________________
१३२
श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार पुनरेकादशाङ्गधारकोऽपि सम्यक्त्वं विना मिथ्याज्ञानी सञ्जात इति । एवं सम्यक्त्वमाहात्म्येन ज्ञानतपश्चरणव्रतोपशमध्यानादिकं मिथ्यारूपमपि सम्यग्भवति । तदभावे विषयुक्तदुग्धमिव सर्व वृथेति ज्ञातव्यम् ।
तच्च सम्यक्त्वं पञ्चविंशतिमलरहितं भवति । तद्यथा-देवतामूढलोकमूढसमयमूढभेदेन मूढत्रयं भवति । तत्र क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितमनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणसहितं वीतरागसर्वज्ञदेवतास्वरूपमजानन् ख्यातिपूजालाभरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रराज्यादिविभूतिनिमित्तं रागद्वेषोपहतातरौद्रपरिणतक्षेत्रपालचण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामूढत्वं भण्यते । न च ते देवाः किमपि फलं प्रयच्छन्ति । कथमिति चेत् ? रावणेन रामस्वामिलक्ष्मीधरविनाशार्थ बहुरूपिणी विद्या साधिता, कौरवैस्तु पाण्डवनिर्मूलनार्थं कात्यायनी विद्या साधिता, कंसेन च नारायणविनाशार्थ बढ्योऽपि विद्याः समाराधितास्ताभिः कृतं न किमपि रामस्वामिपाण्डवनारायणानाम् । तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपाजितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्व निविघ्नं जातमिति । अथ लोकमूढत्वं कथयति । गङ्गादिनदीतीर्थस्नानसमुद्रस्नानप्रातःस्नानजलप्रवेशमरणाग्निप्रवेशमरणगोग्रहणादिमरणभूम्यग्निवटवृक्षपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यद्वदन्ति तल्लोकमूढत्वं विज्ञेयम् । अथ समयमूढत्वमाह। अज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादक
मिथ्याज्ञानी ही रहा । इन उक्त दोनों कथाओंसे निश्चित हुआ कि सम्यक्त्वके माहात्म्यसे मिथ्यारूप भी जो ज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम तथा ध्यान आदि हैं वे सम्यग् हो जाते हैं। और सम्यक्त्वके विना विष ( जहर ) से मिले हुए दुग्धके समान ज्ञान तपश्चरणादि सब वृथा हैं यह जानना चाहिये।
और वह सम्यक्त्व पच्चीस मलोंसे अर्थात् दोषोंसे रहित होता है। वह इस प्रकार है-उन पच्चीस दोषोंमें देवतामढ़, लोकमढ़ तथा समयमूढ़के भेदोंसे तीन मूढता हैं। उसमें क्षुधा तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित, अनन्त ज्ञान आदि अनंत गुणोंसहित जो श्रीवीतराग सर्वज्ञ देव हैं उनके स्वरूपको नहीं जानता हुआ जीव ख्याति ( लोकमें प्रसिद्धता ), पूजा, लाभ, रूप, लावण्य, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री और राज्य आदिकी सम्पदाको प्राप्त होनेके लिये जो राग तथा द्वेषसे युक्त और आर्त तथा रौद्र ध्यानरूप परिणामोंके धारक क्षेत्रपाल चंडिका आदि मिथ्यादृष्टि देवोंका आराधन करता है उसको देवतामूढ कहते हैं। और ये क्षेत्रपाल, चंडिका आदि देव कुछ भी फल नहीं देते हैं। फल कैसे नहीं देते ? यदि ऐसा पूछो तो उत्तर यह है कि-रावणने श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीके विनाशके लिये बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की, और कौरवोंने पांडवोंका मूलसे नाश करनेके अर्थ कात्यायनी विद्या सिद्ध की थी, तथा कंसने श्रीकृष्ण नारायणके नाशके लिये बहुत-सी विद्याओंकी आराधना की थी। परन्तु उन विद्याओंने श्रीरामचन्द्रजी, पाण्डव और श्रीकृष्णनारायणका कुछ भी अनिष्ट नहीं किया। और श्रीरामचन्द्रजी आदिने इन मिथ्यादृष्टि देवोंको अनुकूल नहीं किया अर्थात् नहीं आराधे तो भी निर्मल सम्यग्दर्शनसे उपार्जित जो पूर्वभवका पुण्य है उससे उनके सब विघ्न दूर हो गये। अब लोकमूढताका कथन करते हैं। "गंगा आदि जो नदीरूप तीर्थ हैं इनमें स्नान करना, समुद्र में स्नान करना, प्रातः (प्रभात ) कालमें स्नान करना, जलमें प्रवेश करके मर जाना, मृतक (मुर्दे) की अग्नि ( चिता ) में प्रवेश करके मरना, गो ( गाय ) के पुच्छ आदिको ग्रहण ( पकड़ ) करके मरण करना, पृथिवी-अग्नि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org