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सप्ततत्व- नवपदार्थ वर्णन ]
बृहद्रव्य संग्रहः
सर्पादिकं वा न जानाति तस्य विनाशे दोषो नास्ति । यस्तु प्रदीपहस्तस्तस्य कूपपतनादिविनाशे प्रदीपफलं नास्ति । यस्तु कूपपतनादिकं त्यजति तस्य प्रदीपफलमस्ति । तथा कोऽपि रागादयो हेया मदीया न भवन्तोति भेदविज्ञानं न जानाति स कर्मणा बध्यते तावत् अन्यः कोऽपि रागाविभेदविज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिकमनुभवति तावतांशेन सोऽपि बध्यत एव तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति । यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य भेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् । तथा चोक्तं - "चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सप्पादिदोसपरिहारो । चक्खू होदि णिरत्थं दट्ठूण विले पडतस्स " || ३६ || एवं निर्जराव्याख्याने सूत्रेणैकेन चतुर्थस्थलं गतम् ॥
अथ मोक्षतत्त्वमावेदयति ; -
सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अप्पणो हु परिणामो । यो स भावमुक्खो दव्वविमुक्खो य कम्मपुहभावो ॥३७॥
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सर्वस्य कर्मणो यः क्षयहेतुः आत्मनः हि परिणामः । ज्ञेयः स भावमोक्षो द्रव्यविमोक्षश्च कर्मपृथग्भावः ॥ ३७॥
व्याख्या -- यद्यपि सामान्येन निरवशेषनिराकृत कर्म मलकलङ्कस्याशरीरस्थात्मन आत्यन्तिकस्वाभाविकाचिन्त्याद्भुतानुपमसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणास्पदमवस्थान्तरं मोक्षो भण्यते तथापि विशेषेण भावद्रव्यरूपेण द्विधा भवतीति वार्तिकम् । तद्यथा - "णेयो स भावमुक्खो"
है और न सर्प आदिको जानता है इसलिये वह अन्धकारमें कुँये आदिमें अज्ञानसे गिर जावे तो दोष नहीं है । तथा जिसके हाथमें दीपक है वह मनुष्य यदि कूपपतन आदिसे नष्ट हो जावे तो उसके हाथमें जो दीपक था उसका कोई फल नहीं हुआ । और जो उस अन्धकारमें दीपकके प्रकाशसे कूपपतन आदिको छोड़ता है उसके दीपकका फल है । इसी दृष्टान्त के अनुसार कोई मनुष्य तो "राग आदि हेय हैं मेरे नहीं हैं" इसप्रकार के भेदविज्ञानको नहीं जानता है वह तो कर्मोंसे बँधता ही है । और दूसरा मनुष्य भेदविज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी जितने अंशोंसे रागादिकका अनुभव करता है उतने अंशों से वह भेदविज्ञानी पुरुष भी बँधता ही है । और उसके रागादि भेदविज्ञानका फल भी नहीं है और जो जीव राग आदिकमें भेदविज्ञान होनेपर राग आदिका त्याग करता है उसके भेदविज्ञानका फल है यह जानना चाहिये । सो ही कहा है- " नेत्रोंसे देखने का फल सर्प आदिके दोषोंसे मार्गमें बचना ही है; और जो नेत्रद्वारा सर्प आदिको देखकर भी सर्पके बिल में पैर धरता है उसके नेत्रोंका होना व्यर्थ (निष्फल ) है " ||३६|| इसप्रकार निर्जरातत्त्वके व्याख्यानसे एक सूत्रमें चतुर्थ स्थल समाप्त हुआ ||
अब मोक्षतत्त्वका उपदेश करते हैं;
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गाथाभावार्थ - सब कर्मोके नाशका कारण जो आत्माका परिणाम है उसको भावमोक्ष जानना चाहिये । और कर्मोंकी जो आत्मासे सर्वथा भिन्नता है वह द्रव्यमोक्ष है ||३७||
व्याख्यार्थ - " यद्यपि सामान्यरूपसे संपूर्णतया कर्मरूप मलकलंकसे रहित जो शरीररहित आत्मा है उसके आत्यंतिक, स्वाभाविक, अचिन्त्य, अद्भुत तथा अनुपम ऐसे जो सकल विमल केवलज्ञान आदि गुण हैं उन सबका स्थान भूत जो अवस्थान्तर है वही मोक्ष कहा जाता है,
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