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________________ [ द्वितीय अधिकार एवं व्रतसमितिगुप्तिधर्मद्वादशानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्राणां भावसंवरकारणभूतानां यद्व्याख्यानं कृतं तत्र निश्चयरत्नत्रयसाधकव्यवहाररत्नत्रयरूपस्य शुभोपयोगस्य प्रतिपादकानि यानि वाक्यानि तानि पापात्रवसंवरणानि ज्ञातव्यानि । यानि तु व्यवहाररत्नत्रयसाध्यस्य शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयस्य प्रतिपादकानि तानि पुण्यपापद्वयसंवरकारणानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् । अत्राह सोमनामराजश्रेष्ठी । भगवन्नेतेषु व्रतादिसंवरकारणेषु मध्ये संवरानुप्रेक्षैव सारभूता, सा चैव संवरं करिष्यति किं विशेषप्रपञ्चेनेति । भगवानाह - त्रिगुप्तिलक्षणनिर्विकल्पसमाधिस्थानां यतीनां तथैव पूर्यते तत्रासमर्थानां पुनर्बहुप्रकारेण संवरप्रतिपक्षभूतो मोहो विजृम्भते तेन कारणेन व्रतादिविस्तरं कथयन्त्याचार्याः ||३५|| "असिदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं तु होइ चुलसीदी । सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइया हुंति बत्तीसं |१| जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो हुंति । अपरिणच्छिण्णेसु अ बंधो ठिदिकारणं णत्थि । २ ।" एवं संवरतत्त्वव्याख्याने सूत्रद्वयेन तृतीयं स्थलं गतम् ॥ ११८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ सम्यग्दृष्टिजीवस्य संवरपूर्वकं निर्जरातत्त्वं कथयति, - जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्म पुग्गलं जेण । भावेण सडदि या तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा || ३६ || चाहिये | और असंयम जो है वह तो मिथ्यादृष्टि १, सासादन २, मिश्र ३, और अविरत सम्यग्दृष्टि ४ नामक चार गुणस्थानोंमें होता है । ऐसे चारित्रका व्याख्यान समाप्त हुआ || इस पूर्वोक्त प्रकारसे भावसंवरके कारणभूत व्रत, समिति, गुप्ति, धर्म, द्वादशानुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र इन सबका जो व्याख्यान किया, उस व्याख्यान में निश्चयरत्नत्रयको साधनेवाला जो व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभोपयोग है उसका निरूपण करनेवाले जो वाक्य हैं वे तो पापावके संवरमें कारण जानने चाहिये । और जो व्यवहार रत्नत्रय से सिद्ध होने योग्य शुद्धोपयोगलक्षण निश्चयरत्नत्रय के प्रतिपादक वाक्य हैं वे पुण्य तथा पाप इन दोनों आस्रवोंके संवरके कारण होते हैं यह समझना चाहिये । यहाँ सोम नामक राजशेठ कहता है कि हे भगवान् ! ये जो पूर्वोक्त व्रत, समिति आदिक संवरके कारण हैं इनमें संवरानुप्रेक्षा जो है सो ही सारभूत है और वही इस जीवके आस्रवका संवर कर देगी फिर आपने जो विशेष प्रपंच ( अधिक विस्तारसे कथन ) किया है, इससे क्या प्रयोजन है ? इस प्रश्नका उत्तर भगवान् नेमिचन्द्रस्वामी देते हैं कि - मन वचन तथा काय इन तीनोंकी गुप्तिस्वरूप जो निर्विकल्प समाधि ( ध्यान ) हैं उसमें स्थित जो मुनि हैं उनके तो उस गुप्तिसे ही पूर्ति अर्थात् संवर हो जाता है और उसमें असमर्थ जो जीव हैं उनके नाना प्रकारसे संवरका प्रतिपक्षीभूत मोह उत्पन्न होता है इस कारण आचार्य व्रत आदिका कथन करते हैं ॥ ३५ ॥ क्रियावादियों के एकसौ अस्सी, अक्रियावादियोंके चौरासी, अज्ञानियोंके सड़सठ और वैनयिकों के बत्तीस ऐसे कुल मिलाकर तीनसौ तिरसठ भेद पाखंडियों के हैं | १ | योगसे प्रकृति और प्रदेशबंध होते हैं, कषायोंसे स्थिति तथा अनुभागबंध होता है और जिसके कषायस्थान उदयरूप नहीं है तथा क्षीण हो गये हैं ऐसे उपशांतकषाय व क्षीणकषाय और सयोगकेवली हैं उनमें तत्काल बंध स्थितिका कारण नहीं है । २ । इस प्रकार संवरतत्त्व के व्याख्यान में दो सूत्रों द्वारा तृतीय स्थल समाप्त हुआ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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