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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार अथानायतनषट्कं कथयति । मिथ्यादेवो, मिथ्यादेवाराधका मिथ्यातपो, मिथ्यातपस्वी, मिथ्यागमो, मिथ्यागमधराः पुरुषाश्चेत्युक्तलक्षणमनायतनषट्कं सरागसम्यग्दृष्टीनां त्याज्यं भवतीति । वीतरागसम्यग्दृष्टीनां पुनः समस्तदोषायतनभूतानां मिथ्यात्वविषयकषायरूपायतनानां परिहारेण केवलज्ञानाद्यनन्तगुणायतनभूते स्वशुद्धात्मनि निवास एवानायतनसेवापरिहार इति । अनायतनशब्दस्यार्थः कथ्यते । सम्यक्त्वादिगुणानामायतनं गृहमावास आश्रय आधारकरणं निमित्तमायतनं भण्यते तद्विपक्षभूतमनायतनमिति । १३४ अतः परं शङ्काद्यष्ट मलत्यागं कथयति । निःशङ्काद्यष्टगुणप्रतिपालनमेव शङ्काद्यष्ट्र मलत्यागो भण्यते । तद्यथा - रागादिदोषा अज्ञानं वाऽसत्यवचनकारणं तदुभयमपि वीतरागसर्वज्ञानां नास्ति ततः कारणात्तत्प्रणीते हेयोपादेयतत्त्वे मोक्षे मोक्षमार्गे च भव्यैः संशयः सन्देहो न कर्त्तव्यः । तत्र शङ्कादिदोषपरिहारविषये पुनरञ्जनचौरकथा प्रसिद्धा । तत्रैव विभीषणकथा । तथाहि - सीताहरणप्रघट्टके रावणस्य रामलक्ष्मणाभ्यां सह सङ्ग्रामप्रस्तावे विभीषणेन विचारितं रामस्तावदष्टमबलदेवो लक्ष्मणश्चाष्टमों वासुदेवो रावणाश्चाष्टमः प्रतिवासुदेव इति । तस्य च प्रतिवासुदेवस्य वासुदेवहस्तेन मरणमिति जैनागमे पठितमास्ते तन्मिथ्या न भवतीति निःशङ्को भूत्वा त्रैलोक्यकण्टकं जो वृद्धि है वह ममकार है, और उन शरीर आदिमें अपनी आत्मासे भेद न मानकर जो मैं गोरे वर्णका हूँ, मोटे शरीरका धारक हूँ, राजा हूँ इस प्रकार मानना सो अहंकारका लक्षण है । अब छः अनायतनोंका कथन करते हैं । मिथ्यादेव १, मिथ्यादेवोंके सेवक २, मिथ्यातप ३, मिथ्यातपस्वी ४, मिथ्याशास्त्र ५, और मिथ्याशास्त्रोंके धारक पुरुष ६, इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षणके धारक जो छः अनायतन ये सरागसम्यग्दृष्टियोंको त्याग करने योग्य होते हैं । और जो वीतरागसम्यग्दृष्टी जीव हैं उनके संपूर्ण दोषोंके स्थानभूत मिथ्यात्व, विषय तथा कषायरूप आयतनोंके त्यागपूर्वक केवलज्ञान आदि अनन्तगुणोंके स्थानभूत निजशुद्ध आत्मामें जो निवासका करना है वही अनायतनोंकी सेवाका त्याग है । अनायतन शब्दके अर्थको कहते हैं । सम्यक्त्व आदि गुणोंका आयतन अर्थात् घर, आवास, आश्रय अथवा आधार करनेका जो निमित्त है उसको आयतन कहते हैं और जो सम्यक्त्व आदि गुणोंसे विपरीत मिथ्यात्व आदि दोषोंके धारण करनेका निमित्त है वह अनायतन है । अब इसके अनंतर शंका आदि आठ दोषोंके त्यागका कथन करते हैं । निःशंक आदि आठ गुणों का जो पालन करना है वही शंकादि आठ मलों ( दोषों) का त्याग कहलाता है । वह इस प्रकार है- राग आदि दोष तथा अज्ञान ये दोनों असत्य ( झूठ ) वचन बोलने में कारण हैं और रागादि दोष तथा अज्ञान ये दोनों ही वीतराग सर्वज्ञ श्रीजिनेन्द्रदेवोंके नहीं हैं इस कारण श्रीजिनेन्द्रदेवोंसे निरूपित किये हुए हेयोपादेयतत्त्वमें अर्थात् यह त्याज्य है यह ग्राह्य है इस प्रकारके तत्त्व में, मोक्षमें और मोक्षमार्ग में भव्यजीवोंको सन्देह नहीं करना चाहिये । इस स्थल में प्रथम जो शंका दोष है इसके त्यागके विषय में अंजनचौरकी कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध ही है और विभीषणकी भी कथा इस प्रकरणमें जाननी चाहिये । उसीका कथन करते हैं कि, सीताजीके हरणके प्रसंग में जब रावणका श्रीरामलक्ष्मणके साथ युद्ध करनेका अवसर आया तब विभीषणने विचार किया कि श्रीरामचंद्रजी तो अष्टम ( ८ वें ) बलदेव हैं और लक्ष्मणजी अष्टम नारायण हैं तथा रावण अष्टम प्रतिनारायण है । और जो प्रतिनारायण होता है उसका नारायणके हाथसे मरण होता है ऐसा जैनशास्त्रों में पढ़ा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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