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________________ सप्ततत्त्व-नवपदार्थ वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १२५ निग्रहं परमम् । दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तपः सिद्धिविधौ कुरूद्योगम् ।२।" इत्याद्वयकथितलक्षणेन शुभोपयोगभावेन परिणामेन तद्विलक्षणेनाशुभोपयोगपरिणामेन च युक्ताः परिणताः । इदानों पुण्यपापभेदान् कथयति "सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं" सद्वेद्यशुभायु मगोत्राणि पुण्यं भवति "पराणि पावं च" तस्मादपराणि कर्माणि पापं चेति । तद्यथा-सद्यमेकं, तिर्यग्मनुष्यदेवायुस्त्रयं, सुभगयशःकोत्तितीर्थकरत्वादिनामप्रकृतीनां सप्तत्रिंशत्, तथोच्चैर्गोत्रमिति समुदायेन द्विचत्वारिंशत्संख्याः पुण्यप्रकृतयो विज्ञेयाः। शेषा द्वयशोतिषापमिति। तत्र "दर्शनविशुद्धिविनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीषणज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधियावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य" इत्युक्तलक्षणषोडशभावनोत्पन्नतीर्थकरनामकर्मैव विशिष्टं पुण्यम् । षोडशभावनासु मध्ये परमागमभाषया "मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् । अष्टौ शङ्कादयश्चेति दृग्दोषाः पञ्चविंशतिः । १।" इति श्लोककथितपश्चविंशतिमलरहिता तथाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूपा सम्यक्त्वभावनैव मुख्येति विज्ञेयम् । सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् । कथं पुण्यं करोतीति ? तत्र युक्तिमाह। यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणां तदर्थे रक्षा करो, क्रोध आदि चार कषायोंका पूर्ण रूपसे निग्रह करो, दुर्दान्त (प्रबल) इन्द्रियरूप शत्रुओंका विजय करो तथा बाह्य और आभ्यन्तर भेदसे दो प्रकारका जो तप है उसको सिद्ध करने में उद्योग करो ।२।" इस प्रकार दोनों आर्याछन्दोंसे कहे हुए लक्षणसहित शुभ उपयोगरूप भाव परिणामसे तथा उसके विपरीत अशुभ उपयोगरूप परिणामसे युक्त (परिणत) जो जीव हैं वे पुण्यपापको धारण करते हैं अथवा स्वयं पुण्यपापरूप हो जाते हैं । अब पुण्य तथा पापके भेदोंको कहते हैं । “सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं" साता वेदनी, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र ये कर्म तो पुण्यरूप हैं और इनसे भिन्न जो शेष कर्म हैं वे पापकर्म हैं। सो इस प्रकार है-साता वेदनी एक प्रकृति; तियंच, मनुष्य और देव इन भेदोंसे शुभ आयुकी प्रकृतियाँ तीन; सुभग, यशःकीत्ति तथा तीर्थकरपना आदि रूप नामकर्मकी प्रकृतियाँ सैंतीस और उच्च गोत्र एक; ऐसे सब मिलके समुदायसे बयालीस संख्याकी धारक पुण्य प्रकृतियाँ जाननी चाहिये । बाकीकी जो बयासी (८२) प्रकृति आठों कर्मोकी हैं वे सब पापप्रकृतियाँ हैं । ____ उनमें "दर्शनविशुद्धि १, विनयसंपन्नता २, शील तथा व्रतोंमें अतिचाररहितता ३, निरन्तर ज्ञानमें उपयोग ४, संवेग ५, शक्तिपूर्वक त्याग ६, शक्तिपूर्वक तप ७, साधुसमाधि ८, वैयावृत्त्यका करना ९, अर्हतमें भक्ति १०, आचार्यभक्ति ११, बहुश्रुतभक्ति १२, प्रवचनभक्ति १३, आवश्यकोंमें हानि न करना अर्थात् षट्आवश्यकोंको निरन्तर धारण करना १४, मार्गप्रभावना १५, और प्रवचनवात्सल्य १६, ये तीर्थकर प्रकृतिके बंधके कारण हैं" इस कहे हुए लक्षणकी धारक जो सोलह भावना हैं उनसे उत्पन्न जो तीर्थकर नामकर्म है सो विशिष्ट पुण्य है। उक्त सोलह भावनाओंमें परमागम भाषासे "तीन मूढता, आठ मद, छः अनायतन और आठ शंका आदि दोष ऐसे पच्चीस सम्यग्दर्शनके दोष हैं।१।" इस प्रकार श्लोकमें कहे हुए पच्चीस सम्यग्दर्शनके मल (दोष तथा अतिचारों) से रहित ऐसी तथा अध्यात्मभाषासे निजशुद्ध आत्मा ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है, इस प्रकारकी जो रुचि (प्रीति) है उसरूप जो सम्यक्त्वकी भावना है सोही मुख्य है यह जानना चाहिये। शंका-सम्यग्दृष्टि जीवके तो पुण्य तथा पाप ये दोनों ही हेय (त्याज्य) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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