्शनके दोष हैं।१।" इस प्रकार श्लोकमें कहे हुए पच्चीस सम्यग्दर्शनके मल (दोष तथा अतिचारों) से रहित ऐसी तथा अध्यात्मभाषासे निजशुद्ध आत्मा ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, इस प्रकारकी जो रुचि (प्रीति) है उसरूप जो सम्यक्त्वकी भावना है सोही मुख्य है यह जानना चाहिये। शंका-सम्यग्दृष्टि जीवके तो पुण्य तथा पाप ये दोनों ही हेय (त्याज्य) Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार दानसन्मानादिकं करोति तथा सम्यग्दृष्टिरप्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति चारित्रमोहोदयात्तत्रासमर्थः सन् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामर्हत्सिद्धानां तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूनां च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवञ्चनार्थं च दानपूजादिना गुणस्तवनादिना वा परमभक्ति करोति तेन भोगाकाङ्क्षादिनिदानरहितपरिणामेन कुटुम्बिना पलालमिव अनीहितवृत्त्या विशिष्टपुण्यमास्रवति तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलोकान्तिकादिविभूति प्राप्य विमानपरीवारादिसंपदं जीर्णतृणमिव गणयन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा पश्यति । किं पश्यतीति चेत्-तदिदं समवसरणं, त एते वीतरागसर्वज्ञाः, त एते भेदाभेदरत्नत्रयाराधका गणधरदेवादयो ये पूर्व श्रूयन्ते त इदानी प्रत्यक्षेण दृष्टा इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनो विरतावस्थामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन कालं नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासनाबलेन मोहं न करोति ततो जिनदीक्षां गृहीत्वा पुण्यपापरहितनिजपरमात्मध्यानेन मोक्षं गच्छतीति। मिथ्यादृष्टिस्तु तीव्रनिदानबन्धपुण्येन भोगं प्राप्य पश्चादर्द्धचक्रवत्ति हैं फिर वह पुण्य कसे करता है ? अब इस शंकाके समाधानमें युक्तिका कथन करते हैं। जैसे कोई मनुष्य अन्य देशमें विद्यमान ऐसी मनोहर (रूप लावण्यादिको धारक) स्त्रीके पाससे आये हुए मनुष्योंका उस स्त्रीकी प्राप्तिके अर्थ दान, सन्मान आदि करता है; ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव भी निजशुद्ध आत्माको ही भावता है। परंतु जब चारित्रमोहके उदयसे उस निज शुद्ध आत्माकी भावनामें असमर्थ होता है; तब दोषरहित परमात्मा स्वरूप जो अर्हत् सिद्ध हैं तथा उनके आराधक जो आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं उनकी परमात्मारूपपदकी प्राप्तिके निमित्त और विषय तथा कषायोंको दूर करनेके लिये दान पूजा आदिसे अथवा गुणोंकी स्तुति आदिसे परम भक्तिको करता है । और भोगोंकी वांछा आदि निदानोंसे रहित जो परिणाम है उससे कुटुंबियोंके पलालके समान निरिच्छकपनेसे विशिष्ट पुण्यका आस्रव करता है, अर्थात् जैसे किसान जब चावलोंकी खेती करता है; तब उसका मुख्य उद्देश चावल उत्पन्न करनेका रहता है और चावलोंका जो पलाल (घास) है उसमें उसकी वांछा नहीं रहती है, तथापि उसको बहत्तसा पलाल मिल ही जाता है। इसी प्रकार मोक्षको चाहनेवाले जीवोंके वांछा विना भी भक्ति करनेसे पुण्यका आस्रव होता है। और उस पुण्यसे स्वर्गमें इन्द्र, लोकान्तिक देव आदिकी विभूतिको प्राप्त होकर स्वर्गसंबंधी जो विमान तथा देव देवियोंका परिवार है उसको जीर्ण तृणके समान गिनता हुआ पञ्च महाविदेहोंमें जाकर देखता है। क्या देखता है ? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि, वह यह समवसरण है, वे ये श्रीवीतराग सर्वज्ञ भगवान् हैं, वे ये भेद तथा अभेदरूप रत्नत्रयकी आराधना करनेवाले गणधर देव आदि हैं, जो कि पहले सुने जाते थे, वे आज प्रत्यक्षमें देखे ऐसा मानकर अधिकतासे धर्ममें दृढ बुद्धिको करके चतुर्थ गुणस्थानके योग्य जो अपनी अविरत अवस्था है उसको नहीं छोड़ता हुआ भोगोंका सेवन होनेपर भी धर्मध्यानसे देव आयुके कालको पूर्णकर स्वर्गसे आकर तीर्थकर आदि पदको प्राप्त होता है और तीर्थकर आदि पदको प्राप्त होने पर भी पूर्वजन्ममें भावित की हुई जो विशिष्ट-भेदज्ञानकी वासना है उसके बलसे मोहको नहीं करता है और मोहरहित होनेसे श्रीजिनेन्द्रकी दीक्षाको धारण कर पुण्य तथा पापसे रहित जो निजपरमात्माका ध्यान है उसके द्वारा मोक्षको जाता हैं। और जो मिथ्यादृष्टि है वह तो तीव्र निदानबंधके पुण्यसे चक्रवर्ती, नारायण तथा रावण आदि प्रतिनारायणोंके समान भोगोंको प्राप्त होकर नरकको Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १२७ रावणादिवन्नरकं गच्छतीति । एवमुक्तलक्षणपुण्यपापपदार्थद्वयेन सह पूर्वोक्तानि सप्ततत्त्वान्येव नव पदार्था भवन्तीति ज्ञातव्यम् । इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिकदेवविरचिते द्रव्यसंग्रहग्रन्थे "आसवबंधण" इत्याद्येका सूत्रगाथा तदनन्तरं गाथादशकेन स्थलषट्कं चेति समुदायेनैकादशसूत्रः सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः ॥ २॥ जाता है। इस प्रकार पूर्वोक्तलक्षणके धारक जो पुण्य और पापरूप दो पदार्थ हैं उन सहित पूर्वोक्त जो सात तत्त्व हैं वे ही नव पदार्थ हो जाते हैं। अर्थात् जीव अजीवादि सात तत्त्वोंमें पुण्य और पापके मिलानेसे नौ पदार्थ हो जाते हैं ऐसा समझना चाहिये ॥३८॥ इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तदेवविरचितद्रव्यसंग्रहस्य श्रीब्रह्मदेवनिर्मितसंस्कृतटीकायाः शास्त्रीत्युपाधिधारक-श्रीजवाहरलालदि० जैनप्रणीतभाषानुवादे "आसवबंधण' इत्यायेकादशसूत्रैः सप्ततत्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा द्वितीयोऽन्तराधिकारः समाप्तः । २। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) तृतीयोऽधिकारः अत ऊर्ध्वं विशतिगाथापर्यन्तं मोक्षमार्ग कथयति । तत्रादौ " सम्मद्दंसण" इत्याद्यष्टगाथाभिनिश्चय मोक्षमार्गव्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादकमुख्यत्वेन प्रथमोऽन्तराधिकारस्ततः परम् "दुविहं पि मुक्खहे " इति प्रभृतिद्वादशसूत्रैर्ध्यानध्यातृध्येयध्यानफलकथन मुख्यत्वेन द्वितीयोऽन्तराधिकारः । इति तृतीयाधिकारे समुदायेन पातनिका । अथ प्रथमतः सूत्रपूर्वार्धन व्यवहारमोक्षमार्गमुत्तरार्धेन च निश्चयमोक्षमागं निरूपयतिसम्मदंसणणाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा ।। ३९ ।। सम्यग्दर्शनं ज्ञानं चरणं मोक्षस्य कारणं जानीहि । व्यवहारात् निश्चयतः तत्त्रिकमयः निजः आत्मा ॥ ३९ ॥ व्याख्या--' - "सम्मद्दंसणणाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे ववहारा" सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं मोक्षस्य कारणं हे शिष्य जानीहि व्यवहारनयात् । “णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा" निश्चयतस्तत्त्रितयमयो निजात्मेति । तथाहि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषद्रव्य पञ्चास्तिकाय सप्ततत्त्वनवपदार्थसम्यक् श्रद्धानज्ञानव्रताद्यनुष्ठान विकल्परूपो व्यवहारमोक्षमार्गः । निजनिरखनशुद्धात्मतत्त्व अब इसके पश्चात् बीस गाथा पर्यन्त मोक्षमार्गका कथन करते हैं । उसकी आदिमें " सम्मद्दंसणणाणं" इत्यादि आठ गाथाओंके द्वारा प्रधानतासे निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्गका प्रतिपादक प्रथम अन्तराधिकार है । उसके अनंतर "दुविहं पि मुक्खहेउं" इत्यादि बारह गाथाओंसे ध्यान, ध्याला, ध्येय तथा ध्यानके फलको कहना है मुख्य प्रयोजन जिसका, ऐसा द्वितीय अन्तराधिकार है। इस प्रकार इस तृतीय अधिकार में समुदाय से पातनिका ' है । _ra प्रथमही सूत्रके पूर्वार्धसे व्यवहार मोक्षमार्गको और उत्तरार्धसे निश्चय मोक्षमार्गको कहते हैं; - गाथाभावार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके समुदायको व्यव हारसे मोक्षका कारण जानो । तथा निश्चय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और चारित्र स्वरूप जो निज आत्मा है उसको मोक्षका कारण जानो ॥ ३९ ॥ व्याख्यार्थ - " सम्मद्दंसणणाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे ववहारा" हे शिष्य ! व्यवहारनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके समुदायको मोक्षका कारण जानो । " णिच्छयदो तत्तियमइओ णिओ अप्पा" और निश्चयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा चारित्र इन तीनों स्वरूप जो निज आत्मा है वही मोक्षका कारण है । भावार्थ - श्रीवीतरागसर्वज्ञसे कहे हुए जो छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्व और नव पदार्थ हैं इनका भले प्रकार श्रद्धान करना, जानना, और व्रत आदिका आचरण करना इत्यादि विकल्परूप जो है सो तो व्यवहार मोक्षमार्ग १. भूमिका Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः सम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणैकाग्र्यपरिणतिरूपो निश्चयमोक्षमार्गः । अथवा धातुपाषाणेऽग्निवत्साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, सुवर्णस्थानीय निर्विकारस्वोपलब्धिसाध्यरूपो निश्चय मोक्षमार्गः । एवं संक्षेपेण व्यवहार निश्चयमोक्षमार्गलक्षणं ज्ञातव्यमिति ॥ ३९ ॥ १२९ अथाभेदेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि स्वशुद्धात्मैव तेन कारणेन निश्चयेनात्मैव निश्चयमोक्षमार्ग इत्याख्याति । अथवा पूर्वोक्तमेव निश्चयमोक्षमार्ग प्रकारान्तरेण दृढयति; - रयणत्तयं ण वट्ट अप्पाणं मुत्तु अण्णदवियम्हि | तम्हा तनियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा ।। ४० ।। रत्नत्रयं न वर्त्तते आत्मानं मुक्त्वा तस्मात् तत्त्रिकमयः भवति खलु मोक्षस्य कारणं आत्मा ॥ ४० ॥ व्याख्या - " रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुद्दत्तु अण्णदवियम्हि" रत्नत्रयं न वर्त्तते स्वकी - यशुद्धात्मानं मुक्त्वा अन्याचेतने द्रव्ये । " तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा" तस्मात्तत्त्रितयमय आत्मैव निश्चयेन मोक्षस्य कारणं भवतीति जानीहि । अथ विस्तारः - रागादिविकल्पोपाधिरहितचिचमत्कार भावनोत्पन्नमधुर रसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरूपं सम्यग्दर्शनं तस्यैव सुखस्य समस्त विभावेभ्यः स्वसंवेदनज्ञानेन पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं तथैव दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षप्रभूतिसमस्तापध्यानरूपमनोरथजनितसंकल्पविकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य हैं । और जो अपने निरंजन शुद्ध आत्मतत्त्वका सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरण में एकाग्रपरितिरूप है वह निश्चय मोक्षमार्ग है । अथवा धातु पाषाणके विषय में अग्निके सदृश जो साधक है वह् तो व्यवहार मोक्षमार्ग है तथा सुवर्णके स्थानापन्न निर्विकार जो निज आत्मा है उसके स्वरूपकी प्राप्तिरूप जो साध्य है उस स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग है । इस प्रकार संक्षेपसे व्यवहार तथा निश्चय मोक्षमार्गके लक्षणको जानना चाहिये ||३९|| अब अभेदसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र निजशुद्ध आत्मा ही है इस कारण निश्चयनयसे आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है इस प्रकार कथन करते हैं । अथवा पहले कहे हुए निश्चय मोक्षमार्गको ही अन्य प्रकारसे दृढ करते हैं । गाथाभावार्थ - आत्माको छोड़कर अन्य द्रव्यमें रत्नत्रय नहीं रहता इस कारण उस रत्नत्रयमयी जो आत्मा है वही निश्चयसे मोक्षका कारण है || ४० ॥ व्याख्यार्थ - " रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्ण दवियम्हि" निजशुद्ध आत्माको छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्यमें रत्नत्रय नहीं रहता है। "तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा" इस कारण इस रत्नत्रयमय आत्माको ही निश्चयसे मोक्षका कारण जानो । अब विस्तारसे वर्णन करते हैं- राग आदि विकल्पोंकी उपाधिसे रहित जो चित् चमत्कारकी भावनासे उत्पन्न मधुर रस ( अमृत ) है उसके आस्वाद रूप सुखका धारक मैं हूँ इस प्रकार निश्चयरूप सम्यग्दर्शन है । और इस पूर्वोक्त सुखका जो राग आदि समस्त विभाव हैं उनसे स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा भिन्न करना अथवा जानना है सो सम्यग्ज्ञान है । और इसी प्रकार देखे, सुने, तथा अनुभव किये हुए जो भोग उनमें वांछा करना आदि जो समस्त दुर्ध्यानरूप मनोरथ हैं उनसे उत्पन्न हुए संकल्पविकल्पोंके त्यागसे उसी सुखमें संतुष्ट तथा एक आकारका धारक जो परम समता भाव उससे १७ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार सन्तुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् । इत्युक्तलक्षणं निश्चयरत्नत्रयं शुद्धात्मानं विहायान्यत्र घटपटादिबहिर्द्रव्ये न वर्त्तते यतस्ततः कारणादभेदनयेनानेकद्रव्यात्मकैक प्रपानकवत्तदेव सम्यग्दर्शनं, तदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव चारित्रं, तदेव स्वात्मतत्त्वमित्युक्तलक्षणं निजशुद्धात्मानमेव मुक्तिकारणं जानीहि ॥४०॥ एवं प्रथमस्थले सूत्रद्वयेन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गस्वरूपं संक्षेपेण व्याख्याय तदनन्तरं द्वितीयस्थले गाथाषट्कपर्यन्तं सम्यक्त्वादित्रयं क्रमेण विवृणोति । तत्रादौ सम्यक्त्वमाहजीवादीसहहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जहि ॥। ४१ ।। जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं रूपं आत्मनः तत् तु । दुरभिनिवेशविमुक्तं ज्ञानं सम्यक् खलु भवति सति यस्मिन् ॥ ४१ ॥ व्याख्या-' "जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं" वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धजीवादितत्त्वविषये चलमलिनावगाढरहितत्वेन श्रद्धानं रुचिनिश्चयइदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । "ख्वमप्पणो तं तु" तच्चाभेदनयेन रूपं स्वरूपं तु पुनः कस्यात्मन आत्मपरिणाम इत्यर्थः । तस्य सामर्थ्यमाहात्म्यं दर्शयति । " दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि " यस्मिन् सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग् भवति स्फुटं । कथम्भूतं सम्यग्भवति "दुरभिणिवेसविमुक्कं" चलितप्रतिपत्तिगच्छत्तृणस्पर्शशुक्तिकाशकलरजतविज्ञान सदृशैः संशयविभ्रमविमोहेर्मुक्तं रहितमित्यर्थः । चलायमान चित्तका वारंवार स्थिर करना सम्यक् चारित्र है । इस प्रकार कहे हुए लक्षणका धारक जो रत्नत्रय है वह शुद्ध आत्माको छोड़कर अन्य जो घट, पट आदि बाह्य द्रव्य हैं उनमें नहीं रहता है इस कारण अभेदसे अनेक द्रव्योंमय एक प्रपानक अर्थात् बदाम, सौंफ, मिश्री, मिरच आदि द्रव्योंरूप ठंढाईके समान वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है, वह आत्मा ही चारित्र है तथा वही निज आत्मतत्त्व है । इस प्रकार कहे हुए लक्षणवाले निजशुद्ध आत्माको ही मुक्तिका कारण जानो ॥ ४० ॥ इस प्रकार प्रथम स्थल में दो सूत्रोंद्वारा संक्षेपसे निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग के स्वरूपका व्याख्यान करके अब आचार्य छः गाथाओंतक क्रमसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र इन तीनोंका विस्तारसे वर्णन करते हैं । उनमें प्रथम ही सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) को कहते हैं, - गाथाभावार्थ - जीव आदि पदार्थोंका जो श्रद्धान करना है वह सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व आत्माका स्वरूप है । और इस सम्यक्त्वके होनेपर संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय इन तीनों दुरभिनिवेशोंसे रहित होकर सम्यग्ज्ञान कहलाता है ॥ ४१ ॥ व्याख्यार्थ - "जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं" वीतराग सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रसे कहे हुए जो शुद्ध 'जीव आदि तत्त्व हैं उनके विषें चल मलिन तथा अवगाढकी रहितता पूर्वक जो श्रद्धान अर्थात् रुचि अथवा "जो जिनेन्द्र ने कहा वही यह है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकारसे यह है" इस प्रकार जो निश्चयरूप बुद्धि है वह सम्यग्दर्शन है; "रूवमप्पणो तं तु" और वह सम्यग्दर्शन अभेदन से आत्माका स्वरूप है अर्थात् आत्माका परिणाम है । अब सम्यग्दर्शनके सामर्थ्य अथवा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १३१ इतो विस्तरः- सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग्भवतीति यदुक्तं तस्य विवरण क्रियते । तथाहिगौतमग्नभूतिवायुभूतिनामानो विप्राः पञ्चपञ्चशत ब्राह्मणोपाध्याया वेदचतुष्टयं ज्योतिष्कव्याकरणादिषडङ्गानि मनुस्मृत्याद्यष्टादशस्मृतिशास्त्राणि तथा भारताद्यष्टादशपुराणानि मीमांसान्यायविस्तर इत्यादिलौकिकसर्वशास्त्राणि यद्यपि जानन्ति तथापि तेषां हि ज्ञानं सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानमेव । यदा पुनः प्रसिद्धकथान्यायेन श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थकर परमदेवसमवसरणे मानस्तम्भावलोकनमात्रादेवागमभाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशमक्षयसंज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च कालादिलब्धिविशेषेण मिथ्यात्वं विलयं गतं तदा तदेव मिथ्याज्ञानं सम्यग्ज्ञानं जातम् । ततश्च "जयति भगवान्" इत्यादि नमस्कारं कृत्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा कचलोचानन्तरमेव चतुर्ज्ञानसमद्धिसम्पन्नास्त्रयोऽपि गणधर देवाः संजाताः । गौतमस्वामी भव्योपकारार्थं द्वादशाङ्गश्रुतरचनां कृतवान् । पश्चानिश्चयरत्नत्रय भावनाबलेन त्रयोऽपि मोक्षं गताः शेषाः पञ्चदशशतप्रमितब्राह्मणा जिनदीक्षां गृहीत्वा यथासम्भवं स्वर्गं मोक्षं च गताः । अभव्यसेनः माहात्म्यको दिखाते हैं । "दुरभिणिवेस विमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि " जिस सम्यक्त्वके होनेपर चलायमान ज्ञान अर्थात् यह पुरुष है अथवा स्थाणु ( काष्ठका ठूंठ ) है इस रूप संशय, गमन करते हुए जैसा तृणके स्पर्श आदिका ज्ञान होता है उस ज्ञानके समान विभ्रम अथवा अनध्यवसाय तथा सीपके टुकड़े में चाँदीके विज्ञानके समान जो विमोह अर्थात् विपर्यय है इन तीनोंसे रहित हुआ जो ज्ञान है वह सम्यग् ( समीचीन ) ज्ञान होता है । भावार्थ - सम्यक्त्वके पहले संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप दोषोंसे दूषित होनेके कारण ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है और सम्यक्त्वके होते ही उक्त दोष ज्ञानमेंसे चले जाते हैं इस कारण वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सो यह सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) का ही माहात्म्य है । अब विस्तार से वर्णन करते हैं । उसमें प्रथम ही सम्यग्दर्शन होनेपर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है यह जो कहा गया है उसका विवरण करते हैं । तथाहि - पाँच पाँचसौ ब्राह्मणोंके अध्यापक ( पढ़ानेवाले ) गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन ब्राह्मण चारों वेद, ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छहों अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृतिशास्त्र, महाभारत आदि अठारह पुराण, तथा मीमांसा न्यायविस्तर इत्यादि समस्त लौकिक शास्त्रोंको जानते थे तो भी उनका ज्ञान, सम्यग्दर्शनके विना मिथ्या ज्ञान ही था । परन्तु जब वे प्रसिद्ध कथाके अनुसार श्रीवीर वर्धमान ( महावीर ) स्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में गये तब मानस्तंभ के देखनेमात्र से ही आगमभापासे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्मभाषासे निज शुद्ध आत्माके सम्मुख परिणाम तथा काल आदि लब्धियोंके विशेषसे उनका मिथ्यात्व नाशको प्राप्त हो गया और उसी समय उनका जो मिथ्याज्ञान था वही सम्यग्ज्ञान हो गया । और सम्यग्ज्ञान होते ही "जयति भगवान्" इत्यादि रूप जो प्रसिद्ध श्लोक हैं उससे भगवान्को नमस्कार करके श्रीजिनेन्द्रकी दीक्षाको धारण कर केशोंका जो लोच किया उसके पीछे ही मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय नामक चार ज्ञान तथा सात ऋद्धियोंके धारक होकर तीनों ही श्रीमहावीर स्वामीके समवसरण में गणधर देव हो गये। उनमें से गौतमस्वामीने भव्यजीवोंके उपकारके अर्थ द्वादशाङ्गरूप श्रुतकी रचना की । फिर वे तीनों ही निश्चयरत्नत्रयकी भावनाके वलसे मोक्षको प्राप्त हुए। और एकादश ( ग्यारह ) अंगों का पाठी भी जो एक अभव्यसेन नामक मुनि था वह सम्यक्त्व के बिना Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार पुनरेकादशाङ्गधारकोऽपि सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानी सञ्जात इति । एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन ज्ञानतपश्चरणव्रतोपशमध्यानादिकं मिथ्यारूपमपि सम्यग्भवति । तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्व वृथेति ज्ञातव्यम् । तच्च सम्यक्त्वं पञ्चविंशतिमलरहितं भवति । तद्यथा-देवतामूढलोकमूढसमयमूढभेदेन मूढत्रयं भवति । तत्र क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितमनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतातरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामूढत्वं भण्यते । न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छन्ति । कथमिति चेत् ? रावणेन रामस्वामिलक्ष्मीधरविनाशार्थ बहुरूपिणी विद्या साधिता, कौरवैस्तु पाण्डवनिर्मूलनार्थं कात्यायनी विद्या साधिता, कंसेन च नारायणविनाशार्थ बढ्योऽपि विद्याः समाराधितास्ताभिः कृतं न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपाजितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्व निविघ्नं जातमिति । अथ लोकमूढत्वं कथयति । गङ्गादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नानप्रातःस्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विज्ञेयम् । अथ समयमूढत्वमाह। अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादक मिथ्याज्ञानी ही रहा । इन उक्त दोनों कथाओंसे निश्चित हुआ कि सम्यक्त्वके माहात्म्यसे मिथ्यारूप भी जो ज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम तथा ध्यान आदि हैं वे सम्यग् हो जाते हैं। और सम्यक्त्वके विना विष ( जहर ) से मिले हुए दुग्धके समान ज्ञान तपश्चरणादि सब वृथा हैं यह जानना चाहिये। और वह सम्यक्त्व पच्चीस मलोंसे अर्थात् दोषोंसे रहित होता है। वह इस प्रकार है-उन पच्चीस दोषोंमें देवतामढ़, लोकमढ़ तथा समयमूढ़के भेदोंसे तीन मूढता हैं। उसमें क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित, अनन्त ज्ञान आदि अनंत गुणोंसहित जो श्रीवीतराग सर्वज्ञ देव हैं उनके स्वरूपको नहीं जानता हुआ जीव ख्याति ( लोकमें प्रसिद्धता ), पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री और राज्य आदिकी सम्पदाको प्राप्त होनेके लिये जो राग तथा द्वेषसे युक्त और आर्त तथा रौद्र ध्यानरूप परिणामोंके धारक क्षेत्रपाल चंडिका आदि मिथ्यादृष्टि देवोंका आराधन करता है उसको देवतामूढ कहते हैं। और ये क्षेत्रपाल, चंडिका आदि देव कुछ भी फल नहीं देते हैं। फल कैसे नहीं देते ? यदि ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि-रावणने श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीके विनाशके लिये बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की, और कौरवोंने पांडवोंका मूलसे नाश करनेके अर्थ कात्यायनी विद्या सिद्ध की थी, तथा कंसने श्रीकृष्ण नारायणके नाशके लिये बहुत-सी विद्याओंकी आराधना की थी। परन्तु उन विद्याओंने श्रीरामचन्द्रजी, पाण्डव और श्रीकृष्णनारायणका कुछ भी अनिष्ट नहीं किया। और श्रीरामचन्द्रजी आदिने इन मिथ्यादृष्टि देवोंको अनुकूल नहीं किया अर्थात् नहीं आराधे तो भी निर्मल सम्यग्दर्शनसे उपार्जित जो पूर्वभवका पुण्य है उससे उनके सब विघ्न दूर हो गये। अब लोकमूढताका कथन करते हैं। "गंगा आदि जो नदीरूप तीर्थ हैं इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रातः (प्रभात ) कालमें स्नान करना, जलमें प्रवेश करके मर जाना, मृतक (मुर्दे) की अग्नि ( चिता ) में प्रवेश करके मरना, गो ( गाय ) के पुच्छ आदिको ग्रहण ( पकड़ ) करके मरण करना, पृथिवी-अग्नि Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागस वंज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिङ्गिनां भयाशास्नेहलोभैर्धर्मार्थं प्रणामविनयपूजापुरस्कारादिकरणं समय मूढत्वमिति । एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्थायां परिहरणीयमिति । त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्व प्रस्तावे पुर्नानजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवतामूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव मिथ्यात्वरागादिरूप - मूढभावत्यागेन स्वशुद्धात्मन्येवावस्थानं लोकमूढ रहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च समस्त शुभाशुभसङ्कल्पविकल्परूपपरभावत्यागेन निर्विकारतात्त्विक परमानन्दैकलक्षणपरमसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमनं समयमूढरहितत्वं बोद्धव्यम् । इति मूढत्रयं व्याख्यातम् । अथ मदाष्टस्वरूपं कथ्यते । विज्ञानैश्वर्यज्ञानतपः कुलबलजातिरूपसंज्ञं मदाष्टकं सरागसम्यग्दृष्टिभिस्त्याज्यमिति । वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुनर्मानकषायादुत्पन्नमदमात्सर्यादिसमस्तविकल्पजालपरिहारेण ममकाराहङ्काररहिते शुद्धात्मनि भावनैव मदाष्टकत्याग इति । ममकाराहङ्कारलक्षणं कथयति । कर्मजनितदेह पुत्र कलत्रादौ ममेदमिति ममकारस्तत्रैवाभेदेन गौरस्थूलादिदेहोऽहं राजाहमित्यहङ्कारलक्षणमिति । १३३ और वट ( बड़ ) वृक्ष आदिकी पूजा करना" ये सब पुण्यके कारण हैं इस प्रकार जो लोक कहते हैं उसको लोकमूढता जानना चाहिये । अब समयमूढ अर्थात् शास्त्र अथवा धर्ममूढताको कहते हैं । अज्ञानी लोगों के चित्तमें चमत्कार ( आश्चर्य ) उत्पन्न करनेवाले जो ज्योतिष अथवा मंत्रवाद आदिको देखकर; श्रीवीतराग- सर्वज्ञद्वारा कहा हुआ जो समय ( धर्मं ) है उसको छोड़कर मिथ्यादृष्टि देव, मिथ्या आगम और खोटा तप करनेवाले कुलिङ्गी इन सबका भयसे, वांछासे, स्नेहसे और लोभके वशसे जो धर्मके लिये प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदिका करना है उस सबको समय मूढता जानना चाहिये । इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणकी धारक जो तीन मूढता हैं इनको सरागसम्यग्दृष्टिकी अवस्था ( दशा ) में त्यागना चाहिये। और मन, वचन तथा कायकी गुप्तिरूप अवस्था है लक्षण जिसका ऐसा जो वीतरागसम्यक्त्व है उसके प्रस्ताव ( निरूपण ) में अपना निरंजन तथा निर्दोष जो परमात्मा है वही देव हैं ऐसी जो निश्चय बुद्धि है यही देवमूढता से रहितता जाननी चाहिये । तथा मिथ्यात्व - राग आदिरूप जो मूढभाव हैं इनका त्याग करने से जो निजशुद्ध आत्मामें स्थितिका करना है वही लोकमूढतासे रहितता है यह जानने योग्य है । इसी प्रकार संपूर्ण शुभ तथा अशुभरूप जो संकल्प विकल्पस्वरूप परभाव हैं उनके त्यागरूप जो विकाररहित वास्तविक परमानंदमय लक्षणका धारक परम समताभाव है उससे उस निज शुद्ध आत्मामें जो सम्यक्प्रकार से अयन अर्थात् गमन अथवा परिणमन करना है उसको समयमूढता से रहितता समझना चाहिये । इस प्रकार तीन मूढताका व्याख्यान किया । ७, अब आठ मदोंके स्वरूपको कहते हैं। विज्ञान ( कला अथवा हुन्नर ) का मद १, ऐश्वर्यं ( हुकूमत ) का मद २, ज्ञानका मद ३, तपका मद ४, कुलका मद ५, बलका मद ६, जातिका मद और रूपका मद ८, इस प्रकार नामोंके धारक जो आठ मद हैं इनका सरागसम्यग्दृष्टिको त्याग करना चाहिये । और मान कषायसे उत्पन्न जो मद मात्सर्य ( ईर्षा ) आदि समस्त विकल्पोंका समूह है इसके त्यागपूर्वक जो ममकार और अहंकारसे रहित शुद्ध आत्मामें भावना है वही वीतरागसम्यग्दृष्टियों के आठ मदोंका त्याग है । ममकार तथा अहंकारके लक्षणको कहते हैं । कर्मोंसे उत्पन्न जो देह-पुत्र स्त्री आदि हैं इनमें यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है, इस प्रकारकी Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार अथानायतनषट्कं कथयति । मिथ्यादेवो, मिथ्यादेवाराधका मिथ्यातपो, मिथ्यातपस्वी, मिथ्यागमो, मिथ्यागमधराः पुरुषाश्चेत्युक्तलक्षणमनायतनषट्कं सरागसम्यग्दृष्टीनां त्याज्यं भवतीति । वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुनः समस्तदोषायतनभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायरूपायतनानां परिहारेण केवलज्ञानाद्यनन्तगुणायतनभूते स्वशुद्धात्मनि निवास एवानायतनसेवापरिहार इति । अनायतनशब्दस्यार्थः कथ्यते । सम्यक्त्वादिगुणानामायतनं गृहमावास आश्रय आधारकरणं निमित्तमायतनं भण्यते तद्विपक्षभूतमनायतनमिति । १३४ अतः परं शङ्काद्यष्ट मलत्यागं कथयति । निःशङ्काद्यष्टगुणप्रतिपालनमेव शङ्काद्यष्ट्र मलत्यागो भण्यते । तद्यथा - रागादिदोषा अज्ञानं वाऽसत्यवचनकारणं तदुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति ततः कारणात्तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्त्वे मोक्षे मोक्षमार्गे च भव्यैः संशयः सन्देहो न कर्त्तव्यः । तत्र शङ्कादिदोषपरिहारविषये पुनरञ्जनचौरकथा प्रसिद्धा । तत्रैव विभीषणकथा । तथाहि - सीताहरणप्रघट्टके रावणस्य रामलक्ष्मणाभ्यां सह सङ्ग्रामप्रस्तावे विभीषणेन विचारितं रामस्तावदष्टमबलदेवो लक्ष्मणश्चाष्टमों वासुदेवो रावणाश्चाष्टमः प्रतिवासुदेव इति । तस्य च प्रतिवासुदेवस्य वासुदेवहस्तेन मरणमिति जैनागमे पठितमास्ते तन्मिथ्या न भवतीति निःशङ्को भूत्वा त्रैलोक्यकण्टकं जो वृद्धि है वह ममकार है, और उन शरीर आदिमें अपनी आत्मासे भेद न मानकर जो मैं गोरे वर्णका हूँ, मोटे शरीरका धारक हूँ, राजा हूँ इस प्रकार मानना सो अहंकारका लक्षण है । अब छः अनायतनोंका कथन करते हैं । मिथ्यादेव १, मिथ्यादेवोंके सेवक २, मिथ्यातप ३, मिथ्यातपस्वी ४, मिथ्याशास्त्र ५, और मिथ्याशास्त्रोंके धारक पुरुष ६, इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणके धारक जो छः अनायतन ये सरागसम्यग्दृष्टियोंको त्याग करने योग्य होते हैं । और जो वीतरागसम्यग्दृष्टी जीव हैं उनके संपूर्ण दोषोंके स्थानभूत मिथ्यात्व, विषय तथा कषायरूप आयतनोंके त्यागपूर्वक केवलज्ञान आदि अनन्तगुणोंके स्थानभूत निजशुद्ध आत्मामें जो निवासका करना है वही अनायतनोंकी सेवाका त्याग है । अनायतन शब्दके अर्थको कहते हैं । सम्यक्त्व आदि गुणोंका आयतन अर्थात् घर, आवास, आश्रय अथवा आधार करनेका जो निमित्त है उसको आयतन कहते हैं और जो सम्यक्त्व आदि गुणोंसे विपरीत मिथ्यात्व आदि दोषोंके धारण करनेका निमित्त है वह अनायतन है । अब इसके अनंतर शंका आदि आठ दोषोंके त्यागका कथन करते हैं । निःशंक आदि आठ गुणों का जो पालन करना है वही शंकादि आठ मलों ( दोषों) का त्याग कहलाता है । वह इस प्रकार है- राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य ( झूठ ) वचन बोलने में कारण हैं और रागादि दोष तथा अज्ञान ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रदेवोंके नहीं हैं इस कारण श्रीजिनेन्द्रदेवोंसे निरूपित किये हुए हेयोपादेयतत्त्वमें अर्थात् यह त्याज्य है यह ग्राह्य है इस प्रकारके तत्त्व में, मोक्षमें और मोक्षमार्ग में भव्यजीवोंको सन्देह नहीं करना चाहिये । इस स्थल में प्रथम जो शंका दोष है इसके त्यागके विषय में अंजनचौरकी कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध ही है और विभीषणकी भी कथा इस प्रकरणमें जाननी चाहिये । उसीका कथन करते हैं कि, सीताजीके हरणके प्रसंग में जब रावणका श्रीरामलक्ष्मणके साथ युद्ध करनेका अवसर आया तब विभीषणने विचार किया कि श्रीरामचंद्रजी तो अष्टम ( ८ वें ) बलदेव हैं और लक्ष्मणजी अष्टम नारायण हैं तथा रावण अष्टम प्रतिनारायण है । और जो प्रतिनारायण होता है उसका नारायणके हाथसे मरण होता है ऐसा जैनशास्त्रों में पढ़ा गया Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १३५ रावणं स्वकीयज्येष्ठभ्रातरं त्यक्त्वा त्रिंशदक्षौहिणीप्रमितचतुरङ्गबलेन सह स रामस्वामिपार्श्वे गत इति । तथैव देवकीवसुदेवद्वयं निःशङ्कं ज्ञातव्यम् । तथाहि - यदा देवकीबालकस्य मारणनिमित्तं कंसेन प्रार्थना कृता तदा ताभ्यां पर्यालोचितं मदीयः पुत्रो नवमो वासुदेवो भविष्यति तस्य हस्तेन जरासिन्धुनाम्नो नवमप्रति वासुदेवस्य कंसस्यापि मरणं भविष्यतीति जैनागमे भणितं तिष्ठतीति, तथैवातिमुक्त भट्टारकैरपि कथितमिति निश्चित्य कंसाय स्वकीयं बालकं दत्तम् । तथा शेषभव्यैरपि जिनागमे शङ्का न कर्त्तव्येति । इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिःशङ्कागुणस्य सहकारित्वेनेहलोकात्राणागुप्तिमरणव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षण निश्चय रत्नत्रय भावेनैव निःशङ्कगुणो ज्ञातव्य इति । अथ निष्काङ्क्षितागुणं कथयति । इहलोकपरलोकाशारूपभोगाकाङ्क्षानिदानत्यागेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थं ज्ञानपूजातपश्चरणाद्यनुष्ठानकरणं निष्काङ्क्षागुणो भण्यते । तथानन्तमतीकन्याकथा प्रसिद्धा । द्वितीया च सीता महादेवीकथा । सा कथ्यते । सीता यदा लोकापवादपरिहारार्थं दिव्ये शुद्धा जाता तदा रामस्वामिना दत्तं पट्टमहादेवीविभूतिपदं त्यक्त्वा सकलभूषणानगार केवलिपादमूले कृतान्तवक्रादिराजभिस्तथा बहुराज्ञीभिश्च सह जिनदीक्षां गृहीत्वा है, वह मिथ्या नहीं हो सकता इस प्रकार शंकारहित होकरके अपना बड़ा भाई जो तीन लोकका कंटक रावण था उसको छोड़कर तीस अक्षौहिणी सेना प्रमाण जो अपना चतुरंग ( हाथी, घोड़ा, रथ, पयादेरूप ) बल था उस सहित श्रीरामचन्द्रजीके समीप चला गया । इसी प्रकार देवकी तथा वसुदेवको भी शंकारहित जानना चाहिये । सो ही दिखाते हैं कि, जैसे जब कंसने देवकी के बालकको मारनेके लिये प्रार्थना की तब देवकी और वसुदेवने विचार किया कि मेरा पुत्र नवम ( ९वाँ ) नारायण होगा और उसके हाथसे जरासिंधुनामक नवम प्रतिनारायणका और कंसका मरण होगा यह जैनागममें कहा हुआ है, और श्रीभट्टारक अतिमुक्त स्वामीने भी ऐसा ही कहा है, इस प्रकार निश्चय करके कंसको अपना बालक देना स्वीकार किया । जैसे इन उक्त पुरुषोंने अपनी शंकारहित प्रवृत्ति की इसी प्रकार अन्य भव्यजीवोंको भी जैनशास्त्रों में शंका नहीं करनी चाहिये । यह व्यवहारनयसे सम्यक्त्वका व्याख्यान किया । और निश्चयसे उस व्यवहार निःशंकागुणकी सहायता से इस लोकका भय १, परलोकका भय २, रक्षाके स्थानके अभाव से उत्पन्न भय ३, मरणभय ४, व्याधिभय ५, वेदनाभय ६, और आकस्मिक भय ७, इन नामोंके धारक जो सात भय हैं उनको छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहोंके आनेपर भी शुद्ध उपयोगरूप जो निश्चय रत्नत्रय है उसकी भावनाको ही निःशंकागुण जानना चाहिये । ra froriक्षित गुणको कहते हैं । इस लोक तथा परलोकसंबंधी आशारूप जो भोगाकांक्षानिदान है इसका त्याग करके जो केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी प्रकटतारूप मोक्ष है उसके लिए ज्ञान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानोंका जो करना है वही निष्कांक्षिता गुण कहलाता है । इस गुणमें अनंतमतीको कथा प्रसिद्ध है । दूसरी सीता महाराणीकी कथा है । उसको कहते हैं । जब लोकके अपवाद ( निंदा ) को दूर करनेके लिए सीताजी अग्निकुंड में दिव्य (धीज ) लेकर निर्दोष सिद्ध हुई तब श्रीरामचंद्रजीने उनको पट्टमहाराणोका पद दिया; परन्तु सीताजीने पट्टमहादेवीकी संपदाको छोड़कर केवलज्ञानी श्रीसकलभूषण मुनिके चरणमूल में . Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीय अधिकार शशिप्रभाधामिकासमुदायेन सह ग्रामपुरखेटकादिविहारेण भेदाभेदरत्नत्रयभावनया द्विषष्टिवर्षाणि जिनसमयप्रभावनां कृत्वा पश्चादवसाने त्रयस्त्रिशदिवसपर्यन्तं निर्विकारपरमात्मभावनासहितं संन्यासं कृत्वाऽच्युताभिधानषोडशस्वर्गे प्रतीन्द्रतां याता। ततश्च निर्मलसम्यक्त्वफलं दृष्ट्वा धर्मानुरागेण नरके रावणलक्ष्मणयोः संबोधनं कृत्वेदानी स्वर्गे तिष्ठति । अग्रे स्वर्गादागत्य सकलचक्रवर्ती भविष्यति । तौ च रावणलक्ष्मीधरौ तस्य पुत्रौ भविष्यतः । ततश्च तीर्थंकरपादमूले पूर्वभवान्तरं दृष्ट्वा पुत्रद्वयेन सह परिवारेण च सह जिनदीक्षां गृहीत्वा भेदाभेदरत्नत्रयभावनया पञ्चानुत्तरविमाने त्रयोऽप्यहमिन्द्रा भविष्यन्ति । तस्मादागत्य रावणस्तीर्थकरो भविष्यति, सीता च गणधर इति, लक्ष्मीधरो धातकीखण्डद्वीपे तीर्थकरो भविष्यति । इति व्यवहारनिष्कांक्षितागुणो विज्ञातव्यः । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिष्काङ्क्षागुणस्य सहकारित्वेन दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियभोगत्यागेन निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपारमार्थिकस्वात्मोत्थसुखामृतरसे चित्तसन्तोषः स एव निष्काक्षा गुण इति। अथ निविचिकित्सागुणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धबीभत्सादिक दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिविचिकित्सागुणो भण्यते । यत्पुनर्जेनसमये सर्वं समीचीनं परं किन्तु वस्त्रप्रावरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव कृतान्तवक्र आदि राजा तथा बहुतसी रानियोंसहित श्रीजिनदीक्षाको ग्रहण करके शशिप्रभा आदि आर्यिकाओंके समूह सहित ग्राम, पुर, खेटक आदिमें विहारद्वारा भेदाभेदरूप रत्नत्रयकी भावनासे बासठवर्ष पर्यन्त जिनमतकी प्रभावना की। फिर अन्त्य समयमें तेतीस दिनपर्यंत निर्विकार परमात्माके ध्यानपूर्वक संन्यास ( समाधिमरण ) करके अच्युत नामक सोलहवें स्वर्गमें प्रतीन्द्र हुई। और वहाँपर उन्होंने (सीताजीके जीव प्रतीन्द्रने) अवधिज्ञानसे निर्मल सम्यग्दर्शनके फलको देखकर धर्मके अनुरागसे नरकमें जाकर रावण और लक्ष्मणके जीवोंको संबोधा और वे (प्रतीन्द्र ) अब स्वर्गमें विराज रहे हैं। आगे सीताजीका जीव स्वर्गसे आकर सकल चक्रवर्ती होगा और वे दोनों रावण तथा लक्ष्मणके जोव इस चक्रवर्तीके पुत्र होंगे। पश्चात् श्रीतीर्थंकरके चरणमूल में अपने पूर्वभवोंको देखकर दोनों पुत्र तथा परिवारसहित सीताजीका जीव सकल चक्रवर्ती दीक्षाको ग्रहण कर भेदाभेदरत्नत्रयको भावनासे सीता, रावण तथा लक्ष्मण ये तीनों ही पाँच अनुत्तर विमानोंमें अहमिन्द्र होंगे । वहाँसे आकर रावण तो तीर्थंकर होगा और सीताजीका जीव गणधर होगा। तथा लक्ष्मणजी धातकीखंडद्वीपमें तीर्थंकर होंगे। इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षितागुणका स्वरूप जानना चाहिये। और निश्चयसे उसी व्यवहार निष्कांक्षागुणकी सहायतासे देखे, सुने तथा अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियोंसंबन्धी भोग हैं इनके त्यागसे निश्चयरत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न जो पारमार्थिक निज आत्मासे उत्पन्न सुखरूपी अमृत रस है उसमें जो चित्तका संतोष होना है वही निष्कांक्षागुण है । ___ अब निविचिकित्सा नामक गुणको कहते हैं। भेद अभेदरूप रत्नत्रयको आराधनेवाले जो भव्यजीव हैं उनकी दुर्गन्धि तथा भयंकर आकृति आदिको देखकर धर्मबुद्धिसे अथवा करुणाभावसे यथायोग्य विचिकित्सा ( ग्लानि ) को जो दूर करना है इसको द्रव्यनिर्विचिकित्सा गुण कहते हैं। और "जैनमतमें सब अच्छी अच्छी बातें हैं परतु वस्त्रके आवरणसे रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदिका न करना यही दूषण है" इसको आदि ले जो कुत्सित ( बुरे ) भाव हैं इनको Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १३७ दूषणमित्यादि कुत्सित भावस्य विशिष्टविवेकबलेन परिहरणं सा निर्विचिकित्सा भण्यते । अस्य व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुणस्य विषय उद्दायनमहाराजकथा रुक्मिणीमहादेवीकथा चागमप्रसिद्धा ज्ञातव्येति । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिविचिकित्सागुणस्य बलेन समस्तद्वेषादिविकल्परूपकल्लोलमालात्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्विचिकित्सा गुण इति ॥ ३ ॥ इतः परममूढदृष्टिगुणकथां कथयति । वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमार्था द्वहिर्भूतैः कुदृष्टिभि - प्रणीतं धातुवादखन्यवादहर मे खलक्षुद्रविद्यान्यन्तरविकुर्वणादिकमज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्धया तत्र रुचि भक्ति न कुरुते स एव व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते । तत्र चोत्तरमथुरायां उदुरुलिभट्टारक रेवतोश्राविकाचन्द्रप्रभनामविद्याधरब्रह्मचारिसम्बन्धिनी कथा प्रसिद्धेति । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढदृष्टिगुणस्य प्रसादेनान्तस्तत्त्वबहिस्तवनिश्वये जाते सति समस्त मिथ्यात्व रागादिशुभाशुभसङ्कल्पविकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेय बुद्धि हितबुद्धि ममत्वभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि यन्निश्चलावस्थानं तदेवामूढदृष्टित्वमिति । सङ्कल्पविकल्पलक्षणं कथ्यते । पुत्रकलत्रादौ बहिर्द्रव्ये ममेदमिति कल्पना सङ्कल्पः, अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति । अथवा वस्तुवृत्त्या सङ्कल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति तस्यैव पर्यायः ॥ ४ ॥ विशेषज्ञानके बलसे जो दूर करना वह निर्विचिकित्सा कहलाती है । यह जो व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण है इसके पालनेके विषय में उद्दायन नामक महाराजा तथा रुक्मिणी नामक श्रीकृष्णकी पट्टराणीकी कथा शास्त्रमें प्रसिद्ध जाननी चाहिये । और निश्चयसे तो इसी व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुणके बलसे जो समस्त रागद्वेष आदि विकल्परूप तरंगोंके समूहका त्याग करके निर्मल आत्मानुभवलक्षण निजशुद्ध आत्मामें स्थिति करना है वही निर्विचिकित्सागुण है || ३ || अब इसके आगे अमूढदृष्टिगुणका कथन करते हैं। श्री वीतराग सर्वज्ञ देव कथित जो शास्त्रका आशय है उससे बहिर्भूत जो कुदृष्टियोंके बनाये हुए अज्ञानी जनोंके विस्मय उत्पन्न करनेवाले धातुवाद (रसायनशास्त्र), खन्यवाद, हरमेखल, क्षुद्रविद्या, व्यन्तर विकुर्वणादि शास्त्र हैं उनको देखकर तथा सुनकरके जो कोई मूढभावसे धर्मकी बुद्धि करके उनमें प्रीतिको तथा भक्तिको नहीं करता है उसीको व्यवहारसे अमूढदृष्टि गुण कहते हैं । और इस गुणके पालनके विषय में उत्तर मथुरा में उदुरुलि भट्टारक, रेवती श्राविका और चंद्रप्रभनामक विद्याधर ब्रह्मचारी संबंधी कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है । और निश्चय में इसी व्यवहार अमूढदृष्टि गुण के प्रसादसे जब अन्तरंग तत्त्व ( आत्मा ) और बाह्यतत्त्व ( शरीरादि ) का निश्चय हो जाता है तब संपूर्ण मिथ्यात्व, रागआदि तथा शुभ-अशुभ संकल्पविकल्पोंके इष्ट जो इनमें आत्मबुद्धि, उपादेय ( ग्राह्य) वृद्धि, हितबुद्धि और ममत्वभाव हैं उनको छोड़कर मन, वचन, काय इन तीनोंकी गुप्तिरूपसे विशुद्धज्ञान तथा दर्शन स्वभावका धारक निज आत्मा है उसमें जो निवास करना ( ठहरना ) है नाम गुण है । संकल्प और विकल्पके लक्षणको कहते हैं । पुत्र तथा स्त्री आदि जो वाह्य पदार्थ हैं, उनमें ये मेरे हैं ऐसी जो कल्पना है वह तो संकल्प है, और अन्तरंग में मैं सुखी हूँ मैं दुखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा खेदका करना है वह विकल्प है । अथवा यथार्थरूपसे जो संकल्प है वही विकल्प है अर्थात् संकल्पके विवरणरूपसे विकल्प संकल्पका पर्याय ही है ||४|| Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ तृतीय अधिकार __ अथोपगृहनगुणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयभावनारूपो मोक्षमार्गः स्वभावेन शुद्ध एव तावत्, तत्राज्ञानिजननिमित्तेन तथैवाशक्तजननिमित्तेन च धर्मस्य पैशून्यं दूषणमपवादो दुष्प्रभावना यदा भवति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्यार्थेन धर्मोपदेशेन वा यद्धर्मार्थं दोषस्य झम्पनं निवारणं क्रियते तद्व्यवहारनयेनोपगहनं भण्यते। तत्र मायाब्रह्मचारिणा पार्श्वभट्टारकप्रतिमालग्नरत्नहरणे कृते सत्युपगहन विषये जिनदत्तष्ठिकथा प्रसिद्धति । अथवा रुद्रजनन्या ज्येष्ठासंज्ञाया लोकापवादे जाते सति यद्दोषझम्पनं कृतं तत्र चेलिनीमहादेवीकथेति । तथैव निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपगृहनगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादका ये मिथ्यात्वरागादिदोषास्तेषां तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपं यद्धयानं तेन प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झम्पनं तदेवोपगहनमिति ॥ ५ ॥ __अथ स्थितीकरणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयधारकस्य चातुर्वर्णसङ्घस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनचारित्रमोहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्रं वा परित्यक्तुं वाञ्छति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थेन वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धमें स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितीकरणमिति । तत्र च पुष्पडालतपोधनस्य स्थिरीकरणप्रस्तावे वारिषेणकुमारकथागमप्रसिद्धति । निश्चयेन पुनस्तेनैव व्यवहारेण स्थितीकरणगुणेन धर्मदृढत्वे जाते सति दर्शनचारित्रमोहोदयजनितसमस्त मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालत्यागेन निजपरमात्मस्वभावभावनोत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखा अब उपगृहनगुणका कथन करते हैं। यद्यपि भेद अभेद रत्नत्रयकी भावनारूप जो मोक्षमार्ग है वह स्वभावसे ही शुद्ध है तथापि उसमें जब कभी अज्ञानी मनुष्यके निमित्तसे अथवा धर्मपालनमें असमर्थ जो पुरुष हैं उनके निमित्तसे जो धर्मकी चुगली, निन्दा, दूषण तथा अप्रभावना हो तब शास्त्रके अनुकूल शक्तिके अनुसार धनसे अथवा धर्मके उपदेशसे जो धर्मके लिये उसके दोषोंका ढकना है तथा दूर करना है उसको व्यवहार उपगूहन गुण कहते हैं। इस व्यवहार उपगृहनगुणके पालनके विषयमें जब एक कपटी ब्रह्मचारीने श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी प्रतिमामें लगे हुए रत्नको चोरा उस समय जिनदत्त शेठने जो उपगृहन किया था वह कथा शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। अथवा रुद्र ( महादेव ) की जो ज्येष्ठा नामक माता थी उसका जव लोकापवाद ( लोकनिन्दा ) हुआ तब उसके दोषके ढकनेमें चेलिनी महाराणोकी कथा शास्त्रप्रसिद्ध है। इसी प्रकार निश्चयसे व्यवहार उपगृहन गुणकी सहायतासे अपने निरंजन निर्दोष परमात्माको ढकनेवाले जो राग आदि दोप हैं उन दोषोंका उसी परमात्मामें सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरणरूप जो ध्यान है उसके द्वारा जो ढकना, नाश करना, छिपाना तथा झंपन है वही उपगूहन है ।। ५ ।। ___अब स्थितीकरणगुणका कथन करते हैं। भेद तथा अभेद रूप रत्नत्रयको धारण करनेवाला जो मुनि, आर्यिका, श्रावक तथा श्राविका रूप चार प्रकारका संघ है उसमेंसे जो कोई दर्शनमोहनीके उदयसे दर्शनको अथवा चारित्रमोहनीके उदयसे चारित्रको छोड़ने की इच्छा करे उसको शास्त्रको आज्ञानुसार यथाशक्ति धर्मोपदेश श्रवण करानेसे, धनसे वा सामर्थ्य से अथवा किसी उपायसे जो धर्ममें स्थिर कर देना है वह व्यवहारसे स्थितीकरण गुण है। और इस गुणमें पुष्पडालमुनिको धर्ममें स्थिर करनेके प्रसंगमें वारिषेण कुमारको कथा शास्त्रप्रसिद्ध है। और निश्चयसे उसी व्यवहारस्थितीकरणगुणसे जब धर्ममें दृढ़ता हो जावे तब दर्शनमोहनी तथा चारित्रमोहनीके उदयसे उत्पन्न जो समस्त मिथ्यात्व राग आदि विकल्पोंका समूह है उसके त्यागद्वारा निज परमात्माकी भावनासे उत्पन्न परम आनंदरूप सुखामृत रसके आस्वादरूप जो Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १३९ मृतरसास्वादेन तल्लय तन्मयपरमसमरसीभावेन चित्तस्थितीकरणमेव स्थितीकरणमिति ॥ ६ ॥ अथ वात्सल्याभिधानं सप्तमाङ्ग प्रतिपादयति । बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाधारे चतुविधसङ्घवत्सेधेनुवत्पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्तं पुत्रकलत्रसुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिमस्नेहकरणं तद्व्यवहारेण वात्सल्यं भव्यते । तत्र च हस्तिनागपुराधिपतिपद्मराजसंबन्धिना बलिनामदुष्टमन्त्रिणा निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकाकम्पनाचार्य प्रभृतिसप्तशतयतीनामुपसर्गे क्रियमाणे सति विष्णुकुमारनाम्ना निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गाराधकपरमयतिना विकुर्वर्णाद्धिप्रभावेण वामनरूपं कृत्वा बलिमन्त्रिपार्श्वे पादत्रयप्रमाणभूमिप्रार्थनं कृत्वा पश्चादेकः पादो मेरुमस्तके दत्तो द्वितीयो मानुषोत्तरपर्वते तृतीयपादस्यावकाश नास्तीति वचनच्छलेन मुनिवात्सल्यनिमित्तं बलिमन्त्री बद्ध इत्येका तावदागमप्रसिद्धा कथा । द्वितीया च दशपुरनगराधिपतेर्वज्रकर्णनाम्नः । उज्जयिनीनगराधिपतिना सिंहोदरमहाराजेन जैनोऽयं मम नमस्कारं न करोतीति मत्त्वा दशपुरनगरं परिवेष्टय घोरोपसर्गे क्रियमाणे भेदाभेद रत्नत्रय भावनाप्रियेण रामस्वामिना वज्रकर्णवात्सल्यनिमित्तं सिंहोदरो बद्ध इति रामायणमध्ये प्रसिद्धेयं वात्सल्यकथेति । निश्चयवात्सल्यं पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे दृढत्वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्त शुभाशुभबहिर्भावेषु प्रोति त्यक्त्वा रागादि विकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसञ्जात सदानन्दैकलक्षण सुखामृतरसास्वादं प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमाङ्गं व्याख्यातम् ॥ ७ ॥ परमात्मामें लीन अथवा परमात्मस्वरूप समरसी ( समता ) भाव है उससे जो चित्तका स्थिर करना है वही स्थितीकरण है ।। ६ ।। अव वात्सल्य नामक सप्तम अंगका निरूपण करते हैं । बाह्य और आभ्यंतर इन दोनों प्रकारके रत्नत्रयको धारण करनेवाले मुनि, आर्थिका, श्रावक तथा श्राविका रूप चारों प्रकारके संघ जैसे गो (गाय) की वत्स में प्रीति रहती है उसके समान; अथवा पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके निमित्त पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदिमें जो स्नेह रहता है उसके समान; अतुल्य स्नेह ( प्रौति ) का जो करना है वह व्यवहारनयकी अपेक्षासे वात्सल्य कहा जाता है । और इस विषय में हस्तिनागपुर ( हथनापुर ) के राजा पद्मराजके बलिनामक दुष्ट मंत्रीने जब निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयके आराधक अकंपनाचार्य आदि सातसौ मुनियोंको उपसर्ग किया तब निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग ( रत्नत्रय ) के आराधनेवाले विष्णुकुमार नामक महामुनीश्वरने विक्रियाऋद्धि के प्रभावसे वामनरूपको धारण करके बलिनामक दुष्ट मन्त्रीके पाससे तीन पग प्रमाण पृथ्वीकी याचना की और जब बलिने देना स्वीकार किया तब एक पग तो मेरुके शिखर पर दिया, दूसरा मानुपोत्तरपर्वत पर दिया और तीसरे पादको रखनेके लिये अवकाश ( स्थान ) नहीं रहा तव वचनछल से प्रतिज्ञाभंगका दोष लगाकर मुनियोंके वात्सल्य निमित्त बलिमन्त्रीको बाँध लिया, यह तो एक लागमप्रसिद्ध कथा है ही और दूसरी वज्रकर्ण नामक दशपुर नगरके राजाकी प्रसिद्ध कथा है । वह यह है कि उज्जयिनीके राजा सिंहोदरने 'वज्रकर्ण जैनी है और मुझको नमस्कार नहीं करता है' ऐसा विचार करके जब वज्रकर्णसे नमस्कार करानेके लिये दशपुर नगरको घेरकर घोर उपसर्ग किया तब भेदाभेद रत्नत्रयकी भावना है प्यारी जिनको ऐसे श्रीरामचंद्रजीने वज्रकर्ण के वात्सल्यके अर्थ सिंहोदरको बाँध लिया । इस प्रकार यह कथा रामायण ( पद्मपुराण ) में प्रसिद्ध है । और इसी व्यवहारवात्सल्यगुणके सहकारीपनेसे जब धर्म में दृढ़ता हो जाती है तब मिथ्यात्व, राग आदि संपूर्ण वाह्य पदार्थो में प्रीतिको छोड़कर राग आदि विकल्पोंकी उपाविरहित परम Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार अथाष्टमाङ्ग नाम प्रभावनागुणं कथयति । श्रावकेन दानपूजादिना तपोधनेन च तपःश्रुतादिना जैनशासनप्रभावना कर्तव्येति व्यवहारेण प्रभावनागुणो ज्ञातव्यः । तत्र पुनरुत्तरमथुरायां जिनसमयप्रभावनशीलाया उविल्लामहादेव्याः प्रभावननिमित्तमुपसर्गे जाते सति वज्रकुमारनाम्ना विद्याधरश्रमणेनाकाशे जैनरथभ्रमणेन प्रभावना कृतेत्येका आगमप्रसिद्धा कथा। द्वितीया तु जिनसमयप्रभावनाशील वप्रामहादेवीनामस्वकीयजनन्या निमित्तं स्वस्य धर्मानुरागेण च हरिषेणनामदशमचक्रवतिना तद्भवमोक्षगामिना जिनसमयप्रभावनार्थमुत्तुङ्गतोरणजिनचैत्यालयमण्डितं सर्वभूमितलं कृतमिति रामायणे प्रसिद्धयं कथा। निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य बलेन मिथ्यात्वविषयकषायप्रभृतिसमस्तविभावपरिणामरूपपरसमयानां प्रभावं हत्वा शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावनेति ॥८॥ एवमुक्तप्रकारेण मूढत्रयमदाष्टकषडनायतनशङ्काद्यष्टमलरहितं शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् । तथैव तेनैव व्यवहारसम्यक्त्वेन पारम्पर्येण साध्यं शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमालादैकरूपसुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिकं च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति । अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थ स्वास्थ्यके ज्ञानसे उत्पन्न सदा आनंद रूप जो सुखमय अमृतका आस्वाद है उसके प्रति प्रीतिका करना ही निश्चय वात्सल्य है । इस प्रकार सप्तम वात्सल्यअंगका व्याख्यान पूर्ण किया ॥ ७ ॥ __अब अष्टम अंग अर्थात् प्रभावनागुणका कथन करते हैं। श्रावक तो दान पूजा आदिसे जो जैन मतको प्रभावना करे और मुनि तप, श्रुत आदिसे जैनधर्मकी जो प्रभावना करे वही व्यवहारसे प्रभावना गुण है ऐसा जानना चाहिये । और इस गुणके पालनेमें उत्तरमथुरामें (मथुरामें) जिनमतकी प्रभावना करनेका है स्वभाव जिसका ऐसी उरविला महादेवीको प्रभावनाके निमित्त जब उपसर्ग हुआ तब वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमणने आकाशमें जैनरथको फिराकर प्रभावना की, यह तो एक शास्त्रमें प्रसिद्ध कथा है। और दूसरी कथा यह है कि उसी भवमें मोक्ष जानेवाले हरिषेण नामक दशवें चक्रवर्तीने जिनमतको प्रभावना करनेका है स्वभाव जिसका ऐसी अपनी माता वप्रा महादेवीके निमित्त और अपने धर्मानुरागसे जिनमतकी प्रभावनाके लिये ऊँचे तोरणोंके धारक जिनमंदिर आदिसे समस्त पृथ्वीतलको भूषित कर दिया। इस प्रकार यह कथा रामायण ( पद्मपुराण ) में प्रसिद्ध है। और निश्चयसे इसी व्यवहारप्रभावनागुणके वलसे मिथ्यात्व, विषय-कषाय आदि जो सम्पूर्ण विभावपरिणाम हैं उन रूप जो परमतोंका प्रभाव है उसको नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षण स्वसंवेदन ज्ञानसे निर्मल ज्ञान, दर्शन रूप स्वभावके धारक निज शुद्ध आत्माका जो प्रकाशन अर्थात् अनुभवन करना है सो प्रभावना है ॥ ८ ॥ ऐसे इस पूर्वोक्त प्रकारसे तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन और शंका आदि आठ दोष रूप जो पच्चीस मल हैं उनसे रहित तथा शुद्धजीव आदि तत्त्वार्थों के श्रद्धान रूप लक्षणका धारक, सरागसम्यक्त्व है दूसरा नाम जिसका ऐसा व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिये। और इसी प्रकार उसी व्यवहार सम्यक्त्वद्वारा परंपरासे साधने योग्य, शुद्ध उपयोगरूप निश्चय रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न जो परम आह्लादरूप सुखामृतरसका आस्वादन है वही उपादेय है और इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय है ऐसी रुचिरूप तथा वीतराग चारित्रके विना नहीं उत्पन्न होने Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः व्याख्यातमिति चेद्व्यवहारसम्यक्त्वेन निश्चयसम्यक्त्वं साध्यत इति साध्यसाधकभावज्ञापनार्थमिति ॥ इदानीं येषां जीवानां सम्यग्दर्शनग्रहणात्पूर्वमायुर्बन्धो नास्ति तेषां व्रताभावेऽपि नरनारकादिकुत्सितस्थानेषु जन्म न भवतीति कथयति । "सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकतिर्यग्नपुंसकस्त्रीत्वानि । दुष्कुलविकृताल्पायुर्दरिद्रतां च वजन्ति नावतिकाः।१।" इतः परं मनुष्यगतिसमुत्पन्नसम्यग्दृष्टः प्रभावं कथयति । "ओजस्तेजोविद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथाः। उत्तमकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः । १।" अथ देवगतौ पुनः प्रकीर्णकदेववाहनदेवकिल्विषदेवनीचदेवत्रयं विहायान्येष महद्धिकदेवेषत्पद्यते सम्यग्दष्टिः। इदानों सम्यक्त्वग्रहणात्पर्व देवायष्कं विहाय ये बद्धायुकास्तान् प्रति सम्यक्त्वमाहात्म्यं कथयति । "हेछिमछप्पुढवीणं जोइसवणभवणसव्वइच्छीणं । पुण्णिदरे ण हि सम्मो ण सासणो णारयापुण्णे । १।" तमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयति "ज्योतिर्भावनभौमेषु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु । तिर्यक्षु नृसुरस्त्रीषु सदृष्टिर्नैव जायते । १।" अथौपशमिकवेदकक्षायिकाभिधानसम्यक्त्वत्रयमध्ये कस्यां गतौ कस्य सम्यक्त्वस्य सम्भवोऽस्तीति कथयति"सौधर्मादिष्वसंख्याब्दायुष्कतिर्यक्षु नृष्वपि । रत्नप्रभावनौ च स्यात्सम्यक्त्वंत्रयमङ्गिनाम् ।१।" कर्मभूमिजपुरुषे च त्रयं सम्भवति बद्धायुष्के लब्धायुष्केऽपि । किन्त्वौपशमिकमपर्याप्तावस्थायां वाला ऐसा वीतरागसम्यक्त्व नामका धारक निश्चयसम्यक्त्व जानना चाहिये। यहाँ इस व्यवहार सम्यक्त्वके व्याख्यानमें निश्चयसम्यक्त्वका वर्णन क्यों किया? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि व्यवहारसम्यक्त्वसे निश्चयसम्यक्त्व साधा ( सिद्ध किया ) जाता है इस साध्यसाधकभावको अर्थात् व्यवहारसम्यक्त्व साधक और निश्चयसम्यक्त्व साध्य है इस वार्ताको विदित करनेके लिये किया गया है। अब जिन जीवोंके सम्यग्दर्शनका ग्रहण होनेके पहले आयुका बंध नहीं हुआ है वे व्रतका अभाव होनेपर भी अर्थात् व्रत न करनेपर भी नर-नारक आदि निंदनीय स्थानोंमें जन्म नहीं लेते ऐसा कथन करते हैं । "जिनके शुद्ध सम्यग्दर्शन हो गया है ऐसे जीव नरकगति और तियंचगतिमें नहीं उपजते हैं और नपुंसक, स्त्री, नीचकुल, अंगहीन शरीर, अल्प आयु और दरिद्रीपनको नहीं प्राप्त होते हैं ॥१॥' अब इसके आगे मनुष्यगतिमें जो सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है उसके प्रभावका वर्णन करते हैं। "जो दर्शनसे शुद्ध हैं ऐसे जीव दीप्ति, प्रताप, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और विभवसे सहित होते हैं और उत्तम कुलवाले, तथा विपुल ( बहुत ) धनके स्वामी होते हैं तथा इन पूर्वोक्त गुणोंसे वे सब मनुष्यों में श्रेष्ठ होते हैं ॥ १ ॥' अब जो सम्यग्दृष्टि देवगतिमें उत्पन्न होवे तो प्रकीर्णक देव, वाहन देव, किल्विष देव, व्यन्तर देव, भवनवासी देव और ज्योतिषो देवोंके पर्यायको छोड़कर अन्य जो महाऋद्धिके धारक देव हैं उनमें उत्पन्न होते हैं। अब जिन्होंने सम्यक्त्वका ग्रहण करनेके पहले ही देव आयुको छोड़कर अन्य किसी आयुका बंध कर लिया है उनके प्रति सम्यक्त्वका माहात्म्य कहते हैं। "प्रथम नरकको छोड़कर अन्य छह नरकोंमें, ज्योतिषी, व्यन्तर और भवनवासी देवोंमें, सब स्त्रीलिङ्गोंमें और तिर्यंचोंमें, सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नही होता ॥१॥" अब इसी आशयको अन्यप्रकारसे कहते हैं कि "ज्योतिषी, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें, नीचेके छह नरकोंकी पृथिवियोंमें, तिर्यंचों में और मनुष्यस्त्रियों में तथा देवस्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता है ॥१॥" अब औपशमिक, वेदक और क्षायिक नामा जो तीन सम्यक्त्व हैं इनमेंसे किस गतिमें कौनसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति हो सकती हैं सो कहते हैं । “सौधर्म आदि स्वर्गोमें, असंख्यातवर्षकी आयुके धारक तिर्यंच और मनुष्योंमें अर्थात् भोगभूमिके मनुष्य Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार महद्धिकदेवेष्वेव । “शेषेषु देवतिर्यक्षु षट्स्वधः श्वभ्रभूमिषु। द्वौ वेदकोपशमको स्यातां पर्याप्तदेहिनाम् । १।" इति निश्चयव्यवहाररत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गावयविनः प्रथमावयवभूतस्य सम्यक्त्वस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥४१॥ अथ रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गद्वितीयावयवरूपस्य सम्यग्ज्ञानस्य स्वरूपं प्रतिपादयति; संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरूवस्स । गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेय भेयं तु ॥४२ ॥ संशयविमोहविभ्रमविजितं आत्मपरस्वरूपस्य । ग्रहणं सम्यग्ज्ञानं साकारं अनेकभेदं च ॥ ४२ ॥ व्याख्या- "संसयविमोहविन्भमविवज्जियं" संशयः शुद्धात्मतत्त्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं कि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयप्रणीतं वेति ? संशयः। तत्र दष्टान्तः-स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । विमोहः परस्परसापेक्षनयद्वयेन द्रव्यगुणपर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोहः। तत्र दृष्टान्तः-गच्छत्तृणस्पर्शवद्दिग्मोहवद्वा। विभ्रमोऽनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिकैकान्तादिरूपेण और तिर्यचोंमें तथा रत्नप्रभानामक प्रथम नरक पृथ्वीमें जीवोंके उपशम, वेदक और क्षायिक ये तीनों सम्यक्त्व होते हैं ॥ १॥" और जिसने आयुको बांध लिया है अथवा प्राप्त कर लिया है ऐसे कर्मभूमिके मनुष्यमें तीनों ही सम्यक्त्व होते हैं। परन्तु विशेष यह है कि अपर्याप्त-अवस्थामें औपशमिक सम्यक्त्व महद्धिक देवोंमें ही होता है और "जो शेष ( बचे हुए ) देव-तिर्यञ्च हैं उनमें छह नीचेकी नरकभूमियोंमें पर्याप्तजीवोंके वेदक और उपशम ये दो सम्यक्त्व होते हैं ॥ १॥" इस प्रकार निश्चय तथा व्यवहाररूप जो रत्नत्रय स्वरूप अवयवी है उसका प्रथम अवयवभूत जो सम्यग्दर्शन है उसके व्याख्यानसे गाथा समाप्त हुई ॥ ४१ ॥ ___ अब रत्नत्रय रूप जो मोक्षमार्ग है उसके द्वितीय अवयव रूप सम्यग् ज्ञानके स्वरूपका कथन करते हैं गाथाभावार्थ-आत्मस्वरूप और परपदार्थके स्वरूपका जो संशय, विमोह (अनध्यवसाय) . और विभ्रम (विपर्यय ) रूप कुज्ञानसे रहित जानना है वह सम्यग् ज्ञान कहलाता है यह आकार ( विकल्प ) सहित है और अनेक भेदोंका धारक हैं ॥ ४२ ॥ व्याख्यार्थ- "संसयविमोहविन्भमनिवज्जियं" शुद्ध आत्मतत्त्व आदिका प्रतिपादन करनेवाला जो शास्त्रका ज्ञान है वह क्या वीतरागसर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है ? अथवा अन्यमतियों द्वारा निरूपण किया हुआ सत्य है ? इसप्रकार जो विचार करना हैं वह संशय है । इसमें दृष्टान्त ऐसा कि 'क्या यह अंधकारमें स्थित पदार्थ स्थाणु ( वृक्षका दूँठ ) है अथवा कोई मनुष्य खड़ा हा है' इस प्रकार विचारना संशय है। गमन करते हुए पुरुषके जैसे चरणोंमें तृण ( घास ) आदिका स्पर्श होता है और उसको मालम नहीं होता कि क्या लगा वा जैसे दिशाका भूल जाना होता है उसीप्रकार एक दूसरेकी आपसमें अपेक्षाके धारक जो द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकस्वरूप दो नय हैं उनके अनुसार जो द्रव्य, गुण तथा पर्याय आदिका नहीं जानना है उसको विमोह कहते हैं । जैसे किरीको सीपमें चाँदीका और चाँदीमें सीपका ज्ञान हो जाय; इसीप्रकार जो अनेकान्तरूप वस्तु है उसको यह नित्य ही है, यह अनित्य ही है ऐसे जो एकान्तरूप जानना है वह विभ्रम Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः ग्रहणं विभ्रमः । तत्र दृष्टान्तः - शुक्तिकायां रजतविज्ञानवत् । इत्युक्तलक्षण संशयविमोहविमैर्वजितं "अप्प पर सरूवस्स गहणं" सहजशद्ध केवलज्ञानदर्शनस्वभाव स्वात्मरूपस्य ग्रहणं परिच्छेदनं परिच्छित्तिस्तथा परद्रव्यस्य च भावकर्मद्रव्यकर्मनो कर्मरूपस्य जीवसम्बन्धिनस्तथैव पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपस्य परकीयजीवरूपस्य च परिच्छेदनं यत्तत् "सम्मण्णाणं" सम्यग्ज्ञानं भवति । तच्च कथंभूतं, "साया" घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थः । पुनश्च किविशिष्टं " अणेयभेयं तु" अनेकभेदं तु पुनरिति ॥ १४३ तस्य भेदाः कथ्यन्ते । मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलज्ञानभेदेन पञ्चधा । अथवा श्रुतज्ञानापेक्षया द्वादशाङ्गमङ्गमङ्गबाह्यं चेति द्विभेदम् । द्वादशाङ्गानां नामानि कथ्यन्ते । आचार, सूत्रकृतं, स्थानं, समवायनामधेयं, व्याख्याप्रज्ञप्तिः, ज्ञातृकथा, उपासकाध्ययनं, अन्तकृतदर्श, अनुत्तरोपपादिकदर्श, प्रश्नव्याकरणं, विपाकसूत्रं दृष्टिवादश्चेति । दृष्टिवादस्य च परिकर्मसूत्रप्रथमानुयोगपूर्वगतचूलिकाभेदेन पञ्च भेदाः कथ्यन्ते । तत्र चन्द्रसूर्यजम्बूद्वीप सागरव्याख्याप्रज्ञप्तिभेदेन परिकर्म पञ्चविधं भवति । सूत्रमेकभेदमेव । प्रथमानुयोगोऽप्येकभेदः । पूर्वगतं पुनरुत्पादपूर्व, अग्रायणीयं, वीर्यानुप्रवादं अस्तिनास्तिप्रवादं ज्ञानप्रवादं, सत्यप्रवादं, आत्मप्रवादं कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानं, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेयं, प्राणानुवादं, क्रियाविशालं, लोकसंज्ञं, पूर्वं चेति चतुर्दशभेदम् । जलगतस्थलगताकाशगतह र मेखलादिमायास्वरूपशाकिन्यादिरूपपरावर्त्तनभेदेन चूलिका पञ्चविधा है । इन पूर्वोक्त लक्षणोंके धारक संशय, विमोह और विभ्रमसे रहित जो "अप्पपरसरूवस्स गहणं" सहजशुद्ध केवलज्ञान तथा केवलदर्शन - स्वभावके धारक निज आत्माके स्वरूपका जो जानना और जीवके संबंधी ऐसे भावकर्म, द्रव्यकर्म, व नोकर्मस्वरूप परद्रव्यका तथा पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंके स्वरूप और परजीवके स्वरूपका जो जानना है सो "सम्मण्णाणं" सम्यक्ज्ञान है । वह कैसा है कि "सायारं" यह घट है, यह वस्त्र है इत्यादि ग्रहणव्यापाररूपसे साकार ( सविकल्प व्यवसायात्मक - निश्चयात्मक ) है ऐसा अर्थ है । और फिर कैसा है कि "अयभेयं तु " अनेक भेदोंका धारक है । अब उस सम्यक् ज्ञानके भेद कहे जाते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इन भेदोंसे वह सम्यग्ज्ञान पाँच प्रकारका है । अथवा श्रुतज्ञानकी अपेक्षाको लेकर ज्ञानके भेद करते हैं तो द्वादशाङ्गरूप अंग और अंगबाह्य इन भेदोंसे दो प्रकारका है । उनमें द्वादश अंगों के नाम कहते हैं । आचाराङ्ग १, सूत्रकृताङ्ग २, स्थानाङ्ग ३, समवायांग ४, व्याख्याप्रज्ञप्त्यंग ५, ज्ञातृकथांग ६, उपासकाध्ययनांग ७, अन्तकृद्दशांग ८, अनुत्तरोपपादिकदशांग ९, प्रश्नव्याकरणांग १०, विपाकसूत्रांग ११, और दृष्टिवाद १२, ये द्वादश अंगोंके नाम हैं । अब दृष्टिवादनामक बारहवें अंगके परिकर्म १ सूत्र २, प्रथमानुयोग ३, पूर्वगत ४ तथा चूलिका ५, इन भेदोंसे जो पाँच भेद हैं उनका वर्णन करते हैं । उनमें चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, सागर प्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति इन भेदोंसे प्रथम भेद जो परिकर्म है वह पाँच प्रकारका है। सूत्र एक ही प्रकारका है । प्रथमानुयोग भी एक ही प्रकारका है । और जो चौथा पूर्वगत है वह उत्पादपूर्व १, अग्रायणीयपूर्व २, वीर्यानुप्रवादपूर्व ३, अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व ४, ज्ञानप्रवादपूर्वं ५, सत्यप्रवादपूर्वं ६, आत्मवादपूर्व ७, कर्मप्रवादपूर्व ८, प्रत्याख्यानपूर्व ९, विद्यानुवादपूर्व १०, कल्याणपूर्व ११, प्राणानुवादपूर्व १२ क्रियाविशापूर्व १३, और लोकसारपूर्व १४, इन भेदोंसे चौदह प्रकारका है । चूलिका १, स्थलगत चूलिका २, आकाशगत चूलिका ३, हरमेखलाआदि मायास्वरूप चूलिका ४, जलगत Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार चेति संक्षेपेण द्वादशाङ्गव्याख्यानम् । अङ्गबाह्यं पुनः सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवं वन्दना, प्रतिक्रमणं, वैनयिकं, कृतिकर्म, दशवैकालिकम्, उत्तराध्ययनं कल्पव्यवहारः, कल्पाकल्पं महाकल्पं, पुण्डरीकं, महापुण्डरीकं, अशीतिकं चेति चतुर्दशप्रकीर्णकसंज्ञं बोद्धव्यमिति । अथवा वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थङ्करभरतादिद्वादशचक्रवत्तिविजयादिनव बलदेवत्रिपिष्टादिनववासुदेवसुग्रीवादिनवप्रतिवासुदेवसम्बन्धि त्रिषष्टिपुरुषपुराणभेदभिन्नः प्रथमानुयोगो भण्यते । उपासकाध्ययनादौ श्रावकधर्मम्, आचाराराधनादौ यतिधर्मं च यत्र मुख्यत्वेन कथयति स चरणानुयोगो भण्यते । त्रिलोकसारे जिनान्तरलोक विभागादिग्रन्थव्याख्यानं करणानुयोगो विज्ञेयः । प्राभृततत्त्वार्थसिद्धान्तादौ यत्र शुद्धाशुद्धजीवादिषद्रव्यादीनां मुख्यवृत्त्या व्याख्यानं क्रियते स द्रव्यानुयोगो भण्यते । इत्युक्तलक्षणानुयोगचतुष्टयरूपेण चतुविधं श्रुतज्ञानं ज्ञातव्यम् । अनुयोगोऽधिकारः परिच्छेदः प्रकरणभित्याद्ये कोऽर्थः । अथवा षड्द्रव्यपञ्चास्तिकाय सप्ततत्त्वनवपदार्थेषु ' मध्ये ' निश्चयनये स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं, स्वशुद्धजीवास्तिकायो, निजशुद्धात्मतत्त्वं निजशुद्धात्मपदार्थ उपादेयः । शेषं च यमिति संक्षेपेण हेयोपादेयभेदेन द्विधा व्यवहारज्ञानमिति ॥ इदानीं तेनैव विकल्परूपव्यवहारज्ञानेन साध्यं निश्चयज्ञानं कथ्यते । तथाहि - रागात् परकलत्रादिवाञ्छारूपं द्वेषात् परवधबन्धच्छेदादिवाञ्छारूपं च मदीयापध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा और शाकिन्यादिरूप परावर्त्तन चूलिका ५, इन भेदोंसे चूलिका पाँच प्रकारकी है। इस प्रकार संक्षेपसे द्वादशांगका व्याख्यान है । और जो अंगबाह्य श्रुतज्ञान है वह सामायिक १, चतुर्विंशतिस्तव २, वंदना ३, प्रतिक्रमण ४, वैनयिक ५, कृतिकर्म ६, दशवेकालिक ७ अनुत्तराध्ययन ८, कल्पव्यवहार ९, कल्पाकल्प १०, महाकल्प ११, पुंडरीक १२, महापुंडरीक १३, और अशीतिक १४, इन प्रकीर्णकरूप भेदोंसे चौदह प्रकारका जानना चाहिये || अथवा वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरोंका, भरत आदि बारह चक्रवर्तियोंका, विजय आदि नौ बलदेवोंका, त्रिपिष्ट आदि नौ नारायणोंका, और सुग्रीव आदि नौ प्रतिनारायणोंका संबंध रखनेवाले जो तिरसठ शलाकापुरुषोंके पुराण हैं उनरूप भेदोंका धारक जो है वह प्रथमानुयोग कहलाता है । उपासकाध्ययन आदिमें श्रावकका धर्म, और मूलाचार भगवती आराधना आदि ग्रन्थों में मुनिका धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है वह दूसरा चरणानुयोग कहा जाता है । त्रिलोकसार, जिनान्तर और लोकविभाग आदि ग्रन्थोंका व्याख्यान जिसमें हो उसको करणानुयोग जानना चाहिये । समयसार आदि प्राभृत ( पाहुड़ ) और तत्त्वार्थसूत्र, तथा सिद्धान्तआदि शास्त्रोंमें मुख्यता से शुद्ध - अशुद्धजीव आदि छह द्रव्य आदिका जो वर्णन किया गया है वह द्रव्यानुयोग कहलाता है । इस प्रकार उक्त लक्षणके धारक जो चार अनुयोग हैं उनरूप चार प्रकारका श्रुतज्ञान जानने योग्य है । अनुयोग, अधिकार, परिच्छेद और प्रकरण इत्यादि शब्दोंका अर्थ एक ही है । अथवा षट् द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थ जो हैं उनमें निश्चयनयसे अपना शुद्ध आत्मद्रव्य, अपना शुद्ध जीव अस्तिकाय, निज शुद्ध आत्मतत्त्व तथा निजशुद्ध जो आत्मपदार्थं है वह तो केवल उपादेय है । और इसके सिवाय परके शुद्ध अशुद्ध जीवादि सभी हेय हैं। इस प्रकार संक्षेपसे हेय तथा उपादेय भेदोंसे व्यवहार ज्ञान जो है वह दो प्रकारका है ॥ अब जो विकल्परूप व्यवहारज्ञान है उसीसे साध्य ( सिद्ध होने योग्य ) जो निश्चयज्ञान है उसका कथन करते हैं । जैसे- रागके उदयसे परस्त्री आदिमें वांछारूप, और द्वेषसे अन्य जीवोंके मारने, बांधने अथवा छेदने रूप जो मेरा दुर्ध्यान ( बुरा परिणाम ) है उसको कोई भी नहीं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १४५ स्वशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसनिर्मलजलेन चित्तशुद्धिमकुर्वाणः सन्नयं जीवो बहिरङ्गबकवेषेण यल्लोकरञ्जनां करोति तन्मायाशल्यं भण्यते । निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते । निर्विकारपरमचैतन्यभावनोत्पन्नपरमाह्लादैकरूपसुखामृतरसास्वादमलभमानोऽयं जीवो दृष्टश्रुतानुभूतभोगेषु यन्नियतं निरन्तरं चित्तं ददाति तन्निदानशल्यमभिधीयते । इत्युक्तलक्षणशल्यत्रयविभावपरिणामप्रभृतिसमस्तशुभाशुभसङ्कल्पविकल्परहितेन परमस्वास्थ्यसंवित्तिसमुत्पन्नतात्त्विकपरमानन्दैकलक्षणसुखामृततृप्तेन स्वेनात्मना स्वस्य सम्यग्निविकल्परूपेण वेदनं परिज्ञानमनुभवनमिति निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञानं भण्यते ॥ अत्राह शिष्यः । इत्युक्तप्रकारेण प्राभूतग्रन्थे यनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं भण्यते, तन्न घटते । कस्मादिति चेत् तदुच्यते । सत्तावलोकरूपं चक्षुरादिदर्शनं यथा जैनमते निर्विकल्पं कथ्यते, तथा बौद्धमते ज्ञानं निर्विकल्पक भण्यते । परं किन्तु तन्निविकल्पमपि विकल्पजनकं भवति । जैनमते तु विकल्पस्योत्पादकं भवत्येव न । किन्तु स्वरूपेणैव सविकल्पमिति । तथैव स्वपरप्रकाशकं चेति । तत्र परिहारः। कथंचित् सविकल्पकं निविकल्पकं च । तथाहि-यथा विषयानन्दरूपं जानता है ऐसा मानकर निज शुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न, निरन्तर आनंदरूप एक लक्षणका धारक जो सुखरूपी अमृतरस वही हुआ जो निर्मल जल उस निर्मल जलसे अपने चित्तकी शुद्धिको नहीं करता हुआ यह जीव बाहरमें बगुले जैसे वेषको धारणकर जो लोकोंको प्रसन्न करता है वह मायाशल्य कहलाता है। और अपना निरंजन दोषरहित जो परमात्मा है वही इस प्रकारकी रुचिरूप जो सम्यक्त्व है उससे विपरीत लक्षणका धारक जो कोई है उसको मिथ्याशल्य कहते हैं। और विकाररहित-परम चैतन्यकी भावनासे उत्पन्न-परम आनंदस्वरूपसुखामृतके रसके स्वादको नहीं प्राप्त हुआ यह जीव जो देखे हुए, सुने हुए तथा अनुभवमें लाये हुए पोगोंमें निरन्तर चित्तको देता है वह निदानशल्य कहलाता है। इस प्रकार उक्त लक्षणके धारक जो माया, मिथ्या और निदानरूप तीन शल्यस्वरूप विभाव परिणाम हैं इनको आदि लेकर जो मंपूर्ण शुभ तथा अशुभरूप संकल्प विकल्प हैं उनसे रहित और परम निजस्वभावके जाननेसे उत्पन्न जो यथार्थ परमानन्दरूप एक लक्षणस्वरूप सुखामृत उसके रसके आस्वादनसे तृप्त हुआ ऐसा जो अपना आत्मा है उसके द्वारा जो 'स्व' निजस्वरूपका 'सं' भले प्रकार अर्थात् निर्विकल्परूपसे वेदन' जानना अर्थात् अनुभवमें करना है वही निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञान-निश्चयज्ञान कहा जाता है ।। यहाँपर शिष्य कहता है कि इस कहे हुए प्रकारसे प्राभूत ( पाहड़ ) शास्त्रमें जो विकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा गया है वह घटित नहीं होता। क्यों नहीं घटित होता ? ऐसा पूछो तो इसका उत्तर कहते हैं-जैनमतमें जैसे सत्तावलोकरूप अर्थात सत्तामात्रको देखनेरूप जो चक्षदर्शन आदि है उसको निर्विकल्प कहते हैं, उसी प्रकार बौद्धमतमें ज्ञानको निर्विकल्पक कहते हैं । परंतु विशेष यह है कि-यद्यपि बौद्धमतमें ज्ञान निर्विकल्प है; तथापि विकल्पको उत्पन्न करनेवाला होता है । और जैनमतमें तो ज्ञान विकल्पको उत्पन्न करनेवाला है ही नहीं; किन्तु स्वरूप ( स्वभाव ) से ही विकल्पसहित है । और इसी प्रकार निजका तथा परका प्रकाश करनेवाला है। अव इस शंकाको दूर करनेके लिये कहते हैं कि-जैनमतमें ज्ञानको कथंचित् सविकल्प और कथं Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार स्वसंवेदनं रागसंवित्तिविकल्परूपेण सविकल्पमपि शेषानीहितसूक्ष्म विकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते । तथा स्वशुद्धात्मसंवित्तिरूपं वीतरागस्वसंवेदनज्ञानमपि स्वसंवित्याकारैकविकल्पेन सविकल्पमपि बहिर्विषयानीहित सूक्ष्मविकल्पानां सद्भावेऽपि सति तेषां मुख्यत्वं नास्ति तेन कारणेन निर्विकल्पमपि भण्यते । यत एवेहापूर्वस्वसंवित्याकारान्तर्मुखप्रतिभासेऽपि बहिर्विवषयानीहितसूक्ष्माविकल्पा अपि सन्ति तत एव कारणात् स्वपरप्रकाशकं च सिद्धम् । इदं तु सविकल्पकनिविकल्पकस्य तथैव स्वपरप्रकाशकस्य ज्ञानस्य च व्याख्यानं यद्यागमाध्यात्मतर्कशास्त्रानुसारेण विशेषेण व्याख्यायते तदा महान् विस्तारो भवति । स चाध्यात्मशास्त्रत्वान्न कृत इति । एवं रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गावयविनो द्वितीयावयवभूतस्य ज्ञानस्य व्याख्यानेन गाथा गता ॥ ४२ ॥ अथ निर्विकल्पसत्ताग्राहकं दर्शनं कथयति ; जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं । अविसेसिण अट्ठे दंसणमिदि भण्णए समए ॥ ४३ ॥ यत् सामान्यं ग्रहणं भावानां नैव कृत्वा आकारम् । अविशेषयित्वा अर्थान् दर्शनमिति भण्यते समये ॥ ४३ ॥ चित् निर्विकल्प माना गया हैं । सो ही दिखाते हैं कि - जैसे विषयों में आनन्दरूप जो स्वसंवेदन है वह रागके जानने रूप विकल्पस्वरूप होनेसे सविकल्प है; तो भी बाकीके नहीं चाहे हुए जो सूक्ष्म विकल्प हैं उनका सद्भाव होनेपर भी उन विकल्पोंकी मुख्यता नहीं है; इस कारण से उस ज्ञानको निर्विकल्प भी कहते हैं । इसी प्रकार निज शुद्ध आत्माके जाननेरूप जो वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान है वह निजसंवित्ति आकाररूप एक विकल्पके होनेसे यद्यपि सविकल्प है, तथापि बाह्य विषयों के नहीं चाहे हुए विकल्पोंका उस ज्ञान में सद्भाव होनेपर भी उनकी उस ज्ञान में मुख्यता नहीं है । इस कारणसे उस ज्ञान को निर्विकल्प भी कहते हैं । और जिस ही कारणसे यहाँ अपूर्वं स्वसंवित्ति के आकाररूप अन्तरंग में मुख्य प्रतिभासके होनेपर भी बाह्य विषयवाले नहीं चाहे हुए सूक्ष्म विकल्प भी हैं; उस ही कारण से ज्ञान निज तथा परको प्रकाश करनेवाला भी सिद्ध हुआ । यदि इस सविकल्प निर्विकल्प तथा स्वपरप्रकाशक ज्ञानका व्याख्यान आगमशास्त्र अध्यात्मशास्त्र और तर्कशास्त्र के अनुसार विशेषरूप से किया जावे तो बड़ा विस्तार होता है; और यह द्रव्यसंग्रह अध्यात्मशास्त्र है; इस कारण उस ज्ञानका विशेष वर्णन यहाँ नहीं किया गया है । इस प्रकार रत्नत्रयस्वरूप जो मोक्षमार्गरूप अवयवी है उसके दूसरे अवयवरूप ज्ञानके व्याख्यानद्वारा गाथा समाप्त हुई ।। ४२ ।। अब विकल्परहित होकर सत्ताको ग्रहण करनेवाला जो दर्शन है उसका कथन करते हैं;गाथाभावार्थ - यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूपसे पदार्थोंको भिन्न-भिन्न न करके और विकल्पको न करके जो पदार्थोंका सामान्यसे अर्थात् सत्तावलोकनरूपसे ग्रहण करना है उसको परमागम में दर्शन कहा गया है || ४३ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १४७ व्याख्या-'जं सामण्णं गहणं भावाणं" यत् सामान्येन सत्तावलोकनेन ग्रहणं परिच्छेदनं भावानां पदार्थानां; किं कृत्वा ? 'णेव कट्ट मायारं" नैव कृत्वा। कं ? आकारं विकल्पं तदपि कि कृत्वा ? "अविसेसिदूण अट्टे" अविशेष्याविभेद्यार्थान; केन रूपेण ? शुक्लोऽयं, कृष्णोऽयं, दीर्घोऽयं, ह्रस्वोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि "दसणमिदि भण्णए समए" तत्सत्तावलोकं दर्शन मिति भण्यते समये परमागमे । नेदमेव तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं वक्तव्यम् । कस्मादिति चेत्-तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निविकल्पं यतः । अयमत्र भावः–यदा कोऽपि किमप्यवलोकयति पश्यति; तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते। पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति ॥४३॥ अथ छद्मस्थानां ज्ञानं सत्तावलोकनदर्शनपूर्वकं भवति, मुक्तात्मनां युगपदिति प्रतिपादयति; दंसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा । जुगवं जम्हा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि ।। ४४ ।। दर्शनपूर्व ज्ञानं छद्मस्थानां न द्वौ उपयोगौ। युगपत् यस्मात् केवलिनाथे युगपत् तु तौ द्वौ अपि ॥४४॥ व्याख्या-“दंसणपुव्वं गाणं छदमत्थाणं" सत्ताबलोकनदर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति छद्मस्थानां संसारिणां । कस्मात् ‘ण दोण्णि उवउग्गा जुगवं जम्हा" ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं युगपन्न भवति - व्याख्यार्थ-"जं सामण्णं गहणं भावाणं" जो सामान्यसे अर्थात् सत्तावलोकन ( यह है इस प्रकार पदार्थको विद्यमानता देखनेरूप ) से पदार्थोंका जानना है । क्या करके ? "जेव कटु मायारं" विकल्पको न करके, वह भी क्या करके । "अविसेसिदूण अटे" अर्थों को विशेषित अर्थात् यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह दीर्घ ( बड़ा ) है, यह छोटा है, यह घट है और यह पट है, इत्यादि रूपसे भिन्न-भिन्न न करके "दंसणमिदि भण्णए समए" वह परमागममें सत्तावलोकरूप दर्शन कहा जाता है । इसी दर्शनको 'तत्त्वार्थका जो श्रद्धान है वह सम्यग्दर्शन है' इस सूत्रमें जो तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन कहा गया है सो न कहना चाहिये । क्यों नहीं कहना चाहिये ? यह प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि श्रद्धान जो है वह तो विकल्परूप है और यह विकल्परहित है। भावार्थ यहाँपर यह है कि जब कोई भी किसी पदार्थको देखता है तब जबतक वह देखनेवाला विकल्प न करे तबतक तो जो सत्तामात्रका ग्रहण है उसको दर्शन कहते हैं। और फिर जब यह शुक्ल है, यह कृष्ण है इत्यादि रूपसे विकल्प उत्पन्न होते हैं तब उसको ज्ञान कहते हैं ।। ४३ ॥ अब जो छद्मस्थ हैं उनके जो ज्ञान होता है वह तो सत्तावलोकनरूप दर्शन पहले हो लेता है तव होता है, और जो मुक्तजीव अर्थात् केवलज्ञानी हैं उनके दर्शन और ज्ञान एक ही समयमें होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ-छद्मस्थजीवोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। क्योंकि, छद्मस्थोंके ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक समयमें नहीं होते । तथा जो केवली भगवान हैं उनके ज्ञान तथा दर्शन ये दोनों ही उपयोग एक समयमें होते हैं ।। ४४ ।। व्याख्यार्थ-"दसणपुव्वं गाणं छदमत्थाणं" छद्मस्थ अर्थात् संसारी जीवोंके सत्तावलोकन Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तृतीय अधिकार यस्मात्, "केवलिणाहे जुगर्व तु ते दोऽवि" केवलिनाथे तु युगपत्ती ज्ञानदर्शनोपयोगी द्वौ भवत इति । अथ विस्तरः। चक्षुरादीन्द्रियाणां स्वकीयस्वकीयक्षयोपशमानुसारेण तद्योग्यदेशस्थितस्वरूपादिविषयाणां ग्रहणमेव सन्निपातः सम्बन्धः सन्निकर्षो भण्यते । न च नैयायिकमतवच्चक्षुरादीन्द्रियाणां स्वरूपादिस्वकीयस्वकीयविषयपाश्र्वे गमन इति सन्निकर्षो वक्तव्यः। स एव सम्बन्धो लक्षणं यस्य तल्लक्षणं यन्निविकल्पं सत्तावलोकनदर्शनं तत्पूर्व शुक्लमिदमित्याद्यवग्रहादिविकल्परूपमिन्द्रियानिन्द्रियजनितं मतिज्ञानं भवति । इत्युक्तलक्षणमतिज्ञानपूर्वकं तु धूमादग्निविज्ञानवदर्थादर्थान्तरग्रहणरूपं लिङ्गज, तथैव घटादिशब्दश्रवणरूपं शब्दजं चेति द्विविधं श्रुतज्ञानं भवति । अथावधिज्ञानं पुनरवधिदर्शनपूर्वकमिति । ईहामतिज्ञानपूर्वकं तु मनःपर्ययज्ञानं भवति । अत्र श्रुतज्ञानमनःपर्ययज्ञानजनकं यदवग्रहेहादिरूपं मतिज्ञानं भणितम, तदपि दर्शनपूर्वकत्वादुपचारेण दर्शनं भण्यते, यतस्तेन कारणेन श्रुतज्ञानमनःपर्ययज्ञानद्वयमपि दर्शनपूर्वकं ज्ञातव्य दर्शन पहले हो लेता है तब ज्ञान होता है । क्योंकि; "ण दोण्णि उवउग्गा जुवगं जम्हा" छद्मस्थोंके ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों एक समयमें नहीं होते इसलिये; "केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि'' और केवली भगवान्में वे दोनों ज्ञान दर्शन उपयोग एक ही समय में होते हैं । अब विस्तारसे वर्णन करते हैं-चक्षु आदि इन्द्रियोंके अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार अपने योग्य देश में विद्यमान जो निजरूए आदि विषय हैं उनका ग्रहण करना है उसीको सन्निपात, संबन्ध अथवा सन्निकर्ष कहते हैं। और नैयायिक मतके समान चक्षु आदि इन्द्रियोंका जो अपने अपने स्वरूप आदि विषयोंके पास जाना है; उसको सन्निकर्ष न कहना चाहिये। भावार्थ-नेत्र आदि इन्द्रियोंद्वारा जो रूप आदिका ग्रहण किया जाता है वही सन्निकर्ष है, और नैयायिकमतमें जो नेत्र आदि इन्द्रियोंका अपने रूप आदि विषयोंके पास गमन करने रूप सन्निकर्ष माना है वह नहीं । वह सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष ही है लक्षण जिसका; ऐसा जो निर्विकल्पक-सत्तावलोकन दर्शन उसके होनेके पीछे "यह शुक्ल ( सफेद ) है" इत्यादि अवग्रह आदि विकल्पोंरूप-पाँचों इन्द्रियों तथा अनिन्द्रिय मनसे उत्पन्न मतिज्ञान होता है । और इस पूर्वोक्त लक्षणका धारक मतिज्ञान पहले हो लेता है तब धूम ( धुआं ) से जैसे अग्निका ज्ञान हो जाता है इसी प्रकार एक पदार्थसे दूसरे पदार्थको ग्रहण करनेरूप लिंगज ( चिह्नसे उत्पन्न हुआ ) तथा इसी प्रकार घट आदि शब्दोंके सुननेरूप शब्दज ( शब्दसे उत्पन्न हुआ ), ऐसे दो प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । भावार्थश्रुतज्ञान दो प्रकारका है एक तो लिंगज और दूसरा शब्दज; उनमें एक पदार्थको जानकर उसके जरियेसे जो दूसरे पदार्थका जान लेना है वह तो लिंगज श्रुतज्ञान है और शब्दोंके सुननेसे जो ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है । और अवधि दर्शन पहले हो लेता है तब अवधिज्ञान होता है । और जो मनःपर्ययज्ञान है वह ईहानामक मतिज्ञानपूर्वक होता है। यहाँपर श्रुतज्ञानको उत्पन्न करनेवाला अवग्रह, और मनःपर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला हा, आदिकप जो मतिज्ञान कहा है अर्थात् श्रुतज्ञानको उत्पन्न करनेवाला अवग्रहरूप मतिज्ञान और मन पर्ययज्ञानको उत्पन्न करनेवाला ईहारूप मतिज्ञान कहा गया है; वह मतिज्ञान भी दर्शन पहले हो लेता है तभी होता है । इसलिये मतिज्ञान भी उपचारसे दर्शन कहलाता है । इस कारण श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन दोनोंको भी दर्शनपूर्वक जानना चाहिये । इस पूर्वोक्त प्रकारसे Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्ष मार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १४९ मिति । एवं छद्मस्थानां सावरणक्षयोपशमिकज्ञानसहितत्वात् दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवति । केवलिनां तु भगवतां निर्विकारस्वसंवेदनसमुत्पन्न निरावरणक्षायिकज्ञानसहितत्वान्निर्मघादित्ये युगपदातपप्रकाशवदर्शनं ज्ञानं च युगपदेवेति विज्ञेयम् । छद्मस्था इति कोऽर्थः ? छद्मशब्देन ज्ञानदर्शनावरणद्वयं भण्यते, तत्र तिष्ठन्तीति छमस्थाः । एवं तर्काभिप्रायेण सत्तावलोकनदर्शनं व्याख्यातम् । अत ऊर्ध्व सिद्धान्ताभिप्रायेण कथ्यते । तथाहि-उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं यत् प्रयत्नं तद्रूपं यत् स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तदर्शनं भण्यते। तदनन्तरं यदबहिविषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तद्ज्ञानमिति वार्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात् पटपरिज्ञानार्थ चित्ते जाते सति घटविकल्पाव्यावर्त्य यत् स्वरूपे प्रयत्नमवलोकनं परिच्छेदनं करोति तद्दर्शनमिति । तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद्बहिविषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद ज्ञानं भण्यते । अत्राह शिष्यः-यद्यात्मग्राहकं दर्शनं, परग्राहकं ज्ञानं भण्यते; तहि यथा नैयायिकमते ज्ञानमात्मानं न जानाति; तथा जैनमतेऽपि ज्ञानमात्मानं न जानातीति दूषणं प्राप्नोति । अत्र परिहारः । नैयायिकमते ज्ञानं पृथग्दर्शनं पृथगिति गुणद्वयं नास्ति; तेन कारणेन तेषामात्मपरिज्ञानाभावदूषणं छद्मस्थ जीव आवरणसहित क्षयोपशमिक ज्ञानसहित हैं इस कारण छद्मस्थोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है। और केवली भगवान् विकाररहित और अपने संवेदन ( जानने ) से उत्पन्न ऐसा जो क्षायिक ज्ञान है उससे सहित हैं; इसलिये केवली भगवानोंके जैसे बादलके आवरणरहित सूर्यके एक ही समयमें आतप और प्रकाश होते हैं; उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान ये दोनों एक ही समयमें होते हैं ऐसा जानना चाहिये । प्रश्न-छद्मस्थ ऐसा जो गाथामें कहा गया है इसका क्या अर्थ है? उत्तर-छद्म इस शब्दसे ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ये दोनों कहे जाते हैं, उस छद्म में जो रहे वे छद्मस्थ हैं । इस प्रकार तर्क ( न्याय ) के अभिप्रायसे सत्तावलोकन दर्शनका व्याख्यान किया गया। अव इसके आगे सिद्धान्तके अभिप्रायसे कहते हैं । सो ही दिखाते हैं, आगेके कालमें होनेवाला जो ज्ञान है उसकी उत्पत्तिका निमित्त जो प्रयत्न उस स्वरूप जो निज आत्माका परिच्छेदन अर्थात् अवलोकन ( देखना ) वह दर्शन कहलाता है, और उसके पीछे जो बाह्य विषयमें विकल्परूपसे पदार्थका ग्रहण है वह ज्ञान है; यह वात्तिक है। जैसे कोई पुरुष पहले घटके विषयका विकल्प करता हुआ बैठा है फिर उसी पुरुषका चित्त जब पटके जाननेके लिये होता है, तब वह पुरुष घटके विकल्पसे हठकर जो स्वरूपमें प्रयत्न अर्थात् अवलोकन ( परिच्छेदन ) करता है; उसको दर्शन कहते हैं। उसके अनंतर यह पट है; इस प्रकारसे निश्चयरूप जो बाह्य विषयरूपसे पदार्थके ग्रहणस्वरूप विकल्पको करता है वह विकल्प ज्ञान कहलाता है । यहाँपर शिष्य कहता है कि हे गुरो ! यदि आप आत्मा (अपने) को ग्रहण करनेवाला जो है उसको दर्शन, और जो पर पदार्थको ग्रहण करनेवाला है उसको ज्ञान कहते हैं तो नैयायिकोंके मतमें जैसे ज्ञान आत्माको नहीं जानता है; वैसे ही जैनमतमें भी ज्ञान आत्माको नहीं जानता है; ऐसा दूषण प्राप्त होता है । अब इस शिष्यको शंकाको आचार्य दूर करते हैं कि नंयायिकमतमें ज्ञान जुदा और दर्शन जुदा इस प्रकारसे दो गुण नहीं हैं अर्थात् ज्ञान और दर्शन ये दो जुदे-जुदे गुण नहीं हैं। इस कारण उन नैयायिकोंके आत्माको जाननेके अभावरूप दूषण प्राप्त होता है अर्थात् Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार प्राप्नोति । जैनमते पुनर्ज्ञानगुणेन परद्रव्यं जानाति, दर्शनगुणेनात्मानं च जानातीत्यात्मपरिज्ञानाभावदूषणं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत् यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहकः, पचतीति पाचको विषयभेदेन द्विधा भिद्यते । तथैवाभेदनयेनैकमपि चैतन्यं भेदनयविवक्षायां यदात्मग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्तं तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते । कि च यदि सामान्य ग्राहकं दर्शनं विशेषग्राहकं ज्ञानं भण्यते, तदा ज्ञानस्य प्रमाणत्वं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत् वस्तुग्राहकं प्रमाणं; वस्तु च सामान्यविशेषात्मकं; ज्ञानेन पुनर्वस्त्वेकदेशो विशेष एव गृहीतो; न च वस्तु । सिद्धान्तेन पुनर्निश्चयेन गुणगुणिनोरभिन्नत्वात् संशयविमोहविभ्रमरहितवस्तुज्ञानस्वरूपात्मैव प्रमाणम् । स च प्रदीपवत् स्वपरगतं सामान्यं विशेषं च जानाति । तेन कारणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति । अथ मतं - यदि दर्शनं बहिविषये न प्रवर्त्तते तदान्धवत् सर्वजनानामन्धत्वं प्राप्नोतीति । नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्व परिच्छिनत्तीति । अयं तु विशेष: आत्माका ज्ञान न होने रूप दोष होता है, और जैनमत में आत्मा ज्ञान गुणसे तो पर पदार्थको जानता है तथा दर्शन गुणसे आत्माको जानता है इस कारण जैनमत में आत्माके जाननेका अभावरूप जो दूषण है वह प्राप्त नहीं होता अर्थात् जैनमतमें आत्माका जानना सिद्ध ही है । यह दूषण क्यों नहीं होता है ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि जैसे एक भी अग्नि दहन गुणसे जलाता है इस हेतुसे दाहक कहलाता है, और पाचनरूप गुणसे पकाता है इस कारण पाचक कहलाता है । इस प्रकार विषयके भेद से दाहक - पाचक रूप दो प्रकार भेदको प्राप्त होता है अर्थात् एक ही अग्नि दाहक और पाचकभेदसे दो प्रकारका है । उसी प्रकार अभेदनयसे एक भी चैतन्य भेदनयकी विवक्षामें जब आत्माको ग्रहण करनेवाले रूपसे प्रवृत्त हुआ तब तो उसका 'दर्शन' यह नाम हुआ और फिर जब पर पदार्थको ग्रहण करनेरूप प्रवृत्त हुआ तब उस चैतन्यका 'ज्ञान' यह नाम हुआ इस प्रकार विषयके भेदसे चैतन्य दो प्रकारसे भेदको प्राप्त होता है अर्थात् एक ही चैतन्य दर्शन और ज्ञानरूप भेदसे दो प्रकारका होता है । और विशेष वार्ता यह है कि, यदि सामान्यके ग्रहण करनेवालेको दर्शन और विशेषके ग्रहण करनेवालेको ज्ञान कहा जावे तो ज्ञानके प्रमाणताकी प्राप्ति नहीं होती है | ज्ञानके प्रमाणत्व क्यों नहीं होता ? यह शंका करो तो समाधान यह है कि, जो वस्तुको ग्रहण करनेवाला है उसको प्रमाण कहते हैं । और वस्तु सामान्य तथा विशेष इन दोनों स्वरूप है, और ज्ञानने वस्तुका एक देश जो विशेष है वह ही ग्रहण किया न कि संपूर्ण वस्तु और सिद्धान्त से निश्चयनयकी विवक्षामें गुण और गुणीके भेद नहीं है; इस कारण संशय, विमोह ( अनध्यवसाय ) और विभ्रम ( विपर्यय ) इन तीनोंसे रहित जो वस्तुका ज्ञान है उस ज्ञान स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । क्योंकि, ज्ञान आत्माका गुण है और आत्मा ज्ञानगुणको धारण करता है इसलिये गुणी है, गुण और गुणीके निश्चयसे अभेद है । और वह प्रमाण जैसे प्रदीप अपने और परका प्रकाशक है, उसी प्रकार अपने में प्राप्त सामान्यको और पर पदार्थ में प्राप्त विशेषको जानता है । इस कारण अभेदसे आत्मा के ही प्रमाणत्व है । अब ऐसा कहो कि, यदि दर्शन बाह्य विषय में नहीं प्रवर्त्तता है तो अंधेकी तरह सब मनुष्यों अंधेपनकी प्राप्ति होती है । तो समाधान यह है कि, ऐसा न कहना चाहिये। क्योंकि, यद्यपि बाह्य विषयमें दर्शनका अभाव है; तथापि आत्मा ज्ञानद्वारा विशेष रूपसे सब पदाथोंको जानता है । और अधिक वार्ता यह है कि जब दर्शनसे आत्माका ग्रहण होता है तब आत्मा में Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १५१ दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवतीति । अथोक्तं भवता यद्यात्मग्राहक दर्शनं भण्यते, तहि जं सामण्णं गहणं भावाणं तद्दर्शनमिति गाथार्थः कथं घटते ? तत्रोत्तरं सामान्यग्रहणमात्मग्रहणं तद्दर्शनं । कस्मादिति चेत्-आत्मा वस्तुपरिच्छित्ति कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामोति विशेषपक्षपातं न करोति; किन्तु सामान्येन वस्त परिच्छिनत्ति । तेन कारणेन सामान्यशब्देनात्मा भण्यत इति गाथार्थः। किंबहुना ? यदि कोऽपि तर्कार्थ सिद्धान्तार्थं च ज्ञात्वैकान्तदुराग्रहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्त्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटत इति । कथमिति चेत्-तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति । तदा तेषामात्मग्राहक दर्शनमिति कथिते सति ते न जानन्ति । पश्चादाचार्यैस्तेषां प्रतीत्यर्थ स्थलव्याख्यानन बहिविषये यत सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकनदर्शनसंज्ञा स्थापिता, यच्च शुक्लमिदमित्यादिविशेषपरिच्छेदनं तस्य ज्ञानसंज्ञा स्थापितेति दोषो नास्ति । सिद्धान्ते पुनः स्वसमयव्याख्यानं मुख्यवृत्त्या । तत्र सूक्ष्मव्याख्याने क्रियमाणे सत्याचार्येरात्मग्राहकं दर्शनं व्याख्यातमित्यत्रापि दोषो नास्ति ।। व्याप्त जो ज्ञान है वह भी दर्शन करके ग्रहण किया जाता है; और जब दर्शनने ज्ञानको ग्रहण किया तो ज्ञानका विषयभूत जो बाह्य वस्तु है उसका भी ग्रहण किया। अब कदाचित् यह कहो कि, जो आप आत्माको ग्रहण करनेवालेको दर्शन कहते हो तो "जो पदार्थोंका सामान्य ग्रहण है वह दर्शन कहलाता है" यह जो गाथाका अर्थ है वह आपके कथनमें कैसे घटता है ? तो इसमें यह उत्तर है कि, वहाँपर सामान्य ग्रहण इस शब्दका आत्माका ग्रहण करनेरूप अर्थ है और वह आत्मग्रहण ही दर्शन है । ऐसा अर्थ क्यों है ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि, वस्तुका ज्ञान करता हुआ जो आत्मा है वह 'मैं इसको जानता हूँ, इसको नहीं जानता हूँ,' इस प्रकारसे जो विशेष पक्षपात हैं उसको नहीं करता है। किंतु सामान्यरूपसे वस्तु ( पदार्थ ) को जानता है। इस कारण सामान्य इस शब्दसे आत्मा कहा जाता है । यह गाथाका अर्थ है। बहुत कहनेसे क्या ? यदि कोई भी तर्क ( न्याय ) के और सिद्धान्तके अर्थको जानकर एकान्तरूप जो दुराग्रह ( बुरा हठ ) हैं उसका त्याग करके, नयोके विभागसे मध्यस्थता धारण करके, व्याख्यान करता है तब तो सामान्य और विशेष ये दोनों ही सिद्ध होते हैं। कैसे सिद्ध होते हैं ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि, तर्क ( न्याय ) में मुख्यतासे परसमय अर्थात् अन्यमतका व्याख्यान है । इसलिये उसमें यदि कोई अन्यमतावलम्बी पूछे कि, जैनमतमें जीवके दर्शन और ज्ञान ये जो दो गुण कहे जाते हैं वे कैसे सिद्ध होते हैं ? तब इसके उत्तरमें यदि उन अन्यमतियोंको यह कहे कि; जो आत्माको ग्रहण करनेवाला है उसको दर्शन कहते हैं; तो ऐसा कहनेपर वे अन्यमती नहीं समझते हैं। तब आचार्योंने उनके प्रतीति होनेके लिये विस्ताररूप व्याख्यानसे जो बाह्यविषयमें सामान्य जानना है उसकी तो 'दर्शन' ऐसी संज्ञा ( नाम ) स्थापित की; और जो 'यह शुक्ल ( सफेद ) है' इत्यादि रूपसे बाह्य में विशेषका जानना है, उसकी 'ज्ञान' यह संज्ञा ठहराई, इसलिये दोष नहीं है । और सिद्धान्तमें मुख्यतासे निजसमय ( जैनमत ) का व्याख्यान है इसलिये सिद्धान्तमें जब सूक्ष्म व्याख्यान किया गया तब आचार्योंने जो आत्माका ग्राहक है उसको दर्शन कहा । इस कारण इस कथनमें भी दं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार अत्राह शिष्यः - सत्तावलोकनदर्शनस्य ज्ञानेन सह भेदो ज्ञातस्तावदिदानों यत्तत्त्वार्थश्रद्धानरूपं सम्यग्दर्शनं वस्तुविचाररूपं सम्यग्ज्ञानं तयोर्विशेषो न ज्ञायते । कस्मादिति चेत् -- सम्यग्दर्शने पदार्थनिश्चयोऽस्ति तथैव सम्यग्ज्ञाने च को विशेष इति । अत्र परिहारः । अर्थग्रहणपरिच्छि त्तिरूपः क्षयोपशमविशेषो ज्ञानं भण्यते, तत्रैव भेदनयेन वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धात्मादितत्त्वेष्विदमेवेत्थमेवेति निश्चयसम्यक्त्वमिति । अविकल्परूपेणाभेदनयेन पुनर्यदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक्त्वमिति । कस्मादिति चेत् - अतत्त्वे तत्त्वबुद्धिरदेवे देवबुद्धिरधर्मे धर्मबुद्धिरित्यादिविपरीताभिनिवेशरहितस्य ज्ञानस्यैव सम्यग्विशेषणवाच्योऽवस्थाविशेषः सम्यक्त्वं भण्यते यतः कारणात् । १५२ यदि भेदो नास्ति तहि कथमावरणद्वयमिति चेत्-तत्रोत्तरम् । येन कर्मणार्थपरिच्छि तिरूपः क्षयोपशमः प्रच्छाद्यते तस्य ज्ञानावरणसंज्ञा, तस्यैव क्षयोपशमविशेषस्य यत् कर्म पूर्वोक्तलक्षणं विपरीताभिनिवेशमुत्पादयति तस्य मिथ्यात्वसंज्ञेति भेदनयेनावरणभेदः । निश्चयनयेन पुनरभेदविवक्षायां कर्मत्वं प्रत्यावरणद्वयमप्येकमेव विज्ञातव्यम् । एवं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं भवतीति व्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥ ४४ ॥ अब यहाँ शिष्य कहता है कि हे गुरो ! सत्ताका अवलोकन करनेवाला जो दर्शन है उसका तो ज्ञानके साथ भेद जाना । अब " जो तत्त्वार्थका श्रद्धान करनेरूप सम्यग्दर्शन और पदार्थका विचार करने स्वरूप सम्यग्ज्ञान है" इन दोनोंमें भेद नहीं जाना जाता । क्यों नहीं जाना जाता ? यह पूछे तो उत्तर यह है कि, जो पदार्थका निश्चय सम्यग्दर्शन में है वही सम्यग्ज्ञान में है । इसलिये सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें क्या भेद है अर्थात् कुछ भी नहीं । अब इस शिष्यकी शंकाका आचार्य समाधान करते हैं कि, पदार्थ के ग्रहण करनेमें जाननेरूप जो क्षयोपशम विशेष है, वह ज्ञान कहलाता है । और उस ज्ञानमें ही भेदनयसे जो वीतराग सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रद्वारा कहे हुए शुद्ध आत्मा आदि तत्त्व हैं उनमें यह ही तत्त्व है, ऐसा ही तत्त्व है, इस प्रकारका जो निश्चय है वह सम्यक्त्व है | और अभेदनयसे अर्थात् अभेदरूपसे तो जो ही सम्यग्ज्ञान है वही सम्यग्दर्शन है । ऐसा किस 1 कारणसे है ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि, तत्त्व नहीं है उसमें तत्त्वकी बुद्धि करना, देव नहीं है उसमें देवकी बुद्धि करना और अधर्ममें धर्मकी बुद्धि करना इत्यादि रूपसे जो विपरीत अभिनिवेश ( उलटा आग्रह ) है; उस विपरीताभिनिवेशसे रहित जो ज्ञान है; उसीका जो सम्यग् इस विशेषणसे कहे जानेवाला अवस्थाविशेष है वह सम्यक्त्व कहलाता है । यही इस अर्थ के करने में हेतु है । जो सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमें भेद नहीं है तो आठ कर्मोंमें दर्शनावरण और ज्ञानावरण ये दो आवरण कैसे कहे गये है ? यह शंका करो तो यहाँ समाधानरूप उत्तर यह है कि, जिस कर्मसे पदार्थके जाननेरूप क्षयोपशम ढका जाता है उसकी तो 'ज्ञानावरण' यह संज्ञा है । और उस ज्ञानावरणके क्षयोपशमविशेष के जो कर्म पहले कहे हुए लक्षणवाले विपरीत अभिनिवेशको उत्पन्न करता है उसकी मिथ्यात्व यह संज्ञा है । इस कारण भेदनयसे आवरणका भेद है । और अभेदकी विवक्षा में कर्मत्व के प्रति जो दो आवरण हैं उन दोनोंको एक ही जानना चाहिये । इस प्रकार दर्शन पहले हो लेता है तब ज्ञान होता है; ऐसे व्याख्यान करनेवाली जो गाथा है वह समाप्त हुई ||४४|| Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः -- अथ सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकं रत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग तृतीयावयवभूतं स्वशुद्धात्मानुभूतिरूपशुद्धोपयोगलक्षणवीतरागचारित्रस्य पारम्पर्येण साधकं सरागचारित्रं प्रतिपादयति ;असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ।। ४५ ।। अशुभात् विनिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिः च जानीहि चारित्रं । व्रत समिति गुप्तिरूपं व्यवहारनयात् तु जिनभणितम् ॥४५॥ १५३ व्याख्या - अस्यैव सरागचारित्रस्यैकदेशावयवभूतं देशचारित्रं तावत्कथ्यते । तद्यथामिथ्यात्वादिसप्तप्रकृत्युपशमक्षयोपशमक्षये सति, अध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामे वा सति शुद्धात्मभावनोत्पन्न निर्विकारवास्तवसुखामृतमुपादेयं कृत्वा संसारशरीरभोगेषु योऽसौ हेयबुद्धिः सम्यग्दर्शनशुद्धः स चतुर्थगुणस्थानवर्ती व्रतरहितो दर्शनिको भण्यते । यश्च प्रत्याख्यानावरणसंज्ञिद्वितीयकषायक्षयोपशमे जाते सति पृथिव्यादिपञ्चस्थावरवधे प्रवृत्तोऽपि यथाशक्त्या सवधे निवृत्तः स पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावको भण्यते । तस्यैकादशभेदाः कथ्यन्ते । तथाहि - सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुत्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहितः सन् संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्घादिभिनिष्प्रयोजनजीवघातादौ अब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके पीछे होनेवाला रत्नत्रयस्वरूप जो मोक्षमार्ग है; उसका तीसरा अवयवरूप और निजशुद्ध आत्माके अनुभवस्वरूप जो शुद्धोपयोगरूप लक्षणका धारक वीतरागचारित्र है, उसको परंपरासे साधनेवाला जो सरागचारित्र है; उसका प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ--जो अशुभ ( बुरे ) कार्यसे दूर होना और शुभ कार्य में प्रवृत्त होना अर्थात् लगना है उसको चारित्र जानना चाहिये । श्रीजिनेन्द्रदेवने व्यवहारनयसे उस चारित्रको ५ व्रत, ५ समिति और ३ गुप्तिस्वरूप कहा है ॥ ४५ ॥ व्याख्यार्थ - अब प्रथम ही इसी सरागचारित्रका अवयवरूप जो देशचारित्र है उसका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है - मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियोंका उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय होनेपर अथवा अध्यात्मभाषाके अनुसार निज शुद्धआत्माके सन्मुख परिणाम होने पर जो जीव शुद्ध आत्माकी भावनासे उत्पन्न — विकाररहित - यथार्थं सुखरूपी अमृतको ग्रहण करने योग्य करके, संसार शरीर और भोगों में हेयबुद्धि है अर्थात् संसार, शरीर और भोग ये सब त्यागने योग्य हैं ऐसा समझता है, और सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है; उसको चतुर्थ गुणस्थान में रहनेवाला व्रतरहित दर्शनिक कहते हैं । और जो प्रत्याख्यानावरण नामक दूसरे क्रोधादि कषायों का क्षयोपशम होने पर पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पाँच स्थावरोंके वध में प्रवृत्त हो तो भी अपनी शक्ति के अनुसार त्रसजीवोंके वधसे रहित होता है अर्थात् यथाशक्ति बेइन्द्रिय आदि त्रसजीवों की हिंसा नहीं करता है उसको पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहते हैं । अब उस पंचम गुणस्थानवर्त्ती श्रावकके ग्यारह भेदों को कहते है । वे इस प्रकार हैंपहले सम्यग्दर्शनको धारण करके मद्य (मदिरा), मांस और सहत (मधु) इन तीनोंके और उदुम्बर आदि पाँच फलोंके त्यागरूप जो आठ मूलगुण हैं उनसहित हुआ जो जोव युद्ध आदिमें प्रवृत्त होने १२ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार निवृत्तः प्रथमो दर्शनिकश्रावको भण्यते । स एव सर्वथा त्रसवधे निवृत्तः सन् पञ्चाणुव्रतत्रयगुणव्रतशिक्षावतचतुष्टयसहितो द्वितीयवतिकसंज्ञो भवति । स एव त्रिकालसामायिके प्रवृत्तः तृतीयः, प्रोषधोपवासे प्रवृत्तश्चतुर्थः, सचित्तपरिहारेण पञ्चमः, दिवा ब्रह्मचर्येण षष्ठः, सर्वथा ब्रह्मचर्येण सप्तमः, आरम्भादिसमस्तव्यापारनिवृत्तोऽष्टमः, वस्त्रप्रावरणं विहायान्यसर्वपरिग्रहनिवृत्तो नवमः, गृहव्यापारादिसर्वसावद्यानुमतनिवृत्तो दशमः, उद्दिष्टाहारनिवृत्तः एकादशम इति । एतेष्वेकादशश्रावकेषु मध्ये प्रथमषट्कं तारतम्येन जघन्यम्, ततश्च त्रयं मध्यमम्, ततो द्वयमुत्तममिति संक्षेपेण दर्शनिकश्रावकायंकादशभदाःज्ञातव्याः। 'अथैकदेशचारित्रव्याख्यानानन्तरं सकलचारित्रमुपदिशति। "असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं" अशुभानिवृत्तिः शुभे प्रवृत्तिश्चापि जानीहि चारित्रम् । तच्च कथम्भूतं"वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं" व्रतसमितिगुप्तिरूपं व्यवहारनयाज्जिनरुक्तमिति । तथाहि-प्रत्याख्यानावरणसंज्ञतृतीयकषायक्षयोपशमे सति "विसयकसाओगाढो दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो। १।" इति गाथाकथित पर भी शिकार आदिसे प्रयोजनके विना जीवघात नहीं करता है उसको पहला दर्शनिक श्रावक कहते हैं। और वही प्रथम दर्शनिक श्रावक जब त्रसजीवकी हिंसासे सर्वथा रहित होकर पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंसे सहित होता है तब दूसरा व्रतिक ( व्रती ) इस नामका धारक होता है। वही जब त्रिकाल सामायिकमें प्रवृत्त होता है तब तीसरी प्रतिमाका धारी होता है । प्रोषध उपवासमें प्रवृत्त होता है तब चौथी प्रतिमाका धारी होता है। सचित्तके त्यागसे पाँचवीं प्रतिमाका धारक होता है। दिन में ब्रह्मचर्य धारण करनेसे छट्ठी प्रतिमावाला कहलाता है । सर्वथा ब्रह्मचर्यको धारण करनेसे सप्तम प्रतिमाका धारी होता है। आरंभ आदि संपूर्ण व्यापारोंसे रहित होता है तब अष्टम प्रतिमाका धारी कहा जाता है। वस्त्रके आच्छादनको छोड़कर अन्य सब परिग्रहोंसे रहित होता है तब नवमी प्रतिमाका धारक होता है। गृहसंबंधी व्यापार आदि संपूर्ण सावध ( हिंसासहित ) कार्यों में जब संमति ( सलाह ) देनेसे रहित होता है तब दशमी प्रतिमाका धारी कहलाता है। अपने निमित्त किये हुए आहारका त्याग करनेवाला ग्यारहवीं प्रतिमाका धारी श्रावक कहा जाता है। इन प्रतिमाभेदसे ग्यारह प्रकारके श्रावकोंके बीच में जो पहली छः प्रतिमायें हैं उनमें रहनेवाले तारतम्य ( हीनाधिकता ) से जघन्य श्रावक हैं; उनके आगे सातवीं आठवों और नववी इन तीन प्रतिमाके धारक मध्यम श्रावक हैं; इनके पश्चात् दसवीं और ग्यारहवीं इन दो प्रतिमाओंके धारक उत्तम श्रावक हैं । इस प्रकार संक्षेपसे देशचारित्रके दर्शनिक आदि ग्यारह भेद जानने चाहिये । ___ अब इस एकदेशचारित्रके व्याख्यानके पश्चात् सकलचारित्रका उपदेश करते हैं । “असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारित्तं" हे शिष्य ! अशुभसे निवृत्ति (रहितता) और शुभमें जो प्रवृत्ति है उसको चारित्र जानो। वह कैसा है ? "वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियं" व्रत समिति और गुप्ति स्वरूप है; ऐसा व्यवहारनयसे श्रीजिनेन्द्रने कहा है। सो ही दिखाते हैंप्रत्याख्यानावरण नामक तीसरे कषायका क्षयोपशम होनेपर "जिसका विषयों और कषायोंमें गाढा, दुःश्रुति ( बुरा शास्त्रश्रवण ), दुष्टचित्त और दुष्ट गोष्ठी ( बुरी संगति ) इनसे सहित, उग्र तथा उन्मार्ग (बुरे मार्ग) में तत्पर ऐसा उपयोग है वह जीव अशुभमें स्थित है । १ ।' इस गाथा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्रव्य संग्रहः १५५ मोक्षमार्ग वर्णन ] लक्षणादशुभोपयोगान्निवृत्तिस्तद्विलक्षणे शुभोपयोगे प्रवृत्तिश्च हे शिष्य चारित्रं जानीहि । तच्चाचाराराधनादिचरणशास्त्रोक्तप्रकारेण पञ्च महाव्रत पञ्चसमितित्रिगुप्तिरूपमप्यपहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति । तत्र योऽसौ बहिविषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितासभूतव्यवहारेण, यश्चाभ्यन्तरे रागादिपरिहारः स पुनरशुद्ध निश्चयेनेति नयविभागो ज्ञातव्यः । एवं निश्चयचारित्रसाधकं व्यवहारचारित्रं व्याख्यातमिति ॥ ४५ ॥ अथ तेनैव व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयति ;बहिर मंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासङ्कं । बहिरभ्यन्तरक्रियारोध: गाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारितं ।। ४६ ।। भवकारणप्रणाशार्थम् । ज्ञानिनः यत् जिनोक्तं तत् परमं सम्यक्चारित्रम् ॥ ४६ ॥ व्याख्या--' "तं" तत् "परमं" परमोपेक्षालक्षणं निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मक शुद्धोपयोगा विनाभूतं परमं "सम्मचारित्तं" सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम् । तत्कि - "बहिरब्भं तर किरियारोहो" निष्क्रियनित्यनिरञ्जन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्य निजात्मन: प्रतिपक्षभूतस्य बहिविषये शुभाशुभवचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य योऽसौ निरोधस्त्यागः स च किमर्थं "भवकारणप्पणासट्ठ" पञ्चप्रकारभवातीत निर्दोषपरमात्मनो विलक्षणस्य में कहे हुए लक्षणके धारक अशुभोपयोगसे रहितपना और उक्त अशुभोपयोग से विलक्षण ( उलटा ) शुभपयोग है उसमें प्रवृत्त होना जो है उसको हे शिष्य ! तुम चारित्र जानो । और वह चारित्र मूलाचार, भगवती आराधना आदि चरणानुयोगके शास्त्रोंमें कहे हुए प्रकारसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप है तो भी अपहृतसंयमनामक शुभोपयोगलक्षणका धारक, सरागचारित्र नामक चारित्र होता है । उसमें जो बाह्यविषयों में पाँचों इन्द्रियोंके विषय वगैरहका त्याग है वह तो उपचरित -असद्भूत - व्यवहारनयसे चारित्र है; और जो अन्तरंग में राग आदिका त्याग है वह अशुद्ध निश्चयनयसे चारित्र है; इस प्रकार नयोंका विभाग जानना चाहिये। ऐसे निश्चयचारित्रको साधनेवाला जो व्यवहारचारित्र है उसका व्याख्यान किया गया ।। ४५ ।। अब इसी पूर्वोक्त व्यवहारचारित्रसे सिद्ध होने योग्य जो निश्चयचारित्र है उसका निरूपण करते हैं; - गाथाभावार्थ - ज्ञानी जीवके जो संसारके कारणोंको नष्ट करनेके लिये बाह्य और अंतरंग क्रियाओंका निरोध है; वह श्रीजिनेन्द्रसे कहा हुआ उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है || ४६ || व्याख्यार्थ - "तं" वह "परभं " परम उपेक्षा ( अनादर ) स्वरूप लक्षणका धारक, और विकाररहित निजसंवेदनरूप जो शुद्धोपयोग है उससे व्याप्त होनेसे उत्कृष्ट "सम्मचारितं" सम्यक् चारित्र जानना चाहिये | वह क्या ? "बहिरब्भंतरकिरियारोहो" क्रियारहित - नित्य - निरंजन और निर्मल ज्ञान तथा दर्शनरूप स्वभावका धारक जो अपना आत्मा है उससे प्रतिपक्षभूत (प्रतिकूल ) - बाह्य विषय में शुभ-अशुभ-वचन-कायके व्यापाररूप, और इसी प्रकार अन्तरंग में शुभ-अशुभमनके विकल्परूप जो क्रियाका व्यापार है उसका जो निरोध अर्थात् त्याग है वह । वह त्याग किस लिये है ? "भवकारणप्पणासहूं" पाँच प्रकारके संसारसे रहित जो निर्दोष परमात्मा है उससे भिन्न Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् तृतीय अधिकार भवस्य संसारस्य व्यापारकारणभूतो योऽसौ शुभाशुभकर्मास्रवस्तस्य प्रणाशार्थं विनाशार्थमिति । इत्युभयक्रियानिरोधलक्षणचारित्रं कस्य भवति ? "णाणिस्स" निश्चयरत्नत्रयात्मकाभेदज्ञानिनः । पुनरपि किं विशिष्टं "जं जिणुत्तं" यज्जिनेन वीतरागसर्वज्ञेनोक्तमिति ॥ ४६॥ एवं वीतरागसम्यक्त्वज्ञानाविनाभूतं निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयमोक्षमार्गतृतीयावयवरूपं वीतरागचारित्रं व्याख्यातम् ॥ इति द्वितीयस्थले गाथाषट्कं गतम्। एवं मोक्षमार्गप्रतिपादकतृतीयाधिकारमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसंक्षेपकथनेन सूत्रद्वयम् तदनन्तरं तस्यैव मोक्षमार्गस्यावयवभूतानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां विशेषविवरणरूपेण सूत्रषट्कं चेति स्थलद्वयसमुदायेनाष्टगाथाभिः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः॥ __ अतः परं ध्यानध्यातध्येयध्यानपालकथनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथात्रयम्, ततः परं पञ्चपरमेष्ठिव्याख्यानरूपेण द्वितीयस्थले गाथापञ्चकम, ततश्च तस्यैव ध्यानस्योपसंहाररूपविशेषव्याख्यानेन तृतीयस्थले सूत्रचतुष्टयमिति स्थलत्रयसमुदायेन द्वादशसत्रेषु द्वितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका। तथाहि । निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसाधकध्यानाभ्यासं कुरुत यूयमित्युपदिशति; दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जयं झाणं समब्भसह ॥ ४७ ॥ लक्षणका धारक जो संसार उसके व्यापारका कारणभूत जो शुभ-अशुभ-कर्मोंका आस्रव उसके विनाशके लिये है। पूर्वोक्त प्रकारसे बाह्य और अंतरंग भेदसे. जो दो प्रकारकी क्रियायें हैं उनका त्यागरूप चारित्र किसके होता है ? "णाणिस्स" निश्चय रत्नत्रयस्वरूप अभेदज्ञानके धारक जीवके। फिर कैसा है वह चारित्र ? "ज जिणुत्तं" जो जिन अर्थात् श्रीवीतरागसर्वज्ञदेवसे कहा हुआ है ॥ भावार्थ-ज्ञानी जीवके संसारके कारणोंको दूर करनेके लिये जो बाह्य और अंतरंगकी शुभ अशुभ क्रियाओंका त्याग होता है वह श्रीजिनेन्द्रद्वारा कहा हुआ परम सम्यक्चारित्र है ।।४६।। इस प्रकार वीतरागसम्यक्त्व और ज्ञानके विना नहीं होनेवाला और निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो निश्चयमोक्षमार्ग है उसका तीसरा अवयवरूप जो वीतरागचारित्र है उसका व्याख्यान किया । ऐसे दूसरे स्थलमें ६ गाथायें समाप्त हुई । इस प्रकार मोक्षमार्गको प्रतिपादन करनेवाला जो तीसरा अधिकार है उसमें-निश्चय और व्यवहाररूप मोक्षमार्गके कथनसे दो सूत्र और उसके पश्चात् उसी मोक्षमार्गके अवयवरूप जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं उनके विशेष व्याख्यान रूपसे छः सूत्र, इस रीतिसे दो स्थलोंके समुदाय (जोड़ने) से जो आठ गाथायें हैं उनसे प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ॥ अब इसके आगे ध्यान, ध्याता (ध्यान करनेवाला), ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ) और ध्यानका फल इनके कथनकी मुख्यतासे प्रथम स्थलमें तीन गाथायें, इसके पश्चात् पंच परमेष्ठियोंके व्याख्यानरूपसे दूसरे स्थलमें पाँच गाथायें; और इसके अनन्तर उसी ध्यानके उपसंहाररूप विशेष व्याख्यानद्वारा तीसरे स्थल में चार गाथायें इस प्रकार तीन स्थलोंके समुदायसे बारह गाथासूत्रोंका धारक जो तृतीय अधिकारमें दूसरा अंतराधिकार है उसकी समुदायरूप भूमिका है। उसमें प्रथम ही तुम निश्चय और व्यवहारमोक्षमार्गको साधनेवाला जो ध्यान है उसका अभ्यास करो ऐसा उपदेश देते हैं; Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन] बृहद्रव्यसंग्रहः १५७ द्विविधं अपि मोक्षहेतुं ध्यानेन प्राप्नोति यत् मुनिः नियमात् । तस्मात् प्रयत्नचित्ताः यूयं ध्यानं समभ्यसत ॥ ४७ ॥ व्याख्या- "दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा" द्विविधमपि मोक्षहेतुं ध्यानेन प्राप्नोति यस्मात् मुनिनियमात् । तद्यथा-निश्चयरत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षहेतुं निश्चयमोक्षमार्ग तथैव व्यवहाररत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षहेतुं व्यवहारमोक्षमार्ग च यं साध्यसाधकभावेन कथितवान् पूर्व तद्विविधमपि निर्विकारस्वसंवित्त्यात्मकपरमध्यानेन मुनिः प्राप्नोति यस्माकारणात् “तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समभसह" तस्मात् प्रयत्नचित्ताः सन्तो हे भव्या यूयं ध्यानं सम्यगभ्यसत। तथा हि-तस्मात्कारणाद् दृष्टश्रुतानुभूतनानामनोरथरूपसमस्तशुभाशुभरागादिविकल्पजालं त्यक्त्वा परमस्वास्थ्यसमुत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवे स्थित्वा च ध्यानाभ्यासं कुरुत यूयमिति ॥४७॥ अथ ध्यातृपुरुषलक्षणं कथयति, मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्टणिट्टअट्ठसु । थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए ।। ४८ ॥ मा मुह्यत मा रज्यत मा द्विष्यत इष्टानिष्टार्थेषु । स्थिरं इच्छत यदि चित्तं विचित्रध्यानप्रसिद्धये ॥४८॥ गाथाभावार्थ-मुनि ध्यानके करनेसे जो नियमसे निश्चय और व्यवहार इन दोनों स्वरूप मोक्षमार्गको पाता है। इस कारणसे हे भव्यो ! तुम चित्तको एकाग्र करके ध्यानका अभ्यास करो॥ ४७ || व्याख्यार्थ-"दुविहं पि मुक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा' जिससे कि मुनि नियमसे ध्यान करके दोनों प्रकारसे मोक्षकारणोंको प्राप्त होता है। वे दोनों मोक्षके कारण इस प्रकार हैंनिश्चयरत्नत्रयस्वरूप निश्चयमोक्षकारण अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग और इसी प्रकार व्यवहाररत्नत्रयरूप व्यवहारमोक्षहेतु अर्थात् व्यवहारमोक्षमार्ग, इन दोनोंको पहले साध्यसाधकभावसे अर्थात् निश्चयमोक्षमार्ग साध्य (साधनेयोग्य) है और व्यवहारमोक्षमार्ग साधक (निश्चयमोक्षमार्गका साधनेवाला) है इस रूपसे जो पहले कहा है उस दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको मुनि जिस कारणसे विकाररहित-निजसंवेदनस्वरूप परमध्यान करके प्राप्त होता है "तम्हा पयत्तचित्ता जयं ज्झाणं समब्भसह" इसी कारणसे एकाग्रचित्त होकर हे भव्यजनो ! तुम भले प्रकारसे ध्यानका अभ्यास करो-अर्थात् मुनि ध्यानसे दोनों मोक्षमार्गोंको प्राप्त होते हैं इस कारणसे तुम देखा हुआ, सुना हुआ, और अनुभव किया हुआ जो अनेक प्रकारके मनोरथरूप संपूर्ण शुभ-अशुभ-राग आदि विकल्पोंका समूह है उसका त्याग करके और परमनिजस्वरूपमें स्थित होनेसे उत्पन्न हुआ जो सहज आनंदरूप एक लक्षणका धारक सुखरूपी अमृतरसके आस्वादका अनुभव है उसमें स्थित होकर ध्यानका अभ्यास करो ॥ ४७ ॥ अब ध्यान करनेवाले पुरुषके लक्षणको कहते हैं; गाथाभावार्थ-हे भव्यजनो! यदि तुम नाना प्रकारके ध्यान अथवा विकल्प रहित ध्यानकी सिद्धि के लिये चित्तको स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्टरूप जो इन्द्रियोंके विषय हैं उनमें राग द्वेष और मोहको मत करो ।। ४८ ।। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार व्याख्या-"मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह" समस्तमोहरागद्वेषजनितविकल्पजालरहितनिजपरमात्मतत्त्वभावनासमुत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसात्सकाशादुद्गता संजाता तत्रैव परमात्मसुखास्वादे लीना तन्मया या तु परमकला परमसंवित्तिस्तत्र स्थित्वा हे भव्या मोहरागद्वेषान्मा कुरुत; केषु विषयेषु ? "इट्टणिट्टअट्रेसु' स्रग्वनिताचन्दनताम्बूलादय इष्टेन्द्रियार्थाः अहिविषकण्टकशत्रुव्याधिप्रभृतयः पुनरनिष्टेन्द्रियार्थास्तेषु। यदि कि "थिरमिच्छहि जइ चित्तं" तत्रैव परमात्मानुभवे स्थिरं निश्चलं चित्तं यदीच्छत यूयं । किमर्थं "विचित्तझाणप्पसिद्धीए" विचित्रं नानाप्रकारं यद्धघानं तत्प्रसिद्धयै निमित्तं, अथवा विगतं चित्तं चित्तोद्भवशुभाशुभविकल्पजालं यत्र तद्विचित्तं ध्यानं तदर्थमिति ॥ इदानों तस्यैव ध्यानस्य तावदागमभाषया विचित्रभेदाः कथ्यन्ते। तथाहि-इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतीकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम् । तच्च तारतम्येन मिथ्यादृष्टयादिषट्गुणस्थानतिजीवसम्भवम् । यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्घायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां न भवति । कस्मादिति चेत्-स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनाबलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति । ___ व्याख्यार्थ-"मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह" समस्त-मोह, राग और द्वेषोंसे उत्पन्न हुए विकल्पोंके समहोंसे रहित जो निज परमात्माके स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न हआ परमानन्दरूप एक लक्षणका धारक सुखामृतरस उससे उत्पन्न हुई और उसी परमात्माके सुखके आस्वादमें तत्पर अर्थात् मग्न हुई जो परम कला अर्थात् परमसंवित्ति (आत्माके स्वरूपका साक्षात्काररूप अनुभव) है; उसमें स्थित होकर हे भव्य जीवो ! मोह, राग और द्वेषोंको मत करो। किनमें मोह राग द्वष मत करो? "इट्टणि?अट्टेसु' माला, स्त्री, चन्दन और ताम्बूल आदिरूप इष्ट इन्द्रियोंके विषयोंमें और सर्प, जहर, कांटा, शत्रु और रोग आदि अनिष्ट इन्द्रियोंके विषयोंमें, जो क्या "थिरमिच्छहि जइ चित्तं" यदि उसी परमात्माके अनुभवमें तुम निश्चल चित्तको चाहते हो तो । किसलिये स्थिर चित्तको चाहते हो ? "विचित्तझाणप्पसिद्धीए" विचित्र अर्थात् नानाप्रकारका जो ध्यान है उसकी सिद्धि के लिये अथवा दूर हो गया है चित्त अर्थात् चित्तसे उत्पन्न होनेवाला शुभ और अशुभ विकल्पोंका समूह जिसमें वह विचित्त ध्यान है उस विचित्तध्यान अर्थात् निर्विकल्पक ध्यानके लिये ।। ___अब प्रथम ही आगमभाषाके अनुसार उसी ध्यानके नानाप्रकारके भेदोंका कथन करते हैं । सो ही दिखाते हैं-इष्टका वियोग, अनिष्टका संयोग और रोगको दूर करने तथा भोगों और भोगोंके कारणोंमें इच्छा रखनेरूप भेदोंसे चार प्रकारका आर्तध्यान है अर्थात् इष्टका वियो न चाहना १, अनिष्टका संयोग न चाहना २, रोग न चाहना ३, और भोगनिदानोंकी वांछा करना ४, इन चार प्रकारोंका धारक आर्तध्यान है । और वह आर्तध्यान न्यूनाधिकभावसे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानको आदि ले प्रमत्तगुणस्थानपर्यन्त जो छ: गुणस्थान हैं उनमें रहनेवाले जीवोंके होता है । और वह आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवोंके तिथंच गतिके बंधका कारण होता है तथापि जिस सम्यग्दष्टिने पहले तियंचगतिके आयुको बाँध लिया है उस सम्यग्दृष्टि जीवको छोड़कर अन्य जो सम्यग्दृष्टि जीव हैं उनके तिर्यंचगतिके बंधका कारण नहीं है । क्यों नहीं है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टि जीवोंके “निज शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी जो भावना रहती है उसके बल से तिर्यंचगतिका कारणरूप जो संक्लेश है उसका अभाव है ।। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] १५९ अथ रौद्रध्यानं कथ्यते - हिंसानन्दमृषानन्दस्तेयानन्दविषयसंरक्षणानन्दप्रभवं रौद्रं चतुविधम् । तारतम्येन मिथ्यादृष्टचादिपञ्चमगुणस्थानवत्तिजीवसम्भवम् । तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति । तदपि कस्मादिति चेत्-निजशुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयं विशिष्टभेदज्ञानबलेन तत्कारणभूततीव्रसंक्लेशाभावादिति ॥ बृहद्रव्य संग्रहः अतः परमार्त्त रौद्रपरित्यागलक्षण माज्ञापायविपाकसंस्थान विचयसंज्ञचतुर्भेदभिन्नं, तारतम्यवृद्धिक्रमेणा संयत सम्यग्दृष्टिदेश विरतप्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधान चतुर्गुणस्थान वत्तिजीवसम्भवं, मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परम्परया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यानं कथ्यते । तथाहि - स्वयं मन्दबुद्धिasपि विशिष्टोपाध्यायाभावेऽपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति "सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः ॥ १ ॥” इति श्लोककथितक्रमेण पदार्थनिश्चयक रणमाज्ञाविचयध्यानं भण्यते । तथैव भेदाभेद रत्नत्रयभावनाबलेनास्माकं परेषां वा कदा कर्मणामपायो विनाशो भविष्यतीति चिन्तनमपायविचयं ज्ञातव्यम् । शुद्धनिश्चयेन शुभाशुभकर्मविपाकरहितोऽप्ययं जीवः पश्चादनादिकर्मबन्धवशेन पापस्योदयेन नारकादिदुःख विपाक फलमनुभवति, पुण्योदयेन देवादिसुखविपाकमनुभवतीति विचारणं विषाकविचयं अब रौद्रध्यानका कथन करते हैं । हिंसानन्द ( हिंसा में आनंद मानना) १, मृषानन्द (झूठ में आनंद मानना) २, स्तेयानन्द (चोरी करने कराने में खुश होना) ३, और विषयसंरक्षणानन्द (विषयोंकी रक्षा में आनंद मानना ) ४, इन चारोंसे उत्पन्न हुआ रौद्रध्यान चार प्रकारका है। यह न्यूनाधिकरूपसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको आदि ले पंचम गुणस्थानपर्यन्त रहनेवाले जीवोंके उत्पन्न होता है । और यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगतिका कारण है तो भी जिस सम्यग्दृष्टिने नरकायु है उसको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियोंके नरकगतिका कारण नहीं होता है । ऐसा क्यों है ? इसका उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टियोंके जो "निजशुद्ध आत्माका स्वरूप है वही उपादेय है" इस प्रकारका विशिष्टभेदज्ञानका बल है उससे नरकगतिका कारणभूत जो तीव्र संक्लेश है वह नहीं होता ॥ अब इसके आगे आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यानके त्यागरूप लक्षणका धारक, आज्ञाविचय अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय नामक चार भेदोंसे भेदको प्राप्त हुआ, न्यूनाधिकवृद्धि क्रमसे असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन नामोंके धारक जो चार गुणस्थान हैं इनमें रहनेवाले जीवोंके उत्पन्न होनेवाला और प्रधानतासे पुण्यबंधका कारण है तो भी परंपरा से मोक्षका कारणभूत ऐसा जो धर्मध्यान है उसका कथन करते हैं । सो ही कहते हैं— आप अल्पबुद्धिका धारक हो तो भी, विशेष ज्ञानके धारक गुरुकी प्राप्ति न हो तो भी, शुद्ध जीव आदि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर भी "श्री जिनेन्द्रका कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतुओं से नहीं खंडित हो सकता है इसलिये जो सूक्ष्मतत्त्व है उसको आज्ञाके अनुसार ग्रहण करना चाहिये क्योंकि श्रीजिनेन्द्र अन्यथावादी अर्थात् झूठा उपदेश देनेवाले नहीं हैं ॥ १ ॥" इस श्लोक में कहे हुए क्रमके अनुसार जो पदार्थका निश्चय करना है वह आज्ञाविचय नामक प्रथम धर्मध्यान कहलाता है । और इसी प्रकार भेद तथा अभेदरूप रत्नत्रयकी भावनाके बलसे हमारे अथवा अन्यजीवोंके कर्मों का नाश कब होगा इस प्रकार जो विचारना है उसको अपायविचय नामक दूसरा धर्मध्यान जानना चाहिये । शुद्ध निश्चयनयसे यह जीव शुभ-अशुभ कर्मोके उदयसे रहित है तो भी अनादिकर्मो के बंधके वशसे पापके उदयसे नारक आदि दुःखोंरूप विपाकरूप फलका अनुभवन Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार विज्ञेयम् । पूर्वोक्तलोकानुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयम् । इति चतुर्विधं धर्मध्यानं भवति ॥ अथ पृथक्त्ववितर्कवीचारं एकत्ववितर्कवीचारं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञं व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञं चेति भेदेन चतुविधं शुक्लध्यानं कथयति । तद्यथा-पृथक्त्ववितर्कवीचारं तावत्कथ्यते । द्रव्यगुणपर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भव्यते, स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुतं तद्वाचकमन्त ल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्त्यार्थान्तरपरिणमनं वचनाद्वचनान्तरपरिणमनं मनोवचनकाययोगेषु योगाद्योगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अयमत्रार्थः-यद्यपि ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्तां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यानं भण्यते। तच्चोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमकानिवृत्त्युपशमकसूक्ष्मसाम्परायकोपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । क्षपकश्रेण्यां पुनरपूर्वकरणक्षपकानिवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्परायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुक्लध्यानं व्याख्यातम् । निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रक करता है। और पुण्यके उदयसे देव आदिके सुखरूप विपाकको भोगता है। इस प्रकार विचार करना है उसको विपाकविचय नामक तीसरा धर्मध्यान जानना चाहिये । और पहले कही हुई जो लोकानुप्रेक्षाका चितवन करना है वह संस्थानविचय नामक चौथा धर्मध्यान है। इस प्रकार चार प्रकारका धर्मध्यान होता है । ___ अब पृथक्त्ववितर्कवीचार १, एकत्ववितर्कवीचार २, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति इस नामका धारक ३, और व्युपरतक्रियानिवृत्ति इस नामका धारक ४, ऐसे इन भेदोंसे चार प्रकारका जो शुक्लध्यान है उसको कहते हैं । वह इस प्रकार है-प्रथम ही पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक जो प्रथम शुक्लध्यान हैं उसका कथन करते हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय इनका जो जुदापना है उसको पृथक्त्व कहते हैं। निजशुद्धआत्माका अनुभवनरूप भावश्रुत, अथवा निजशुद्ध आत्माको कहनेवाला जो अन्तरंग वचन (सूक्ष्मशब्दकल्पन) है वह वितर्क कहलाता है। अनीहितवृत्तिसे अर्थात् बिना इच्छा किये अपने आप ही जो एक अर्थसे दूसरे अर्थमें, एक वचनसे दूसरे वचनमें और मन वचन काय इन तीनों योगोंमेंसे एक योगसे दूसरे योगमें जो परिणमन (लगाना) हैं उसको वीचार कहते हैं। भावार्थ यहाँपर यह है कि, यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्ध आत्माके ज्ञानको छोड़कर बाह्यपदार्थोंकी चिन्ता नहीं करता अर्थात् निज आत्माका ध्यान करता है । तथापि जितने अंशोंसे उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नहीं है उतने अंशोंसे अनीहितवृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं इस कारणसे इस ध्यानको ‘पृथक्त्ववितर्कवीचार' ध्यान कहते हैं। यह प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणीको विवक्षामें अपूर्वकरण उपशमक, अनिवृत्तिकरण उपशमक, सूक्ष्मसांपराय उपशमक और उपशान्तकषाय इन ८ वें, ९ वें, १० वें और ग्यारहवें गुणस्थानपर्यन्त जो चार गुणस्थान हैं उनमें होता है । और क्षपकश्रेणीको विवक्षामें अपूर्वकरणक्षपक, अनिवृत्तिकरणक्षपक और सूक्ष्मसांपरायक्षपक नामके धारक जो ८ से १० तक तीन गुणस्थान हैं उनमें होता है। इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यानका व्याख्यान किया गया। निजशुद्ध-आत्मद्रव्यमें अथवा विकाररहित जो आत्माका सुख है उससे अनुभवरूप Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः स्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूय वीचारं गुणद्रव्यपर्यायपरावर्त्तनं करोति यत्तदेकत्ववितर्कवीचारसंज्ञं क्षीणकषायगुणस्थानसम्भवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते । तेनैव केवलज्ञानोत्पत्तिरिति । अथ सूक्ष्मकायक्रियाव्यापाररूपं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंज्ञं तृतीयं शुक्लध्यानम् । तच्चोपचारेण सयोगिकेवलिजिने भवतीति । विशेषेणोपरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद्व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्त्तकं च तद्व्युपरत क्रियानिवृत्तिसंज्ञं चतुर्थ शुक्लध्यानं व्याख्यातम् । अध्यात्मभाषया पुनः सहजशुद्ध परम चैतन्यशालिनि निर्भरानन्दमालिनि भगवति निजात्मन्युपादेयबुद्धि कृत्वा पश्चादनन्तज्ञानोऽहमनन्त सुखोऽहमित्यादिभावनारूपमभ्यन्तरधर्मध्यानमुच्यते । पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादितदनुकूलशुभानुष्ठानं पुनर्बहिरङ्गधर्मध्यानं भवति । तथैव स्वशुद्धात्मनि निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्लध्यानमिति । अथवा "पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरञ्जनम् ॥ १ ॥” इति श्लोककथितक्रमेण विचित्रध्यानं ज्ञातव्यमिति ॥ १६१ अथ ध्यानप्रतिबन्धकानां मोहरागद्वेषाणां स्वरूपं कथ्यते । शुद्धात्मादितत्त्वेषु विपरीताभिनिवेशजनको मोहो दर्शन मोहो मिथ्यात्वमिति यावत् । निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणवीतरागचारित्र 1 पर्याय में अथवा उपाधिरहित निजआत्माका जो ज्ञानरूप गुण है उसमें इन तीनोंमेंसे जिस एक द्रव्य, गुण वा पर्याय में ध्यानी प्रवृत्त हो गया उसी में वितर्क नामक जो निजात्मानुभवरूप भावश्रुतका बल है उससे स्थिर होकर जो विचार अर्थात् द्रव्य, गुण तथा पर्याय में परावर्त्तन करता है वह एकत्ववितर्कवीचार नामा क्षीणकषाय नामक १२ वे गुणस्थान में होनेवाला दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है । और इस दूसरे शुक्लध्यानसे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है । अब सूक्ष्म जो कायकी क्रिया है उसका व्यापाररूप और अप्रतिपाति (जिसका कभी पतन न हो ऐसा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान है । वह उपचारसे सयोगिकेवलिजिन नामक १३ वें गुणस्थानमें होता है । विशेषता करके उपरत अर्थात् दूर हुई हैं क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति अर्थात् निवत्तंक न हो वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्लध्यान कहा गया है | और अध्यात्मभाषासे सहज-शुद्ध-परम- चैतन्यसे शोभायमान तथा निर्भर (परिपूर्ण) आनंदके समूहको धारण करनेवाला जो भगवान् निज आत्मा है उसमें उपादेयबुद्धि करके अर्थात् निजशुद्धआत्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी बुद्धिको करके फिर जो "मैं अनन्त ज्ञानका धारक हूँ, मैं अनन्त सुखका धारक हूँ" इत्यादि भावनाका करना है उस रूप अंतरंग धर्मध्यान कहा जाता है । और पंचपरमेष्ठियोंकी भक्तिको आदिले उसके अनुकूल जो शुभ अनुष्ठानका करना है वह बहिरंग धर्मध्यान है । उसी प्रकार निजशुद्ध आत्मामें विकल्परहित ध्यानरूप लक्षणका धारक शुक्लध्यान है | अथवा “मन्त्रवाक्योंमें जो स्थित है वह पदस्थध्यान है, निज आत्माका जो चिन्तवन है वह पिंडस्थध्यान है, सर्वचिद्रूपका चिन्तवन जिसमें है वह रूपस्थध्यान है और निरंजनका जो ध्यान है वह रूपातीत ध्यान है ।। १ ।। " इस श्लोक में कहे हुए क्रमके अनुसार विचित्र अर्थात् नाना प्रकारका ध्यान जानना चाहिए ॥ I अब ध्यानके प्रतिबंधक अर्थात् रोकनेवाले जो मोह, राग तथा द्वेष हैं उनके स्वरूपका वर्णन करते हैं । शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत आग्रहको उत्पन्न करनेवाला जो मोह है वह दर्शन मोह अर्थात् मिथ्यात्व है । विकाररहित निज आत्माके अनुभवरूप जो वीतराग चारित्र है Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार प्रच्छादकचारित्रमोहो रागद्वेषौ भण्येते । चारित्रमोहो रागद्वेषौ कथं भण्येते ? इति चेत्-- कषायमध्ये क्रोधमानद्वयं द्वेषाङ्गं, मायालोभद्वयं रागाङ्गः, नोकषायमध्ये तु स्त्रीपुंनपुंसकवेदत्रयं हास्यरतिद्वयं च रागाङ्ग, अरतिशोकद्वयं भयजुगुप्साद्वयं च द्वेषाङ्गमिति ज्ञातव्यम् । अत्राह शिष्यःरागद्वेषादयः किं कर्मजनिताः किं जीवजनिता इति । तत्रोत्तरं - स्त्रीपुरुषसंयोगोत्पन्नपुत्र इव सुधाहरिद्रासंयोगोत्पन्नवर्णविशेष इवोभयसंयोगजनिता इति । पश्चान्नयविवक्षावशेन विवक्षितैकदेशशुद्ध निश्चयेन कर्मजनिता भण्यन्ते । तथैवाशुद्ध निश्चयेन जीवजनिता इति । स चाशुद्धनिश्चयः शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । अथ मतं - साक्षाच्छुद्ध निश्चयनयेन कस्यैत इति पृच्छामो वयम् । तत्रोत्तरं - साक्षाच्छुद्ध निश्चयेन स्त्रीपुरुषसंयोगरहितपुत्रस्येव सुधाहरिद्रासंयोगरहितरङ्गविशेषस्येव तेषामुत्पत्तिरेव नास्ति कथमुत्तरं प्रयच्छाम इति ॥ ४८ ॥ एवं ध्यातृव्याख्यान मुख्यत्वेन तद्वयानेन विचित्रध्यानकथनेन च सूत्रं गतम् ॥ अत ऊध्वं पदस्थं ध्यानं मन्त्रवाक्यस्थं यदुक्तं तस्य विवरणं कथयति; -- पणतीस सोलछप्पणच दुदुगमेगं च जवह ज्झाएह | परमेट्ठिवाचयाणं अण्ण च गुरुवसे ।। ४९ ।। उसको ढकनेवाला जो चारित्रमोह है वह राग और द्वेष कहलाता है । चारित्रमोह रागद्वेषरूप कैसे कहलाता है ? ऐसा प्रश्न करो तो उत्तर यह है कि कषायों के बीचमें क्रोध और मान ये जो दो कषाय हैं सो तो द्वेष अंग हैं और माया तथा लोभ ये दोनों कषाय रागके अंग हैं । और नोकषायोंमें स्त्रीवेद, पुंवेद, और नपुंसक वेद ऐसे तीनों वेद तथा हास्य और रति ये दोनों ऐसे पाँच नोकषाय तो रागके अंग हैं; और अरति तथा शोक ये दोनों और भय तथा जुगुप्सा (ग्लानि) ये दोनों ऐसे चार नोकषाय द्वेषके अंग जानने योग्य हैं । यहाँ पर शिष्य प्रश्न करता है कि, राग, द्वेष आदि क्या कर्मोंसे उत्पन्न हुए हैं अथवा क्या जीवसे उत्पन्न हुए हैं ? इसका उत्तर यह है कि, स्त्री और पुरुष इन दोनोंके संयोग से उत्पन्न हुए पुत्रके समान और कलई ( चूना) तथा हलदी इन दोनोंके मेलसे उत्पन्न हुए एक प्रकारके रंगकी तरह ये राग द्वेष आदि कषाय जीव और कर्म इन दोनोंके संयोग से उत्पन्न हुए हैं । और जब नयकी विवक्षाके वश इनका कथन किया जाता है तब विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे तो ये कषाय कर्मसे उत्पन्न हुए कहलाते हैं । और इसी प्रकार अशुद्धनिश्चयनयसे जीवजनित कहलाते हैं । और यह अशुद्धनिश्चयनय, शुद्ध - निश्चयनयकी अपेक्षासे व्यवहारनय ही है । शंका - साक्षात् शुद्ध निश्चयनयसे ये राग द्वेष किसके हैं यह हम पूछते हैं ? समाधान- तुम्हारे प्रश्नका उत्तर यह है कि साक्षात् शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षासे जैसे, स्त्री और पुरुषके संयोगविना पुत्रकी उत्पत्ति नहीं होती और कलई व हलदीके संयोगविना एक प्रकारका रंग उत्पन्न नहीं होता इसी प्रकार जीव तथा कर्म इन दोनोंके संयोगके विना इन राग द्वेषादिकी उत्पत्ति ही नहीं होती है । इसलिये हम तुम्हारे प्रश्नका उत्तर ही कैसे देवें अर्थात् जैसे पुत्र न स्त्रीसे ही होता है और न पुरुषसे ही होता है किंतु स्त्री तथा पुरुष इन दोनोंके संयोगसे उत्पन्न होता है; इसी प्रकार राग द्वेष आदि न कर्मजनित ही हैं और न जीवजनित ही हैं किन्तु जीव और कर्म इन दोनोंके संयोगजनित हैं ।। ४८ ।। इस प्रकार ध्याता ( ध्यान करनेवाले ) के व्याख्यानकी प्रधानतासे उस ध्याताके ध्यान तथा विचित्र ध्यानके कथनसे यह गाथासूत्र समाप्त हुआ । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः पञ्चत्रिंशत् षोडश षट् पञ्च चत्वारि द्विकं एकं च जपत ध्यायेत । परमेष्ठिवाचकानां अन्यत् च गुरुपदेशेन ॥ ४९ ॥ व्याख्या - " पणतीस " " णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं" एतानि पञ्चत्रिंशदक्षराणि सर्वपदानि भण्यन्ते । "सोल" 'अरिहंत सिद्ध आचार्य उवज्झाय साहू' एतानि षोडशाक्षराणि नामपदानि भव्यन्ते । "छ" 'अरिहन्तसिद्ध' एतानि षडक्षराणि अर्हत्सिद्धयोर्नामपदे द्व े भण्येते । "पण" 'अ सि आ उ सा' एतानि पञ्चाक्षराणि आदिपदानि भव्यन्ते । " चदु" "अरिहंत" इदमक्षरचतुष्टयमर्हतो नामपदम् । "दुग" 'सिद्ध' इत्यक्षरद्वयं सिद्धस्य नामपदम् । "एगं च" 'अ' इत्येकाक्षर महंत आदिपदम् । अथवा 'ओं' एकाक्षरं पञ्चपरमेष्ठिमानादिपदम् । तत्कथमिति चेत् "अरिहंता असरीरा आयरिया तह उवज्झया मुणिणो । पढमक्खरणिपणो ॐकारो पंच परमेट्ठी । १ ।" इति गाथाकथितप्रथमाक्षराणां 'समानः सवर्णे दीर्घाभवति' 'परश्च लोपम्' 'उवर्णे ओ' इति स्वरसन्धिविधानेन 'ओ' शब्दो निष्पद्यते । कस्मादिति - "जवह ज्झाएह" एतेषां पदानां सर्वमन्त्रवादपदेषु मध्ये सारभूतानां इहलोक परलोकेष्टफलप्रदानामयं ज्ञात्वा पश्चादनन्तज्ञानादिगुणस्मरणरूपेण वचनोच्चारणेन च जापं कुरुत । तथैव शुभोपयोग १६३ अब पहले जो कह आये हैं कि "मन्त्रवाक्यों में स्थित है वह पदस्थ ध्यान है" उसी कथनका विस्तार से वर्णन करते हैं; गाथाभावार्थ-पंच परमेष्ठियोंको कहनेवाले जो पैंतीस, सोलह, छः, पाँच, चार, दो और एक अक्षररूप मन्त्रपद हैं उनका जाप करो और ध्यान करो । इनके सिवाय अन्य जो मन्त्रपद हैं। उनको भी गुरु के उपदेशानुसार जपो और ध्यावो ॥ ४९ ॥ व्याख्यार्थ - " पणतीस" ' णमो अरिहंताणं १, णमो सिद्धाणं २, णमो आयरियाणं ३, णमो उवज्झायाणं ४, णमो लोए सव्व साहूणं' ५, ये पैंतीस अक्षर 'सर्वपद' कहलाते हैं । "सोल" 'अरिहंत सिद्ध आचार्य उवज्झाय साहू' ये सोलह अक्षर पंचपरमेष्ठियोंके नाम पद कहलाते हैं । “छ” 'अरिहंत सिद्ध' ये छ: अक्षर अर्हत् तथा सिद्ध इन दो परमेष्ठियोंके दो नाम पद कहे जाते हैं । "पण" 'असिआउसा' ये पांच अक्षर पंच परमेष्ठियोंके आदिपद कहलाते हैं । "चदु" 'अरिहंत' ये चार अक्षर अर्हत् परमेष्ठी के नामपद रूप हैं । "दुग" 'सिद्ध' ये दो अक्षर सिद्ध परमेष्ठी के नामपद रूप हैं । "एगं च " 'अ' यह एक अक्षर अर्हत्परमेष्ठीका आदिपद है; अथवा 'ओ' यह एक अक्षर पाँचों परमेष्ठियों के आदिपदस्वरूप है | 'ॐ' यह परमेष्ठियोंके आदिपद रूप कैसे है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि अरिहंतका प्रथम अक्षर 'अ', असरीर ( सिद्ध ) का प्रथम अक्षर 'अ', आचार्यका प्रथम अक्षर 'आ', उपाध्यायका प्रथम अक्षर 'उ', मुनिका प्रथम अक्षर 'म्' इस प्रकार इन पाँचों परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षरोंसे सिद्ध जो ओंकार है वही पंचपरमेष्ठियों के समान है । इस प्रकार गाथामें कहे हुए जो प्रथम अक्षर ( अ अ आ उम् ) हैं, इनमें पहले 'समानः सवर्णे दीर्घी भवति' इस सूत्र से दीर्घ आ बनाकर 'परश्च लोपम्' इससे पर अक्षरका लोप करके अ अ आ इन तीनोंके स्थान में एक आ सिद्ध किया फिर उवर्णे ओ" इस सूत्र से आउके स्थान में ओ बनाया ऐसे यह शब्द सिद्ध होता है। इस कारण "जवह ज्झाएह " सब मन्त्रशास्त्र के पदोंमें सारभूत और इस लोक तथा परलोक में इष्ट फलको देनेवाले इन पूर्वोक्त पदोंका अर्थ जान कर फिर अनन्तज्ञान आदि गुणोंके स्मरणरूप वचनका उच्चारण करके जाप करो और इसी प्रकार शुभोपयोगरूप जां स्वरसंधि करनेसे 'ओम्' Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार रूपत्रिगुप्तावस्थायां मौनेन ध्यायत । पुनरपि कथम्भूतानां ? "परमेट्ठिवाचयाणं " 'अरिहंत' इति पदवांचकमनन्तज्ञानादिगुणयुक्तोऽहंद्वाच्योऽभिधेय इत्यादिरूपेण पञ्चपरमेष्ठिवाचकानां । "अणं च गुरुव एसेण" अन्यदपि द्वादशसहस्रप्रमितपञ्चनमस्कारग्रन्थकथितक्रमेण लघुसिद्धचक्रं, बृहत्सिद्धचक्रमित्यादिदेवार्चनविधानं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकगुरुप्रसादेन ज्ञात्वा ध्यातव्यम् । इति पदस्थ - ध्यानस्वरूपं व्याख्यातम् ॥ ४९ ॥ एवमनेन प्रकारेण "गुप्तेन्द्रियमना ध्याता ध्येयं वस्तु यथास्थितम् । एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरौ || १ ||" इति श्लोककथितलक्षणानां ध्यातृध्येयध्यानफलाना संक्षेपव्याख्यानरूपेण गाथात्रयेण द्वितीयान्तराधिकारे प्रथमं स्थलं गतम् । १६४ अतः परं रागादिविकल्पोपाधिरहित निजपरमात्मपदार्थ भावनोत्पन्नसदानन्दैकलक्षण सुखामृतरसास्वादतृतिरूपस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं व्यवहारध्यानं तद्वयभूतानां पंचपरमेष्ठीनां मध्ये तावदत्स्वरूपं कथयामीत्येका पातनिका । द्वितीया तु पूर्वसूत्रोदित सर्व पदनामपदादिपदानां वाचकभूतानां वाच्या ये पञ्चपरमेष्ठिनस्तद्व्याख्याने क्रियमाणे प्रथमतस्तावज्जिनस्वरूपं निरूपयामि । अथवा तृतीया पातनिका पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति पातनिकात्रयं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति ; मन, वचन, काय इन तीनोंकी गुप्ति स्वरूप अवस्था है उनमें मौन द्वारा इन पूर्वोक्त पदोंका ध्यान करो। फिर कैसे इन पदोंको जपो ध्यावो ? "परमेट्ठिवाचयाणं" अरिहंत इस पदरूप वाचक है और अनन्त ज्ञान आदिगुणोंसे युक्त जो श्रीजिनेन्द्र है वह इस पदका वाच्य ( कहे जाने योग्य ) है; इत्यादि प्रकार से पंचपरमेष्ठियोंके वाचकोंको । "अण्णं च गुरूवएसेण" और इन पूर्वोक्त पदोंसे अन्यका भी जो कि बारह हजार श्लोकसंख्या प्रमाण पंचनमस्कारं माहात्म्य नामक ग्रंथ में कहे हुए प्रकारसे लघुसिद्धचक्र, बृहत्सिद्धचक्र इत्यादि देवोंके पूजनके विधानको भेदाभेदरूपरत्नत्रय के आराधक गुरुके प्रसादसे जानकर ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार पदस्थ ध्यानके स्वरूपका कथन किया ॥ ४९ ॥ इस प्रकार "पाँचों इन्द्रियों और मनको रोकनेवाला ध्याता ( ध्यानी ) है; यथास्थित जो पदार्थ है वह ध्येय है, एकाग्र होकर जो विचारका करना है वह ध्यान है और संवर तथा निर्जरा ये दोनों ध्यानके फल हैं || १ ||" इस श्लोक में कहे हुए लक्षणके धारक जो ध्याता, ध्येय, ध्यान और फल हैं उनका संक्षेपसे कथन करनेरूप तीन गाथाओंसे द्वितीय जो अंतराधिकार है उसमें प्रथम स्थल समाप्त हुआ । अब इसके आगे राग आदि विकल्परूप उपाधिसे रहित जो निज परमात्मारूप पदार्थ है उसकी भावना से उत्पन्न और सदानन्दस्वरूप एक लक्षणके धारक सुखामृत के रसके आस्वादसे तृप्तिस्वरूप ऐसा जो निश्चयध्यान है उसका परंपरासे कारणभूत जो शुभोपयोगलक्षण व्यवहार ध्यान है उसके द्वारा ध्येय (ध्यान करने योग्य) भूत जो पंच परमेष्ठी हैं उनके मध्य मेंसे प्रथम ही जो अर्हत् परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपको कहता हूँ यह तो पहली पातनिका है । पूर्वगाथा में कहे हुए जो सर्वपद नामपद आदि वाचकभूत पद हैं उनके वाच्य जो पंच परमेष्ठी हैं उनका व्याख्यान करनेपर प्रथम ही श्रीजिनेन्द्रके स्वरूपको निरूपण करता हूँ यह दूसरी पातनिका है । अथवा पदस्थ, पिंडस्थ तथा रूपस्थ इन तीन ध्यानोंके ध्येयभूत जो श्री अर्हत् सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूपको Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः णट्ठचदुधाइकम्मो दंसणसुहणाणवीरियमईओ ।। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ।। ५० ।। नष्टचतु_तिकर्मा दर्शनसुखज्ञानवीर्यमयः । शुभदेहस्थः आत्मा शुद्धः अहंन् विचिन्तनीयः ॥ ५० ॥ व्याख्या-"णट्टचदुघाइकम्मो" निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगध्यानेन पूर्व घातिकर्ममुख्यभूतमोहनीयस्य विनाशनात्तदनन्तरं ज्ञानदर्शनावरणान्तरायसंज्ञयुगपद्घातित्रयविनाशकत्वाच्च प्रणष्ट चतुर्घातिकर्मा । "सणसुहणाणवीरियमईओ", तेनैव धातिकाभावेन लब्धानन्तचतुष्टयत्वात् सहजशुद्धाविनश्वरदर्शनज्ञानसुखवीर्यमयः। "सुहदेहत्थो" निश्चयेनाशरीरोऽपि व्यवहारेण सप्तधातुरहितदिवाकरसहस्रभासुरपरमौदारिकशरीरत्वात् शुभदेहस्थः । “सुद्धो" "क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः । १। विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृताः। एतैर्दोषविनिर्मुक्तः सोऽयमाप्तो निरञ्जनः ॥ २॥" इति श्लोकद्वयकथिताष्टादशदोषरहितत्वात् शुद्धः । 'अप्पा" एवं गुणविशिष्ट आत्मा। "अरिहो" अरिशब्दवाच्यमोहनीयस्य, रजःशब्दवाच्यज्ञानदर्शनावरणद्वयस्य, रहस्यशब्दवाच्यान्तरायस्य च हननाद्वि दिखलाता हूँ यह तीसरी पातनिका है। इस प्रकार इन पूर्वोक्त तीनों पातनिकाओंको मनमें धारण करके सिद्धान्ति-चक्रवर्ती भगवान् श्रीनेमिचन्द्रस्वामी इस अग्रिम गाथासूत्रका प्रतिपादन करते हैं; गाथाभावार्थ-चार घातिया कर्मोंको नष्ट करनेवाला, अनंत दर्शन, सुख, ज्ञान और वोर्यका धारक, उत्तम देहमें विराजमान और शुद्ध ऐसा जो आत्मा है वह अरिहंत है उसका ध्यान करना चाहिये ।। ५० ॥ व्याख्यार्थ-"णट्टचदुघाइकम्मो" निश्चयरत्नत्रयस्वरूप जो शुद्धोपयोगरूप ध्यान है उसके द्वारा पहले घातियाकर्मोंमें प्रधान जो मोहनीयकर्म है उसका नाश करनेसे और पीछे ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अंतराय इन नामोंके धारक जो तीन घातिया कर्म हैं उनका एक ही समयमें नाश करनेसे, नष्ट हो गये हैं चार घातिया कर्म जिसके, ऐसा "दसणसुहणाणवीरियमईओ" वह जो घातिया कर्मों का नाश हुआ है उसीसे प्राप्त हुआ जो अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंतवीर्य रूप अनंत चतुष्टय है उसका धारक होनेसे स्वभावसे उत्पन्न शुद्ध और विनाशरहित ज्ञान, दर्शन, सुख और वोर्यरूप ऐसा 'सुहदेहत्थो' निश्चयनयसे शरीररहित्त है तो भी व्यवहारनयकी अपेक्षासे सात धातुओंसे रहित-हजारों सूर्योके समान देदीप्यमान-परम औदारिक शरीरको धारण करता है इस कारण शुभदेहमें विराजमान है । "सुद्धो” "क्षुधा १, तृषा २, भय ३, द्वेष ४, राग ५, मोह ६, चिंता ७, जरा ८, रुजा (रोग) ९, मरण १०, स्वेद ११, खेद १२, मद १३, रति १४, विस्मय १५, जन्म १६, निद्रा १७, और विषाद १८, ऐसे ये अठारह दोष हैं; इन दोषों करके रहित ऐसा वह निरंजन आप्त श्रीजिनेन्द्र है । २।" इस प्रकार दो श्लोकोंमें कहे हुए अठारह दोषोंसे रहित होनेके कारण शुद्ध है। "अप्पा" इन पूर्वोक्त गुणोंका धारक जो आत्मा है वह “अरिहो" 'अरि' इस शब्दसे कहे जानेवाले मोहनीयकर्मका, 'रज' इस शब्दसे कहने योग्य ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय इन दोनों कर्मोका तथा 'रहस्य' इसका वाच्य जो अंतरायकर्म है उसका नाश करनेसे इन्द्र आदि देवोंद्वारा रची हुई गर्भावतार-जन्माभिषेक-तपकल्याण-केवलज्ञानोत्पत्ति और Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार नाशात्सकाशात् इन्द्रादिविनिर्मितां गर्भावतरणजन्माभिषेकनिः क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणाभिधानपञ्चमहाकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति तेन कारणेन अर्हन् भण्यते । “विचिन्तिज्जो " इत्युक्तविशेषणविशिष्टमाप्तागमप्रभृतिग्रन्थकथितवीत राग सर्वज्ञाद्यष्टोत्तरसहस्रनामानमर्हतं जिनभट्टारकं पदस्थपिंडस्थरूपस्थध्याने स्थित्वा विशेषेण चिन्तयत ध्यायत हे भव्या यूयमिति । अत्रावसरे भट्टचार्वाकमतं गृहीत्वा शिष्यः पूर्वपक्षं करोति । नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धेः । खरविषाणवत् । तत्र प्रत्युत्तरं - किमत्र देशेऽत्र काले अनुपलब्धिः सर्वदेशे काले वा । यद्यत्र देशेऽत्र काले नास्ति तदा सम्मत एव । अथ सर्वदेशकाले नास्तीति भण्यते तज्जगत्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं कथं ज्ञातं भवता ? ज्ञातं चेतहि भवानेव सर्वज्ञः । अथ न ज्ञातं तर्हि निषेधः कथं क्रियते । तत्र दृष्टान्तः - यथा कोऽपि निषेधको घटस्याधारभूतं घटरहितं भूतलं चक्षुषा दृष्ट्वा पश्चाद्वदत्यत्र भूतले घटो नास्तीति युक्तम् । यस्तु चक्षूरहितस्तस्य पुनरिदं वचनमयुक्तम् । तथैव यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं सर्वज्ञरहितं जानाति तस्य जगत्त्रये कालत्रयेऽपि सर्वज्ञो नास्तीति वक्तुं युक्तं भवति, यस्तु जगत्त्रयं कालत्रयं न जानाति स सर्वज्ञनिषेधं कथमपि न करोति । कस्मादिति चेत् - त्त्रयकालत्रयपरिज्ञानेन स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिति । -- जग १६६ निर्वाणसमय में होनेवाली जो पाँच महाकल्याणरूप पूजा है, उसके योग्य होता है इस कारण अर्हन् कहलाता है "विचितिज्जो” इन उक्त विशेषणोंके धारक और आप्तागम में कहे हुए वीतराग सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नामोंको धारण करनेवाले श्री अहंत जिनभट्टारकको पदस्थ - पिंडस्थ-और रूपस्थ ध्यानमें स्थित होकर हे भव्यजनो ! तुम अधिकतासे चितवन करो ॥ अब इस अवसर में भट्ट और चार्वाक ( नास्तिक ) का मत ग्रहण करके शिष्य पूर्व पक्षकों करता है कि, सर्वज्ञ नहीं है; क्योंकि, उसका प्रत्यक्ष अथवा प्राप्ति नहीं होती, गधेके सींग के समान | इस शंकाका उत्तर यह है - तुम जो सर्वज्ञकी अप्राप्ति मानते हो इसमें हम पूछते हैं कि, सर्वज्ञकी प्राप्ति इस देश और इस कालमें नहीं है वा सब देशों और सब कालों में सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है ? यदि कहो कि, इस देश और इस कालमें सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है तब तो तुम्हारा कहना ठीक है, क्योंकि, हम भी ऐसा मानते हैं । यदि तुम कहो कि, सब देशों और सब कालोंमें सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है । तो हम पूछते हैं कि, तुमने यह कैसे जाना कि, अधो, ऊर्ध्व और मध्य भेदसे तीनों लोक तथा भूत भविष्यत् और वर्तमान ये तीनों काल सर्वज्ञ करके रहित हैं ? यदि तुम यह कहो कि, हमनें जान लिया कि, तीनों लोक और तीनों काल सर्वज्ञ रहित हैं तब तो तुम ही सर्वज्ञ सिद्ध हो चुके ॥ भावार्थ -- जो तीन लोक तथा तीन कालके पदार्थोंको जानता है वही सर्वज्ञ है, सो तुमने यह जान ही लिया कि, तीनों लोक और तीनों कालोंमें सर्वज्ञ नहीं है । इस लिये तुम ही सर्वज्ञ ठहरे । और जो तुमने तीन लोक व तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं' इसको नहीं जाना है; तो फिर 'सर्वज्ञ नहीं है' ऐसा निषेध कैसे करते हो ? यहांपर दृष्टान्त यह है कि, जैसे कोई निषेध करनेवाला पुरुष घटका आधारभूत जो भूतल ( जमीन ) है उसको नेत्रोंसे घटरहित जान लेता है तब कहता है कि, इस 'भूतल में घट नहीं है' सो यह कहना तो उसका ठीक है । परंतु जो नेत्रोंसे रहित है, वह जो इस भूतलमें घट नहीं है' ऐसा वचन कहे तो ठीक नहीं । इसी प्रकार जो तीन जगत् और तीन कालको सर्वज्ञरहित जानता है वह जो "तोन जगत् तथा तीन काल में सर्वज्ञ नहीं है" यह कहे तो उसका कहना ठीक है । परंतु जो तीन लोक व तीन कालको सर्वज्ञरहित नहीं जानता है; वह सर्वज्ञका निषेध किसी प्रकारसे भी नहीं कर सकता है । क्यों नहीं कर सकता ? Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः अथोक्तमनुपलब्धेरिति हेतुवचनं तदप्ययुक्तम् । कस्मादिति चेत् — किं भवतामनुपलब्धिः, किं जगत्त्रयकालत्रयवत्तपुरुषाणां वा ? यदि भवतामनुपलब्धिस्तावता सर्वज्ञाभावो न सिध्यति, भवद्भिर रनुपलभ्यमानानां परकीयचित्तवृत्तिपरमाण्वादिसूक्ष्मपदार्थानामिव । अथवा जगत्त्रयकालत्रयवत्त पुरुषाणामनुपलब्धिस्तत्कथं ज्ञातं भवद्भिः । ज्ञातं चेर्त्ताहि भवन्त एव सर्वज्ञा इति पूर्वमेव भणितं तिष्ठति । इत्यादिहेतुदूषणं ज्ञातव्यम् । यथोक्तं खरविषाणवदिति दृष्टान्तवचनं तदप्यनुचितम् । खरे विषाणं नास्ति गवादौ तिष्ठतीत्यत्यन्ताभावो नास्ति यथा तथा सर्वज्ञस्यापि नियतदेशकालादिष्वभावेऽपि सर्वथा नास्तित्वं न भवति इति दृष्टान्तदूषणं गतम् । अथ मत्तम् - सर्वज्ञविषये बाधकप्रमाणं निराकृतं भवद्भिस्तहि सर्वज्ञसद्भावसाधकं प्रमाणं किम् ? इति पृष्ट प्रत्युत्तरमाह-- कश्चित् पुरुषो धर्मी, सर्वज्ञो भवतीति साध्यते धर्मः, एवं धर्मिधर्मसमुदायेन पक्षवचनम् । कस्मादिति चेत् पूर्वोक्तप्रकारेण बाधकप्रमाणाभावादिति हेतुवचनम् । १६७ यह पूछो तो उत्तर यह है कि, तोन जगत् और तीन कालको जाननेसे वह आप हो सर्वज्ञ है अर्थात् जब वह आप ही सर्वज्ञ है तब सर्वज्ञ नहीं है ऐसा कैसे कह सकता है | अब जो 'सर्वज्ञ नहीं है' इस वार्त्ताको सिद्ध करनेके लिये 'सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है' यह हेतु वचन कहा है वह भी अयुक्त ( ठीक नहीं ) है । क्यों अयुक्त है ? ऐसा प्रश्न करो तो हम पूछते हैं कि, क्या सर्वज्ञकी प्राप्ति तुम्हारे नहीं है वा क्या तीन लोक व तीन कालमें रहनेवाले जीवों के सर्वज्ञकी प्राप्ति नहीं है ? यदि तुम लोगोंको सर्वज्ञ प्राप्त नहीं होता है तो इससे सर्वज्ञका अभाव सिद्ध नहीं होता । क्योंकि, जैसे अन्य पुरुषोंके मनके विचार और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ तुम्हारे जानने में नहीं आते हैं, तो भी वे हैं अर्थात् उनका अभाव नहीं है । इसी प्रकार तुम्हारे जानने में नहीं आया हुआ सर्वज्ञ भी है उसका सर्वथा अभाव नहीं । अब कदाचित् यह कहो कि, तीन जगत् और तीन कालके पुरुषोंके ही सर्वज्ञकी अप्राप्ति है; तो हम पूछते हैं कि, क्या तुमने यह जान लिया ? जो जान लिया है तव तो 'तुम ही सर्वज्ञ हो' यह जो हमने पहले कहा है वही यहाँ ठहरा । इत्यादि अनेक दूषण इस 'अप्राप्ति' रूप हेतुमें जानने चाहिये । और जो तुमने 'सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि उसकी प्राप्ति नहीं होती' इसको सिद्ध करनेके लिये गर्दभके सींगके समान यह दृष्टान्तवचन कहा वह भी उचित नहीं है । क्योंकि, जैसे गर्दभ ( गधे ) के सींग नहीं हैं परन्तु बैल आदि के सींग हैं इसलिये सींगका अत्यन्त ( सर्वथा ) अभाव नहीं है । इसी प्रकार यद्यपि सर्वज्ञका नियत किसी ( कायम किये हुए ) देश तथा काल आदिमें अभाव है तो भी उस सर्वज्ञका सर्वथा अभाव नहीं हो सकता है, इस प्रकार दृष्टान्त में दूषण दिखाया गया || अब कदाचित् वादी यह पूछे कि आपने सर्वज्ञके विषय में जो बाधकप्रमाण था उसका तो खंडन कर दिया परन्तु सर्वज्ञके सद्भावको अर्थात् सर्वज्ञ है इस कथनको सिद्ध करनेवाला प्रमाण क्या है सो कहो । इस पर उत्तर देते हैं कि, कोई पुरुषविशेष धर्मी सर्वज्ञ है, इस रीति से किसी पुरुषविशेषको पक्ष करके उसमें सर्वज्ञत्व धर्म सिद्ध करते हैं । 'कश्चित् पुरुषो धर्मी सर्वज्ञो भवति' इस प्रकारके हमारे वाक्यमें धर्मी और धर्मके समुदायरूपसे जो पक्षवचन अर्थात् पक्षमें साध्यका निर्देश है, वह प्रतिज्ञा है । क्योंकि - सर्वज्ञके होने में पूर्वकथित रीति से कोई बाधक प्रमाण नहीं है । 'तदस्तित्वे बाधकप्रमाणाभावात्' यह हमारा हेतुका कथन है । किसके समान ? अपने अनुभव में आते हुए सुख दुःख आदिके समान ( स्वयमनुभूयमानसुखदुःखादिवत् ), यह दृष्टान्तका Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार किंवत् स्वयमनुभूयमानसुखदुःखादिवदिति दृष्टान्तवचनम् । एवं सर्वज्ञसद्भावे पक्षहेतुदृष्टान्तरूपेण व्यङ्गमनुमानं विज्ञेयम् । अथवा द्वितीयमनुमान कश्यते-रामरावणादयः कालान्तरिता, मेदियो देशान्तरिता, भूतादयः स्वभावान्तरिताः, परचेत्तोवृत्तयः परमाण्वादयश्च सूक्ष्मपदार्था, धर्मिणः कस्यापि पुरुषविशेषस्य प्रत्यक्षा भवन्तीति साध्यो धर्म इति धर्मिधर्मसमदायेन पक्षवचनम् । कस्मादिति चेत्-अनुमानविषयत्वादिति हेतुवचनम् । किंवत् यद्यदनुमानविषयं तत्तत् कस्यापि प्रत्यक्ष भवति, यथाग्न्यादि, इत्यन्वयदृष्टान्तवचनम् । अनुमानेन विषयाश्चेति, इत्युपनयवचनम् । तस्मात् कस्यापि प्रत्यक्षा भवन्तीति निगमनवचनम् । ___ इदानों व्यतिरेकदृष्टान्तः कथ्यते-यन्न कस्यापि प्रत्यक्षं तदनुमानविषयमपि न भवति यथा खपुष्पादि, इति व्यतिरेक दृष्टान्तवचनम् । अनुमानविषयाश्चेति पुनरप्युपनयवचनम्। तस्मात् प्रत्यक्षा भवन्तीति पुनरपि निगमनवचन मिति । किन्त्वनुमानविषयत्वादित्ययं हेतुः सर्वज्ञस्वरूपे साध्ये सर्वप्रकारेण सम्भवति यतस्ततः कारणात्स्वरूपासिद्धभावासिद्धविशेषणाद्यसिद्धो न भवति । तथैव सर्वज्ञस्वरूपं स्वपक्षं विहाय सर्वज्ञाऽभावं विपक्षं न साधयति तेन कारणेन विरुद्धो न भवति । तथैव च यथा सर्वज्ञसद्भावे स्वपक्षे वर्तते तथा सर्वज्ञाभावेऽपि विपक्षेऽपि न वर्तते तेन कारणेनाऽनैकान्तिको न भवति । अनैकान्तिकः कोऽर्थो व्यभिचारीति । तथैव प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितो न कथन है। इस प्रकार सर्वज्ञके सद्भाव (होने) में पक्ष, हेतु तथा दृष्टान्तरूपसे तीन अंगका धारक अनुमान जानना चाहिये । अथवा सर्वज्ञके सद्भावका साधक दूसरा अनुमान कहते हैं। राम और रावण आदि कालसे दूर वा ढके हुए पदार्थ, मेरु आदि देशसे अन्तरित पदार्थ, भूत आदि अपने स्वभावसे ही ढंके हुए पदार्थ, तथा पर पुरुषोंके चित्तोंके विकल्प और परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थरूप धर्मी हैं । किसी भी पुरुषविशेषके प्रत्यक्ष देखने में आते हैं' यह उन राम रावणादि धर्मियोंमें सिद्ध करने योग्य धर्म है; इस प्रकार धर्मी और धर्मके समुदायसे पक्षवचन अथवा प्रतिज्ञा है । राम रावणादि किसीके प्रत्यक्ष क्यों हैं ? ऐसी शंकाको दूर करनेके लिये 'अनुमानके विषय होनेसे यह हेतु वचन है । किसके समान ? 'जो जो अनुमानका विषय है वह वह किसीके प्रत्यक्ष होता है जैसे, अग्नि आदि' यह अन्वय दृष्टान्तका वचन है । और 'देश काल आदिसे अंतरित पदार्थ भी अनुमानके विषय हैं' यह उपनयका वचन है। इसलिये "राम रावण आदि किसीके प्रत्यक्ष होते हैं। यह निगमन वाक्य है। अब व्यतिरेक दृष्टान्तको कहते हैं—'जो किसीके भी प्रत्यक्ष नहीं होते वे अनुमानके विषय भी नहीं होते;' जैसे कि, 'आकाशके पुष्प आदि' यह व्यतिरेक दृष्टान्तका वचन है। और 'राम रावण आदि अनुमानके विषय है' यह फिर उपनयका वचन है। इसलिये 'राम रावणादि किसीके प्रत्यक्ष होते हैं' यह फिर निगमन वाक्य है। और "रामरावणादि किसीके प्रत्यक्ष होते हैं अनुमानके विषय होनेसे" यहाँपर 'अनुमानके विषय होनेसे' यह जो हेतु है वह सर्वज्ञरूप जो साध्य धर्म है उसमें सर्व प्रकारसे रहता है इस कारण यह उक्त हेतु स्वरूपासिद्ध भावासिद्ध तथा विशेषण आदिसे असिद्ध नहीं है। तथा उक्त हेतु-सर्वज्ञरूप जो अपना पक्ष है उसको छोड़कर सर्वज्ञका अभावस्वरूप जो विपक्ष है उसको सिद्ध नहीं करता है। इस कारण विरुद्ध भी नहीं है। और जैसे 'सर्वज्ञके सद्भावरूप अपने पक्षमें नहीं रहता है वैसे सर्वज्ञके अभावरूप विपक्षमें नहीं रहता है; इस कारण उक्त हेतु अनैकान्तिक अर्थात् व्यभिचारी भी नहीं है । और प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे बाधित नहीं है; इसलिये कालात्ययापदिष्ट भी नहीं है । तथा सर्वज्ञको न माननेवाले जो भट्ट Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १६९ भवति । तथैव च प्रतिवादिनां प्रत्यसिद्धं सर्वज्ञसद्भावं साधयति तेन कारणेनाकिञ्चित्करोऽपि न भवति । एवम सिद्ध विरुद्धानैकान्तिकाकिञ्चित्कर हेतु दोष रहितत्वात्सर्वज्ञसद्भावं साधयत्येव । इत्युक्तप्रकारेण सर्वज्ञसद्भावे पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनरूपेण पञ्चाङ्गमनुमानं ज्ञातव्यमिति । कि च यथा लोचनहीन पुरुषस्यादर्शे विद्यमानेऽपि प्रतिबिम्बानां परिज्ञानं न भवति, तथा लोचनस्थानीय सर्वज्ञतागुणरहित पुरुषस्यादर्शस्थानीयवेदशास्त्रे कथितानां प्रतिबिम्बस्थानीयपरमाण्वाद्यनन्तसूक्ष्मपदार्थानां क्वापि काले परिज्ञानं न भवति । तथाचोक्तं " यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥ १ ॥” इति संक्षेपेण सर्वज्ञसिद्धिरत्र बोद्धव्या । एवं पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्याने ध्येयभूतस्य सकलात्मनो जिनभट्टारकस्य व्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥ ५० ॥ अथ सिद्धसदृश निजपरमात्मतत्त्वपरमसमरसी भावलक्षणस्य रूपातीतनिश्चयध्यानस्य पारम्पर्येण कारणभूतं मुक्तिगतसिद्धभक्तिरूपं 'णमो सिद्धाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत्पदस्थं ध्यानं तस्य ध्येयभूतं सिद्धपरमेष्ठिस्वरूपं कथयति ; - eggकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा | पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ।। ५१ ।। नष्टाष्टक देहः लोकालोकस्य ज्ञायकः द्रष्टा । पुरुषाकार : आत्मा सिद्धः ध्यायेत लोकशिखरस्थः ॥ ५१ ॥ और चार्वाक हैं, उनके सर्वज्ञके सद्भावको सिद्ध करता है इस कारण अकिंचित्कर भी नहीं है । इस प्रकार से 'अनुमानका विषय होनेसे' यह हेतु वचन है सो असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, चित्ररूप जो हेतु दूषण हैं उनसे रहित है, इस कारण सर्वज्ञके सद्भावको सिद्ध करता हो है । इस उक्त प्रकार से सर्वज्ञके सद्भावमें पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूपसे पाँच अंगोंका धारक अनुमान जानना चाहिये ॥ और जैसे नेत्रहीन पुरुषको दर्पण ( शीसे ) के विद्यमान होनेपर भी प्रतिबिम्बोंका ज्ञान नहीं होता है, इसीप्रकार नेत्रोंके स्थानभूत जो सर्वज्ञतारूप गुण है उससे रहित पुरुषको दर्पण के स्थानभूत जो वेदशास्त्र है उसमें कहे हुए जो प्रतिबिंबोंके स्थानभूत परमाणु आदि अनन्त सूक्ष्म पदार्थ हैं उनका किसी भी कालमें ज्ञान नहीं होता है । सो ही कहा है कि - "जिस पुरुषके स्वयंबुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है ? क्योंकि नेत्रोंसे रहित पुरुष के दर्पण क्या उपकार करेगा ? भावार्थ - जैसे नेत्रहीन पुरुषको दर्पणसे कुछ लाभ नहीं इसी प्रकार बुद्धिहीन पुरुषको शास्त्रसे कोई लाभ नहीं है । १ । इस प्रकार यहाँ संक्षेपसे सर्वज्ञकी सिद्धि जानना चाहिये। ऐसे पदस्थ, पिंडस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानोंमें ध्येयभूत ( ध्यान करने योग्य) जो सकल आत्मा के धारक श्री जिनेन्द्र भट्टारक हैं, उनके व्याख्यानरूपसे यह गाथा समाप्त हुई ||५० ॥ अब सिद्धोंके समान जो परमात्मस्वरूप है; उसमें परमसमरसीभावको धारण करनेरूप जो रूपातीत नामक निश्चय ध्यान है; उस रूपातीत ध्यानके परंपरासे कारणभूत-मुक्ति में प्राप्त हुए जो सिद्ध परमेष्ठी हैं; उनकी भक्तिरूप - " णमो सिद्धाणं" इस पदके बोलनेरूप लक्षणका धारक जो पदस्थध्यान है, उस पदस्थध्यानके ध्येयभूत जो सिद्धपरमेष्ठी हैं; उनके स्वरूपका कथन करते हैं Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार व्याख्या-- -'णट्टट्ठकम्मदेहो' शुभाशुभमनोवचनकाय क्रियारूपस्य द्वैतशब्दाभिधेयकर्मकाण्डस्य निर्मलन समर्थेन स्वशुद्धात्मतत्त्वभावनोत्पन्न रागादिविकल्पोपाधिरहित परमाह्लादैकलक्षणसुन्दरमनोहरानन्दस्यं दिनिःक्रियाद्वैतशब्दवाच्येन परमज्ञानकाण्डेन विनाशितज्ञानावरणाद्यष्टकमदारिकादिपञ्चदेहत्वात् नष्टाष्टक संदेह: । 'लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा' पूर्वोक्तज्ञानकाण्डभावनाफलभूतेन सकल विमल केवलज्ञानदर्शनद्वयेन लोकालोकगतत्रिकालवत्तसमस्तवस्तुसम्बन्धिविशेषसामान्यस्वभावानामेकसमयज्ञायकदर्शकत्वात् लोकालोकस्य ज्ञाता द्रष्टा भवति । 