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________________ मोक्षमार्ग वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १३९ मृतरसास्वादेन तल्लय तन्मयपरमसमरसीभावेन चित्तस्थितीकरणमेव स्थितीकरणमिति ॥ ६ ॥ अथ वात्सल्याभिधानं सप्तमाङ्ग प्रतिपादयति । बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाधारे चतुविधसङ्घवत्सेधेनुवत्पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्तं पुत्रकलत्रसुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिमस्नेहकरणं तद्व्यवहारेण वात्सल्यं भव्यते । तत्र च हस्तिनागपुराधिपतिपद्मराजसंबन्धिना बलिनामदुष्टमन्त्रिणा निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकाकम्पनाचार्य प्रभृतिसप्तशतयतीनामुपसर्गे क्रियमाणे सति विष्णुकुमारनाम्ना निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गाराधकपरमयतिना विकुर्वर्णाद्धिप्रभावेण वामनरूपं कृत्वा बलिमन्त्रिपार्श्वे पादत्रयप्रमाणभूमिप्रार्थनं कृत्वा पश्चादेकः पादो मेरुमस्तके दत्तो द्वितीयो मानुषोत्तरपर्वते तृतीयपादस्यावकाश नास्तीति वचनच्छलेन मुनिवात्सल्यनिमित्तं बलिमन्त्री बद्ध इत्येका तावदागमप्रसिद्धा कथा । द्वितीया च दशपुरनगराधिपतेर्वज्रकर्णनाम्नः । उज्जयिनीनगराधिपतिना सिंहोदरमहाराजेन जैनोऽयं मम नमस्कारं न करोतीति मत्त्वा दशपुरनगरं परिवेष्टय घोरोपसर्गे क्रियमाणे भेदाभेद रत्नत्रय भावनाप्रियेण रामस्वामिना वज्रकर्णवात्सल्यनिमित्तं सिंहोदरो बद्ध इति रामायणमध्ये प्रसिद्धेयं वात्सल्यकथेति । निश्चयवात्सल्यं पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे दृढत्वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्त शुभाशुभबहिर्भावेषु प्रोति त्यक्त्वा रागादि विकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसञ्जात सदानन्दैकलक्षण सुखामृतरसास्वादं प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमाङ्गं व्याख्यातम् ॥ ७ ॥ परमात्मामें लीन अथवा परमात्मस्वरूप समरसी ( समता ) भाव है उससे जो चित्तका स्थिर करना है वही स्थितीकरण है ।। ६ ।। अव वात्सल्य नामक सप्तम अंगका निरूपण करते हैं । बाह्य और आभ्यंतर इन दोनों प्रकारके रत्नत्रयको धारण करनेवाले मुनि, आर्थिका, श्रावक तथा श्राविका रूप चारों प्रकारके संघ जैसे गो (गाय) की वत्स में प्रीति रहती है उसके समान; अथवा पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके निमित्त पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदिमें जो स्नेह रहता है उसके समान; अतुल्य स्नेह ( प्रौति ) का जो करना है वह व्यवहारनयकी अपेक्षासे वात्सल्य कहा जाता है । और इस विषय में हस्तिनागपुर ( हथनापुर ) के राजा पद्मराजके बलिनामक दुष्ट मंत्रीने जब निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयके आराधक अकंपनाचार्य आदि सातसौ मुनियोंको उपसर्ग किया तब निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग ( रत्नत्रय ) के आराधनेवाले विष्णुकुमार नामक महामुनीश्वरने विक्रियाऋद्धि के प्रभावसे वामनरूपको धारण करके बलिनामक दुष्ट मन्त्रीके पाससे तीन पग प्रमाण पृथ्वीकी याचना की और जब बलिने देना स्वीकार किया तब एक पग तो मेरुके शिखर पर दिया, दूसरा मानुपोत्तरपर्वत पर दिया और तीसरे पादको रखनेके लिये अवकाश ( स्थान ) नहीं रहा तव वचनछल से प्रतिज्ञाभंगका दोष लगाकर मुनियोंके वात्सल्य निमित्त बलिमन्त्रीको बाँध लिया, यह तो एक लागमप्रसिद्ध कथा है ही और दूसरी वज्रकर्ण नामक दशपुर नगरके राजाकी प्रसिद्ध कथा है । वह यह है कि उज्जयिनीके राजा सिंहोदरने 'वज्रकर्ण जैनी है और मुझको नमस्कार नहीं करता है' ऐसा विचार करके जब वज्रकर्णसे नमस्कार करानेके लिये दशपुर नगरको घेरकर घोर उपसर्ग किया तब भेदाभेद रत्नत्रयकी भावना है प्यारी जिनको ऐसे श्रीरामचंद्रजीने वज्रकर्ण के वात्सल्यके अर्थ सिंहोदरको बाँध लिया । इस प्रकार यह कथा रामायण ( पद्मपुराण ) में प्रसिद्ध है । और इसी व्यवहारवात्सल्यगुणके सहकारीपनेसे जब धर्म में दृढ़ता हो जाती है तब मिथ्यात्व, राग आदि संपूर्ण वाह्य पदार्थो में प्रीतिको छोड़कर राग आदि विकल्पोंकी उपाविरहित परम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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