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________________ १३६ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [तृतीय अधिकार शशिप्रभाधामिकासमुदायेन सह ग्रामपुरखेटकादिविहारेण भेदाभेदरत्नत्रयभावनया द्विषष्टिवर्षाणि जिनसमयप्रभावनां कृत्वा पश्चादवसाने त्रयस्त्रिशदिवसपर्यन्तं निर्विकारपरमात्मभावनासहितं संन्यासं कृत्वाऽच्युताभिधानषोडशस्वर्गे प्रतीन्द्रतां याता। ततश्च निर्मलसम्यक्त्वफलं दृष्ट्वा धर्मानुरागेण नरके रावणलक्ष्मणयोः संबोधनं कृत्वेदानी स्वर्गे तिष्ठति । अग्रे स्वर्गादागत्य सकलचक्रवर्ती भविष्यति । तौ च रावणलक्ष्मीधरौ तस्य पुत्रौ भविष्यतः । ततश्च तीर्थंकरपादमूले पूर्वभवान्तरं दृष्ट्वा पुत्रद्वयेन सह परिवारेण च सह जिनदीक्षां गृहीत्वा भेदाभेदरत्नत्रयभावनया पञ्चानुत्तरविमाने त्रयोऽप्यहमिन्द्रा भविष्यन्ति । तस्मादागत्य रावणस्तीर्थकरो भविष्यति, सीता च गणधर इति, लक्ष्मीधरो धातकीखण्डद्वीपे तीर्थकरो भविष्यति । इति व्यवहारनिष्कांक्षितागुणो विज्ञातव्यः । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिष्काङ्क्षागुणस्य सहकारित्वेन दृष्टश्रुतानुभूतपञ्चेन्द्रियभोगत्यागेन निश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपारमार्थिकस्वात्मोत्थसुखामृतरसे चित्तसन्तोषः स एव निष्काक्षा गुण इति। अथ निविचिकित्सागुणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयाराधकभव्यजीवानां दुर्गन्धबीभत्सादिक दृष्ट्वा धर्मबुद्धया कारुण्यभावेन वा यथायोग्यं विचिकित्सापरिहरणं द्रव्यनिविचिकित्सागुणो भण्यते । यत्पुनर्जेनसमये सर्वं समीचीनं परं किन्तु वस्त्रप्रावरणं जलस्नानादिकं च न कुर्वन्ति तदेव कृतान्तवक्र आदि राजा तथा बहुतसी रानियोंसहित श्रीजिनदीक्षाको ग्रहण करके शशिप्रभा आदि आर्यिकाओंके समूह सहित ग्राम, पुर, खेटक आदिमें विहारद्वारा भेदाभेदरूप रत्नत्रयकी भावनासे बासठवर्ष पर्यन्त जिनमतकी प्रभावना की। फिर अन्त्य समयमें तेतीस दिनपर्यंत निर्विकार परमात्माके ध्यानपूर्वक संन्यास ( समाधिमरण ) करके अच्युत नामक सोलहवें स्वर्गमें प्रतीन्द्र हुई। और वहाँपर उन्होंने (सीताजीके जीव प्रतीन्द्रने) अवधिज्ञानसे निर्मल सम्यग्दर्शनके फलको देखकर धर्मके अनुरागसे नरकमें जाकर रावण और लक्ष्मणके जीवोंको संबोधा और वे (प्रतीन्द्र ) अब स्वर्गमें विराज रहे हैं। आगे सीताजीका जीव स्वर्गसे आकर सकल चक्रवर्ती होगा और वे दोनों रावण तथा लक्ष्मणके जोव इस चक्रवर्तीके पुत्र होंगे। पश्चात् श्रीतीर्थंकरके चरणमूल में अपने पूर्वभवोंको देखकर दोनों पुत्र तथा परिवारसहित सीताजीका जीव सकल चक्रवर्ती दीक्षाको ग्रहण कर भेदाभेदरत्नत्रयको भावनासे सीता, रावण तथा लक्ष्मण ये तीनों ही पाँच अनुत्तर विमानोंमें अहमिन्द्र होंगे । वहाँसे आकर रावण तो तीर्थंकर होगा और सीताजीका जीव गणधर होगा। तथा लक्ष्मणजी धातकीखंडद्वीपमें तीर्थंकर होंगे। इस प्रकार व्यवहार निष्कांक्षितागुणका स्वरूप जानना चाहिये। और निश्चयसे उसी व्यवहार निष्कांक्षागुणकी सहायतासे देखे, सुने तथा अनुभव किये हुए जो पाँचों इन्द्रियोंसंबन्धी भोग हैं इनके त्यागसे निश्चयरत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न जो पारमार्थिक निज आत्मासे उत्पन्न सुखरूपी अमृत रस है उसमें जो चित्तका संतोष होना है वही निष्कांक्षागुण है । ___ अब निविचिकित्सा नामक गुणको कहते हैं। भेद अभेदरूप रत्नत्रयको आराधनेवाले जो भव्यजीव हैं उनकी दुर्गन्धि तथा भयंकर आकृति आदिको देखकर धर्मबुद्धिसे अथवा करुणाभावसे यथायोग्य विचिकित्सा ( ग्लानि ) को जो दूर करना है इसको द्रव्यनिर्विचिकित्सा गुण कहते हैं। और "जैनमतमें सब अच्छी अच्छी बातें हैं परतु वस्त्रके आवरणसे रहितता अर्थात् नग्नपना और जलस्नान आदिका न करना यही दूषण है" इसको आदि ले जो कुत्सित ( बुरे ) भाव हैं इनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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