'पुरिसायारो' निश्चयनयेनातीन्द्रियामूत्तं परमचिदुच्छलननिर्भरशुद्धस्वभावेन निराकारोऽपि व्यवहारेण भूतपूर्वनयेन किञ्चिदूनचरमशरीराकारेण गत सिक्थमूषागर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः । 'अप्पा' इत्युक्तलक्षण आत्मा किं भण्यते ? 'सिद्धो' अञ्जनसिद्धपादुकासिद्ध गुटिकासिद्धखड्गसिद्ध माया सिद्धादि लौकिक सिद्धविलक्षणः केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिलक्षणः सिद्धो भण्यते । 'ज्झाएह लोयसिहरत्थो' तमित्थंभूतं सिद्धपरमेष्ठिनं लोकशिखरस्थं दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियभोगप्रभृतिसमस्तमनोरथरूपनानाविकल्पजात्यागेन त्रिगुप्तिलक्षणरूपातीतध्याने स्थित्वा ध्यायत हे भव्या यूयमिति । एवं निष्कलसिंद्ध १७० " गाथाभावार्थ- नष्ट हो गया है अष्टकर्मरूप देह जिसके लोकाकाश तथा अलोकाकाशका जानने देखनेवाला, पुरुषके आकारका धारक और लोकके शिखरपर विराजमान ऐसा जो आत्मा है वह सिद्ध परमेष्ठी है इसकारण तुम उसका ध्यान करो ॥ ५१ ॥ व्याख्यार्थ - ' णट्ठट्ठकम्मदेहो' शुभ-अशुभ- मन वचन और कायकी क्रियारूप, द्वैत इस शब्द कहे जाने योग्य जो कर्मो का कांड (समूह) है उसका नाश करनेमें समर्थ, निजशुद्ध आत्मस्वरूपकी भावनासे उत्पन्न रागादिविकल्परूप उपाधिसे रहित, परम आनंदमय एक लक्षणका धारक, सुन्दर और मनको हरण करनेवाला ऐसा जो आनंद उसको बहानेवाला, क्रियारहित और अद्वैत इस शब्दसे कहे जानेवाला ऐसा जो परमज्ञानकाण्ड, उसके द्वारा नाशको प्राप्त किये है ज्ञानावरणादि आठ कर्म और औदारिक आदि पाँच देह (शरीर ) जिसने ऐसा होनेसे नष्ट किया अष्टकर्म और देह जिसने ऐसा । 'लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा' पहले कहे हुए ज्ञानकांडकी भावना का फलरूप जो सर्व अंशोंमें निर्मल ज्ञान और दर्शनका युगल है उसके द्वारा लोक तथा अलोक में प्राप्त जो भूत भविष्यत् और वर्तमानकाल में रहनेवाले समस्त पदार्थ हैं; उन पदार्थोंसे संबंध रखनेवाले जो विशेष तथा सामान्य भाव हैं उनका एक ही समय में जानने और देखनेवाला होने से लोक तथा अलोकका जानने देखनेवाला होता है । 'पुरिसायारो' निश्चयनयकी अपेक्षासे इन्द्रि योंके अगोचर - मूर्त्तिरहित - परमज्ञानके उछलनेसे भरा हुआ ऐसा जो शुद्ध स्वभाव है उसका धारक होनेसे आकाररहित है; तो भी व्यवहारसे भूतपूर्वनयकी अपेक्षासे अंतिम शरीरसे कुछ न्यून ( कम ) आकारको धारण करता है इस कारण मोमरहित मूसके बीचके आकार की तरह अथवा छाया प्रतिबिंब समान पुरुषके आकारको धारण करनेवाला है । "अप्पा" इन पहले कहे हुए लक्षणोंका धारक जो आत्मा है वह क्या कहलाता है ? 'सिद्धो' अंजनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खङ्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि जो लौकिक ( लोकमें कहे जानेवाले) सिद्ध हैं उन सिद्धोंसे भिन्न लक्षणका धारक-केवल ज्ञान आदि अनंतगुणोंकी प्रकटतारूप लक्षणका धारक सिद्ध कहलाता है । 'ज्झाएह लोयसिहरत्थो' लोकके शिखरपर विराजमान उस पूर्वोक्तलक्षणके धारक सिद्ध परमेठीको हे भव्यजनो ! तुम देखे - सुने - अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियोंके भोगोंको आदिले संपूर्ण Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७१ परमेष्ठिव्याल्यानेन गाथा गता ॥५१॥ अथ निरुपाधिशुद्धात्मभावनानुभूत्यविनाभूतनिश्चयपश्चाचारलक्षणस्य निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं निश्चयव्यवहारपञ्चाचारपरिणताचार्यभक्तिरूपं णमो आयरियाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत्पदस्थध्यानं तस्य ध्येयभूतमाचार्यपरमेष्ठिनं कथयति; दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे । अप्पं परं च जुजइ सो आयरिओ मुणी झेओ ।। ५२ ।। दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतप आचारे । आत्मानं परं च युक्ति सः आचार्यः मुनिः ध्येयः ॥५२॥ व्याख्या-'दंसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे' सम्यग्दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतपश्चरणाचारेऽधिकरणभूते 'अप्पं परं च जुंजई' आत्मानं परं शिष्यजनं च योऽसौ योजयति सम्बन्धं करोति 'सो आयरिओ मुणी झेओ' स उक्तलक्षण आचार्यो मुनिस्तपोधनो ध्येयो भवति । तथा हिभूतार्थनयविषयभूतः शुद्धसमयसारशब्दवाच्यो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मादिसमस्तपरद्रव्येभ्यो भिन्नः परमचैतन्यविलासलक्षणः स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यग्दर्शनं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयदर्शनाचारः । तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसम्वेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः मनोरथोंरूप अनेक विकल्पोंका समूह उसका त्याग करके और मन, वचन तथा काय इन तीनोंकी गुप्तिस्वरूप जो रूपातीत ध्यान है उसमें स्थित होकर ध्यावो । इस प्रकार निष्कल (शरीररहित) सिद्ध परमेष्ठीके व्याख्यान द्वारा यह गाथा समाप्त हई ।। ५१ ॥ अब उपाधिरहित जो शुद्ध आत्माकी भावना तथा अनुभूति (अनुभव) का साक्षात्कार है उसमें व्याप्तिको धारण करनेवाला जो निश्चय नयानुसार पाँच प्रकारका आचार वही है लक्षण जिसका ऐसा जो निश्चयध्यान उस निश्चयध्यानका परंपरासे कारणभूत, निश्चय तथा व्यवहार इन दोनों प्रकारके पाँच आचारोंमें परिणत (तत्पर वा तल्लीन) ऐसे जो आचार्य परमेष्ठी उनकी भक्तिरूप और "णमो आयरियाणं" इस पदके उच्चारण करने (बोलने) रूप लक्षणका धारक ऐसा जो पदस्थध्यान है उस पदस्थध्यानके ध्येयभूत जो आचार्य परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपका निरूपण करते हैं गाथाभावार्थ-दर्शनाचार १. ज्ञानाचार २. वीर्याचार ३. चारित्राचार ४. और तप३चरणाचार ५, इन पांचों आचारोंमें जो आप भी तत्पर होते हैं और अन्यशिष्योंको भी लगाते हैं ऐसे आचार्य मुनि ध्यान करने योग्य हैं ।। ५२॥ ____ व्याख्यार्थ-"दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे" आधारभूत सम्यग्दर्शनाचार और सम्यग्ज्ञानाचार है प्रधान जिसमें ऐसे वीर्याचार चारित्राचार और तपश्चरणाचारमें "अप्पं परं च जुंजइ" अपनी आत्माको और अन्य शिष्यजनोंको जो लगाते हैं "सो आयरिओ मुणी झेओ" वे पूर्वोक्त लक्षणवाले आचार्य तपोधन ध्यान करने योग्य होते हैं। उसीका विस्तारसे वर्णन करते हैं कि, भूतार्थ (निश्चय) नयका विषयभूत, 'शुद्धसमयसार' इस शब्दसे कहने योग्य, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म आदि जो समस्त पर पदार्थ हैं उनसे भिन्न; और परमचैतन्यका विलासरूप लक्षणका धारक ऐसा जो निज शुद्ध आत्मा है वही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है इस प्रकारकी रुचि होने रूप सम्यग्दर्शन है; उस सम्यग्दर्शनमें जो आचरण अर्थात् परिणमन करना है उसको निश्चय Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार पृथकपरिच्छेदनं सम्यक्ज्ञानं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयज्ञानाचारः । तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखास्वादेन निश्चलचित्तं वीतरागचारित्रं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्राचारः। समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधेन तथैवानशनादिद्वादशतपश्चरणबहिरङ्गसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचारः । तस्यैव निश्चयचतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशक्त्यनवगृहनं निश्चयवीर्याचारः । इत्युक्तलक्षणनिश्चयपश्चाचारे तथैव "छत्तीसगुणसमग्गे पंचविहाचारकरणसन्दरिसे। सिस्साणुग्गहकुसले धम्मायरिए सदा वंदे । १ ।'' इति गाथाकथितक्रमेणाचाराराधनादिचरणशास्त्रविस्तीर्णबहिरङ्गसहकारिकारणभूते व्यवहारपञ्चाचारे च स्वं परं च योजयत्यनुष्ठानेन सम्बन्धं करोति स आचार्यो भवति । स च पदस्थध्याने ध्यातव्यः । इत्याचार्यपरमेष्ठिव्याख्यानेन सूत्रं गतम् ॥५२॥ अथ स्वशद्धात्मनि शोभनमध्यायोऽभ्यासो निश्चयस्वाध्यायस्तल्लक्षणनिश्चयध्यानस्य पारम्पर्येण कारणभूतं भेदाभेवरत्नत्रयादितत्त्वोपदेशकं परमोपाध्यायभक्तिरूपं णमो उवज्झायाणं' इति पदोच्चारणलक्षणं यत् पदध्यानं, तस्य ध्येयभूतमुपाध्यायमुनीश्वरं कथयति दर्शनाचार कहते हैं । १। उसी शुद्ध आत्माका जो उपाधि रहित स्वसंवेदन (अपने जानने) रूप भेदज्ञानद्वारा मिथ्यात्व-राग आदि परभावोंसे भिन्न जानना है वह सम्यग्ज्ञान है। उसमें जो आचरण (परिणमन) करना अर्थात् लगना है वह निश्चयज्ञानाचार है । २। उसी शुद्ध आत्मामें राग आदि विकल्पोंरूप उपाधिसे रहित जो स्वभावसे उत्पन्न हुआ सुख है उसके आस्वादसे निश्चल चित्तका करना है उसको वीतरागचारित्र कहते हैं; उसमें जो आचरण करना है वह निश्चयचारित्राकार कहलाता है । ३ । समस्त परद्रव्योंमें इच्छाके रोकनेसे, इसी प्रकार अनशन अवमौदर्य आदि बारह प्रकारके तपको करने रूप बहिरंगसहकारीकारणसे जो निज स्वरूपमें प्रतपन अर्थात् विजयन है वह निश्चयतपश्चरण कहलाता है; उसमें जो आचरण अर्थात परिणमन है उसको निश्चयतपश्चरणाचार कहते हैं । ४ । इन पूर्वोक्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपश्चरणरूप भेदोंसे चार प्रकारका जो निश्चय आचार है; उसकी रक्षाके लिये जो अपनी शक्ति (ताकत) का नहीं छिपाना है वह निश्चयवीर्याचार है । ५। ऐसे कहे हुए लक्षणोंका धारक जो निश्चयनयसे पाँच प्रकारका आचार हे उसमें, और इसी प्रकारसे "छत्तीसगुणोंसे सहित, पाँच प्रकारके आचारको करनेका उपदेश देनेवाले, तथा शिष्योंपर अनुग्रह (कृपा) रखने में चतुर ऐसे जो धर्माचार्य हैं उनको मैं सदा वंदना करता हूँ। १ ।' इस गाथामें कहे हुए क्रमके अनुसार मूलाचार, भगवती आराधना आदि चरणानुयोगके शास्त्रोंमें विस्तारसे कहे हुए बहिरंगसहकारीकारणों रूप जो व्यवहारनयसे पाँच प्रकारका आचार है उसमें जो अपनेको तथा परको लगाते हैं अर्थात् आप उस पंचाचारको साधते हैं और दूसरोंको सधाते हैं वे आचार्य कहलाते हैं। और वे आचार्य परमेष्ठी पदस्थध्यानमें ध्यान करने योग्य हैं ।। इसप्रकार आचार्यपरमेष्ठीके व्याख्यानसे यह गाथासूत्र समाप्त हुआ ।। ५२ ॥ - अब निज शुद्ध आत्मामें जो उत्तम अभ्यास करना है उसको निश्चय स्वाध्याय कहते हैं । उस निश्चयस्वाध्यायरूप स्वरूपका धारक जो निश्चयध्यान है उसके परंपरासे कारणभूत, भेद अभेद रूप रत्नत्रय आदि तत्त्वोंका उपदेश करनेवाले और परमउपाध्यायभक्तिस्वरूप “णमो उवज्झायाणं" इस पदके उच्चारणरूप पदस्थध्यानके ध्येयभूत (ध्यान करने योग्य) ऐसे जो उपाध्याय परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपका कथन करते हैं Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः जो रयणत्तयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो | सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ।। ५३ ।। यः रत्नत्रययुक्तः नित्यं धर्मोपदेशने निरतः । सः उपाध्यायः आत्मा यतिवरवृषभः नमः तस्मै ॥५३॥ व्याख्या- 'जो रयणत्तयजुत्तो' योऽसौ बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयानुष्ठानेन युक्तः परिणतः । 'णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो' षट्द्रव्यपञ्चास्तिकाय सप्ततत्त्व नवपदार्थेषु मध्ये स्वशुद्धात्मद्रव्यं स्वशुद्ध जीवास्तिकायं स्वशुद्धात्मतत्त्वं स्वशुद्धात्मपदार्थमेवोपादेयं शेषं च हेयं, तथैवोत्तमक्षमादिधर्मं च नित्यमुपदिशति योऽसौ स नित्यं धर्मोपदेशने निरतो भव्यते । 'सो उवज्झाओ अप्पा' स चेत्थंभूत आत्मा उपाध्याय इति । पुनरपि किविशिष्ट:-- 'जदिवरवसहो' पञ्चेन्द्रिय विषयजयेन निजशुद्धात्मनि यत्नपराणां यतिवराणां मध्ये वृषभः प्रधानो यतिवरवृषभः । ' णमो तस्स' तस्मै द्रव्यभावरूपो नमो नमस्कारोऽस्तु । इत्युपाध्यायपरमेष्ठिव्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥५३॥ अथ निश्चयरत्नत्रयात्मक निश्चयध्यानस्य परम्परया कारणभूतं बाह्याभ्यन्तरमोक्षमार्गसाधकं परमसाधुभक्तिरूपं णमो लोए सव्वसाहूणं' इति पदोच्चारणजपध्यानलक्षणं यत् पदस्थ - ध्यानं तस्य ध्येयभूतं साधुपरमेष्ठिस्वरूपं कथयति - १७३ दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ।। ५४ ।। गाथा भावार्थ - जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय से सहित है; निरन्तर धर्मका उपदेश देने में तत्पर है; वह आत्मा मुनीश्वरोंमें प्रधान उपाध्याय परमेष्ठी कहलाता है । इसलिये उनको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ५३ ॥ व्याख्यार्थ - " जो रयणत्तयजुत्तो" जो बाह्य तथा आभ्यन्तररूप रत्नत्रय के अनुष्ठान ( साधने) युक्त हैं अर्थात् निश्चय - व्यवहार स्वरूप रत्नत्रय के साधने में लगे हुए हैं, “णिच्चं धम्मोवदेसणे णिरदो" जीव, अजीवादि छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नौ पदार्थों में निजशुद्ध आत्मद्रव्य, निज शुद्ध जीवास्तिकाय, निज शुद्ध आत्मतत्त्व और निजशुद्ध आत्मपदार्थ ही उपा है; अन्य सब त्यागने योग्य हैं; इस विषयका तथा इसीप्रकार उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोका जो निरन्तर उपदेश देते हैं; वे नित्य धर्मोपदेश देने में तत्पर कहलाते हैं; इस कारण नित्य धर्मोपदेशन में तत्पर ऐसे "अप्पा” आत्मा हैं; वे "जदिवरवसहो" पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंको जीतने से निजशुद्ध आत्मामें प्रयत्न करने में तत्पर ऐसे यतिवरों (मुनीश्वरों) के मध्य में वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे 'उवज्झाओ' उपाध्याय परमेष्ठी हैं; "णमो तस्स" उन उपाध्याय परमेष्ठियोंके अर्थ मेरा द्रव्य तथा भावरूप नमस्कार हो । इस प्रकार उपाध्याय परमेष्ठीके व्याख्यानसे गाथासूत्र पूर्ण हुआ ||५३॥ अब निश्चयरत्नत्रय स्वरूप जो निश्चयध्यान है उसके परंपरासे कारणभूत, बाह्य तथा अभ्यंतररूप मोक्षमार्गके साधनेवाले और परमसाधुभक्तिस्वरूप जो " णमो लोए सव्वसाहूणं” यह पद है इसके बोलने, जाप करने और ध्यान करनेरूप लक्षणका धारक जो पदस्थ ध्यान है। उसके ध्येयभूत ऐसे जो साधु परमेष्ठी हैं उनके स्वरूपका निरूपण करते हैं गाथाभावार्थ- जो दर्शन और ज्ञानसे पूर्ण, मोक्षका मार्गभूत, और सदाशुद्ध ऐसे चारित्रको Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार दर्शनज्ञानसमग्रं मार्ग मोक्षस्य यः हि चारित्रम् । साधयति नित्यशुद्धं साधुः सः मुनिः नमः तस्मै ॥ ५४॥ व्याख्या-'साहू स मुणी' स मुनिः साधुर्भवति । यः किं करोति-'जो हु साधयदि' यः कर्ता हु स्फुटं साधयति । कि 'चारित्तं' चारित्रं । कथम्भूतं 'दंसणणाणसमग्गं वीतरागसम्यग्दर्शनज्ञानाभ्यां समग्रं परिपूर्णम् । पुनरपि कथम्भूतं 'मग्गं मोक्खस्स' मार्गभूतं । कस्य मोक्षस्य । पुनश्च कि रूपं 'णिच्चसुद्ध' नित्यं सर्वकालं शुद्धं रागादिरहितम् । 'णमो तस्स' एवं गुणविशिष्टो यस्तस्मै साधवे नमो नमस्कारोस्त्विति । तथाहि-"उद्योतनमुद्योगो निर्वहणं साधनं च निस्तरणम् । दृगवगमचरणतपसामाख्याताराधना सद्भिः।१।" इत्यार्याकथितबहिरङ्गचतुर्विधाराधनाबलेन, तथैव "समत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवो चेव । चउरो चिट्ठहि यादे तम्हा आदा हु मे सरणं । १।" इति गाथाकथिताभ्यन्तरनिश्चयचतुर्विधाराधनाबलेन च बाह्यान्तरमोक्षमार्गद्वितीयनामाभिधेयेन कृत्वा यः कर्ता वीतरागचारित्राविनाभूतं स्वशुद्धात्मानं साधयति भावयति स साधुर्भवति । तस्यैव सहजशुद्धसदानन्दैकानुभूतिलक्षणो भावनमस्कारस्तथा 'णमो लोए सव्वसाहूणं' द्रव्यनमस्कारश्च भवत्विति ॥ ५४॥ एवमुक्तप्रकारेण गाथापञ्चकेन मध्यमप्रतिपत्त्या पञ्चपरमेष्ठिस्वरूपं ज्ञातव्यम् । अथवा निश्चयेन "अरिहासिद्धायरियाउवज्झायासाधु पंचपरमेट्टी। ते विहु चिट्टहि यादे तम्हा आदा हु मे सरणं । १।" इति गाथाकथितक्रमेण संक्षेपेण, तथैव विस्तरेण पञ्चपरमेष्ठिग्रन्थकथितक्रमण, प्रकट रूपसे साधते हैं वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं उनके अर्थ मेरा नमस्कार हो ॥ ५४ ।। व्याख्यार्थ-"जो' जो 'हु' भले प्रकारसे "दसणणाणसमग्गं" वीतराग सम्यग्दर्शन और ज्ञानसे परिपूर्ण, "मग्गं मोक्खस्स" मोक्षका मार्ग (कारण) भूत, “णिच्चसुद्ध" सदा शुद्ध अर्थात् रागद्वेषादि रहित ऐसे "चारित्तं" चारित्रको “साधयदि" साधते हैं “साहू स मुणी" वे मुनि साधु हैं "णमो तस्स' इन पूर्वोक्त गुणोंसे सहित जो हैं उन साधु परमेष्ठियोंके अर्थ नमस्कार हो । सो ही स्पष्टरूपसे दिखलाते हैं कि-"दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनका जो उद्योतन, उद्योग, निर्वहण. साधन और निस्तरण है उसको सतपरुषोंने आराधना कही है।१।" इस आर्याछन्दसे कही हई जो बहिरंग दर्शन. ज्ञान. चारित्र और तपभेदोंसे चार प्रकारकी आराधना है उस आराधनाके बलसे तथा इसी प्रकार "सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यकचारित्र और सत्तप ये चारों आत्मामें निवास करते हैं इस कारण आत्मा ही मेरे शरणभूत है । १।" इस गाथामें कही हुई जो निश्चय नयसे अभ्यन्तरकी चार आराधना हैं उनके बलसे अर्थात बाह्य मोक्षमार्ग और अभ्यन्तर मोक्षमार्ग करके जो वीतरागचारित्रका अविनाभूत निज शुद्ध आत्माको साधते हैं अर्थात् भावते हैं; वे साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। उन्हींके लिये मेरा स्वभावसे उत्पन्न-शुद्ध-ऐसे सदानन्दकी अनुभूतिलक्षण भावनमस्कार तथा "णमो लोए सव्वसाहूणं" इस पदके उच्चारणरूप द्रव्यनमस्कार हो ॥ ५४॥ इस कहे हुए प्रकारसे पाँच गाथाओंद्वारा मध्यम रुचिके धारक शिष्योंको ज्ञान होनेके लिये पंच परमेष्ठीके स्वरूपका कथन किया गया है। यह जानना चाहिये । अथवा निश्चयनयसे "अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँचों परमेष्ठी जो हैं वे भी आत्मामें ही तिष्ठते हैं; इस कारण आत्मा ही मेरे शरणभूत है । १।" इस गाथामें कहे हुए क्रमानुसार संक्षेपसे पंच परमेष्ठियोंका स्वरूप जानना चाहिये । और विस्तारसे पंच परमेष्ठियोंका स्वरूप पञ्चपरमेष्टी नामक Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७५ अतिविस्तारेण तु सिद्धचक्रादिदेवार्चनाविधिरूपमन्त्रवादसं बन्धिपञ्चनमस्कारग्रन्थे चेति । एवं गाथापञ्चकेन द्वितीयस्थलं गतम् । अथ तदेव ध्यानं विकल्पित निश्चयेनाविकल्पितनिश्चयेन प्रकारान्तरेणोपसंहाररूपेण पुनरप्याह । तत्र प्रथमपादे ध्येयलक्षणं, द्वितीयपादे ध्यातृलक्षणं, तृतीयपादे ध्यानलक्षणं चतुर्थपादेन नविभागं कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति; - जं किंचिवि चितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू | लणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं ।। ५५ ।। यत् किञ्चित् अपि चिन्तयन् निरीहवृत्तिः भवति यदा साधुः । लब्ध्वा च एकत्वं तदा आहुः तत् तस्य निश्चयं ध्यानम् ॥ ५५ ॥ व्याख्या- 'तदा' तस्मिन् काले । 'आहु' आहुर्बुवन्ति 'तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं' तत्तस्य निश्चयध्यानमिति । यदा किं ? 'णिरीहवित्ती हवे जदा साहू' निरीहवृत्तिनिस्पृह वृत्तिर्यदा साधुर्भवति । कि कुर्वन् ? 'जं किचिवि चितंतो' यत् किमपि ध्येयवस्तुरूपेण वस्तु चिन्तयन्निति । किं कृत्वा पूर्वं ? 'लद्धूणय एयत्तं' तस्मिन् ध्येये लब्ध्वा । कि ? एकत्वं एकाग्रचिन्तानिरोधनमिति । अथ विस्तार:यत् किञ्चिद् ध्येयमित्यनेन किमुक्तं भवति ? प्राथमिकापेक्षया सविकल्पावस्थायां विषयकषायवञ्चनाथं चित्तस्थिरीकरणार्थं पञ्चपरमेष्ठद्यादिपरद्रव्यमपि ध्येयं भवति । पश्चादभ्यासवशेन ग्रन्थमें कहे हुए क्रमसे जानना चाहिए । तथा अत्यन्तविस्तार से सिद्धचक्र आदि देवोंके पूजनविधिरूप जो मन्त्रवादसम्बन्धी "पंचनमस्कार माहात्म्य" नामक ग्रन्थ है उसमें पंच परमेष्ठियों का स्वरूप जानना चाहिये । इस प्रकार पाँच गाथाओंसे दूसरा स्थल समाप्त हुआ । अब फिर भी उसी ध्यानको विकल्पितनिश्चय और अविकल्पितनिश्चयरूप जो अन्य प्रकार हैं उनसे संक्षेप करके कहते हैं । उसमें गाथाके प्रथम पादमें ध्येयका लक्षण कहता हूँ, द्वितीय पादमें ध्याता (ध्यान करनेवाले) का लक्षण कहता हूँ, तीसरे पादमें ध्यानका लक्षण कहता हूँ और चौथे पाद (चरण) से नयोंके विभागको कहता हूँ । इस अभिप्रायको मनमें धारण करके भगवान् श्री नेमिचन्द्रस्वामी इस अग्रिम सूत्रका प्रतिपादन करते हैं; गाथा भावार्थ - ध्येय पदार्थ में एकाग्र चित्त होकर जिस किसी पदार्थको ध्यावता हुआ साधु जब निस्पृह वृत्तिं (सब प्रकारकी इच्छाओंसे रहित) होता है उस समय उसका ध्यान निश्चय ध्यान होता है ऐसा आचार्य कहते हैं ||५५ ॥ व्याख्यार्थ - "लक्षूणय एयत्तं" उस ध्येय पदार्थ में एकाग्रचिन्ताके निरोधको प्राप्त होकर अर्थात् एकचित्त होकर "जं किंचिवि चितंतो" जिस किसी पदार्थका ध्येयवस्तुके रूपसे चितवन करता हुआ "णिरीहवित्ती हवे जदा साहू" साधु जब निस्पृह वृत्तिको धारण करनेवाला होता है " तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं" उस समय आचार्य महाराज साधुके उस ध्यानको निश्चय ध्यान कहते हैं । अब विस्तारसे वर्णन करते हैं - गाथामें जो 'यत् किंचित् ध्येयम्' अर्थात् 'जिस किसी भी ध्येय पदार्थको ऐसा पद है उससे क्या कहा गया है ? ध्यानकी प्रथम ही आरम्भ करने की अपेक्षासे जो सविकल्प अवस्था है उसमें विषय और कषायों को दूर करनेके लिये तथा चित्तको स्थिर करनेके लिये पंच परमेष्ठी आदि जो परद्रव्य हैं, वे भी ध्येय होते हैं, फिर जब www.jainejibrary.org Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीय अधिकार स्थिरीभूते चित्ते सति शुद्धबुद्ध कस्वभावनिजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयमित्युक्तं भवति । निस्पृहवचनेन पुनमिथ्यात्वं वेदत्रयं हास्यादिषट्कक्रोधादिचतुष्टयरूपचतुर्दशाऽभ्यन्तरपरिग्रहेण तथैव क्षेत्रवास्तु. हिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यभाण्डाऽभिधानदशविधबहिरङ्गपरिग्रहेण च रहितं ध्यातृस्वरूपमुक्तं भवति । एकाग्रचिन्तानिरोधेन च पूर्वोक्त विविधध्येयवस्तुनि स्थिरत्वं निश्चलत्वं ध्यानलक्षणं भणितमिति । निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्यः । निष्पन्नयोगनिश्चलपुरुषापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्यः । निश्चय निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगलक्षणविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयो ग्राह्यः विशेषनिश्चयः पुनरने वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ ___अथ शुभाशुभमनोवचनकायनिरोधे कृते सत्यात्मनि स्थिरो भवति तदेव परमध्यानमित्युपदिशति; मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किंवि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥५६॥ मा चेष्टत मा जल्पत मा चिन्तयत किमपि येन भवति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः इदं एव परं भवति ध्यानं ॥५६॥ व्याख्या-'मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह किंवि' नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुअभ्यासके वशसे चित्त स्थिर हो जाता है तब शुद्ध-बुद्ध एकस्वभावका धारक जो निज-शुद्ध आत्मा है उसका स्वरूप ही ध्येय होता है; यह कहा गया है। और 'निस्पृहवृत्ति होकर' यह जो वचन है इससे मिथ्यात्व १, वेद २, स्त्रीवेद ३, नपुंसकवेद ४, हास्य ५, रति ६, अरति ७, शोक ८, भय ९, जुगुप्सा १०, क्रोध ११, मान १२, माया १३, और लोभ १४, इन रूप चौदह प्रकारके अन्तरंग परिग्रहसे रहित तथा इसीप्रकार क्षेत्र १, वास्तु २, हिरण्य ३, सुवर्ण ४, धन ५, धान्य ६, दासी ७, दास ८, कुप्य ९, और भांड १०, नाम दशप्रकारके बहिरंग परिग्रहसे रहित ध्यान करनेवालेका स्वरूप कहा गया है । और 'एकाग्रचिन्तानिरोधको प्राप्त होकर' इस कथनसे पूर्वोक्त नाना प्रकारके ध्यान करनेयोग्य पदार्थों में जो निश्चलपना है उसको ध्यानका लक्षण कहा है । और “निश्चय ध्यान कहते हैं" यहाँपर जो निश्चय शब्द हैं उससे अभ्यास करनेवाले पुरुषकी अपेक्षासे तो व्यवहाररत्नत्रयके अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिये और जिसके ध्यान सिद्ध हो गया है ऐसे पुरुषकी अपेक्षासे शुद्धोपयोगरूप लक्षणका धारक विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय ग्रहण करना चाहिये। इससे विशेष (ऊँचेदर्जेका) जो निश्चय है वह आगेके सूत्र में कहा है। इस प्रकार सूत्रका अर्थ है ।।५५।। अब ध्यान करनेवाला पुरुष शुभ अशुभरूप मन, वचन और कायका निरोध कर चुकने पर जो आत्मामें स्थिर होता है वह आत्मामें स्थिर होना ही परम ध्यान है ऐसा उपदेश देते हैं; गाथाभावार्थ-हे ज्ञानीजनो ! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो अर्थात् कायके व्यापारको मत करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो। जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने आत्मामें तल्लीन स्थिर होवे; क्योंकि जो आत्मामें तल्लीन होना है वही परमध्यान है ॥५६॥ व्याख्यार्थ-हे ज्ञानी जनो ! "मा चिट्ठह मा जंपह मा चितह किवि" नित्य निरंजन और Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः भूतिप्रतिबन्धकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं, तथैव शुभाशुभान्तर्बहिर्जल्परूपं वचनव्यापारं, तथैव शुभाशुभविकल्पजालरूपं चित्तव्यापारञ्च किमपि मा कुरुत हे विवेकिजनाः ! 'जेण होइ थिरो' येन योगत्रयनिरोधेन स्थिरो भवति । स कः ? 'अप्पा' आत्मा। कथम्भूतः स्थिरो भवति ? 'अप्पम्मि रओ' सहजशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मतत्त्वसम्यकश्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरपसमाधिसमुद्भूतसर्वप्रदेशाह्लादजनकसुखास्वादपरिणतिसहिते निजात्मनि रतः परिणतस्तल्लीयमानस्तच्चित्तस्तन्मयो भवति । 'इणमेव परं हवे ज्झाणं' इदमेवात्मसुखरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टं ध्यानं भवति। तस्मिन् ध्याने स्थितानां यद्वीतरागपरमानन्दसुखं प्रतिभाति, तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम् । तच्च पर्यायनामान्तरेण किं किं भण्यते तदभिधीयते । तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मस्वरूपं, तदेवैकदेशव्यक्तिरूपविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन स्वशुद्धात्मसम्वित्तिसमुत्पन्नसुखामृतजलसरोवरे रागादिमलरहितत्वेन परमहंसस्वरूपम् । इदमेकदेशव्यक्तिरूपं शुद्धनयव्याख्यानमत्र परमात्मध्यानभावनानाममालायां यथासम्भवं सर्वत्र योजनीयमिति। तदेव परब्रह्मस्वरूपं तदेव परमविष्णुस्वरूपं, तदेव परमशिवस्वरूपं, तदेव परमबुद्धस्वरूपं, तदेव परमनिजस्वरूपं, तदेव परमस्वात्मोपलब्धिलक्षणं सिद्धस्वरूपं, तदेव निरञ्जनस्वरूपं, तदेव निर्मलस्वरूपं, तदेव स्वसम्वेदनज्ञानं, तदेव परमतत्त्वज्ञानं, तदेव शुद्धात्मदर्शनं, तदेव परमा क्रियारहित ऐसा जो निजशुद्ध आत्माका अनुभव है उसको रोकनेवाला जो शुभ अशुभ चेष्टारूप कायका व्यापार है उसको, इसी प्रकार शुभ अशुभ अन्तरंग तथा बहिरंगरूप वचनके व्यापारको और इसी प्रकार शुभ अशुभ विकल्पोंके समूहरूप मनके व्यापारको कुछ भी मत करो "जेण होइ थिरो" जिन मन, वचन और कायस्वरूप तीनों योगोंके रोकनेसे स्थिर होता है; वह कौन ? "अप्पा" आत्मा । कैसा स्थिर होता है ? "अप्पम्मि रओ" सहज शुद्ध ज्ञान और दर्शन स्वभावको धारण करनेवाला जो परमात्मतत्त्व है उसके सम्यक् श्रद्धान ज्ञान तथा आचरण करनेरूप जो अभेदरत्नत्रय है उस स्वरूप जो परम ध्यान है उससे उत्पन्न और सब प्रदेशोंको आनन्द पैदा करनेवाला ऐसा जो सुख उसके आस्वादरूप परिणति सहित निज आत्मामें परिणत, तल्लीन, तन्मय तथा तच्चित्त होकर स्थिर होता है । "इणमेव परं हवे ज्झाणं" यही जो आत्माके सुखरूप में परिणमन होना है वह निश्चयसे परम अर्थात् उत्कृष्ट ध्यान होता है। उस परमध्यानमें स्थित हुए जीवोंको जो वीतरागपरमानंद सुख प्रतिभासता है वही निश्चयमोक्षमार्गस्वरूप है । वह दूसरे पर्यायनामोंसे क्या-क्या कहलाता है अर्थात् उसको किन-किन नामोंसे लोग कहते हैं सो कथन किया जाता है । वही शुद्ध आत्माका स्वरूप है, वही परमात्माका स्वरूप है, वही एक देश में प्रकटतारूप ऐसे विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे निजशुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो सुख वही हुआ जो अमृतजलका सरोवर उसमें राग आदि मलोंसे रहित होनेके कारण परमहंस स्वरूप है । इस परमात्मध्यानके भावनाके नामोंकी मालामें इस एकदेशव्यक्तिरूप शुद्धनयके व्याख्यानको यथासम्भव सब जगह लगा लेना चाहिये अर्थात् यथासम्भव ये सब नाम एकदेशशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे हैं ऐसा समझना चाहिये। वही परब्रह्मस्वरूप है, वही परमविष्णुस्वरूप है, वही परमशिवस्वरूप है, वही परमबुद्ध स्वरूप है, वही परमनिजस्वरूप है, वही परम निज आत्माकी प्राप्तिरूप लक्षणका धारक जो सिद्ध है उसरूप है, वही निरंजनरूप है, वही निर्मल (कर्ममलरहित) स्वरूपका धारक है, वही स्वसंवेदन Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार वस्थास्वरूपं, तदेव परमात्मनः दर्शनं, तदेव परमात्मज्ञानं, तदेव परमावस्थारूपपरमात्मस्पर्शनं तदेव ध्येयभूतशुद्धपारिणामिकभावरूपं, तदेव ध्यानभावनास्वरूपं, तदेव शुद्धचारित्रं, तदेवान्तस्तत्त्वं, तदेव परमतत्त्वं, तदेव शुद्धात्मद्रव्यं, तदेव परमज्योतिः, सैव शुद्धात्मानुभूतिः, सैवात्मप्रतीतिः, सैवात्मसम्वित्तिः, सैव स्वरूपोपलब्धिः, स एव नित्योपलब्धिः, स एव परमसमाधिः, स एव परमानन्दः, स एव नित्यानन्दः, स एव सहजानन्दः, स एव सदानन्दः, स एव शुद्धात्मपदार्थाध्ययनरूपः, स एव परमस्वाध्यायः, स एव निश्चयमोक्षोपायः, स एव चैकाग्रचिन्तानिरोधः, स एव परमबोधः, स एव शुद्धोपयोगः, स एव परमयोगः, स एव भूतार्थः, स एव परमार्थः, स एव निश्चयपञ्चाचारः, स एव समयसारः, स एवाध्यात्मसारः, तदेव समतादिनिश्चयषडावश्यकस्वरूपं, तदेवाभेदरत्नत्रय स्वरूपं, तदेव वीतरागसामायिक, तदेव परमशरणोत्तममङ्गलं, तदेव केवलज्ञानोत्पत्तिकारणं, तदेव सकलकर्मक्षयकारणं, सैव निश्चयचतुर्विधाराधना, सैव परमात्मभावना, सैव शुद्धात्मभावनोत्पन्नसुखानुभूतिरूपपरमकला, सेव दिव्यकला, तदेव परमाद्वैतं, तदेव परमामृतपरमधर्मध्यानं, तदेव शुक्लध्यानं, तदेव रागादिविकल्पशून्यध्यानं, तदेव निष्कलध्यानं, तदेव परमस्वास्थ्यं, तदेव परमवीतरागत्वं, तदेव परमसाम्यं, तदेव परमैकत्वं, तदेव परमभेदज्ञानं, स एव परमसमरसीभावः, इत्यादिसमस्तरागादिविकल्पोपाधिरहितपरमाह्लादैकसुखलक्षणध्यानरूपस्य निश्चयमोक्षमार्गस्य वाचकान्यन्यान्यपि पर्यायनामानि विज्ञेयानि भवन्ति परमात्मतत्त्वविद्भिरिति ॥५६॥ ज्ञान है, वही परमतत्त्वज्ञान है, वही शुद्धात्माका दर्शन है, वही परम (उत्कृष्ट) अवस्थास्वरूप है, वही परमात्माका दर्शन है, वही परमात्माका ज्ञान है, वही परमावस्थारूप परमात्माका स्पर्शन है, वही ध्यान करनेयोग्य जो शुद्ध पारिणामिकभाव है उस रूप है, वही ध्यानभावस्वरूप है, वही शुद्ध चारित्र है, वही अन्तरंगका तत्त्व है, वही परम (उत्कृष्ट) तत्त्व है, वही शुद्ध आत्मा द्रव्य है, वही परम ज्योतिः (ज्ञान) है. वही शुद्ध आत्माकी अनुभूति है, वही आत्मा द्रव्य है, वही आत्माकी प्रतीति है, वही आत्माकी संवित्ति अर्थात् साक्षात्कार है, वही निजआत्मस्वरूपकी प्राप्ति हैं, वही नित्य पदार्थकी प्राप्ति है, वही परम समाधि है, वही परम आनन्द है, वही नित्य आनन्द है, वही स्वभावसे उत्पन्न हुआ आनन्द है, वही सदानन्द है, वही शुद्ध आत्मपदार्थके पठनरूप स्वरूपका धारक है, वही परम स्वाध्याय है, वही निश्चय मोक्षका उपाय है, वही एकाग्रचिंताओंका निरोध है, वही परमज्ञान है, वही शुद्ध उपयोग है, वही परम योग है, वही भूतार्थ है, वही परमार्थ है. वही निश्चयनयके अनुसार जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप पाँच प्रकारका आचार है उस स्वरूप है, वही समयसार है. वही अध्यात्मसार है, वही समता आदिरूप जो निश्चयनयसे छः आवश्यक हैं उन स्वरूप है, वही अभेद रत्नत्रयरूप है, वही वीतराग सामायिक है, वही परमशरणोत्तम मंगल है, वही केवल ज्ञानोत्पत्तिका कारण है, वही समस्त कर्मोके नाशका कारण है, वही निश्चयनयकी अपेक्षासे जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपभेदोंसे चार प्रकारकी आराधना है उस स्वरूप है, वही परमात्माकी भावनारूप है, वही शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न जो सुख उसकी अनुभूतिरूप परमकला है, वही दिव्य कला है, वही परम अद्वैत है. वही अमृतस्वरूप परम धर्मध्यान है वही, शुक्लध्यान है, वही राग आदि विकल्पोंरहित ध्यान है, वही निष्कल ध्यान है, वही परम स्वास्थ्य है, वही परम वीतरागतारूप है, वही परम समतास्वरूप है, वही परम एकत्व हैं, वही परम भेदज्ञान है, वही परम समरसीभाव है। इनको आदि ले, सम्पूर्ण राग आदि विकल्पोंकी उपाधिसे रहित और परम आह्लादकसुखरूप लक्षणका धारक जो ध्यान है उस स्वरूप Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७९ अतः परं यद्यपि पूर्व बहुधा भणितं ध्यातृपुरुषलक्षणं ध्यानसामग्री च तथापि चूलिकोपसंहाररूपेण पुनरप्याख्यातिः - तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा | तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह ॥ ५७ ॥ तपः श्रुतव्रतवान् चेता ध्यानरथधुरन्धरः भवति यस्मात् । तस्मात् तत्त्रिकनिरताः तल्लब्ध्यै सदा भवत ॥ ५७ ॥ व्याख्या- - 'तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा' तपश्रुतव्रतवानात्मा चेतयिता ध्यानरथस्य धुरन्धरो समर्था भवति 'जम्हा' यस्मात् 'तम्हा तत्तियणिरदा तलद्धीए सवा होह' तस्मात् कारणात् तपश्रुतव्रतानां संबन्धेन यत्त्रितयं तत् त्रितये रता सर्वकाले भवत हे भव्याः ! किमर्थं ? तस्य ध्यानस्य लब्धिस्तल्लब्धिस्तदर्थमिति । तथाहि अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशभेदेन बाह्यं षड्विधं तथैव प्रायश्चित्तविनयवैय्यावृत्यस्वाध्याय व्युत्सर्गध्यानभेदेनाऽभ्यन्तरमपि षड्विधं चेति द्वादशविधं तपः । तेनैव साध्यं शुद्धात्मस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्च । तथैवाचाराराधनादिद्रव्यश्रुतं तदाधारेणोत्पन्नं निर्विकार जो निश्चयमोक्षमार्ग है उसको कहनेवाले अन्य भी बहुतसे जीवपर्यायी नाम परमात्मतत्त्वको अर्थात् परमात्मा के स्वरूपको जाननेवाले जो भव्य जीव हैं उनको जान लेने चाहिये ॥ ५६ ॥ अब इसके आगे यद्यपि पहिले ध्यान करनेवाले पुरुषका लक्षण और ध्यानकी सामग्रीका कई प्रकार से वर्णन कर चुके हैं; तो भी चूलिका और उपसंहाररूपसे फिर भी ध्याता पुरुष और ध्यानसामग्रीका कथन करते हैं; गाथाभावार्थ- क्योंकि, तप, श्रुत और व्रतका धारक जो आत्मा है वही ध्यानरूपी रथकी धुराको धारण करनेवाला होता है। इस कारण हे भव्यजनो ! तुम उस ध्यानकी प्राप्तिके अर्थ निरन्तर तप, श्रुत और व्रत इन तीनोंमें तत्पर होवो || ५७|| व्याख्यार्थ - " तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा" जिस कारणसे कि तप, श्रुत और व्रतका धारक आत्मा ध्यानरूपी रथकी धुराको धारण करनेके लिये समर्थ होता है । " तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह" इस कारणसे हे भव्यो ! उस ध्यानकी प्राप्तिके अर्थ तप श्रुत और व्रतोंके सम्बन्धसे जो त्रितय है उस त्रितयमें अर्थात् तपः श्रुत तथा व्रत इन तीनोंके समुदाय में सर्वकाल ( निरन्तर ) तत्पर होवो । अब इसीका विशेष वर्णन करते हैं कि -अनशन (उपवासका करना) १, अवमोदर्य (कम भोजन करना) २, वृत्तिपरिसंख्यान ( अटपटी वृत्तिको ग्रहण करके भोजन करने जाना) ३, रसपरित्याग (छः रसोंमेंसे एक दो आदि रसोंका त्याग करना) ४, विविक्तशय्यासन (निर्जन और शुद्ध स्थल में शयन करना वा बैठना ) ५, कायक्लेश ( शक्तिके अनुसार शरीर से परिश्रम लेना ) ६, इन भेदोंसे छः प्रकारका बाह्य तप और इसी प्रकार प्रायश्चित्त १, विनय २, वैयावृत्य ३, स्वाध्याय ४, कायोत्सर्ग ५, और ध्यान ६, इन भेदोंसे छः प्रकारका अन्तरंग तप ऐसे बाह्य तथा अभ्यन्तर दोनों तपोंके भेदोंको मिलानेसे बारह प्रकारका व्यवहारतप है । और उसी व्यवहारतपसे सिद्ध होने योग्य निज शुद्ध आत्माके स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजय करने रूप निश्चयतप है । इसी प्रकार मूलाचार, भगवती आराधना आदि द्रव्यश्रुत, तथा उन Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार स्वसंवेदनज्ञानरूपं भावश्रुतं च । तथैव च हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहाणां द्रव्यभावरूपाणां परिहरणं व्रतपञ्चकं चेति । एवमुक्तलक्षणतपः श्रुतव्रतसहितो ध्याता पुरुषो भवति । इयमेव ध्यानसामग्री चेति । तथा चोक्तं- "वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैर्ग्रन्थ्यं समचित्तता । परीषहजयश्चेति पञ्चैते ध्यानहेतवः । १ ।” १८० भगवन् ध्यानं तावन्मोक्षमार्गभूतम् । मोक्षार्थिना पुरुषेण पुण्यबन्धकारणत्वाद्वतानि त्याज्यानि भवन्ति भवद्भिः पुनर्ध्यानसामग्रीका रणानि तपःश्रुतव्रतानि व्याख्यातानि तत् कथं घटत इति । तत्रोत्तरं दीयते - व्रतान्येव केवलानि त्याज्यान्येवं न किन्तु पापबन्धकारणानि हिंसादिविकल्परूपाणि यान्यव्रतानि तान्यपि त्याज्यानि । तथा चोक्तं पूज्यपादस्वामिभिः - " अपुण्यमव्रतैः पुण्यं व्रतैर्मोक्षस्तयोर्व्ययः । अव्रतानीव मोक्षार्थी व्रतान्यपि ततस्त्यजेत् ॥ १ ॥" कित्वव्रतानि पूर्वं परित्यज्य ततश्च व्रतेषु तन्निष्ठो भूत्वा निर्विकल्पसमाधिरूपं परमात्मपदं प्राप्य पश्चादेकदेशव्रतान्यपि त्यजति । तदप्युक्तं तैरेव - "अव्रतानि परित्यज्य व्रतेषु परिनिष्ठितः । त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मनः । १ ।” शास्त्रोंके आधारसे अर्थात् पठन पाठनसे उत्पन्न हुआ और विकाररहित निज शुद्ध आत्माके जाननेरूप ज्ञानका धारक भावश्रुत है । तथा इसी प्रकार द्रव्य और भावरूप जो हिंसा, अनृत (झूठ), स्तेय (चोरी), अब्रह्म (कुशल), और परिग्रह है इनके त्यागरूप पाँच व्रत हैं । ऐसे कहे हुए लक्षणके धारक जो तप, श्रुत और व्रत हैं इनसे सहित हुआ पुरुष ध्याता (ध्यानकरनेवाला) होता है । और इन तप, श्रुत तथा व्रतरूप ही ध्यानकी सामग्री है। सो ही कहा है कि "वैराग्य १, तत्त्वोंका ज्ञान २, बाह्य अभ्यन्तररूप दोनों परिग्रहोंसे रहितपना ३, राग और द्वेषकी रहिततारूप साम्यभावका होना ४, और बाईस परीषहोंका जीतना ५, ये पाँचों ध्यानके कारण हैं |१| " यहाँ शिष्य शंका करता है कि आचार्य भगवान् ! ध्यान तो मोक्षका मार्गभूत है अर्थात् मोक्षका कारण है और जो मोक्षको चाहनेवाला पुरुष है उसको पुण्यबन्धके कारण होनेसे व्रत त्यागने योग्य हैं अर्थात् व्रतोंसे पुण्यका बंध होता है; और पुण्यबंध संसारका कारण है; इसलिये मोक्षार्थी व्रतोंका त्याग करता है और आपने तप श्रुत और व्रतोंको ध्यानकी पूर्णता के कारण कहे सो यह आपका कथन कैसे घटता ( सिद्ध होता) है ? अब इस शंकाका उत्तर दिया जाता है कि, केवल व्रत हो त्यागने योग्य हैं ऐसा नहीं किंतु पापबंधके कारण जो हिंसा आदि भेदोंके धारक अव्रत हैं वे भी त्यागने योग्य हैं । सो ही श्रीपूज्यपादस्वामीने कहा है कि, “हिंसा आदि अव्रतों से पापका बंध होता है; और अहिंसादि व्रतोंसे पुण्यका बंध होता है; तथा मोक्ष जो है वह पाप व पुण्य इन दोनोंके नाशसे होता है; इस कारण मोक्षको चाहनेवाला पुरुष जैसे अव्रतों का त्याग करता है; वैसे ही अहिंसादिव्रतोंका भी त्याग करे |१| " विशेष यह है कि मोक्षार्थी पुरुष पहले अव्रतोंका त्याग करके पश्चात् व्रतोंका धारक होकर निर्विकल्प - समाधि ( ध्यान ) रूप आत्मा के परम पदको प्राप्त होकर तदनन्तर एकदेशव्रतोंका भी त्याग कर देता है । यह भी उन्हीं श्रीपूज्यपादस्वामीने समाधिशतक में कहा है कि "मोक्षको चाहनेवाला पुरुष अव्रतोंका त्याग करके व्रतों में स्थित होकर आत्माके परम पदको पावे और उस आत्माके परम पदको प्राप्त होकर उन व्रतोंका भो त्याग करे | १|” १. वशचित्तता इत्यपि पाठः । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १८१ अयं तु विशेषः - व्यवहाररूपाणि यानि प्रसिद्धान्येकदेशव्रतानि तानि त्यक्तानि । यानि पुनः सर्वशुभाशुभनिवृत्तिरूपाणि निश्चयव्रतानि तानि त्रिगुप्तिलक्षणस्वशुद्धात्मसम्वित्तिरूपनिर्विकल्पध्याने स्वीकृतान्येव न च त्यक्तानि । प्रसिद्धमहाव्रतानि कथमेक देशरूपाणि जातानि । इति चेत्तदुच्यते - जीवघातनिवृत्तौ सत्यामपि जीवरक्षणे प्रवृत्तिरस्ति । तथैवासत्यवचन परिहारेऽपि सत्यवचनप्रवृत्तिरस्ति । तथैव चादत्तादान परिहारेऽपि दत्तादाने प्रवृत्तिरस्तीत्याद्येकदेश प्रवृत्त्यपेक्षया देशव्रतानि । तेषामेकदेशव्रतानां त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिकाले त्यागः । न च समस्तशुभाशुभनिवृत्तिलक्षणस्य निश्चयव्रतस्येति । त्यागः कोऽर्थः । यथैव हिंसादिरूपाव्रतेषु निवृत्तिस्तथैकदेशव्रतेष्वपि । कस्मादिति चेत् — त्रिगुप्तावस्थायां प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपविकल्पस्य स्वयमेवावकाशो नास्ति । अथवा वस्तुतस्तदेव निश्चयव्रतम् । कस्मात् - सर्वनिवृत्तित्वादिति । योऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गतो भरतश्चक्री सोsपि जिनदीक्षां गृहीत्वा विषयकषायनिवृत्तिरूपं क्षणमात्रं व्रतपरिणामं कृत्वा पश्चाच्छुद्धोपयोगत्वरूप रत्नत्रयात्मके निश्चयव्रताभिधाने वीतराग सामायिकसंज्ञे निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा केवलज्ञानं लब्धवानिति । परं किन्तु तस्य स्तोककालत्वाल्लोका व्रतपरिणामं न जानन्तीति । तदेव भरतस्य दीक्षाविधानं कथ्यते । हे भगवन् जिनदीक्षादानानन्तरं भरतचक्रिणः कियति काले केवल इस पूर्वकथन में विशेष यह है कि, मन वचन और कायकी गुप्तिरूप और निज शुद्ध आत्माके ज्ञानस्वरूप जो निर्विकल्पध्यान है उसमें व्यवहाररूप जो प्रसिद्ध एकदेशव्रत हैं उनका त्याग किया है और जो संपूर्ण शुभ तथा अशुभको निवृत्तिरूप निश्चयव्रत है उनका स्वीकार ही किया गया है और त्याग नहीं किया गया है। प्रसिद्ध जो अहिंसादि महाव्रत हैं वे एकदेशरूप कैसे हो गये ? ऐसी शंका करो तो समाधानरूप उत्तर यह है कि, अहिंसा महाव्रतमें यद्यपि जीवोंके घात ( मारने) से निवृत्ति ( रहितता) है; तथापि जीवोंकी रक्षा करनेमें प्रवृत्ति है । इसी प्रकार सत्य महाव्रत में यद्यपि असत्य वचनका त्याग है, तो भी सत्यवचन में प्रवृत्ति है । और अचौर्यमहाव्रत में यद्यपि नहीं दिये हुए पदार्थके ग्रहण करनेका त्याग है, तो भी दिये हुए पदार्थ के ग्रहण करने में प्रवृत्ति है । इत्यादि एकदेशप्रवृत्तिकी अपेक्षासे ये पाँचों महाव्रत देशव्रत है । इन एकदेशरूप व्रतोंका मन, वचन और कायकी गुप्ति स्वरूप जो विकल्परहित ध्यान है उसके समय में त्याग है । और समस्त शुभ तथा अशुभकी निवृत्तिरूप जो निश्चयव्रत है उसका त्याग नहीं है । प्रश्न- त्याग इस शब्दका क्या अर्थ है ? उत्तर - जैसे हिंसा आदि रूप पाँच अव्रतों में रहितपना है उसी प्रकार जो अहिंसा आदि पंचमहाव्रतरूप एकदेश व्रत हैं उनमें रहितपना है यही यहाँ त्याग शब्दका अर्थ है । इन एकदेशव्रतोंका त्याग किस कारणसे होता है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि, मन वचन और काय इन तीनों की गुप्तिरूप जो अवस्था है; उसमें प्रवृत्ति तथा निवृत्तिरूप जो विकल्प है; उसका स्वयं ही अवकाश नहीं है, अर्थात् मन, वचन और कायकी गुप्तिरूप ध्यान में कोई प्रकारका भी विकल्प नहीं होता और अहिंसादि महाव्रत विकल्परूप हैं इसलिये वे त्रिगुप्तिरूप ध्यान में नहीं रह सकते हैं । और जो दीक्षाके पश्चात् दो घटिका (घडी) प्रमाणकाल में ही श्रीभरतचक्रवर्ती मोक्ष पधारे हैं उन्होंने भी जिनदीक्षाको ग्रहण करके, क्षणमात्र ( थोड़े समयतक ) विषय और कषायोंकी रहिततारूप जो व्रतका परिणाम है उसको करके तत्पश्चात् शुद्धोपयोगरूप जो रत्नत्रय उस स्वरूप जो निश्चयव्रत नामका धारक और वीतरागसामायिक नामका धारक निर्विकल्प ध्यान है उसमें स्थित होकर केवलज्ञानको प्राप्त हुए हैं । परन्तु श्रीभरतजीके जो थोड़े समय व्रतपरिणाम रहा इस कारण लोग श्रीभरतजीके व्रतपरिणामको नहीं जानते हैं । अब उसी श्रीभरतजीकी Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ श्रीमद्राजचन्द्रजैन शास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार ज्ञानं जातमिति श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थकर परमदेवसमवसरणमध्ये श्रेणिकमहाराजेन पृष्टे सति गौतमस्वामी आह । " पञ्चमुष्टिभिरुत्पाद्य त्रोटयन् बन्धस्थितीन् कचान् । लोचानन्तरमेवापद्राजन् श्रेणिक केवलम् । १।" अत्राह शिष्यः । अद्य काले ध्यानं नास्ति । कस्मादिति चेत् — उत्तमसंहननाभावाद्दशचतुर्दशपूर्वगतश्रुतज्ञानाभावाच्च । अत्र परिहारः । शुक्लध्यानं नास्ति धर्मध्यानमस्तीति । तथा चोक्तं मोक्षप्राभृते श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवैः "भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ णाणिस्स । तं अप्पसहावठिए हुमण्णइ सो दुअण्णाणी । १ । अज्जवि तियरणसुद्धा अप्पा ज्झाऊण लहइ इंदत्तं । लोयंतियदेवत्तं तत्थचुदा निब्बुद जंति । २ ।” तथैव तत्त्वानुशासनग्रन्थे चोक्तं "अत्रेदानों निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणीभ्यां प्राग्विवत्तनाम् । १।" यथोक्तमुत्तमसंहननाभावात्तदुत्सर्ग वचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनरुपशमक्षपकश्रेण्योः शुक्लध्यानं भवति, तच्चोत्तमसंहननेनैव । अपूर्वगुणस्थानादधस्तनेषु गुणस्थानेषु धर्मध्यानं, तच्चादिमत्रिकोत्तमसंहननाभावेऽप्यन्तिमत्रिसंहननेनापि भवति । तदप्युक्तं तत्रैव तत्त्वानुशासने “यत्पुनर्वज्रकायस्य ध्यानमित्यागमे वचः । दीक्षा के विधानका कथन करते हैं । श्री वीर वर्द्धमानस्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में श्रेणिकमहाराजने प्रश्न किया कि 'हे भगवन् ! श्रीभरतचक्रवर्तीके जिनदीक्षाको ग्रहण करने के पीछे कितने कालमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ?' इस पर श्रीगौतमस्वामी गणधरदेवने उत्तर दिया कि "हे श्रेणिक राजन् ! बंधके कारणभूत जो केश (बाल) हैं उनको पाँच मुष्टियोंसे उखाड़कर तोड़ते हुए ही अर्थात् पंचमुष्टी लोच करने के अनन्तर ही श्रीभरतचक्रवर्ती केवलज्ञानको प्राप्त हुए |१| " अब यहाँ पर शिष्य कहता है कि, भो गुरो ! इस पंचम कालमें ध्यान नहीं है । क्यों नहीं है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि इस कालमें उत्तमसंहननका अर्थात् वज्र, वृषभ और नाराच संहननोंका अभाव है और दश तथा चौदहपूर्वपर्यन्त श्रुतज्ञानका अभाव है । अब आचार्य महाराज इस शिष्यकी शंका को दूर करते हैं कि, हे शिष्य ! इस समय में शुक्लध्यान नहीं है परन्तु धर्मध्यान तो है ही । सो ही श्रीकुन्दकुन्द आचार्यस्वामी मोक्षप्राभृत ( मोक्षपाहुड ) में कहते हैं कि, "भरतक्षेत्रमें जो दुःषमा अर्थात् पंचमकाल है उसमें ज्ञानी जीवके धर्मध्यान होता है । उसको जो कोई आत्माके स्वभाव में स्थित नहीं मानता है वह अज्ञानी है । १ । क्योंकि इस समय भी जो सम्यग् - दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रय है उससे शुद्ध हुए जीव आत्माका ध्यान करके इन्द्रपनेको अथवा लौकान्तिकदेवपनेको प्राप्त होते हैं । और वहाँसे चयकर नरपर्यायको ग्रहण करके उसी भवमें मोक्षको जाते हैं । २।" और इसीप्रकार तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थ में भी कहा है कि, “इस समय ( पंचमकाल ) में श्रीजिनेन्द्रदेव शुक्लध्यानका निषेध करते हैं; अर्थात् इससमय में शुक्लध्यान नहीं होता ऐसा उपदेश देते हैं; और उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी इन दोनों श्रेणियों से पहिले रहनेवाले जीवोंके धर्मध्यान होता है ऐसा कथन करते हैं । १ ।" और हे शिष्य ! तुमने जो यह कहा कि 'इस कालमें उत्तमसंहननका अभाव है इस कारण ध्यान नहीं होता' सो यह उत्सर्गवचन है । अपवादरूप व्याख्यानसे तो उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी में शुक्लध्यान होता है और वह उत्तमसंहननसे ही होता है । और अपूर्वकरण नामक ८ वे गुणस्थानसे नीचे जो गुणस्थान हैं उनमें धर्मध्यान होता है । और वह धर्मध्यान वज्र १, वृषभ २, नाराच ३, इन आदिके तीन उत्तम संहननोंका अभाव होनेपर अन्तके जो अर्धनाराच १, कीलक २, और स्फाटिक नामक तीन संहनन हैं उनसे भी होता है । यह विषय भी उसी तत्त्वानुशासन नामक ग्रन्थमें कहा है कि, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १८३ श्रेयोर्थ्यानं प्रतीत्योक्तं तन्नोऽधस्तानिषेधकम् । १।" यथोक्तं दशचतुर्दश पूर्वं गतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम् । अपवादव्याख्यानेन पुनः पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादक सारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति केवलज्ञानञ्च । यद्येवमपवादव्याख्यानं नास्ति तहि "तुसमासं घोसन्तो सिवभूदी केवली जादो" इत्यादिगन्धर्वाराधनादिभणितं व्याख्यानं कथं घटते ? अथ मतं - पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकं द्रव्यश्रुतमिति जानाति । इदं भावश्रुतं पुनः सर्वमस्ति । नैवं वक्तव्यम् । यदि पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकं द्रव्यश्रुतं जानाति तहि 'मा रूसह मा तूसह ' इत्येकं पदं किं न जानाति । तत एव ज्ञायतेऽष्टप्रवचनमातृप्रमाणमेव भावश्रुतं द्रव्यश्रुतं पुनः किमपि नास्ति । इदन्तु व्याख्यानमस्माभिर्न कल्पितमेव । तच्चारित्रसारादिग्रन्थेष्वपि भणितमास्ते । तथाहि - अन्तर्मुहूर्त्ता दूध्वं ये केवलज्ञानमुत्पादयन्ति ते क्षीणकषायगुणस्थानवत्तनो निर्ग्रन्थसंज्ञा ऋषयो भण्यन्ते । तेषां चोत्कर्षेण चतुर्दशपूर्वादिश्रुतं भवति, जघन्येन पुनः पञ्चसमिति त्रिगुप्ति मात्रमेवेति । अथ मतं - मोक्षार्थं ध्यानं क्रियते न चाद्य काले मोक्षोऽस्ति; ध्यानेन कि प्रयोजनम् ? नैवं- - अद्य कालेऽपि परम्परया मोक्षोऽस्ति । कथमिति चेत्, स्वशुद्धात्मभावनाबलेन संसारस्थिति 1 "और जो वज्र काय ( संहनन ) के धारकके ध्यान होता है ऐसा आगममें वचन है वह उपशम तथा क्षपक श्रेणी के ध्यानको प्रतीतिगोचर करके कहा है; इस कारण यह वचन नीचेके गुणस्थानों में धर्मध्यानका निषेध करनेवाला नहीं है ।" तथा जो ऐसा कहा है कि 'दश तथा चौदह पूर्व - गत श्रुतज्ञानसे ध्यान होता है' वह भी उत्सर्गका वचन है । और अपवादके व्याख्यानसे तो पाँच समिति और तीन गुप्तिको प्रतिपादन करनेवाला सारभूत श्रुतज्ञान है उससे भी ध्यान और केवलज्ञान होता है । यदि ऐसा अपवाद व्याख्यान न हो तो " तुषमाषका उच्चारण ( अभ्यास ) करते हुए श्रीशिवभति मुनि केवलज्ञानी हो गये" इत्यादि गंधर्वाराधनादि ग्रन्थों में कहा हुआ कथन कैसे सिद्ध होवे ? अब कदाचित् ऐसा मत हो कि, शिवभूतिमुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियोंको प्रतिपादन करनेवाले द्रव्यश्रुत (शास्त्र) को जानते थे और यह भावश्रुत उनके संपूर्ण रूपसे था सो ठीक नहीं । क्योंकि, यदि शिवभूतिमुनि पाँच समिति और तीन गुप्तियोंका कथन करनेवाले द्रव्यश्रुत (शास्त्र) को जानते थे तो उन्होंने " मा तूसह मा रूसह " अर्थात् किसीमें राग और द्वेष मत कर इस एक पदको क्यों नहीं जाना ? इसी कारणसे जाना जाता है कि पाँच समिति और तीन गुप्तियों रूप जो आठ प्रवचन मातायें हैं उन प्रमाण ही उनके भावश्रुत था और द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं था । और यह व्याख्यान हमने ही नहीं कल्पित किया है; किन्तु 'चारित्रसार' आदि शास्त्रों में भी यह वर्णन किया हुआ है । सो ही दिखलाते हैं - अन्तर्मुहूर्त्तके पीछे जो केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं वे क्षीणकषाय नामक १२ वें गुणस्थान में रहने वाले निर्ग्रन्थ संज्ञाके धारक ऋषि कहलाते हैं, और उनके उत्कृष्टतासे ग्यारह अंग चौदह पूर्वपर्यन्त श्रुतज्ञान होता है, और जघन्यरीति से पाँच समिति तथा तीन गुप्तियों जितना ही श्रुतज्ञान होता है । अब कदाचित् तुम्हारा यह मत हो कि, मोक्षके लिये ध्यान किया जाता है और मोक्ष इस पंचमकालमें होता नहीं है इस कारण ध्यानके करनेसे क्या प्रयोजन है ? सो यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं। क्योंकि, इस पंचमकालमें भी परम्परासे मोक्ष है । परम्परासे मोक्ष कैसे है ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि ध्यानी पुरुष निजशुद्ध आत्माकी भावनाके बलसे संसारकी स्थितिको Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार स्तोकां कृत्वा देवलोकं गच्छति, तस्मादागत्य मनुष्यभवे रत्नत्रयभावनां लब्ध्वा शीघ्रं मोक्षं गच्छतीति । येऽपि भरतसगररामपाण्डवादयो मोक्षं गतास्तेपि पूर्वभवेऽभेदरत्नत्रयभावनया संसारस्थिति स्तोकां कृत्वा पश्चान्मोक्षं गताः । तद्भवे सर्वेषां मोक्षो भवतीति नियमो नास्ति । एवमुक्तप्रकारेण अल्पश्रुतेनापि ध्यानं भवतीति ज्ञात्वा किं कर्त्तव्यम् - " वधबन्धच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः । आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः । १ । संकल्पकल्पतरुसंश्रयणात्त्वदीयं चेतो निमज्जति मनोरथसागरेऽस्मिन् । तत्रार्थतस्तव चकास्ति न किं च नापि पक्षे परं भवति कल्मषसंश्रयस्य । २ । दौविध्यदग्धमनसोऽन्तरुपात्तभुक्तेश्चित्तं यथोल्लसति ते स्फुरितोत्तरङ्गम् । धाम्नि स्फुरेद्यदि तथा परमात्मसंज्ञे कौतस्कुती तव भवेद्विफला प्रसूतिः । ३ । कंखिद कलुसिदभूती कामभोगेहि मुच्छिदो जीवो। ण य भुंजतो भोगे बन्धदि भावेण कम्माणि । ४ ।" इत्याद्यपध्यानं त्यक्त्वा - " मत परिवज्जामि णिममत्तिमुवट्टिदो । आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे । १ । आदा क्खु सज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरिते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे । २ । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सब्बे संजोयलक्खणा । ३ ।" इत्यादिसारपदानि गृहीत्वा च ध्यानं कर्त्तव्यमिति । अल्प करके अर्थात् बहुत से कर्मोंकी निर्जरा करके स्वर्ग में जाता है । और वहाँसे मनुष्यभवमें आकर रत्नत्रयकी भावनाको प्राप्त होकर शीघ्र ही मोक्षको चला जाता है और जो भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचंद्रजी तथा पांडव अर्थात् युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम आदि मोक्षको गये हैं; उन्होंने भी पूर्वभवमें अभेदरत्नत्रयकी भावना से अपने संसारकी स्थितिको घटा ली थी; इस कारण इस भवमें मोक्ष गये । उसी भवमें सबके मोक्ष हो जाता है ऐसा नियम नहीं है । ऐसे कहे हुए प्रकारसे अल्पश्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है। यह जानकर क्या करना चाहिये ? " द्व ेषसे वध ( मारना) बन्ध (बाँधना ) छेद (किसी अंगको काटना) आदिका और रागसे परस्त्री आदिका जो चितवन करना है; उसको जिनमत में निर्मल बुद्धिके धारक आचार्य अपध्यान (बुरा ध्यान) कहते हैं । १ । हे जीव ! संकल्परूपी कल्पवृक्षका आश्रय करनेसे तेरा चित्त इस मनोरथ सागरमें डूब जाता है; और उस संकल्परूपी कल्पवृक्षका आश्रय करनेमें यद्यपि इष्टपदार्थका अनुभव होता है परन्तु परमार्थसे तुझको कुछ भी नहीं भासता है; केवल निश्चयसे तू पापका भागी होता है । २ । निर्धनतासे दग्ध है मन जिसका ऐसा और संकल्पसे ग्रहण किया है भोजन जिसने ऐसा तेरा उत्कट मनोरथोंका धारक चित्त जैसे भोजनको लेनेके लिये प्रवृत्त होता है; वैसे ही यदि तू परमात्मा नामके धारक तेज में वा स्थानमें चित्तको करे तो तेरा जन्म कैसे निष्फल हो अर्थात् तेरा जन्म लेना सफल हो जावे । ३ । कषायों से मलीन हुआ और कामभोगों में मूच्छित हुआ यह जीव कामभोगोंकी इच्छा करता है, और भोगोंको भोगता नहीं है तो भी भावोंसे कर्मोंको बाँधता है । ४ ।" इत्यादि रूप जो दुर्ध्यान है उसको छोड़कर और “निर्ममत्त्व में स्थित होकर परपदार्थोंमें जो ममकार (मेरी) वुद्धि है उसका मैं त्याग करता हूँ; और मेरे आत्मा ही आलंबन (ध्यानका आधार ) है; अन्य सबको में त्यागता हूँ किंवा भूलता हूँ । १ । मेरे आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संवरका कारण है और आत्मा ही योग है । २ । मेरा ज्ञान-दर्शनरूप लक्षणका धारक एक आत्मा ही अविनाशी है, और बाकी सब संयोगरूप लक्षणके धारक बाह्यभाव हैं उनका वियोग अवश्य होगा | ३ |" इत्यादि सारभूत पदों को ग्रहण करके ध्यान करना चाहिये । 1 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १८५ अथ मोक्षविषये पुनरपि नयविचारः कथ्यते। तथाहि मोक्षस्तावत् बन्धपूर्वकः ॥ तथाचोक्तं"मुक्तश्चेत् प्राकभवेद्बन्धो नो बन्धो मोचनं कथम् । अबन्धे मोचनं नैव मुञ्चेरों निरर्थकः । १।" बन्धश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति। तथा बन्धपूर्वको मोक्षोऽपि । यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बन्धो भवति तदा सर्वदैव बन्ध एव मोक्षो नास्ति । किञ्च-यथा शृङ्खलाबद्धपुरुषस्य बन्धच्छेदकारणभावमोक्षस्थानीयं बन्धच्छेदकारणभूतं 'पौरुष' पुरुषस्वरूपं न भवति, तथैव शृङ्खलापुरुषयोर्यद्रव्यमोक्षस्थानीयं पृथक्करणं तदपि पुरुषस्वरूपं न भवति । किन्तु ताभ्यां भिन्नं यदृष्टं हस्तपादादिरूपं तदेव पुरुषस्वरूपम् । तथैव शुद्धोपयोगलक्षणं भावमोक्षस्वरूपं शुद्धनिश्चयेन जीवस्वरूपं न भवति, तथैव तेन साध्यं यज्जीवकर्मप्रदेशयोः पृथक्करणं द्रव्यमोक्षरूपं तदपि जीवस्वभावो न भवति । किन्तु ताभ्यां भिन्नं यदनन्तज्ञानादिगुणस्वभावं फलभूतं तदेव शुद्धजीवस्वरूपमिति । अयमत्रार्थः-यथा विवक्षितैक देशशुद्धनिश्चयेन पूर्व मोक्षमार्गों व्याख्यातस्तथा पर्यायमोक्षरूपो मोक्षोऽपि। न च शद्धनिश्चयनयेनेति । यस्तु शुद्धद्रव्यशक्तिरूपः शुद्ध पारिणामिकपरमभावलक्षणपरमनिश्चयमोक्षः स च पूर्वमेव जीवे तिष्ठतीदानों भविष्यतीत्येवं न। स एव रागादिविकल्परहिते मोक्षकारणभते ध्यानभावनापर्याये ध्येयो भवति । न च ध्यानभावनापर्यायरूपः। यदि पुनरे ___ अब मोक्षके विषयमें फिर भी नयोंके विचारका कथन करते हैं। सो ही दिखलाते हैं कि, मोक्ष जो है वह बन्धपूर्वक है अर्थात् जिसके पहले बंध होता है उसीके मोक्ष होता है । सो ही कहा है कि, 'यदि यह जीव मुक्त है तो पहले इस जीवके बंध अवश्य होना चाहिये। यदि कहो कि जीवके पहले बन्ध नहीं था तो जीवके मोचन (छूटना) कैसे हुआ ? क्योंकि विना बंधे हुए जीवके मोचन नहीं हो सकता। इसलिये बंधको नहीं प्राप्त हुए जीवके माननेमें मुश्च धातुका जो छूटनेरूप अर्थ है वह व्यर्थ होता है ॥' भावार्थ-जैसे कोई पुरुष पहले बंधा हुआ हो और फिर छूटे तब वह मुक्त कहलाता है । इसीप्रकार जो जीव पहले कर्मोंसे बँधा हुआ होता है उसीका मोक्ष होता है। और यह बन्ध शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे नहीं है। तथा बन्धपूर्वक मोक्ष भी शुद्धनिश्चयनयसे नहीं है । और यदि शुद्ध-निश्चयनयसे बन्ध होवे तो सदा ही इस आत्माके बन्ध रहे, मोक्ष होवे ही नहीं। जैसे शृंखला (सांकल वा जंजीर) से बँधे हुए पुरुषके, बंधके नाशका कारणभूत जो भावमोक्ष है उसके स्थानवाला जो शृंखलाके बंधको छेदनेका कारणभूत पौरुष ( उद्यम ) है वह पुरुषका स्वरूप नहीं है । और इसी प्रकार द्रव्यमोक्षके स्थान में प्राप्त ( एवजमें आया हुआ) जो शृङ्खला और पुरुष इन दोनोंका जुदा करना है वह भी पुरुषका स्वरूप नहीं है; किंतु उन पौरुष और पृथक्करणसे जुदा जो देखा हुआ हस्त पाद आदि रूप आकार है; वही पुरुषका स्वरूप है। उसीप्रकार शुद्धोपयोगलक्षण जो भावमोक्षका स्वरूप है; वह शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे जीवका स्वरूप नहीं है। और उसी प्रकार उस भावमोक्षसे साध्य जो जीव और कर्मके प्रदेशोंको जुदा करने रूप द्रव्यमोक्षका स्वरूप है; वह भी जीवका स्वभाव नहीं है। किन्तु उन भावमोक्ष और द्रव्यमोक्षसे भिन्न जो फलभूत ज्ञान आदि गुणरूप स्वभाव है; वही शुद्ध जीवका स्वरूप है। यहाँ पर भावार्थ यह है कि, जैसे विवक्षित-एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे पहिले मोक्षमार्गका व्याख्यान किया है; उसीप्रकार पर्यायमोक्षरूप जो मोक्ष है उसका कथन भी विवक्षित एकदेशशुद्धनिश्चयनयसे ही जानना चाहिये, और शुद्धनिश्चयनयसे नहीं। और जो शुद्ध-द्रव्यकी शक्तिरूप शुद्धपारिणामिक परमभावरूप लक्षणका धारक परमनिश्चयमोक्ष है वह तो जीवमें पहले ही विद्यमान है। वह परमनिश्चयमोक्ष जीवमें अब होगा ऐसा नहीं है । तथा राग आदि विकल्पोंसे रहित १४ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीय अधिकार कान्तेन द्रव्याथिकनयेनापि स एव मोक्षकारणभूतो ध्यानभावना पर्यायो भण्यते तहि द्रव्यपर्यायरूपधर्मद्वयाधारभूतस्य जीवमिणो मोक्षपर्याये जाते सति यथा ध्यानभावनापर्यायरूपेण विनाशो भवति, तथा ध्येयभूतस्य जीवस्य शुद्धपारिणामिकलक्षणभावद्रव्यरूपेणापि विनाशः प्राप्नोति । न च द्रव्यरूपेण विनाशोऽस्ति। ततः स्थितं शुद्धपारिणामिकभावेन बन्धमोक्षौ न भवत इति । ___ अथात्मशब्दार्थः कथ्यते । अतधातुः सातत्यगमनेऽर्थे वर्तते। गमनशब्देनात्र ज्ञान भण्यते 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति वचनात् । तेन कारणेन यथासंभवं ज्ञानसुखादिगुणेषु आसमन्तात् अतति वर्तते यः स आत्मा भण्यते । अथवा शुभाशुभमनोवचनकायव्यापारैर्यथासम्भवं तीवमन्दादिरूपेण आसमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। अथवा उत्पादव्ययध्रौव्यैरासमन्तादतति वर्तते यः स आत्मा। किञ्च-यथैकोऽपि चन्द्रमा नानाजलघटेषु दृश्यते तथैकोऽपि जीवो नानाशरीरेषु तिष्ठतीति वदन्ति तत्तु न घटते। कस्मादिति चेत्-चन्द्रकिरणोपाधिवशेन घटस्थजलपुद्गला एव नानाचन्द्राकारेण परिणता, नचैकश्चन्द्रः। तत्र दृष्टान्तमाह-यथा देवदत्तमुखोपाधिवशेन नानादर्पणस्थपुद्गला एव नानामुखाकारेण परिणता, न चैक देवदत्तमुखं नानारूपेण परिणतम् । परिणमतीति चेत्-तहि दर्पणस्थप्रतिबिम्बं चैतन्यं प्राप्नोतीति । न च तथा। किन्तु यद्येक एव मोक्षका कारणभूत जो ध्यानभावनापर्याय है उसमें वही मोक्ष ध्येय होता है । और ध्यान भावनापर्यायरूप ध्येय नहीं है। और यदि एकान्त करके द्रव्याथिकनयसे भी वही मोक्षकारणभूत ध्यानभावना पर्याय कहा जावे तो; द्रव्य और पर्यायरूप दो धर्मोंका आधार जो जीवधर्मी है; उसके मोक्षपर्याय प्रकट होने पर जैसे ध्यानभावनापर्यायरूपसे विनाश होता है। उसी प्रकार ध्येयभूत जो जीव हैं उसका शुद्धपारिणामिकलक्षणभावद्रव्यरूपसे भी विनाश प्राप्त होता है। और द्रव्यरूपसे विनाश है नहीं। इस कारण शुद्धपारिणामिकभावसे जीवके बन्ध और मोक्ष नहीं होता है; यह कथन सिद्ध हो गया। अब आत्मा शब्दका अर्थ कहते हैं। अत धातु निरन्तर गमन करने रूप अर्थमें वर्त्तता है और 'सब गमनरूप अर्थके धारक धातु ज्ञान अर्थके धारक हैं' इस वचनसे यहाँ पर गमन शब्द करके ज्ञान कहा जाता है। इस कारण जो यथासम्भव ज्ञान सुख आदि गुणोंमें पूर्णरूपसे वर्त्तता है वह आत्मा है। अथवा शुभ-अशुभ रूप जो मन वचन कायके व्यापार हैं उनकरके यथासंभव तीव्र मन्द आदि रूपसे जो पूर्ण रूपसे वर्त्तता है वह आत्मा कहलाता है। अथवा उत्पाद व्यय और ध्रौव्य इन तीनोंकरके जो पूर्णरूपसे वर्तता है उसको आत्मा कहते हैं। और कितने ही ऐसा कहते हैं कि, जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलके भरे हुए घटोंमें देखा जाता है इसी प्रकार एक ही जीव अनेकशरीरों में रहता है सो यह उनका कथन घटता नहीं। क्यों नहीं घटता ? ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि जलके घटोंमें चन्द्रमाकी किरणरूप उपाधिके वशसे घटमें विद्यमान जो जलके पुद्गल हैं वे ही अनेक प्रकारके चन्द्रमारूप आकारों में परिणत हए हैं और एक चन्द्रमा जो है वह अनेकरूप नहीं परिणमा है । इस विषयमें दृष्टान्त कहते हैं कि जैसे-देवदत्तके मुखरूप उपाधिके वशसे अनेक दर्पणोंमें स्थित जो पुद्गल हैं वे ही अनेकमुखरूप परिणमते हैं और एक देवदत्तका मुख अनेकरूप नहीं परिणमता है। यदि कहो कि, देवदत्तका मुख ही अनेक मुखरूप परिणमता है तो दर्पण स्थित जो देवदत्तके मुखका प्रतिबिम्ब है वह चेतनाको प्राप्त होवें; परन्तु ऐसा नहीं अर्थात् दर्पणमें जो मुखका प्रतिबिम्ब है वह चेतन नहीं है। और भी विशेष यह है कि यदि अनेक Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १८७ जीवो भवति, तदैकजीवस्य सुखदुःखजीवितमरणादिके प्राप्ते तस्मिन्नेव क्षणे सर्वेषां जीवितमरणादिकं प्राप्नोति न च तथा दृश्यते । अथवा ये वदन्ति यथैकोऽपि समुद्रः क्वापि क्षारजलः क्वापि मिष्टजलस्तथैकोऽपि जीवः सर्वदेहेषु तिष्ठतीति । तदपि न घटते । कथमिति चेत् - जलराश्यपेक्षया तत्रैकत्वं न च जलपुद्गलापेक्षया तत्रैकत्वम् । यदि जलपुद्गलापेक्षया भवत्येकत्वं तर्हि स्तोकजले गृहीते शेषजलं सहैव किन्नायाति । ततः स्थितं षोडशवणिकासुवर्ण राशिवदनन्तज्ञानादिलक्षणं प्रत्येकं जीवराशि प्रति न चैकजीवापेक्षयेति । अध्यात्मशब्दस्यार्थः कथ्यते । मिथ्यात्व रागादिसमस्त विकल्पजालरूपपरिहारेण स्वशुद्धात्मन्यधि यदनुष्ठानन्तदध्यात्ममिति । एवं ध्यानसामग्रीव्याख्यानोपसंहाररूपेण गाथा गता ॥५७॥ अथौद्धत्यपरिहारं कथयति ; दव्वसंग मिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा । सोधयंतु तणुसूतधरेण णेमिचन्दमुणिणा भणियं जं ॥ ५८ ॥ द्रव्यसंग्रहं इमं मुनिनाथाः दोषसंचयच्युताः श्रुतपूर्णाः । शोधयन्तु 'तनुश्रुतधरेण नेमिचन्द्रमुनिना भणितं यत् ॥५८॥ व्याख्या - "सोधयंतु " शुद्धं कुर्वन्तु । के कर्त्तारः ? " मुणिणाहा" मुनिनाथा मुनिप्रधानाः । कि विशिष्टा: ? " दोससंचयचुदा" निर्दोषपरमात्मनो विलक्षणा ये रागादिदोषास्तथैव च निर्दोष शरीरोंमें एक ही जीव हो तो जब एक जीवको सुख, दुःख जीवित और मरण आदि प्राप्त होवें तब उसी क्षण में सत्र जीवोंको सुख, दुःख, जीवित और मरण आदि प्राप्त होवें और ऐसा देखने में नहीं आता है। अथवा जो ऐसा कहते हैं कि, जैसे एक ही समुद्र कहीं तो खारे जलवाला है, कहीं मीठे जलका धारक है, उसी प्रकार एक ही जीव सब देहों में विद्यमान है' सो यह कहना भी घटित नहीं होता । क्यों नहीं घटता ? यह पूछो तो उत्तर यह है कि, समुद्र में जलराशिकी अपेक्षासे एकता है और जलके पुद्गलों की अपेक्षासे एकता नहीं है । यदि जलपुद्गलों की अपेक्षासे एकता होती है तो समुद्रमेंसे अल्प (थोड़ा ) जल ग्रहण करनेपर शेष (बचा हुआ ) जो जल है वह भी साथ ही क्यों नहीं आ जाता है ? इसकारण सोलह वानीके सुवर्णकी राशिके समान अनन्तज्ञान आदि लक्षणों के प्रति जीवराशिमें एकता है और एक जीवकी अपेक्षासे जीवराशिमें एकता नहीं है । अव अध्यात्म शब्दका अर्थ कहते हैं । मिथ्यात्व, राग आदि जो समस्त विकल्पोंके समूह हैं उनका त्याग करके जो निज शुद्ध आत्मामें अनुष्ठान ( प्रवृत्तिका करना ) है उसको अध्यात्म कहते हैं । इसप्रकार ध्यानकी सामग्री के व्याख्यानके उपसंहाररूपसे यह गाथा समाप्त हुई ||१७|| अब ग्रंथकार अपने औद्धत्य (अभिमान) को दूर करनेके लिये अग्रिम छन्द कहकर शास्त्रको समाप्त करते हैं; काव्यभावार्थ - अल्पज्ञानके धारक मुझ ( नेमिचन्द्र मुनि ) ने जो यह द्रव्यसंग्रह कहा है इसको दोष रहित और ज्ञानसे परिपूर्ण ऐसे आचार्य शुद्ध करे || ५८ ॥ व्याख्यार्थ - " सोधयंतु " शुद्ध करें, शुद्ध करनेवाले कौन हैं ? " मुणिणाहा " मुनियोंमें १. पाठान्तर - तनुसूत्रधरेण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार परमात्मादितत्त्वपरिज्ञानविषये संशयविमोहविभ्रमास्तंश्च्युता रहिता दोषसंचयच्युताः । पुनरपि कथम्भूताः ? "सुदपुण्णा" वर्तमानपरमागमाभिधानद्रव्यश्रुतेन तथैव तदाधारोत्पन्ननिविकारस्वसम्वेदनज्ञानरूपभावश्रुतेन च पूर्णाः समग्राः श्रुतपूर्णाः । कं शोधयन्तु ? "दव्वसंगहमिणं” शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मादिद्रव्याणां संग्रहो द्रव्यसंग्रहस्तं द्रव्यसंग्रहाभिधानं ग्रन्थमिमं प्रत्यक्षीभूतम् । कि विशिष्टं ? " भणियं जं" भणितः प्रतिपादितो यो ग्रन्थः । केन कर्तृभूतेन ? "णेमिचंदमुणिणा" श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवाभिधानेन मुनिना सम्यग्दर्शनादिनिश्चयव्यवहाररूपपञ्चाचा रोपेताचार्येण । कथम्भूतेन ? “तणुसुत्तधरेण" तनुश्रुतधरेण तनुश्रुतं स्तोकं श्रुतं तद्धरतीति तनुश्रुतधरस्तेन । इति क्रियाकारकसम्बन्धः । एवं ध्यानोपसंहारगाथात्रयेण, औद्धत्य परिहारार्थं प्राकृतवृत्तेन च द्वितीयान्तराधिकारे तृतीयं स्थलं गतम् ||५८ || इत्यन्तराधिकारद्वयेन विंशतिगाथाभिर्मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीयोऽधिकारः समाप्तः ||३|| १८८ अत्र ग्रन्थे 'विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति वचनात्पदानां सन्धिनियमो नास्ति, वाक्यानि च स्तोकस्तोकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिङ्गवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमासविशेषणवाक्य समाप्त्यादिदूषणं तथा च शुद्धात्मादितत्त्वप्रतिपादनविषये विस्मृतिदूषणं च विद्वद्भिर्न ग्राह्यमिति । प्रधान अर्थात् आचार्य हैं, कैसे हैं वे आचार्य ? “दोससंचयचुदा" दोषरहित परमात्मासे भिन्न लक्षणके धारक जो राग आदि दोष हैं उनके, तथा निर्दोष परमात्मा आदि तत्त्वोंके जाननेमें जो संशय, विमोह और विभ्रमरूप दोष हैं उनके संचयसे रहित हैं, फिर कैसे हैं ? "सुदपुण्णा" इस समय विद्यमान परमागम ( शास्त्र ) नामक जो द्रव्यश्रुत है उससे तथा उस परमागमके आधारसे उत्पन्न जो निर्विकार-निज आत्माके जाननेरूप भावश्रुत है उससे परिपूर्ण हैं । वे आचार्य किसको शुद्ध करें ? " दव्वसंगहमिणं" शुद्ध-बुद्ध एकस्वभावका धारक जो परमात्मा है उसको आदि ले जो पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और कालरूप छः द्रव्य हैं उनका जिसमें संग्रह है ऐसे इस प्रत्यक्षमें विद्यमान द्रव्यसंग्रह नामक शास्त्रको शुद्ध करें । कैसे द्रव्यसंग्रहको शुद्ध करें ? "भणियं जं" जिस शास्त्रको कहा है । किन कर्त्ताने कहा है ? "णेमिचंद मुणिणा" श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव नामक मुनिने अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि जो निश्चय और व्यवहार भेदसे पाँच प्रकारका आचार है उस आचारसहित आचार्यने । कैसे नेमिचन्द्र आचार्यने ? “तणुसुत्तधरेण" अल्पश्रुतज्ञानके धारकने | इसप्रकार क्रिया और कारकों का संबन्ध है । इस प्रकार ध्यानके उपसंहाररूप तीन गाथाओंसे तथा औद्धत्यके परिहारके लिये एक प्राकृत छन्द से द्वितीय अन्तराधिकार में तृतीय स्थल समाप्त हुआ || ५८ || ऐसे दो अन्तराधिकारों द्वारा बीस गाथाओंसे मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीय अधिकार समाप्त हुआ || ३ || इस ग्रन्थ में 'वक्ताको जहाँ संधि करनेकी इच्छा हो वहाँ संधि होती है' इस नियम के अनुसार पदोंकी सन्धिका नियम नहीं है अर्थात् किसी स्थलमें सन्धि की गई है और किसी स्थल में नहीं । और मन्दबुद्धियोंको सुखसे बोध होनेके लिये वाक्य भी छोटे-छोटे दिये गये हैं । तथा लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सम्बन्ध, समास, विशेषण और वाक्यसमाप्ति आदि दूषण और शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों के प्रतिपादन में विस्मृति (भूलना) आदि रूप जो दूषण इस ग्रन्थ में होवे उनको ज्ञानी पुरुष ग्रहण न करें । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः एवं पूर्वोक्तप्रकारेण "जीवमजीवं दव्वं" इत्यादिसप्तविंशतिगाथाभिः षद्रव्य पञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोऽधिकारः । तदनन्तरं " आसवबन्धण" इत्येकादशगाथाभिः सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा द्वितीयोऽधिकारः । ततः परं " सम्म हसण" इत्यादिविंशतिगाथाभिर्मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीयोऽधिकारः । इत्यधिकारत्रयेनाष्टाधिकपञ्चाशत्सूत्रैः श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवै विरचितस्य द्रव्यसंग्रहाभिधानग्रन्थस्य सम्बन्धिनी - श्रीब्रह्मदेवकृतवृत्तिः समाप्ता ॥ ऐसे पूर्वोक्त प्रकारसे "जीवमजीवं दव्वं" इस गाथाको आदि ले सत्ताईस गाथाओंसे षट्द्रव्य पंचास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथम अधिकार है । इसके पश्चात् "आसवबंधण" इत्यादि एकादश गाथाओं से सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा दूसरा अधिकार है । उसके अनन्तर " सम्मद्दंसण" आदि बीस गाथाओं द्वारा मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तीसरा अधिकार है । इसप्रकार श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित तीन अधिकारोंकी अट्ठावन गाथाओंसे युक्त द्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थकी श्रीब्रह्मदेवकृत (संस्कृत) टीका समाप्त हुई ॥ इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्ति देवविरचित बृहद्रव्य संग्रहस्य संस्कृतटीकायाः पं० श्री जवाहरलालशास्त्रिविरचितो हिन्दीभाषानुवाद समाप्ताः समाप्तोऽयं ग्रन्थः १८९ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ बृहद्रव्यसंग्रह जोवमजीवं दवं जिणवरवसहेण जेण णिद्दिटुं। देविंदविंदवंदं वंदे तं सव्वदा सिरसा ॥१॥ जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई ॥२॥ तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउआणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥३॥ उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा । चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं णेयं ॥ ४ ॥ णाणं अट्टवियप्पं मदिसुदिओही अणाणणाणाणि । मणपज्जवकेवलमवि पच्चक्खपरोक्खभेयं च ॥५॥ अट्ठ चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं गाणं ॥६॥ वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ट णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो ॥ ७ ॥ पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥८॥ ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभंजेदि । आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स ॥ ९ ॥ अणुगुरुदेहपमाणो उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥ १० ।। पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदी विविहथावरेइंदी। विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होति संखादी ॥११॥ समणा असणा या पंचिदिय णिम्मणा परे सव्वे । बादरसुहमेइंदी सव्वे पज्जत्त इदरा य ॥ १२ ॥ मगणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ॥ १३ ॥ णिक्कम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पादवएहि संजुत्ता ॥ १४ ॥ अज्जीवो पुण णेओ पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं । कालो पुग्गल मुत्तो रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा हु ॥ १५ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्रव्यसंग्रह सद्दो बंधो सुहुमो थूलो संठाणभेदतमछाया । उज्जोदादवसहिया पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥ १६ ॥ गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं अच्छंता व सो णेई ।। १७ ॥ ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी। छाया जह पहियाणं गच्छंता व सो धरई ॥ १८ ॥ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं। जेण्हं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ।। १९ ॥ धम्माऽधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो तत्तो परदो अलोगुत्तो ॥ २० ॥ दव्वपरिवरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादीलक्खो वट्टणलक्खो य परमट्ठो ॥ २१ ॥ लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का। रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ २२ ॥ एवं छन्भेयमिदं जीवाजीवप्पभेददो दव्वं । उत्तं कालविजुत्तं णादव्वा पंच अत्थिकाया दु ।। २३ ।। संति जदो तेणेदे अत्थीत्ति भणंति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य ॥ २४ ॥ होंति असंखा जीवे धम्माधम्मे अणंत आयासे । मुत्ते तिविह पदेसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ।। २५ ॥ एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि । बहुदेसो उवयारा तेण य काओ भणंति सव्वण्हु ॥ २६ ॥ जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउदृद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ।। २७ ।। आसव बंधण संवर णिज्जर मोक्खो सपृण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणामो ॥ २८॥ आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विष्णेओ। भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि ।। २९ ।। मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोधादओऽथ विणेया । पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुवस्स ।। ३०॥ णाणावरणादोणं जोरगं जं पुग्गलं समासवदि । दव्वासवो स ओ अणेयभेओ जिणक्खादो ॥ ३१ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ परिशिष्ट १ बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं अण्णोण्णपवेसणं इदरो॥३२॥ पयडिटिदिअणुभागप्पदेसभेदादु चदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ॥ ३३ ॥ चेदणपरिणामो जो कम्मस्सासवणिरोहणे हेदू । सो भावसंवरो खलु दव्वासवरोहणे अण्णो ॥ ३४ ॥ वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य। चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ॥ ३५ ॥ जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण । भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ॥ ३६॥ सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। यो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥ ३७॥ सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खल जीवा। सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ ३८॥ सम्मइंसणणाणं चरणं मुक्खस्स कारणं जाणे । ववहारा णिच्छयदो तत्तियमइओ जिओ अप्पा ॥ ३९ ॥ रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पागं मुइत्तु अण्णदवियम्हि । तम्हा तत्तियमइ होवि हु मुक्खस्स कारणं आदा ।। ४० ।। जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु।। दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्म खु होदि सदि जम्हि ॥ ४१॥ संसयविमोहविन्भमविवज्जियं अप्पपरसरुवस्स। गहणं सम्मण्णाणं सायारमणेयभेयं तु ॥ ४२ ॥ जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं। अविसेसिदण अढे दंसणमिदि भण्णए समए ॥ ४३ ॥ दसणपुव्वं गाणं छदमत्थाणं ण दोण्णि उवउग्गा। जुगवं जम्हा केवलि-णाहे जुगवं तु ते दोवि ॥ ४४ ॥ असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं ॥ ४५ ॥ बहिरभंतर किरियारोहो भवकारणप्पणासढें। णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्तं ॥ ४६ ॥ दुविहं पि मुक्खहेउं ज्झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता जूयं ज्झाणं समन्भसह ॥ ४७॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ लघुद्रव्यसंग्रह (सार्थ) मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्टणि?अढेसु । थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तज्माणप्पसिद्धीए ॥४८॥ पणतीससोलछप्पणचदुदुगमेगं च जवह ज्झाएह। परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण ॥ ४९ ॥ णट्टचदुघाइकम्मो सणसुहणाणवीरियमईओ। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ॥ ५० ॥ णटुट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाणओ दट्ठा। पुरिसायारो अप्पा सिद्धो ज्झाएह लोयसिहरत्थो ॥५१॥ दसणणाणपहाणे वोरियचारित्तवरतवायारे। अप्पं परं च जुंजइ सो आयरिओ मुणी झेओ॥५२॥ जो रयणतयजुत्तो णिच्चं धम्मोवदेसणे हिरदो। सो उवज्झाओ अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥ ५३॥ दसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं । साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ॥ ५४॥ जं किंचिवि चितंतो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लढूणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं ज्झाणं ॥ ५५ ॥ मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं ॥५६ ॥ तवसुदवदवं चेदा झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह ॥ ५७ ॥ दव्वसङ्गहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। सोधयंतु तणुसुत्तधरेण मिचन्दमुणिणा भणियं जं ॥ ५८॥ परिशिष्ट२ लघुद्रव्यसंग्रह (सार्थ) छद्दव पंच अत्थी सत्त वि तच्चाणि णव पयत्था य। भंगुप्पाय-धुवत्ता णिद्दिद्वा जेण सो जिणो जयउ ॥१॥ जिन्होंने छः द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व, नौ पदार्थ और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका निर्देश किया है वे श्री जिनेन्द्रदेव जयवन्त रहें। ____ जीवो पुग्गल धम्माऽधम्मागासो तहेव कालो य।। दव्वाणि कालरहिया पदेश बाहल्लदो अत्थिकाया य ॥२॥ जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छः द्रव्य हैं; कालको छोडकर शेष पाँच द्रव्य बहुप्रदेशी होनेकै कारण अस्तिकाय हैं। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ परिशिष्ट २ जीवाजीवासवबंध संवरो णिज्जरा तहा मोक्खो । तच्चाणि सत्त एदे सपुण्ण-पावा पयत्थाय ॥ ३ ॥ जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं; ये सात तत्त्व पुण्य और पाप सहित नौ पदार्थ हैं । जीवो होइ अमुत्तो सदेहमित्तो भोत्ता सो पुण दुविहो सिद्धो to अमूर्ति, स्वदेह-प्रमाण, सचेतन, कर्त्ता और संसारी; संसारी जीव अनेक प्रकारके हैं । अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं सचेयणा संसारिओ कत्ता । णाणा ॥ ४ ॥ और भोक्ता हैं । जीवके दो भेद हैं- सिद्ध जाण अलंगग्गहणं जीवको रसरहित, अरूपी, गंधरहित, अव्यक्त, चेतनागुणवाला, शब्दरहित, लिङ्गद्वारा अग्राह्य, अनिर्दिष्ट संस्थानवाला जानो । चेयणागुण मसदं । जीवमणिदिट्ठ- संद्वाणं ॥ ५ ॥ वण्ण-रस-गंध-फासा विज्जते जस्स जिणवरुद्दिट्ठा । मुत्तो पुग्गलकाओ पुढवी पहुदी हु सो सोढा ॥ ६ ॥ जिसे वर्ण, रस, गंध, और स्पर्श विद्यमान है उस मूर्तिक पुद्गलकायको पृथ्वी आदि छः प्रकारका श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है । पुढवी जलं च छाया चरिदियविसय कम्म परमाणू । छव्विहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिदेहि ॥ ७ ॥ पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियोंके विषय, कर्मवर्गणा और परमाणु - श्री जिनेन्द्रदेवने पुद्गलद्रव्यके ये छ: प्रकार कहे हैं । गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो ई ॥ ८ ॥ गति में परिणत पुद्गल और जीवको धर्मद्रव्य गमनमें सहकारी है जैसे मछलीको गमनमें जल सहकारी है । गमन नहीं करते हुए पुद्गल और जीवको धर्मंद्रव्य गमन नहीं कराता है । ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण छाया जह पहियाणं गच्छंता णेव ठाण-सहयारी । अवगासदाणजोग्गं स्थितिसहित पुद्गल और जीवको उनकी स्थिति में अधर्मद्रव्य सहकारी है जैसे पथिकों की स्थिति में छाया सहकारी है । गमन करते हुए पुद्गल और जीवको वह अधर्मद्रव्य नहीं ठहराता है । सो धरई ॥ ९ ॥ जीवादीणं वियाण आयासं । जेहं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १० ॥ जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देनेवाला है उसे आकाशद्रव्य जानो । वह लोकाकाश और अलोकाकाश इन भेदोंसे दो प्रकारका है । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ लघुद्रव्यसंग्रह (सार्थ) दव्वपरियट्टजादो जो सो कालो हवेइ ववहारो। लोगागासपएसो एकेक्काणु य परमट्ठो ॥११॥ जो द्रव्योंके परिवर्तनसे उत्पन्न होता है वह व्यवहारकाल है; लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर एकेक कालाणु स्थित है वह परमार्थ ( निश्चय ) काल है। लोयायासपदेसे एक्किक्का जे ठिया हु एक्किका। रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥१२॥ जो लोकाकाशके एकेक प्रदेश पर रत्नराशिकी तरह एकेक कालाणु स्थित है, वह कालाणु असंख्यात द्रव्य है। संखातीदा जीवे धम्माधम्मे अणंत आयासे । ___ संखादासंखादा मुत्ति पदेसाउ संति णो काले ॥ १३ ॥ जीवद्रव्यमें, धर्मद्रव्यमें और अधर्मद्रव्यमें असंख्यात प्रदेश हैं; आकाशद्रव्यमें अनन्त प्रदेश हैं; पुद्गल में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं, कालमें प्रदेश नहीं है अर्थात् कालाणु एक प्रदेशी है। जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं । तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिहं ।। १४ ॥ - जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है उसको सब परमाणुओंको स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो। जीवो णाणी पुग्गलधम्माधम्मायासा तहेव कालो य । __ अज्जीवा जिणभणिओ ण हु मण्णइ जो हु सो मिच्छो ।। १५ ॥ जीव ज्ञानी है; पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल अजीव है; ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है । जो ऐसा नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है। मिच्छत्तं हिंसाई कसाय-जोगा य आसवो बंधो । सकसाई जं जीवो परिगिण्हइ पोग्गलं विविहं ॥ १६ ॥ मिथ्यात्व, हिंसा आदि ( अव्रत ), कषाय और योगोंसे आस्रव होता है, सकषाय जीव विविध प्रकारके पुद्गलोंको ग्रहण करता है वह बन्ध है । मिच्छत्ताईचाओ संवर जिण भणइ णिज्जरादेसे । कम्माण खओ सो पुण अहिलसिओ अणहिलसिओ य ॥ १७ ॥ श्री जिनेन्द्रदेवने मिथ्यात्व आदिके त्यागको संवर कहा है; कर्मोका एकदेश क्षय निर्जर। है और वह दो प्रकार की है-अभिलाषा सहित ( सकाम ) और अभिलाषारहित ( अकाम ) । कम्म बंधणबद्धस्स सन्भूदस्संतरप्पणो। सव्वकम्म विणिमुक्को मोक्खो होइ जिणेडिदो ॥ १८ ॥ कर्मोके बन्धनसे बद्ध सद्भूत ( प्रशस्त ) अन्तरात्माका जो सर्व कर्मोसे ( सम्पूर्ण ) मुक्त होना वह मोक्ष है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ परिशिष्ट २ सादाऽऽउणामगोदाणं पुण्ण तिथयरादी शातावेदनीय, शुभ आयुष्य, शुभ नाम और शुभ गोत्र तथा तीर्थंकरादि पुण्य-प्रकृतियाँ हैं; शेष पाप-प्रकृतियाँ हैं - ऐसा आगममें कहा है । पयडीओ सुहा हवे । अण्णं पावं तु आगमे ॥ १९ ॥ णास णरपज्जाओ उप्पज्जह देवपज्जओ तत्थ । जीवो स एव सव्वस्स भंगुप्पाया धुवा एवं ॥ २० ॥ मनुष्यपर्यायका नाश होता है, देवपर्याय उत्पन्न होता है और जीव वहीका वही रहता है; इस प्रकार सर्वद्रव्यों का उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य होता है । उप्पादपद्धंसा वस्त्थूणं होंति पज्जय-गाएण (णयेण) । Goafer णिच्चा बोधव्वा सव्वजिणवत्ता ॥ २१ ॥ वस्तु उत्पाद और व्यय पर्यायनयसे होता है, द्रव्यदृष्टिसे वस्तु नित्य है ऐसा जानो; श्री सर्वज्ञजिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है । एवं अहिगयसुत्तो सट्ठाणजुदो मणो णिरंभिता । छंडउ रायं रोसं जइ इच्छइ कम्मणो णास (णासं ) ।। २२ ॥ यदि कर्मोंका नाश करना चाहते हो तो तदनुसार सूत्रके ज्ञाता होकर, स्वयं में स्थित रह कर और मनको रोककर राग और द्वेषको छोड़ो । विसएषु पवट्टतं चित्तं धारेतु अप्पणो झायइ अप्पाणेणं जो सो पावेइ खलु जो आत्मा विषयों में प्रवर्तमान मनको रोककर अपने आत्माका आत्मासे ध्यान करता है वह अवश्य सुखको प्राप्त होता है । अप्पा | सेयं ॥ २३ ॥ सम्मं जीवादीया णच्चा सम्मं सुकित्तिदा जहि । मोहगयकेसरीणं णमो णमो ठाण साहूणं ॥ २४ ॥ जीवादको सम्यक्प्रकारसे जानकर जिन्होंने उस जीवादिका यथार्थ वर्णन किया है, जो मोहरूपी हाथी के लिए केसरी सिंहके समान हैं उन साधुओंको हमारा नमस्कार हो ! नमस्कार हो !! सोमच्छलेण रइया पत्त्थ - लक्खणकराउ गाहाओ । भवारणिमित्तं गणिणा सिरिणेमिचंदेण ॥ २५ ॥ श्री सोमश्रेष्ठी निमित्त, भव्य जीवोंके उपकारार्थ श्री नेमिचन्द्र आचार्यदेवने पदार्थोंका लक्षण बतानेवाली ये गाथाएँ रची हैं । १२ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ४७ ४४ ४५ m m १५५ अथ बृहद्रव्यसंग्रहस्य अकारादिक्रमेण गाथासूची गाथा आदिपद पृ. सं. गा. सं. गाथा आदिपद पृ. सं. गा. सं. अज्जीवो पुण णेओ ३९ १५ दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा १८७ ५८ अट्ठ चदु णाण दंसण १४ ६ दुविहं पि मुक्ख,उं अणुगुरुदेहपमाणो १९ १० सणणाणपहाणे अवगासदाणजोग्गं दसणणाणसमग्गं १७३ असुहादो विणिवित्ती १५३ दसणपुव्वं णाणं १४७ आसवदि जेण कम्म धम्माधम्मा कालो आसव बंधण संवर २८ पणतीससोलछप्पण १६२ उवओगो दुवियप्पो १० ४ पयडिट्ठिदिअणुभाग एयपदेसो वि अणू २६ पुग्गलकम्मादीणं एवं छब्भेयमिदं पढविजलतेयवाऊ गडपरिणयाण धम्मो बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणपरिणामो जो बहिरभंतरकिरिया जहकालेण तवेण य ३६ मग्गणगुणठाणेहि य २५ जावदियं आयासं २७ मा चिट्ठह मा जंपह १७६ जीवमजीवं दव्वं मा मुज्झह मा रज्जह जीवादीसहहणं ४१ मिच्छत्ताविरदिपमाद ७० जीवो उवओगमओ २ रयणत्तयं ण वट्टइ जो रयणत्तयजुत्तो १७३ ५३ लोयायासपदेसे जं किंचिवि चितंतो ५५ वण्ण रस पंच गंधा जं सामण्णं गहणं ४३ वदसमिदीगुत्तीओ ठाणजुदाण अधम्मो १८ ववहारा सुहदुक्खं णढचदुधाइकम्मो ५० सद्दो बंधो सुहुमो गट्ठट्ठकम्मदेहो समणा अमणा या णाणावरणादीणं सव्वस्स कम्मणो जो णाणं अट्टवियप्पं सुहअसुहभावजुत्ता १२४ णिक्कम्मा अट्ठगुणा ३२ १४ संति जदो तेणेदे ५३ तदसुदवदवं चेदा १७९ ५७ सम्मदंसणणाणं तिक्काले चदुपाणा ९ ३ संसयविमोहविब्भम १४२ दव्वपरिवट्टरूवो ४७ २१ होति असंखा जीवे १५७ १३० १७५ १४६ १६५ १२१ १२८ इति गाथासूची समाप्ता Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ द्रव्यानुयोग परम गम्भीर और सूक्ष्म है, निर्ग्रन्थप्रवचनका रहस्य है, शुक्लध्यानका अनन्य कारण है । शुक्लध्यानसे केवलज्ञान समुत्पन्न होता है। महाभाग्यसे उस द्रव्यानुयोगकी प्राप्ति होती है । दर्शनमोहका अनुभाग घटनेसे अथवा नष्ट होनेसे, विषयके प्रति उदासीनतासे और महत्पुरुषके चरणकमलकी उपासना के बलसे द्रव्यानुयोग परिणत होता है । ज्यों-ज्यों संयम वर्धमान होता है, त्यों-त्यों द्रव्यानुयोग यथार्थ परिणत होता है । संयमकी वृद्धिका कारण सम्यक्दर्शन की निर्मलता है, उसका कारण भी 'द्रव्यानुयोग' होता है । सामान्यतः द्रव्यानुयोगकी योग्यता पाना दुर्लभ है । आत्मारामपरिणामी, परम वीतरागदृष्टिवान्, परम असंग ऐसे महात्मा पुरुष उसके मुख्य पात्र हैं । हे आर्य ! द्रव्यानुयोगका फल सर्व भावसे विराम पानेरूप संयम है । इस पुरुषके इन वचनोंको तू अपने अंतःकरणमें कभी भी शिथिल मत करना । अधिक क्या ? समाधिका रहस्य यही हैं । सर्व दु:खसे मुक्त होनेका अनन्य उपाय यही है । *** *** *** *** यदि मन शंकाशील हो गया हो तो 'द्रव्यानुयोग' विचारना योग्य है; प्रमादी हो गया हो तो 'चरणकरणानुयोग' विचारना योग्य है; और कषायी हो गया हो तो 'धर्मकथानुयोग' विचारना योग्य है; जड हो गया हो तो 'गणितानुयोग' विचारना योग्य है । - श्रीमद् राजचंद्र Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अंगास द्वारा संचालित श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल (श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला ) के प्रकाशित ग्रन्थोंकी सूची (१) गोम्मटसार जीवकाण्ड - श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकृत मूल गाथाएँ, श्री ब्रह्मचारी पं० खूबचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत संस्कृत छाया तथा नयी हिन्दी टीका युक्त । अबकी बार पंडितजीने धवल, जयधवल, महाधवल और बड़ी संस्कृतटीकाके आधारसे विस्तृत टीका लिखी है । सप्तमावृत्ति । मूल्य - अठ्ठाईस रुपये । (२) गोम्मटसार कर्मकाण्ड - श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत मूल गाथाएँ, पं० मनोहरलालजी शास्त्रीकृत संस्कृत छाया और हिन्दीटीका । पं० खूबचन्दजी द्वारा संशोधित । जैन सिद्धान्त- ग्रन्थ है । षष्ठावृत्ति । मूल्य - अठ्ठाईस रुपये । (३) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा–स्वामिकार्तिकेयकृत मूल गाथाएँ, श्री शुभचन्द्र कृत बडी संस्कृत टीका तथा स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीके प्रधानाध्यापक पं० कैलासचन्द्रजी शास्त्रीकृत हिन्दी टीका । डॉ० आ० ने० उपाध्येकृत अध्ययनपूर्ण अंग्रेजी प्रस्तावना आदि सहित आकर्षक संपादन । पंचमावृत्ति । मूल्य - बावन रुपये । I (४) परमात्मप्रकाश और योगसार - श्री योगीन्दुदेवकृत मूल अपभ्रंश दोहे, श्री ब्रह्मदेवकृत संस्कृत टीका व पं० दौलतरामजीकृत हिन्दी टीका । विस्तृत अंग्रेजी प्रस्तावना और उसके हिन्दीसार सहित । महान् अध्यात्मग्रन्थ | डॉ॰ आ० ने० उपाध्येका अमूल्य सम्पादन । नवीन षष्ठ संस्करण । मूल्य - चालीस रुपये । (५) ज्ञानार्णव - श्री शुभचन्द्राचार्यकृत महान् योगशास्त्र । सुजानगढ निवासी पं० पन्नालालजी बाकलीवालकृत हिन्दी अनुवाद सहित । सप्तमावृत्ति । मूल्य-अठ्ठाईस रुपये । (६) प्रवचनसार - श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित ग्रन्थरत्नपर श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत तत्त्वप्रदीपिका एवं श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीकाएँ तथा पांडे हेमराजजी रचित बालावबोधिनी भाषाटीका । डॉ० आ० ने० उपाध्येकृत अध्ययनपूर्ण अंग्रेजी अनुवाद तथा विशद प्रस्तावना आदि सहित आकर्षक सम्पादन । पंचमावृत्ति । मूल्य - चुमालीस रुपये । (७) बृहद्रव्यसंग्रह - आचार्य नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचित मूल गाथाएँ, संस्कृत छाया, श्री ब्रह्मदेवविनिर्मित संस्कृतवृत्ति और पं० जवाहरलाल शास्त्रीप्रणीत हिन्दीभाषानुवाद । षड्द्रव्यसप्तत्त्वस्वरूपवर्णनात्मक उत्तम ग्रन्थ । सप्तमावृत्ति । मूल्य - अट्ठाईस रुपये । (८) पुरुषार्थसिद्धयुपाय - श्री अमृतचन्द्रसूरिकृत मूल श्लोक | पं० टोडरमल्लजी तथा पं० दौलतरामजीकी टीकाके आधार पर पं० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा लिखित नवीन हिन्दी टीका सहित । श्रावकमुनिधर्मका चित्तस्पर्शी अद्भुत वर्णन । अष्टमावृत्ति । मूल्य-सोलह रुपये । (९) पञ्चास्तिकाय - श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचित अनुपम ग्रन्थराज । श्री अमृतचन्द्राचार्यकृत 'समयव्याख्या' ( तत्त्वप्रदीपिका वृत्ति) एवं श्री जयसेनाचार्यकृत 'तात्पर्यवृत्ति' नामक संस्कृत टीकाओंसे अलंकृत और पांडे हेमराजजी रचित बालावबोधिनी भाषाटीकाके आधारपर पं० पन्नालालजी बाकलीवालकृत प्रचलित हिन्दी अनुवाद सहित । पंचमावृत्ति । मूल्य - चौबीस रुपये । (१०) स्याद्वादमञ्जरी - कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यकृत अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका तथा श्री मल्लिषेणसूरिकृत संस्कृत टीका । श्री जगदीशचन्द्र शास्त्री एम० ए० पी० एच० डी० कृत हिन्दी अनुवाद सहित । न्यायका अपूर्व ग्रन्थ है । बड़ी खोजसे लिखे गये ८ परिशिष्ट हैं। पंचमावृत्ति । मूल्य - चौबीस रुपये । (११) इष्टोपदेश - श्री पूज्यपाद - देवनन्दि आचार्यकृत मूल श्लोक, पंडितप्रवर श्री आशाधरकृत संस्कृतटीका, पं० धन्यकुमारजी जैनदर्शनाचार्य एम० ए० कृत हिन्दीटीका, बैरिस्टर चम्पतरायजीकृत अंग्रेजी टीका तथा विभिन्न विद्वानों द्वारा रचित हिन्दी, मराठी, गुजराती एवं अंग्रेजी पद्यानुवादों सहित आध्यात्मिक रचना । पंचमावृत्ति । मूल्य - सोलह रुपये । (१२) लब्धिसार (क्षपणासारगर्भित ) - श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीरचित करणानुयोग ग्रन्थ । पंडितप्रवर टोडरमल्लजीकृत बड़ी टीका सहित । श्री फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीका अमूल्य सम्पादन । चतुर्थावृत्ति । मूल्य - छप्पन रुपये । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) द्रव्यानुयोगतर्कणा - श्री भोजकविकृत मूल श्लोक तथा व्याकरणाचार्य ठाकुरप्रसादजी शर्माकृत हिन्दी अनुवाद । तृतीयावृत्ति । मूल्य - बत्तीस रुपये । (१४) न्यायावतार - महान् तार्किक आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकरकृत मूल श्लोक व जैनदर्शनाचार्य पं० विजयमूर्ति एम० ए० कृत श्री सिद्धर्षिगणिकी संस्कृतटीकाका हिन्दीभाषानुवाद । न्यायका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है । तृतीयावृत्ति । मूल्य-सोलह रुपये । (१५) प्रशमरतिप्रकरण-आचार्य श्री उमास्वातिविरचित मूल श्लोक, श्री हरिभद्रसूरिकृत संस्कृतटीका और पं० राजकुमारजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित सरल अर्थ सहित वैराग्यका बहुत सुन्दर ग्रन्थ है । द्वितीयावृत्ति । मूल्य - बारह रुपये । (१६) सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र (मोक्षशास्त्र ) - श्री उमास्वातिकृत मूलसूत्र और स्वोपज्ञ भाष्य तथा पं० खूबचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीकृत विस्तृत भाषाटीका । तत्त्वोंका हृदयग्राह्य गम्भीर विश्लेषण । तृतीयावृत्ति । मूल्य - चालीस रुपये । (१७) सप्तभंगीतरंगिणी - श्री विमलदासकृत मूल और पंडित ठाकुरप्रसादजी शर्मा कृत भाषाटीका । न्यायका महत्वपूर्ण ग्रन्थ । चतुर्थावृत्ति । मूल्य - बारह रुपये । (१८) समयसार - आचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित महान् अध्यात्म ग्रन्थ । आत्मख्याति, तात्पर्यवृत्ति, आत्मख्याति भाषावचनिका -इन तीन टीकाओं सहित तथा पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा सम्पादित । चतुर्थावृत्ति । मूल्य - चुमालीस रुपये । (१९) इष्टोपदेश - मात्र अंग्रेजी टीका व पद्यानुवाद । मूल्य-तीन रुपये । (२०) परमात्मप्रकाश - मात्र अंग्रेजी प्रस्तावना व मूल गाथाएँ। मूल्य - पाँच रुपये । (२१) योगसार - मूल गाथाएँ व हिन्दी सार । मूल्य - पचहत्तर पैसे | (२२) कार्तिकेयानुप्रेक्षा - मूल गाथाएँ और अंग्रेजी प्रस्तावना । मूल्य-दो रुपये पचास पैसे । (२३) प्रवचनसार - अंग्रेजी प्रस्तावना, प्राकृत मूल, अंग्रेजी अनुवाद तथा पाठांतर सहित। मूल्य पाँच रुपये । (२४) क्रियाकोष - कवि किशनसिंहकृत हिन्दी काव्यमय रचना । श्रावककी त्रेपन क्रियाओंका सुंदर वर्णन । श्रावकाचारका उत्तम ग्रंथ । डॉ. पं. पन्नालालजी साहित्याचार्यकृत हिन्दी भावार्थ सहित । द्वितीयावृत्ति । मूल्य - उनतालीस रुपये । (२५) तत्त्वसार - श्री देवसेनाचार्यविरचित ध्यानका उत्तम ग्रंथ । श्री कमलकीर्तिकृत संस्कृत टीका; हिन्दी अनुवादक तथा संपादक : पं. हीरालालजी सिद्धांतशास्त्री, साढुमल तथा गुर्जर भाषानुवाद सहित । प्रथम आवृत्ति । मूल्य - बीस रुपये । (२६) अष्टप्राभृत - श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित मूल गाथाओंपर श्री रावजीभाई देसाई द्वारा गुजराती गद्यपद्यात्मक भाषान्तर । द्वितीयावृत्ति । मूल्य-सोलह रुपये । (२७) आत्मानुशासन - श्री गुणभद्राचार्यरचित संस्कृत ग्रंथ पर श्री रावजीभाई देसाई द्वारा लिखित गुजराती भाषामें अर्थ और विवेचन । धर्म और नीतिका एक महत्वपूर्ण ग्रंथ । तृतीयावृत्ति । मूल्य - बीस रुपये । अधिक मूल्यके ग्रन्थ मँगानेवालोंको कमिशन दिया जायेगा। इसके लिये वे हमसे पत्रव्यवहार करें । : प्राप्तिस्थान : १. श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, स्टेशन - अगास; वाया- आणंद; पोस्ट- बोरिया- ३८८१३० (गुजरात) २. श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, ( श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला ) हाथी बिल्डींग, 'ए' ब्लॉक, दूसरी मंजिल, रूम नं. १८, भांगवाडी, ४४८ कालबादेवी रोड, बम्बई- ४००००२ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________