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________________ १४० श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [ तृतीय अधिकार अथाष्टमाङ्ग नाम प्रभावनागुणं कथयति । श्रावकेन दानपूजादिना तपोधनेन च तपःश्रुतादिना जैनशासनप्रभावना कर्तव्येति व्यवहारेण प्रभावनागुणो ज्ञातव्यः । तत्र पुनरुत्तरमथुरायां जिनसमयप्रभावनशीलाया उविल्लामहादेव्याः प्रभावननिमित्तमुपसर्गे जाते सति वज्रकुमारनाम्ना विद्याधरश्रमणेनाकाशे जैनरथभ्रमणेन प्रभावना कृतेत्येका आगमप्रसिद्धा कथा। द्वितीया तु जिनसमयप्रभावनाशील वप्रामहादेवीनामस्वकीयजनन्या निमित्तं स्वस्य धर्मानुरागेण च हरिषेणनामदशमचक्रवतिना तद्भवमोक्षगामिना जिनसमयप्रभावनार्थमुत्तुङ्गतोरणजिनचैत्यालयमण्डितं सर्वभूमितलं कृतमिति रामायणे प्रसिद्धयं कथा। निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारप्रभावनागुणस्य बलेन मिथ्यात्वविषयकषायप्रभृतिसमस्तविभावपरिणामरूपपरसमयानां प्रभावं हत्वा शुद्धोपयोगलक्षणस्वसंवेदनज्ञानेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजशुद्धात्मनः प्रकाशनमनुभवनमेव प्रभावनेति ॥८॥ एवमुक्तप्रकारेण मूढत्रयमदाष्टकषडनायतनशङ्काद्यष्टमलरहितं शुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम् । तथैव तेनैव व्यवहारसम्यक्त्वेन पारम्पर्येण साध्यं शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावनोत्पन्नपरमालादैकरूपसुखामृतरसास्वादनमेवोपादेयमिन्द्रियसुखादिकं च हेयमिति रुचिरूपं वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति । अत्र व्यवहारसम्यक्त्वमध्ये निश्चयसम्यक्त्वं किमर्थ स्वास्थ्यके ज्ञानसे उत्पन्न सदा आनंद रूप जो सुखमय अमृतका आस्वाद है उसके प्रति प्रीतिका करना ही निश्चय वात्सल्य है । इस प्रकार सप्तम वात्सल्यअंगका व्याख्यान पूर्ण किया ॥ ७ ॥ __अब अष्टम अंग अर्थात् प्रभावनागुणका कथन करते हैं। श्रावक तो दान पूजा आदिसे जो जैन मतको प्रभावना करे और मुनि तप, श्रुत आदिसे जैनधर्मकी जो प्रभावना करे वही व्यवहारसे प्रभावना गुण है ऐसा जानना चाहिये । और इस गुणके पालनेमें उत्तरमथुरामें (मथुरामें) जिनमतकी प्रभावना करनेका है स्वभाव जिसका ऐसी उरविला महादेवीको प्रभावनाके निमित्त जब उपसर्ग हुआ तब वज्रकुमार नामक विद्याधर श्रमणने आकाशमें जैनरथको फिराकर प्रभावना की, यह तो एक शास्त्रमें प्रसिद्ध कथा है। और दूसरी कथा यह है कि उसी भवमें मोक्ष जानेवाले हरिषेण नामक दशवें चक्रवर्तीने जिनमतको प्रभावना करनेका है स्वभाव जिसका ऐसी अपनी माता वप्रा महादेवीके निमित्त और अपने धर्मानुरागसे जिनमतकी प्रभावनाके लिये ऊँचे तोरणोंके धारक जिनमंदिर आदिसे समस्त पृथ्वीतलको भूषित कर दिया। इस प्रकार यह कथा रामायण ( पद्मपुराण ) में प्रसिद्ध है। और निश्चयसे इसी व्यवहारप्रभावनागुणके वलसे मिथ्यात्व, विषय-कषाय आदि जो सम्पूर्ण विभावपरिणाम हैं उन रूप जो परमतोंका प्रभाव है उसको नष्ट करके शुद्धोपयोग लक्षण स्वसंवेदन ज्ञानसे निर्मल ज्ञान, दर्शन रूप स्वभावके धारक निज शुद्ध आत्माका जो प्रकाशन अर्थात् अनुभवन करना है सो प्रभावना है ॥ ८ ॥ ऐसे इस पूर्वोक्त प्रकारसे तीन मूढ़ता, आठ मद, छ: अनायतन और शंका आदि आठ दोष रूप जो पच्चीस मल हैं उनसे रहित तथा शुद्धजीव आदि तत्त्वार्थों के श्रद्धान रूप लक्षणका धारक, सरागसम्यक्त्व है दूसरा नाम जिसका ऐसा व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिये। और इसी प्रकार उसी व्यवहार सम्यक्त्वद्वारा परंपरासे साधने योग्य, शुद्ध उपयोगरूप निश्चय रत्नत्रयकी भावनासे उत्पन्न जो परम आह्लादरूप सुखामृतरसका आस्वादन है वही उपादेय है और इन्द्रियजन्य सुख आदिक हेय है ऐसी रुचिरूप तथा वीतराग चारित्रके विना नहीं उत्पन्न होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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