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________________ षड्द्रव्य-पश्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसग्रहः १२३ कर्मबन्धोऽस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति ? तत्र प्रत्युत्तरं । यथा शत्रोः क्षीणावस्थां दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रु हन्ति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया "खयउवसमिय-विसोही देसणपाउग्गकरणलद्धी य । चत्तारिवि सामण्णा करणं सम्मत्तचारित्ते । १।" इति गाथाकथितलब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तीति । यत्पुनरन्तःकोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव आगमभाषया अधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्महननबुद्धि क्वापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । अन्यदपि दृष्टान्तनवकं मोक्षविषये ज्ञातव्यम्"रयणदीवदिणयरदहिउ, दुद्धउ धाउपहाणु । सुण्णुरुप्पफलिहउ अगणि, णव दिटुंता जाणि । १।" नन्वनादिकाले मोक्षं गच्छतां जीवानां जगच्छ्न्यं भविष्यतीति ? तत्र परिहारः। यथा-भाविकालसमयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति । जो पारमार्थिक परम सुख है उसमें परिणत ऐसे मुक्त जीवोंके जो अतीन्द्रिय सुख है वह अत्यन्त विशेषतासे अतीन्द्रिय जानना चाहिये । अब यहाँपर शिष्य कहता है कि हे गुरो, संसारी जीवोंके निरन्तर कर्मोका बंध होता है और इसी प्रकार कर्मोंका उदय भी सदा होता रहता है इस कारण शुद्ध आत्माके ध्यानका प्रस्ताव (प्रसंग) ही नहीं है फिर उनका मोक्ष कैसे होता है ? अब इस शिप्यके प्रश्नका उत्तर देते हैं कि जैसे कोई बुद्धिमान् अपने शत्रुकी क्षीण अवस्थाको देखकर, अपने मनमें विचार करता है कि यह मेरे मारनेका प्रस्ताव है अर्थात् शत्रु दुर्बल है इसलिये यह अवसर शत्रको मारनेका है। और इस विचारके पश्चात् उद्यम करके, वह बद्धिमान् अपने शत्रुको मारता है। इसी प्रकार कर्मोकी भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती इस कारण स्थितिबंध और अनुभागबंधकी न्यनता होनेसे जब कर्म लघ अर्थात क्षीण होते हैं तब बद्धिमान भव्य जीव भाषासे योपशम लब्धि. विशद्धिलब्धि. देशनालब्धि प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ये पाँच लब्धियाँ है. इनमें चार तो सामान्य हैं और पाँचवीं सम्यक्त्वचारित्रमें होती है। इस गाथासे कही हुई पाँच लब्धियों नामक तथा अध्यात्मभाषासे निज शद्ध आत्माके सन्मख परिणाम नामक जो निर्मल भावना विशेषरूप खड्ग है उससे पौरुष करके कर्मशत्रुको नष्ट करता है । और जो अन्तःकोटा. कोटिप्रमाण कर्मस्थितिरूप तथा इसीप्रकार लताकाष्ठके स्थानापन्न अनुभागरूपसे कर्मोका लघुत्व (क्षीणत्व) होने पर भी यह जीव आगमभाषासे अधःप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक तथा अध्यात्मभाषासे निज शुद्ध आत्माके सन्मुख परिणामरूप जो कर्मोको नष्ट करनेकी बुद्धि है उसको किसी समयमें नहीं करेगा यह जो कथन है सो अभव्यत्व गुणका ही लक्षण जानना चाहिये । और अन्य भी नौ दृष्टान्त भोक्षके विषयमें जानने योग्य हैं-"रत्न, दोपक, सूर्य, दूध. दही, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि ये नौ दृष्टान्त मोक्षके विषय में हैं।" ___अब यहाँ कोई शंका करता है कि अनादि कालसे मोक्षको जाते हुए जीवोंसे जगत्की शून्यता हो जायगी अर्थात् अनादिकालसे जो मोक्षको जीव जा रहे हैं तो न्यून होते-होते कभी न कभी जगत्में जीव सर्वथा न रहेंगे । इस शंकाका परिहार करते हैं कि जैसे क्रमसे जाते हुए जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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