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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः ज्योतिष्कमन्त्रवादादिकं दृष्ट्वा वीतरागस वंज्ञप्रणीतसमयं विहाय कुदेवागमलिङ्गिनां भयाशास्नेहलोभैर्धर्मार्थं प्रणामविनयपूजापुरस्कारादिकरणं समय मूढत्वमिति । एवमुक्तलक्षणं मूढत्रयं सरागसम्यग्दृष्टयवस्थायां परिहरणीयमिति । त्रिगुप्तावस्थालक्षणवीतरागसम्यक्त्व प्रस्तावे पुर्नानजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैव देव इति निश्चयबुद्धिर्देवतामूढरहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव मिथ्यात्वरागादिरूप - मूढभावत्यागेन स्वशुद्धात्मन्येवावस्थानं लोकमूढ रहितत्वं विज्ञेयम् । तथैव च समस्त शुभाशुभसङ्कल्पविकल्परूपपरभावत्यागेन निर्विकारतात्त्विक परमानन्दैकलक्षणपरमसमरसीभावेन तस्मिन्नेव सम्यग्रूपेणायनं गमनं परिणमनं समयमूढरहितत्वं बोद्धव्यम् । इति मूढत्रयं व्याख्यातम् । अथ मदाष्टस्वरूपं कथ्यते । विज्ञानैश्वर्यज्ञानतपः कुलबलजातिरूपसंज्ञं मदाष्टकं सरागसम्यग्दृष्टिभिस्त्याज्यमिति । वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुनर्मानकषायादुत्पन्नमदमात्सर्यादिसमस्तविकल्पजालपरिहारेण ममकाराहङ्काररहिते शुद्धात्मनि भावनैव मदाष्टकत्याग इति । ममकाराहङ्कारलक्षणं कथयति । कर्मजनितदेह पुत्र कलत्रादौ ममेदमिति ममकारस्तत्रैवाभेदेन गौरस्थूलादिदेहोऽहं राजाहमित्यहङ्कारलक्षणमिति । १३३ और वट ( बड़ ) वृक्ष आदिकी पूजा करना" ये सब पुण्यके कारण हैं इस प्रकार जो लोक कहते हैं उसको लोकमूढता जानना चाहिये । अब समयमूढ अर्थात् शास्त्र अथवा धर्ममूढताको कहते हैं । अज्ञानी लोगों के चित्तमें चमत्कार ( आश्चर्य ) उत्पन्न करनेवाले जो ज्योतिष अथवा मंत्रवाद आदिको देखकर; श्रीवीतराग- सर्वज्ञद्वारा कहा हुआ जो समय ( धर्मं ) है उसको छोड़कर मिथ्यादृष्टि देव, मिथ्या आगम और खोटा तप करनेवाले कुलिङ्गी इन सबका भयसे, वांछासे, स्नेहसे और लोभके वशसे जो धर्मके लिये प्रणाम, विनय, पूजा, सत्कार आदिका करना है उस सबको समय मूढता जानना चाहिये । इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणकी धारक जो तीन मूढता हैं इनको सरागसम्यग्दृष्टिकी अवस्था ( दशा ) में त्यागना चाहिये। और मन, वचन तथा कायकी गुप्तिरूप अवस्था है लक्षण जिसका ऐसा जो वीतरागसम्यक्त्व है उसके प्रस्ताव ( निरूपण ) में अपना निरंजन तथा निर्दोष जो परमात्मा है वही देव हैं ऐसी जो निश्चय बुद्धि है यही देवमूढता से रहितता जाननी चाहिये । तथा मिथ्यात्व - राग आदिरूप जो मूढभाव हैं इनका त्याग करने से जो निजशुद्ध आत्मामें स्थितिका करना है वही लोकमूढतासे रहितता है यह जानने योग्य है । इसी प्रकार संपूर्ण शुभ तथा अशुभरूप जो संकल्प विकल्पस्वरूप परभाव हैं उनके त्यागरूप जो विकाररहित वास्तविक परमानंदमय लक्षणका धारक परम समताभाव है उससे उस निज शुद्ध आत्मामें जो सम्यक्प्रकार से अयन अर्थात् गमन अथवा परिणमन करना है उसको समयमूढता से रहितता समझना चाहिये । इस प्रकार तीन मूढताका व्याख्यान किया । ७, अब आठ मदोंके स्वरूपको कहते हैं। विज्ञान ( कला अथवा हुन्नर ) का मद १, ऐश्वर्यं ( हुकूमत ) का मद २, ज्ञानका मद ३, तपका मद ४, कुलका मद ५, बलका मद ६, जातिका मद और रूपका मद ८, इस प्रकार नामोंके धारक जो आठ मद हैं इनका सरागसम्यग्दृष्टिको त्याग करना चाहिये । और मान कषायसे उत्पन्न जो मद मात्सर्य ( ईर्षा ) आदि समस्त विकल्पोंका समूह है इसके त्यागपूर्वक जो ममकार और अहंकारसे रहित शुद्ध आत्मामें भावना है वही वीतरागसम्यग्दृष्टियों के आठ मदोंका त्याग है । ममकार तथा अहंकारके लक्षणको कहते हैं । कर्मोंसे उत्पन्न जो देह-पुत्र स्त्री आदि हैं इनमें यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है, इस प्रकारकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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