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________________ उक्त चारों आचार्य हमारे चरित्रनायकके गुरु हैं । इस कारण प्रसंगवश इनका भी सामान्यरीतिसे वर्णन करना उचित समझते हैं । वह इस प्रकार है श्रीअभयनन्दी आप श्रीनेमिचन्द्रके ही गुरु नहीं थे, किन्तु श्रीवीरनंदीके भी गुरु थे । इसीलिये श्रीवीरनंदीस्वामीने स्वविरचित चन्द्रप्रभचरितकाव्यकी प्रशस्तिमें आपको अपने गुरु सूचित किये हैं । और निम्नलिखित काव्यसे आपकी प्रशंसा की है। मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्यापवादः सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धुभव्यलोकैकबन्धुः ॥ श्रीअभयनन्दीके रचे हुए बृहज्जैनेन्द्रव्याकरण १, श्रेयोविधान २, गोमट्टसारटीका बिना संदृष्टिकी ३, कर्मप्रकृति रहस्य ४, तत्त्वार्थसूत्रकी तात्पर्यवृत्ति ५, और पूजाकल्प ६ आदि शास्त्र सुने जाते हैं । परन्तु ये सब इन्हींके रचे हुए हैं, या अन्यके, यह निर्णय अभी नहीं हुआ । श्रीवीरनन्दी ये भी प्रसिद्ध जैनाचार्य हैं । इनके रचे हुए चन्द्रप्रभचरितकाव्य १, आचारसार २, और शिल्पिसंहिता ३, ये तीन शास्त्र हैं । इनमें शिल्पिसंहिता अभी तक देखनेमें नहीं आई । आचारसारमें आपने कई स्थलोंमें श्रीमेघचन्द्रत्रैविद्यदेवका अतिशय प्रशंसावाचक पद्योंसे स्मरण किया है | श्रीअभयनन्दीका कहीं भी नाम नहीं लिया । अतः अनुमान होता है कि, श्रीअभयनन्दीका शिष्यत्व स्वीकार करनेके पूर्व आप श्रीमेघचन्द्रके आश्रयमें रहे हैं । और आचारसारका निर्माण श्रीमेघचन्द्रके अस्तित्वमें किया है । आपके विषयमें निम्नलिखित महाप्रशंसावाचक पद्य हमको बाहुबलीचरित्रमें मिला है श्रीचम्पापुरसुप्रसिद्धविलसत्सिंहासनाधीश्वरो भास्वत्पञ्चसहस्रशिष्यमुनितारासंकुलैरावृतः । श्रीदेशीगणवार्द्धिवर्द्धनकरो भव्यालिहत्कैरवा नन्दो भाति सुवीरनन्दिमुनिचन्द्रो वाक्यचन्द्रातपैः ॥ अर्थात् चंपापुरस्थ प्रसिद्ध सिंहासन (पट्ट) के स्वामी, पाँच हजार मुनिशिष्यरूप तारागणसे वेष्टित, भव्यजीवोंके हृदयरूपी कुमुदको आनन्दित करनेवाले और देशीगणरूपी समुद्रके वृद्धिकारक ऐसे श्री वीरनंदीचंद्रमा अपनी वचनरूपी चंद्रिका (चांदनी) से शोभायमान हैं। श्रीइन्द्रनन्दी इनकी प्रशंसा करनेवाले कई श्लोक हमारे देखने में आये हैं, परन्तु विस्तारभयसे निम्नलिखित दो श्लोक ही उद्धृत करते हैं माद्यत्प्रत्यर्थिवादिद्विरदपटुघटाटोपकोपापनोदे वाणी यस्याभिरामा मृगपतिपदवीं गाहते देवमान्या। स श्रीमानिन्द्रनन्दी जगति विजयतां भूरिभावानुभावी दैवज्ञः कुन्दकुन्दप्रभुपदविनयः स्वागमाचारचञ्चुः ॥१॥(मल्लिषेणप्रशस्ति) दुरितग्रहनिग्रहाद्रयं यदि भो भूरि नरेन्द्रवन्दितम् । ननु तेन हि भव्यदेहिनो प्रणुत श्रीमुनिमिन्द्रनन्दिनम् ॥२॥ (नीतिसार) (१) इन श्रीअभयनन्दीके गुरु श्रीगुणनन्दी आचार्य थे। (२) 'शिल्पिसंहिता' यह अतिशय उपयोगी शास्त्र है, अतः पाठकोंको इसके अन्वेषण करनेमें तत्पर रहना चाहिये । (३) आचारसारके कर्ता दूसरे वीरनन्दी हों तो भी कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि, एक नामके धारक कई जैनाचार्य हए हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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