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________________ १२२ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ द्वितीय अधिकार यो ज्ञातव्यः स भावमोक्षः । स कः ? "अप्पणो हु परिणामो" निश्चयरत्नत्रयात्मककारण समयसाररूपो "हु" स्फुटमात्मनः परिणामः । कथंभूतः ? "सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू” सर्वस्य द्रव्यभावरूप मोहनीयादिघातिचतुष्टयकर्मणो यः क्षयहेतुरिति । द्रव्यमोक्षं कथयति । "दव्व विमुक्खो" अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । कोऽसौ ? "कम्मपुहभावो" टङ्कोत्कीर्णशुद्धबुद्ध कस्वभावपरमात्मन आयुरादिशेषाघातिकर्मणामपि य आत्यन्तिकपृथग्भावो विश्लेषो विघटनमिति ॥ तस्य मुक्तात्मनः सुखं कथ्यते । " आत्मोपादानसिद्धं स्वयमतिशयवद्वीतबाधं विशालं वृद्धिह्रासव्यपेतं विषयविरहितं निष्प्रतिद्वन्द्वभावम् । अन्यद्रव्यानपेक्षं निरुपमममितं शाश्वतं सर्वकालमुत्कृष्टान्तसारं परमसुखमतस्तस्य सिद्धस्य जातम् । १।” कश्चिदाह - इन्द्रियसुखमेव सुखं मुक्तात्मनामिन्द्रियशरीराभावे पूर्वोक्तमतीन्द्रियसुखं कथं घटत इति । तत्रोत्तरं दीयते - सांसारिक सुखं तावत् स्त्रीसेवादिपञ्चेन्द्रियविषयप्रभवमेव, यत्पुनः पञ्चेन्द्रियविषयव्यापाररहितानां निर्व्याकुलचित्तानां पुरुषाणां सुखं तदतीन्द्रियसुखमत्रैव दृश्यते । पञ्चेन्द्रियमनोज नित विकल्पजालरहितानां निर्विकल्पसमाधिस्थानां परमयोगिनां रागादिरहितत्वेन स्वसंवेद्यमात्मसुखं तद्विशेषेणातोन्द्रियम् । यच्च भावकर्मद्रव्यकर्मरहितानां सर्वप्रदेशाह्लादैकपारमार्थिक परमानन्दपरिणतानां मुक्तात्मनामतीन्द्रियसुखं तदत्यन्तविशेषेण ज्ञातव्यम् । अत्राह शिष्यः - संसारिणां निरन्तरं तथापि विशेषतासे भाव और द्रव्यरूपसे वह मोक्ष दो प्रकारका होता है" यह वार्तिक पाठ है । सो इस प्रकार है - "णेयो स भावमुक्खो" उसको भावमोक्ष जानना चाहिये, उसको किसको ? " अपणो हू परिणामो" निश्चयसे निश्चयरत्नत्रय लक्षण जो कारणसमयसार है उसरूप आत्माके परिणामको । कैसे आत्माके परिणामको ? " सव्वस्स कम्मण्णो जो खयहेदू" जो कि सब अर्थात् द्रव्य तथा भावरूप मोहनीय आदि चार घातिया कर्म हैं उनके नाशका कारण है उसको । अब द्रव्यमोक्षके स्वरूपको कहते हैं- "दव्वविमुक्खो" अयोगी गुणस्थानवर्त्ती जीवके अन्त्य समयमें द्रव्यमोक्ष होता है । वह द्रव्यमोक्ष कैसा है ? "कम्मपुहभावो" टंकोत्कीर्ण शुद्धबुद्ध स्वरूप एक स्वभावका धारक जो परमात्मा है उसके आयुः आदि जो शेष (बचे हुए ) चार अघातिया कर्म हैं उनका भी जो अतिशय करके भिन्न होना तथा नाश होना है उस स्वरूप है । अब उस मुक्तात्माके सुखका वर्णन करते हैं । "निज आत्मारूप उपादानकारणसे सिद्ध, स्वयं अतिशययुक्त, बाधासे शून्य, विशाल, वृद्धि तथा ह्रास (न्यूनता) से रहित, विषयों से शून्य, प्रतिद्वन्द्व अर्थात् प्रतिपक्षतासे वर्जित, अन्य द्रव्योंकी अपेक्षासे मुक्त, उपमारहित, अप्रमाण (अपार), नित्य और सर्व कालमें उत्तम तथा अनन्तसारतायुक्त ऐसा जो परमसुख है वह इस मोक्षसे उन सिद्धों हुआ है । १ ।" यहाँपर कोई शंका करता है कि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ जो सुख है वही सुख हैं, और सिद्ध जीवोंके इन्द्रियों तथा शरीरका अभाव है इसलिये पूर्वोक्त जो अतीन्द्रिय सुख है वह सिद्धोंके कैसे हो सकता है ? इसपर उत्तर देते हैं कि सांसारिक जो सुख है वह तो स्त्रीसेवन आदि रूप जो पाँचों इन्द्रियोंके विषय हैं उन्हींसे उत्पन्न होता है और जो पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके व्यापारसे रहित तथा व्याकुलताशून्य चित्तवाले पुरुष हैं उनका जो सुख हैं वह अतीन्द्रिय सुख है । और इस लोक में ही देखा भी जाता है । और पाँचों इन्द्रियों तथा मनसे उत्पन्न जो विकल्पों के समूह हैं उनसे रहित और निर्विकल्प ध्यान में स्थित ऐसे परम योगियोंके राग आदिकी शून्यतापूर्वक जो स्वसंवेद्य ( निजके अनुभवसे जानने योग्य) आत्माका सुख है वह विशेष करके अतीन्द्रिय है। और भावकर्म तथा द्रव्यकर्मोसे रहित तथा संपूर्ण आत्मा के प्रदेशों में आह्लादका जनक ऐसा 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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