________________
१३०
श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ तृतीय अधिकार
सन्तुष्टस्य तृप्तस्यैकाकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुनः पुनः स्थिरीकरणं सम्यक्चारित्रम् । इत्युक्तलक्षणं निश्चयरत्नत्रयं शुद्धात्मानं विहायान्यत्र घटपटादिबहिर्द्रव्ये न वर्त्तते यतस्ततः कारणादभेदनयेनानेकद्रव्यात्मकैक प्रपानकवत्तदेव सम्यग्दर्शनं, तदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव चारित्रं, तदेव स्वात्मतत्त्वमित्युक्तलक्षणं निजशुद्धात्मानमेव मुक्तिकारणं जानीहि ॥४०॥
एवं प्रथमस्थले सूत्रद्वयेन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गस्वरूपं संक्षेपेण व्याख्याय तदनन्तरं द्वितीयस्थले गाथाषट्कपर्यन्तं सम्यक्त्वादित्रयं क्रमेण विवृणोति । तत्रादौ सम्यक्त्वमाहजीवादीसहहणं सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु ।
दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जहि ॥। ४१ ।। जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं रूपं आत्मनः तत् तु ।
दुरभिनिवेशविमुक्तं ज्ञानं सम्यक् खलु भवति सति यस्मिन् ॥ ४१ ॥
व्याख्या-' "जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं" वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धजीवादितत्त्वविषये चलमलिनावगाढरहितत्वेन श्रद्धानं रुचिनिश्चयइदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । "ख्वमप्पणो तं तु" तच्चाभेदनयेन रूपं स्वरूपं तु पुनः कस्यात्मन आत्मपरिणाम इत्यर्थः । तस्य सामर्थ्यमाहात्म्यं दर्शयति । " दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि " यस्मिन् सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग् भवति स्फुटं । कथम्भूतं सम्यग्भवति "दुरभिणिवेसविमुक्कं" चलितप्रतिपत्तिगच्छत्तृणस्पर्शशुक्तिकाशकलरजतविज्ञान सदृशैः संशयविभ्रमविमोहेर्मुक्तं रहितमित्यर्थः ।
चलायमान चित्तका वारंवार स्थिर करना सम्यक् चारित्र है । इस प्रकार कहे हुए लक्षणका धारक जो रत्नत्रय है वह शुद्ध आत्माको छोड़कर अन्य जो घट, पट आदि बाह्य द्रव्य हैं उनमें नहीं रहता है इस कारण अभेदसे अनेक द्रव्योंमय एक प्रपानक अर्थात् बदाम, सौंफ, मिश्री, मिरच आदि द्रव्योंरूप ठंढाईके समान वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है, वह आत्मा ही चारित्र है तथा वही निज आत्मतत्त्व है । इस प्रकार कहे हुए लक्षणवाले निजशुद्ध आत्माको ही मुक्तिका कारण जानो ॥ ४० ॥
इस प्रकार प्रथम स्थल में दो सूत्रोंद्वारा संक्षेपसे निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्ग के स्वरूपका व्याख्यान करके अब आचार्य छः गाथाओंतक क्रमसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र इन तीनोंका विस्तारसे वर्णन करते हैं । उनमें प्रथम ही सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) को कहते हैं, -
गाथाभावार्थ - जीव आदि पदार्थोंका जो श्रद्धान करना है वह सम्यक्त्व है और वह सम्यक्त्व आत्माका स्वरूप है । और इस सम्यक्त्वके होनेपर संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय इन तीनों दुरभिनिवेशोंसे रहित होकर सम्यग्ज्ञान कहलाता है ॥ ४१ ॥
व्याख्यार्थ - "जीवादी सद्दहणं सम्मत्तं" वीतराग सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रसे कहे हुए जो शुद्ध 'जीव आदि तत्त्व हैं उनके विषें चल मलिन तथा अवगाढकी रहितता पूर्वक जो श्रद्धान अर्थात् रुचि अथवा "जो जिनेन्द्र ने कहा वही यह है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकारसे यह है" इस प्रकार जो निश्चयरूप बुद्धि है वह सम्यग्दर्शन है; "रूवमप्पणो तं तु" और वह सम्यग्दर्शन अभेदन से आत्माका स्वरूप है अर्थात् आत्माका परिणाम है । अब सम्यग्दर्शनके सामर्थ्य अथवा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org