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________________ षद्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः व्याख्या - शब्दबन्ध सौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योत सहिताः पुद्गलद्रव्यस्य पर्याया भवन्ति । अथ विस्तरः -- भाषात्मकोऽभाषात्मकश्च द्विविधः शब्दः । तत्राक्षरानक्षरात्मकभेवेन भाषात्मको द्विधा भवति । तत्राप्यक्षरात्मकः संस्कृतप्राकृतापभ्रंश पैशाचिकाविभाषाभेदेनार्यम्लेच्छ मनुष्यादिव्यवहार हेतुर्बहुधा । अनक्षरात्मकस्तु द्वीन्द्रियादितिर्यग्जीवेषु सर्वज्ञदिव्यध्वनौ च । अभाषात्मकोsपि प्रायोगिक वैत्रसिकभेदेन द्विविधः । "ततं वीणादिकं ज्ञेयं विततं पटहादिकम् । घनं तु कांस्यतालादि वंशादि सुषिरं विदुः । १ ।” इति श्लोककथितक्रमेण प्रयोगे भवः प्रायोगिचतुर्धा भवति । वित्रसा स्वभावेन भवो वैस्रसिको मेघादिप्रभवो बहुधा । किञ्च शब्दातीतनिजपरमात्मभावनाच्युतेन शब्दादिमनोज्ञामनोज्ञ पश्चेन्द्रियविषयासक्तेन च जीवेन यदुपार्जितं सुस्वरदुःस्वरनामकर्म तदुदयेन यद्यपि जीवे शब्दो दृश्यते तथापि स जीवसंयोगेनोत्पन्नत्वाद् व्यवहारेण जीवशब्दो भण्यते, निश्चयेन पुनः पुद्गलस्वरूप एवेति । बन्धः कथ्यते - मृत्पिण्डादिरूपेण योऽसौ बहुधा बन्धः स केवलः पुद्गलबन्धः, यस्तु कर्मनो कर्मरूपः स जीवपुद्गलसंयोगबन्धः । किञ्च विशेष :- कर्मबन्धपृथग्भूतस्वशुद्धात्मभावनारहितजीवस्यानुपचरितासद्द्भूतव्यवहारेण द्रव्यबन्धः, तथैवाशुद्धनिश्चयेन योऽसौ रागादिरूपो भावबन्धः कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चयनयेन पुद्गलबन्ध एव । बिल्वाद्यपेक्षया बदरादीनां सूक्ष्मत्वं, परमाणोः साक्षादिति । बदराद्यपेक्षया बिल्वादीनां स्थूलत्वं, जगद्व्यापिनि महास्कन्धे सर्वोत्कृष्टमिति । समचतुरस्रन्यग्रोधसा तिककुब्जवामनहुण्डभेदेन षट्प्रकार ४१ भाषाओं के भेद आर्य, म्लेच्छ मनुष्योंके व्यवहारका कारण अक्षरात्मक भेद भी अनेक प्रकारका है । और अनक्षरात्मक भेद द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीवोंमें तथा सर्वज्ञकी दिव्य ध्वनिमें है । अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक तथा वैस्रसिक भेदसे दो प्रकारका है । उनमें " वीणा आदिसे उत्पन्न शब्दको तत, ढोल आदिसे उत्पन्न शब्दको वित्तत, मंजीरे तथा तालसे उत्पन्न हुए शब्दको घन और बांसके छिद्र आदिसे अर्थात् वंशी आदिसे उत्पन्न शब्दको सुषिर कहते हैं ।" इस श्लोक में कथित क्रमके अनुसार प्रायोगिक ( प्रयोगसे उत्पन्न होनेवाला ) शब्द चार प्रकारका है, और विस्रसा अर्थात् स्वभावसे उत्पन्न वैखसिक शब्द जो कि मेघ आदिसे उत्पन्न होता है वह अनेक प्रकारका है । विशेष यहाँ यह है कि शब्दसे रहित जो निज परमात्मा है उसकी भावनासे गिरे हुए और शब्द आदि जो मनोज्ञ तथा अमनोज्ञ पाँचों इन्द्रियोंके विषय हैं उनमें आसक्त हुए जीवने जो सुस्वर तथा दुःस्वर नामकर्मका उपार्जन किया उस कर्मके उदयसे यद्यपि जीव में शब्द दीख पड़ता है तथापि वह शब्द जीवके संयोगसे उत्पन्न होनेके कारण व्यवहार नयसे जीवका शब्द कहा जाता है और निश्चयनयसे तो वह शब्द पुद्गल स्वरूप ही है । अब बंधका निरूपण करते हैं - मृत्तिका आदि पिंडरूपसे जो घट, गृह, मोदक आदि बंध है वह तो केवल पुद्गलबंध हो है और जो कर्म नोकर्म रूप बंध है वह जीव तथा पुद्गल के संयोग से उत्पन्न बंध है । और यहाँ पर विशेष यह जानना चाहिये कि कर्मबंधसे भिन्न जो निज शुद्ध आत्मा है उसकी भावनासे रहित जीवके अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयसे द्रव्य बंध है, और इसी प्रकार अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे जो यह रागादिरूप भावबंध कहा जाता है वह भी शुद्ध निश्चयनयसे पुद्गलका ही बंध है । बिल्वफल (बेल) आदिकी अपेक्षा बदर (बेर) आदि फलों में सूक्ष्मता है और परमाणुमें साक्षात् सूक्ष्मता है अर्थात् वह किसीकी अपेक्षासे नहीं है ऐसी सूक्ष्मता है । बदर आदि फलोंकी अपेक्षा बिल्व आदि फलों में स्थूलत्व ( बड़ापना) है और तीन लोक में व्याप्त महास्कन्ध में सर्वोत्कृष्ट ( सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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