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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १३१ इतो विस्तरः- सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग्भवतीति यदुक्तं तस्य विवरण क्रियते । तथाहिगौतमग्नभूतिवायुभूतिनामानो विप्राः पञ्चपञ्चशत ब्राह्मणोपाध्याया वेदचतुष्टयं ज्योतिष्कव्याकरणादिषडङ्गानि मनुस्मृत्याद्यष्टादशस्मृतिशास्त्राणि तथा भारताद्यष्टादशपुराणानि मीमांसान्यायविस्तर इत्यादिलौकिकसर्वशास्त्राणि यद्यपि जानन्ति तथापि तेषां हि ज्ञानं सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानमेव । यदा पुनः प्रसिद्धकथान्यायेन श्रीवीरवर्द्धमानस्वामितीर्थकर परमदेवसमवसरणे मानस्तम्भावलोकनमात्रादेवागमभाषया दर्शनचारित्रमोहनीयोपशमक्षयसंज्ञेनाध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च कालादिलब्धिविशेषेण मिथ्यात्वं विलयं गतं तदा तदेव मिथ्याज्ञानं सम्यग्ज्ञानं जातम् । ततश्च "जयति भगवान्" इत्यादि नमस्कारं कृत्वा जिनदीक्षां गृहीत्वा कचलोचानन्तरमेव चतुर्ज्ञानसमद्धिसम्पन्नास्त्रयोऽपि गणधर देवाः संजाताः । गौतमस्वामी भव्योपकारार्थं द्वादशाङ्गश्रुतरचनां कृतवान् । पश्चानिश्चयरत्नत्रय भावनाबलेन त्रयोऽपि मोक्षं गताः शेषाः पञ्चदशशतप्रमितब्राह्मणा जिनदीक्षां गृहीत्वा यथासम्भवं स्वर्गं मोक्षं च गताः । अभव्यसेनः माहात्म्यको दिखाते हैं । "दुरभिणिवेस विमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि " जिस सम्यक्त्वके होनेपर चलायमान ज्ञान अर्थात् यह पुरुष है अथवा स्थाणु ( काष्ठका ठूंठ ) है इस रूप संशय, गमन करते हुए जैसा तृणके स्पर्श आदिका ज्ञान होता है उस ज्ञानके समान विभ्रम अथवा अनध्यवसाय तथा सीपके टुकड़े में चाँदीके विज्ञानके समान जो विमोह अर्थात् विपर्यय है इन तीनोंसे रहित हुआ जो ज्ञान है वह सम्यग् ( समीचीन ) ज्ञान होता है । भावार्थ - सम्यक्त्वके पहले संशय, विपर्यय और अनध्यवसायरूप दोषोंसे दूषित होनेके कारण ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं कहलाता है और सम्यक्त्वके होते ही उक्त दोष ज्ञानमेंसे चले जाते हैं इस कारण वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है । सो यह सम्यक्त्व ( सम्यग्दर्शन ) का ही माहात्म्य है । अब विस्तार से वर्णन करते हैं । उसमें प्रथम ही सम्यग्दर्शन होनेपर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है यह जो कहा गया है उसका विवरण करते हैं । तथाहि - पाँच पाँचसौ ब्राह्मणोंके अध्यापक ( पढ़ानेवाले ) गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नामक तीन ब्राह्मण चारों वेद, ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छहों अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृतिशास्त्र, महाभारत आदि अठारह पुराण, तथा मीमांसा न्यायविस्तर इत्यादि समस्त लौकिक शास्त्रोंको जानते थे तो भी उनका ज्ञान, सम्यग्दर्शनके विना मिथ्या ज्ञान ही था । परन्तु जब वे प्रसिद्ध कथाके अनुसार श्रीवीर वर्धमान ( महावीर ) स्वामी तीर्थंकर परमदेव के समवसरण में गये तब मानस्तंभ के देखनेमात्र से ही आगमभापासे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके क्षयोपशमसे और अध्यात्मभाषासे निज शुद्ध आत्माके सम्मुख परिणाम तथा काल आदि लब्धियोंके विशेषसे उनका मिथ्यात्व नाशको प्राप्त हो गया और उसी समय उनका जो मिथ्याज्ञान था वही सम्यग्ज्ञान हो गया । और सम्यग्ज्ञान होते ही "जयति भगवान्" इत्यादि रूप जो प्रसिद्ध श्लोक हैं उससे भगवान्को नमस्कार करके श्रीजिनेन्द्रकी दीक्षाको धारण कर केशोंका जो लोच किया उसके पीछे ही मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय नामक चार ज्ञान तथा सात ऋद्धियोंके धारक होकर तीनों ही श्रीमहावीर स्वामीके समवसरण में गणधर देव हो गये। उनमें से गौतमस्वामीने भव्यजीवोंके उपकारके अर्थ द्वादशाङ्गरूप श्रुतकी रचना की । फिर वे तीनों ही निश्चयरत्नत्रयकी भावनाके वलसे मोक्षको प्राप्त हुए। और एकादश ( ग्यारह ) अंगों का पाठी भी जो एक अभव्यसेन नामक मुनि था वह सम्यक्त्व के बिना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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