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________________ १३८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ तृतीय अधिकार __ अथोपगृहनगुणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयभावनारूपो मोक्षमार्गः स्वभावेन शुद्ध एव तावत्, तत्राज्ञानिजननिमित्तेन तथैवाशक्तजननिमित्तेन च धर्मस्य पैशून्यं दूषणमपवादो दुष्प्रभावना यदा भवति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्यार्थेन धर्मोपदेशेन वा यद्धर्मार्थं दोषस्य झम्पनं निवारणं क्रियते तद्व्यवहारनयेनोपगहनं भण्यते। तत्र मायाब्रह्मचारिणा पार्श्वभट्टारकप्रतिमालग्नरत्नहरणे कृते सत्युपगहन विषये जिनदत्तष्ठिकथा प्रसिद्धति । अथवा रुद्रजनन्या ज्येष्ठासंज्ञाया लोकापवादे जाते सति यद्दोषझम्पनं कृतं तत्र चेलिनीमहादेवीकथेति । तथैव निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारोपगृहनगुणस्य सहकारित्वेन निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मनः प्रच्छादका ये मिथ्यात्वरागादिदोषास्तेषां तस्मिन्नेव परमात्मनि सम्यकश्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपं यद्धयानं तेन प्रच्छादनं विनाशनं गोपनं झम्पनं तदेवोपगहनमिति ॥ ५ ॥ __अथ स्थितीकरणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयधारकस्य चातुर्वर्णसङ्घस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनचारित्रमोहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्रं वा परित्यक्तुं वाञ्छति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थेन वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धमें स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितीकरणमिति । तत्र च पुष्पडालतपोधनस्य स्थिरीकरणप्रस्तावे वारिषेणकुमारकथागमप्रसिद्धति । निश्चयेन पुनस्तेनैव व्यवहारेण स्थितीकरणगुणेन धर्मदृढत्वे जाते सति दर्शनचारित्रमोहोदयजनितसमस्त मिथ्यात्वरागादिविकल्पजालत्यागेन निजपरमात्मस्वभावभावनोत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखा अब उपगृहनगुणका कथन करते हैं। यद्यपि भेद अभेद रत्नत्रयकी भावनारूप जो मोक्षमार्ग है वह स्वभावसे ही शुद्ध है तथापि उसमें जब कभी अज्ञानी मनुष्यके निमित्तसे अथवा धर्मपालनमें असमर्थ जो पुरुष हैं उनके निमित्तसे जो धर्मकी चुगली, निन्दा, दूषण तथा अप्रभावना हो तब शास्त्रके अनुकूल शक्तिके अनुसार धनसे अथवा धर्मके उपदेशसे जो धर्मके लिये उसके दोषोंका ढकना है तथा दूर करना है उसको व्यवहार उपगूहन गुण कहते हैं। इस व्यवहार उपगृहनगुणके पालनके विषयमें जब एक कपटी ब्रह्मचारीने श्रीपार्श्वनाथस्वामीकी प्रतिमामें लगे हुए रत्नको चोरा उस समय जिनदत्त शेठने जो उपगृहन किया था वह कथा शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। अथवा रुद्र ( महादेव ) की जो ज्येष्ठा नामक माता थी उसका जव लोकापवाद ( लोकनिन्दा ) हुआ तब उसके दोषके ढकनेमें चेलिनी महाराणोकी कथा शास्त्रप्रसिद्ध है। इसी प्रकार निश्चयसे व्यवहार उपगृहन गुणकी सहायतासे अपने निरंजन निर्दोष परमात्माको ढकनेवाले जो राग आदि दोप हैं उन दोषोंका उसी परमात्मामें सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा आचरणरूप जो ध्यान है उसके द्वारा जो ढकना, नाश करना, छिपाना तथा झंपन है वही उपगूहन है ।। ५ ।। ___अब स्थितीकरणगुणका कथन करते हैं। भेद तथा अभेद रूप रत्नत्रयको धारण करनेवाला जो मुनि, आर्यिका, श्रावक तथा श्राविका रूप चार प्रकारका संघ है उसमेंसे जो कोई दर्शनमोहनीके उदयसे दर्शनको अथवा चारित्रमोहनीके उदयसे चारित्रको छोड़ने की इच्छा करे उसको शास्त्रको आज्ञानुसार यथाशक्ति धर्मोपदेश श्रवण करानेसे, धनसे वा सामर्थ्य से अथवा किसी उपायसे जो धर्ममें स्थिर कर देना है वह व्यवहारसे स्थितीकरण गुण है। और इस गुणमें पुष्पडालमुनिको धर्ममें स्थिर करनेके प्रसंगमें वारिषेण कुमारको कथा शास्त्रप्रसिद्ध है। और निश्चयसे उसी व्यवहारस्थितीकरणगुणसे जब धर्ममें दृढ़ता हो जावे तब दर्शनमोहनी तथा चारित्रमोहनीके उदयसे उत्पन्न जो समस्त मिथ्यात्व राग आदि विकल्पोंका समूह है उसके त्यागद्वारा निज परमात्माकी भावनासे उत्पन्न परम आनंदरूप सुखामृत रसके आस्वादरूप जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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