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सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ]
बृहद्रव्य संग्रहः
यथाकालेन तपसा च भुक्तरसं कर्मपुद्गलं येन । भावेन सडति ज्ञेया तत्सडन चेति निर्जरा द्विविधा ||३६||
व्याख्या- 'या' इत्यादिव्याख्यानं क्रियते- "या" ज्ञातव्या । का ? " णिज्जरा" भावनिर्जरा । सा का ? निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानुभूतिसञ्जात सहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्यध्याहारः । " जेण भावेण " येन भावेन जीवपरिणामेन । किं भवति " सडदि" विशीर्यते पतति गलति विनश्यति । किं कर्तृ "कम्मवुग्गलं" कर्मारिविध्वंसकस्वकीयशुद्धात्मनो विलक्षणं कर्मपुद्गलद्रव्यं । कथंभूतं "भुत्तरसं" स्वोदयकालं प्राप्य सांसारिक सुखदुःख रूपेण भुक्तरसं दत्तफलं । केन कारणभूतेन गलति "जह कालेण" स्वकालपच्यमानाम्रफलवत्सविपाकनिर्जरापेक्षया, अभ्यन्तरे निजशुद्धात्मसंवित्तिपरिणामस्य बहिरङ्गसहकारिकारणभूतेन काललब्धिसंज्ञेन यथाकालेन न केवलं यथाकालेन "तवेणय" अकालपच्यमानानामानादिफलवदविपाक निर्जरापेक्षया अभ्यन्तरेण समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणेन बहिरङ्गेणान्तस्तत्त्वसंवित्ति - साधकसंभूतेनानशनादिद्वादशविधेन तपसा चेति "तस्सडणं" कर्म्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा ।
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अब सम्यग्दृष्टि जीवके संवरपूर्वक निर्जरा होती है इसकारण निर्जरातत्त्वका कथन करते हैं ।
गाथाभावार्थ - जिस आत्माके परिणामरूप भावसे कर्मरूपी पुद्गल फल देकर नष्ट होते हैं वह तो भाव निर्जरा है और सविपाक निर्जराकी अपेक्षासे यथाकाल अर्थात् काललब्धिरूप कालसे तथा अविपाक निर्जराकी अपेक्षासे तपसे जो कर्मरूप पुद्गलोंका नष्ट होना है सो द्रव्यनिर्जरा है ।। ३६ ।।
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व्याख्यार्थं—“णेया” इत्यादि सूत्रका व्याख्यान करते हैं । "या" जानना चाहिये, किसको “णिज्जरा" भाव निर्जराको, वह क्या है ? कि विकारोंसे रहित और परम चैतन्यरूप जो चित् चमत्कार है उसके अनुभवसे उत्पन्न जो सहज आनंद स्वभाव सुखामृतके आस्वादरूप भाव है उसरूप है | यहाँपर भाव शब्दका अध्याहार ( विवक्षासे ग्रहण ) किया गया है । "जेण भावेण " जिस जीवके परिणामरूप भावसे क्या होता है कि "सडदि" जीर्ण होता है, गिरता है, गलता है अथवा नाशको प्राप्त होता है; कोन कर्त्ता ? "कम्म पुग्गलं" कर्मरूपी शत्रुओं का नाश करनेवाला जो निजशुद्ध आत्मा है उससे विलक्षण कर्मरूपी पुद्गल द्रव्य; कैसा होकर ? "भुत्तरसं" अपने उदयकालको प्राप्त होकर संसार सम्बन्धी सुख तथा दुःखरूपसे भुक्तरस अर्थात् दिया है रस जिसने ऐसा होकर, किस कारणसे गलता है ? "जह कालेण" अपने समयमें पकते हुए आम्र के फलके समान तो सविपाक निर्जराकी अपेक्षासे, और अन्तरंग में निजशुद्ध आत्माके ज्ञानरूप परिणामके बहिरंग सहकारी कारणभूत जो काललब्धि है उस नामके धारक यथाकालसे, और केवल यथाकालसे हो नहीं किंतु "तवेण य" बिना समय पकते हुए आम्र आदि फलों के समान अविपाक निर्जराकी अपेक्षासे, तथा समस्त परद्रव्यों में इच्छाके रोकनेरूप अभ्यंतर तपसे और अन्तस्तत्त्व ( आत्मरूपत्व ) के ज्ञानको साधनेवाले अनशन ( उपवास ) आदि द्वादश प्रकारके बहिरंग तपसे "तस्सडणं" उस कर्मका जो गलना सो द्रव्य निर्जरा है । शंका- आपने जो पहले 'सडदि ' ऐसा कहा है उसीसे द्रव्यनिर्जरा प्राप्त हो गई फिर 'सडन' इस
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