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श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायाम्
[ द्वितीय अधिकार तथा मुक्ति गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति इति चेहि पूर्वकाले बहवोऽपि जीवा मोक्षं गता इदानीं जगतः शन्यत्वं किं न दृश्यते। किञ्चाभव्यानामभव्यसमानभव्यानां च मोक्षो नास्ति कथं शून्यत्वं भविष्यतीति ॥३७॥
एवं संक्षेपेण मोक्षतत्त्वव्याख्यानेनैकसूत्रेण पञ्चमं स्थलं गतम् ।
अत ऊर्ध्व षष्ठस्थले गाथापूर्वार्धन पुण्यपापपदार्थद्वयस्वरूपमुत्तरार्धेन च पुण्यपापप्रकृतिसंख्यां कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति;
सुहअसुहभावजुत्ता पुण्ण पावं हवंति खलु जीवा । सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥३८।। शुभाशुभभावयुक्ताः पुण्यं पापं भवन्ति खलु जीवाः।
सातं शुभायुः नाम गोत्रं पुण्यं पराणि पापं च ॥३८॥ व्याख्या-"पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा" चिदानन्दैकसहजशुद्धस्वभावत्वेन पुण्यपापबन्धमोक्षादिपर्यायरूपविकल्परहिता अपि सन्तानागतानादिकर्मबन्धपर्यायेण पुण्यं पापं च भवन्ति खलु स्फुटं जीवाः । कथंभूताः सन्तः "सुहअसुहभावजुत्ता" "उद्वम मिथ्यात्वविषं भावय दृष्टि च कुरु परां भक्तिम् । भावनमस्काररतो ज्ञाने युक्तो भव सदापि । १ । पञ्चमहाव्रतरक्षा कोपचतुष्कस्य भविष्यत् कालके समय हैं उनसे यद्यपि भविष्यत्कालके समयोंकी राशिमें न्यूनता होती है तथापि उस समयराशिका अंत कदापि नहीं, इसी प्रकार मुक्तिमें जाते हुए जीवोंसे यद्यपि जगत्में जीवराशिकी न्यूनता होती है तथापि उस जीवराशिका अंत नहीं है । यदि ऐसा कहो तो यह शंका भी होती है कि पूर्वकालमें बहुत जीव मोक्षको गये हैं तब इस समय जगत्को शून्यता क्यों नहीं दीख पड़ती ? तो इसपर यह भी उत्तर है कि अभव्य जीव तथा अभव्यके समान भव्यजीवोंका मोक्ष नहीं है । फिर जगत्की शून्यता कैसे होगी ? ॥३७॥
इस प्रकार संक्षेपसे मोक्षतत्त्वके व्याख्यानरूप एक सूत्रसे पञ्चम स्थल समाप्त हुआ;
अब इसके आगे षष्ठ (छट्टे) स्थल में गाथाके पूर्वार्धसे पुण्य तथा पापरूप जो दो पदार्थ हैं उनके स्वरूपको और उत्तरार्धसे पुण्य प्रकृति तथा पाप प्रकृतियोंकी संख्याको कहता हूँ इस अभिप्रायको मनमें धारण कर, भगवान् इस सूत्रका प्रतिपादन करते हैं;
गाथाभावार्थ-शुभ तथा अशुभ परिणामोंसे युक्त जीव पुण्य और पापरूप होते हैं। सातावेदनी, शुभ आयु, शुभ नाम तथा उच्च गोत्र नामक कर्मोंकी जो प्रकृतियाँ हैं वे तो पुण्य प्रकृतियाँ हैं और शेष सब पापप्रकृतियाँ हैं ॥३८॥
व्याख्यार्थ-"पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा" चिदानन्दरूप सहज शुद्ध भावसे पुण्य, पाप बन्ध, तथा मोक्ष आदि पर्याय स्वरूप विकल्पोंसे रहित भी जीव हैं तथापि संतान (प्रवाह) से प्राप्त जो अनादि कर्मबन्ध पर्याय है उससे पुण्य तथा पाप भी होते हैं अर्थात् पुण्य पापको प्राप्त होते हैं। कैसे होते हुए जीव पुण्य पापको धारण करते हैं ? इसलिये यह विशेषण कहते हैं । "सुहअसुहभावजुत्ता" "मिथ्यात्वरूपी विषका वमन कर दो, सम्यग्दर्शनकी भावना करो, उत्कृष्ट भक्तिको करो, और भाव नमस्कारमें तत्पर होकर सदा ज्ञानमें लगे रहो । १ । पाँच महाव्रतोंकी
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