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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १३५ रावणं स्वकीयज्येष्ठभ्रातरं त्यक्त्वा त्रिंशदक्षौहिणीप्रमितचतुरङ्गबलेन सह स रामस्वामिपार्श्वे गत इति । तथैव देवकीवसुदेवद्वयं निःशङ्कं ज्ञातव्यम् । तथाहि - यदा देवकीबालकस्य मारणनिमित्तं कंसेन प्रार्थना कृता तदा ताभ्यां पर्यालोचितं मदीयः पुत्रो नवमो वासुदेवो भविष्यति तस्य हस्तेन जरासिन्धुनाम्नो नवमप्रति वासुदेवस्य कंसस्यापि मरणं भविष्यतीति जैनागमे भणितं तिष्ठतीति, तथैवातिमुक्त भट्टारकैरपि कथितमिति निश्चित्य कंसाय स्वकीयं बालकं दत्तम् । तथा शेषभव्यैरपि जिनागमे शङ्का न कर्त्तव्येति । इदं व्यवहारेण सम्यक्त्वस्य व्याख्यानम् । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिःशङ्कागुणस्य सहकारित्वेनेहलोकात्राणागुप्तिमरणव्याधिवेदनाकस्मिकाभिधानभयसप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्गपरीषहप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षण निश्चय रत्नत्रय भावेनैव निःशङ्कगुणो ज्ञातव्य इति । अथ निष्काङ्क्षितागुणं कथयति । इहलोकपरलोकाशारूपभोगाकाङ्क्षानिदानत्यागेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थं ज्ञानपूजातपश्चरणाद्यनुष्ठानकरणं निष्काङ्क्षागुणो भण्यते । तथानन्तमतीकन्याकथा प्रसिद्धा । द्वितीया च सीता महादेवीकथा । सा कथ्यते । सीता यदा लोकापवादपरिहारार्थं दिव्ये शुद्धा जाता तदा रामस्वामिना दत्तं पट्टमहादेवीविभूतिपदं त्यक्त्वा सकलभूषणानगार केवलिपादमूले कृतान्तवक्रादिराजभिस्तथा बहुराज्ञीभिश्च सह जिनदीक्षां गृहीत्वा है, वह मिथ्या नहीं हो सकता इस प्रकार शंकारहित होकरके अपना बड़ा भाई जो तीन लोकका कंटक रावण था उसको छोड़कर तीस अक्षौहिणी सेना प्रमाण जो अपना चतुरंग ( हाथी, घोड़ा, रथ, पयादेरूप ) बल था उस सहित श्रीरामचन्द्रजीके समीप चला गया । इसी प्रकार देवकी तथा वसुदेवको भी शंकारहित जानना चाहिये । सो ही दिखाते हैं कि, जैसे जब कंसने देवकी के बालकको मारनेके लिये प्रार्थना की तब देवकी और वसुदेवने विचार किया कि मेरा पुत्र नवम ( ९वाँ ) नारायण होगा और उसके हाथसे जरासिंधुनामक नवम प्रतिनारायणका और कंसका मरण होगा यह जैनागममें कहा हुआ है, और श्रीभट्टारक अतिमुक्त स्वामीने भी ऐसा ही कहा है, इस प्रकार निश्चय करके कंसको अपना बालक देना स्वीकार किया । जैसे इन उक्त पुरुषोंने अपनी शंकारहित प्रवृत्ति की इसी प्रकार अन्य भव्यजीवोंको भी जैनशास्त्रों में शंका नहीं करनी चाहिये । यह व्यवहारनयसे सम्यक्त्वका व्याख्यान किया । और निश्चयसे उस व्यवहार निःशंकागुणकी सहायता से इस लोकका भय १, परलोकका भय २, रक्षाके स्थानके अभाव से उत्पन्न भय ३, मरणभय ४, व्याधिभय ५, वेदनाभय ६, और आकस्मिक भय ७, इन नामोंके धारक जो सात भय हैं उनको छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहोंके आनेपर भी शुद्ध उपयोगरूप जो निश्चय रत्नत्रय है उसकी भावनाको ही निःशंकागुण जानना चाहिये । ra froriक्षित गुणको कहते हैं । इस लोक तथा परलोकसंबंधी आशारूप जो भोगाकांक्षानिदान है इसका त्याग करके जो केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी प्रकटतारूप मोक्ष है उसके लिए ज्ञान, पूजा, तपश्चरण आदि अनुष्ठानोंका जो करना है वही निष्कांक्षिता गुण कहलाता है । इस गुणमें अनंतमतीको कथा प्रसिद्ध है । दूसरी सीता महाराणीकी कथा है । उसको कहते हैं । जब लोकके अपवाद ( निंदा ) को दूर करनेके लिए सीताजी अग्निकुंड में दिव्य (धीज ) लेकर निर्दोष सिद्ध हुई तब श्रीरामचंद्रजीने उनको पट्टमहाराणोका पद दिया; परन्तु सीताजीने पट्टमहादेवीकी संपदाको छोड़कर केवलज्ञानी श्रीसकलभूषण मुनिके चरणमूल में Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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