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________________ सप्ततत्त्व - नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः ११७ पस्थापनं छेदोपस्थापनमिति । अथ परिहारविशुद्धि कथयति - "तीसं वासा जम्मे वासपुहत्तं च त्रिमूले । पच्चवखाणं पढिदो संज्झण दुगाउ अ विहारो | १|" इति गाथाकथितक्रमेण मिथ्यात्वरागादिविकल्पमलानां प्रत्याख्यानेन परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धिनैर्मल्यं परिहारविशुद्धिचारित्रमिति । अथ सूक्ष्मसाम्परायचारित्रं कथयति । सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसाम्परायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमिति । अथ यथाख्यातचारित्रं कथयति -- यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति ॥ इदानीं सामायिकादिचारित्रपञ्चकस्य गुणस्थानस्वामित्वं कथयति । प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वानिवृत्तिसंज्ञगुणस्थानचतुष्टये सामायिकचारित्रं भवति छेदोपस्थापनञ्च परिहारविशुद्धिस्तु प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वये, सूक्ष्मसांपरायचारित्र पुनरेकस्मिन्नेव सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थाने, यथाख्यातचारित्रमुपशान्तकषायक्षीणकषाय सयोगिजिनायो गिजिनाभिधानगुणस्थानचतुष्टये भवतीति । अथ संयमप्रतिपक्षं कथयति - संयमासंयमसंज्ञं दार्शनिकाद्यैकादशभेदभिन्नं देशचारित्रमेकस्मिन्नेव पञ्चमगुणस्थाने ज्ञातव्यम् । असंयमस्तु मिथ्यादृष्टिसासादन मिश्राविरतसम्यग्दृष्टिसंज्ञगुणस्थानचतुष्टये भवति इति चारित्रव्याख्यानं समाप्तम् || छेदोपस्थापन है | अब परिहारविशुद्धिका कथन करते हैं "जो जन्मसे ३० वर्ष तककी अवस्थाको सुखमें व्यतीत करके वर्षपृथक्त्व । ८ वर्ष ) पर्यन्त तीर्थंकरके चरणों में प्रत्याख्यानको पढ़कर तीनों संध्याकालोंको छोड़कर प्रतिदिन दो कोश गमन करता है, उस मुनिके परिहारविशुद्धि संयम होता है । १ ।” इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार मिथ्यात्व राग इत्यादिक जो विकल्प मल हैं उनका प्रत्याख्यान ( परिहार अथवा त्याग ) करके अधिकता के साथ जो आत्माकी शुद्धि अर्थात् निर्मलता है सो परिहारविशुद्धिनामक तृतीय चारित्र है । अब सूक्ष्म सांपराय चारित्रका कथन करते हैंसूक्ष्म, इंद्रियोंके अगोचर ऐसा जो निजशुद्ध आत्मा उसके ज्ञानके बलसे सूक्ष्म लोभ नामक सांपरायकषायका जहाँपर पूर्णरूप से उपशमन अथवा क्षपण ( नाश ) होता है वह सूक्ष्मसांपरायचारित्र है । अव यथाख्यातचारित्रका वर्णन करते हैं-जैसा निष्कंप सहजशुद्ध स्वभावसे कषायरहित आत्माका स्वरूप है वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया हो सो यथाख्यातचारित्र है || अब सामायिक आदि जो पाँच चारित्र हैं उनके गुणस्थानोंके स्वामित्वका अर्थात् किस किस गुणस्थान में कौन कौन सा चारित्र होता है इस विषयका कथन करते हैं । प्रमत्त ६ अप्रमत्त ७ अपूर्वकरण ८ और अनिवृत्तिकरण ९ नामक जो चार गुणस्थान हैं इनमें सामायिक और छेदोपस्थापन ये दो चारित्र होते हैं । और परिहारविशुद्धि नामक चारित्र तो प्रमत्त तथा अप्रमत्त इन दो गुणस्थानों में ही होता है, और सूक्ष्मसांपराय चारित्र भी एक ही सूक्ष्म सांपराय नामक दशम गुणस्थान में होता है, तथा यथाख्यात चारित्र जो है वह उपशांत कषाय ११, क्षीणकषाय १२, सयोगिजिन १३, और अयोगिजिन १४ इन नामोंके धारक जो चार गुणस्थान हैं उनमें होता है । अब संयमके प्रतिपक्षी जो संयमासंयम और असंयम हैं वे किस-किस गुणस्थान में होते हैं यह वर्णन करते हैं । दार्शनिक आदि एकादश प्रतिमारूप एकादश भेदोंसे भेदको प्राप्त हुआ जो संयमासंयम नामक देश चारित्र है वह एक पंचम गुणस्थान में ही जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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