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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः १३७ दूषणमित्यादि कुत्सित भावस्य विशिष्टविवेकबलेन परिहरणं सा निर्विचिकित्सा भण्यते । अस्य व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुणस्य विषय उद्दायनमहाराजकथा रुक्मिणीमहादेवीकथा चागमप्रसिद्धा ज्ञातव्येति । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिविचिकित्सागुणस्य बलेन समस्तद्वेषादिविकल्परूपकल्लोलमालात्यागेन निर्मलात्मानुभूतिलक्षणे निजशुद्धात्मनि व्यवस्थानं निर्विचिकित्सा गुण इति ॥ ३ ॥ इतः परममूढदृष्टिगुणकथां कथयति । वीतरागसर्वज्ञप्रणीतागमार्था द्वहिर्भूतैः कुदृष्टिभि - प्रणीतं धातुवादखन्यवादहर मे खलक्षुद्रविद्यान्यन्तरविकुर्वणादिकमज्ञानिजनचित्तचमत्कारोत्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्धया तत्र रुचि भक्ति न कुरुते स एव व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते । तत्र चोत्तरमथुरायां उदुरुलिभट्टारक रेवतोश्राविकाचन्द्रप्रभनामविद्याधरब्रह्मचारिसम्बन्धिनी कथा प्रसिद्धेति । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढदृष्टिगुणस्य प्रसादेनान्तस्तत्त्वबहिस्तवनिश्वये जाते सति समस्त मिथ्यात्व रागादिशुभाशुभसङ्कल्पविकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेय बुद्धि हितबुद्धि ममत्वभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि यन्निश्चलावस्थानं तदेवामूढदृष्टित्वमिति । सङ्कल्पविकल्पलक्षणं कथ्यते । पुत्रकलत्रादौ बहिर्द्रव्ये ममेदमिति कल्पना सङ्कल्पः, अभ्यन्तरे सुख्यहं दुःख्यहमिति हर्षविषादकारणं विकल्प इति । अथवा वस्तुवृत्त्या सङ्कल्प इति कोऽर्थो विकल्प इति तस्यैव पर्यायः ॥ ४ ॥ विशेषज्ञानके बलसे जो दूर करना वह निर्विचिकित्सा कहलाती है । यह जो व्यवहार निर्विचिकित्सा गुण है इसके पालनेके विषय में उद्दायन नामक महाराजा तथा रुक्मिणी नामक श्रीकृष्णकी पट्टराणीकी कथा शास्त्रमें प्रसिद्ध जाननी चाहिये । और निश्चयसे तो इसी व्यवहारनिर्विचिकित्सा गुणके बलसे जो समस्त रागद्वेष आदि विकल्परूप तरंगोंके समूहका त्याग करके निर्मल आत्मानुभवलक्षण निजशुद्ध आत्मामें स्थिति करना है वही निर्विचिकित्सागुण है || ३ || अब इसके आगे अमूढदृष्टिगुणका कथन करते हैं। श्री वीतराग सर्वज्ञ देव कथित जो शास्त्रका आशय है उससे बहिर्भूत जो कुदृष्टियोंके बनाये हुए अज्ञानी जनोंके विस्मय उत्पन्न करनेवाले धातुवाद (रसायनशास्त्र), खन्यवाद, हरमेखल, क्षुद्रविद्या, व्यन्तर विकुर्वणादि शास्त्र हैं उनको देखकर तथा सुनकरके जो कोई मूढभावसे धर्मकी बुद्धि करके उनमें प्रीतिको तथा भक्तिको नहीं करता है उसीको व्यवहारसे अमूढदृष्टि गुण कहते हैं । और इस गुणके पालनके विषय में उत्तर मथुरा में उदुरुलि भट्टारक, रेवती श्राविका और चंद्रप्रभनामक विद्याधर ब्रह्मचारी संबंधी कथा शास्त्रों में प्रसिद्ध है । और निश्चय में इसी व्यवहार अमूढदृष्टि गुण के प्रसादसे जब अन्तरंग तत्त्व ( आत्मा ) और बाह्यतत्त्व ( शरीरादि ) का निश्चय हो जाता है तब संपूर्ण मिथ्यात्व, रागआदि तथा शुभ-अशुभ संकल्पविकल्पोंके इष्ट जो इनमें आत्मबुद्धि, उपादेय ( ग्राह्य) वृद्धि, हितबुद्धि और ममत्वभाव हैं उनको छोड़कर मन, वचन, काय इन तीनोंकी गुप्तिरूपसे विशुद्धज्ञान तथा दर्शन स्वभावका धारक निज आत्मा है उसमें जो निवास करना ( ठहरना ) है नाम गुण है । संकल्प और विकल्पके लक्षणको कहते हैं । पुत्र तथा स्त्री आदि जो वाह्य पदार्थ हैं, उनमें ये मेरे हैं ऐसी जो कल्पना है वह तो संकल्प है, और अन्तरंग में मैं सुखी हूँ मैं दुखी हूँ इस प्रकार जो हर्ष तथा खेदका करना है वह विकल्प है । अथवा यथार्थरूपसे जो संकल्प है वही विकल्प है अर्थात् संकल्पके विवरणरूपसे विकल्प संकल्पका पर्याय ही है ||४|| For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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