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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [द्वितीय अधिकार ननु पूर्व यदुक्तं 'सडदि' तेनैव द्रव्यनिर्जरा लब्धा पुनरपि सडनं किमर्थं भणितम् ? तत्रोत्तरं-तेन सडदिशब्देन निर्मलात्मानुभूतिग्रहणभावनिर्जराभिधानपरिणामस्य सामर्थ्यमुक्तं न च द्रव्यनिर्जरेति । "इदि" इति द्रव्यभावरूपेण निर्जरा द्विविधा भवति ॥
अत्राह शिष्यः-सविपाकनिर्जरा नरकादिगतिष्वज्ञानिनामपि दृश्यते संज्ञानिनामेवेति नियमो नास्ति । तत्रोत्तरं-अत्रैव मोक्षकारणं या संवरपूविका निर्जरा सैव ग्राह्या । या पुनरज्ञानिनां निर्जरा सा गजस्नानवन्निष्फला। यतः स्तोकं कर्म निर्जरयति बहुतरं बध्नाति तेन कारणेन सा न ग्राह्या। या तु सरागसदृष्टीनां निर्जरा सा यद्यप्यशुभकर्मविनाशं करोति तथापि संसारस्थिति स्तोकां कुरुते । तद्भवे तीर्थकरप्रकृत्यादिविशिष्टपुण्यबन्धकारणं भवति पारम्पर्येण मुक्तिकारणं चेति । वीतरागसदृष्टीनां पुनः पुण्यपापद्वयविनाशे तद्भवेऽपि मुक्तिकारणमिति । उक्तं च श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवैः “जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसदसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमित्तेण ।१।" कश्चिदाह-सदृष्टीनां वीतरागविशेषणं किमर्थ रागादयो हेया मदीया न भवन्तीति भेद विज्ञाने जाते सति रागानुभवेऽपि ज्ञानमात्रेण मोक्षो भवतीति । तत्र परिहारः । अन्धकारे पुरुषद्वयम् एकः प्रदीपहस्तस्तिष्ठति, अन्यः पुनरेकः प्रदीपरहितस्तिष्ठति । स च कूपे पतनं शब्दका कथन क्यों किया? इसका समाधान यह है कि पहले जो 'सडदि' शब्द कहा गया है उससे निर्मल आत्माके अनुभवको ग्रहण करनेरूप जो भावनिर्जरा नामक परिणाम है उसका सामर्थ्य कहा गया है और द्रव्यनिर्जराका कथन नहीं किया गया। 'इदि' इसप्रकार द्रव्य और भावरूपसे दो प्रकारको निर्जरा जाननी चाहिये ।
यहाँ शिष्य कहता है कि जो सविपाक निर्जरा है वह तो नरक आदि गतियोंमें अज्ञानियोंके भी होती हुई दीख पड़ती है। इसलिये सम्यगज्ञानियोंके सविपाक निर्जरा होती है यह नियम नहीं है ? इस विषयमें उत्तर यह है कि यहाँपर जो संवरपूर्वक निर्जरा है उसीको ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि, वही मोक्षका कारण है । और जो अज्ञानियोंके निर्जरा होती है वह तो गजस्नान ( हाथीके स्नान ) के समान निष्फल है। क्योंकि, अज्ञानी जीव थोड़े कर्मोंकी तो निर्जरा करता है
और बहुतसे कर्मोको बाँधता है। इस कारण अज्ञानियोंको सविपाक निर्जराका यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये । तथा जो सराग सम्यग्दृष्टियों के निर्जरा है वह यद्यपि अशुभ कर्मों का नाश करती है
और शुभ कर्मोका नाश नहीं करती तथापि संसारकी स्थितिको अल्प करती है अर्थात् जीवके संसारपरिभ्रमणको घटाती है। उसी भवमें तीर्थंकर प्रकृति आदि विशिष्ट पुण्यबन्धका कारण हो जाती है और परम्परासे मोक्षकी कारणभूत है। और जो वीतराग सम्यग्दृष्टि हैं उनके पुण्य तथा पाप दोनोंका नाश होनेपर उसो भवमें वह सविपाक निर्जरा मोक्षकी कारण हो जाती है । सोही श्रीमान् कुन्दकुन्द-आचार्यदेवने कथन किया है - "अज्ञानी जिन कर्मोका एक लाख करोड़ वर्षों में नाश करता है उन्हीं कर्मोको ज्ञानी जीव मनोवचनकायकी गुप्तिका धारक होकर एक उच्छ्वास मात्रमें नष्ट कर देता है । १ ।" यहाँ कोई शंकाका कथन करता है कि जो सम्यग्दृष्टि हैं उनके वीतराग यह विशेषण किसलिये लगाया गया है ? क्योंकि राग आदिक हेय ( त्याज्य ) हैं, ये मेरे नहीं हैं ऐसा भेदविज्ञान उत्पन्न होनेपर वह रागका अनुभव करे तो भी उसके ज्ञानमात्रसे ही मोक्ष हो जाता है। इस शंकाका खंडन यह है कि, अन्धकारमें दो पुरुष हैं, एक हाथमें दोपक लिये हुए है और दूसरा बिना दीपकके है। वह दीपकरहित पुरुष न तो कूपके पतनको जानता
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