________________
[१०] भावार्थ-परवादीरूपी गजेन्द्रोंके कोपको दूर करनेमें जिनकी देवोंकरके माननीय वाणी सिंहके समान आचरण करती है, वे अनेक भावोंको अनुभव करनेवाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्यमें भक्तिके धारक, जिनमतानुकूल आचरणमें निपुण और दैवज्ञ ऐसे श्रीइन्द्रनन्दी जगतमें जयवंते रहे ।9। हे भव्यजीवो ! यदि तुमको पापरूपी ग्रहकी पीडासे भय है, तो बहुतसे राजाओंकरके वंदनीय ऐसे श्रीइन्द्रनंदी मुनिका सेवन करो ।२।।
उक्त महानुभावके रचे हुए शान्तिचक्रपूजा १, अंकुरारोपण २, मुनिप्रायश्चित्त (प्राकृतमें) ३, प्रतिष्ठापाठ ४, पूजाकल्प ५, प्रतिमासंस्कारारोपणपूजा ६, मातृकायंत्रपूजा ७, औषधिकल्प ८, भूमिकल्प ९, समयभूषण १०, नीतिसार ११, और इन्द्रनंदिसंहिता (प्राकृत) १२, इत्यादि ग्रन्थ' सुननेमें आये हैं । इससे जान पडता है कि, आप सिद्धान्तविषयमें ही प्रौढ नहीं थे, किन्तु चरणानुयोग और मन्त्रशास्त्रमें भी अतिशय निपुण थे । श्रीनेमिचन्द्रने जो प्रतिष्ठापाठ बनाया है, वह भी इन्हींके प्रतिष्ठापाठके आधारसे रचा हुआ है । और इनके पश्चात् होनेवाले प्रायः सभी पूजाप्रकरण और मन्त्रवाद संबंधी शास्त्रकारोंने आपका मत सादर ग्रहण किया है ।
श्रीकनकनन्दी इनके विषयमें हमको विशेष परिचय नहीं मिला परंतु जैसे-श्रीअभयनंदी, श्रीवीरनंदी, श्रीइन्द्रनंदी और श्रीनेमिचन्द्र ये चारों आचार्य सैद्धान्तिकचक्रवर्तीके पदसे भूषित थे उसी प्रकार ये भी सैद्धान्तिक चक्रवर्ती थे ।
इस प्रकार हम यथाप्राप्त प्रमाणोंद्वारा अतिसंक्षेपसे मूल ग्रन्थकार श्रीनेमिचन्द्रका परिचय पाठकोंको देकर, अब टीका और टीकाकार श्रीब्रह्मदेवजीके विषयमें कुछ लिखनेका मनोरथ करते हैं ।
बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका यह तीन हजार श्लोकोंकी संख्याको धारण करती है । इसमें ग्रन्थके नामानुसार केवल जीव पुद्गल आदि षद्रव्योंका वर्णन नहीं है, किन्तु षद्रव्योंके परिज्ञानको आत्मप्राप्तिका साधन दिखलाया गया है । इसलिये यह टीका अध्यात्मविषयका एक अच्छा ग्रन्थ है । प्रायः निश्चयनयकी मुख्यताको लिये हुए कथन होनेसे अध्यात्मविषय सबसे कठिन विषय है । अल्पज्ञोंकी तो शक्ति ही नहीं है कि, वे इसके मर्मको समझ सके । और जो बुद्धिमान हैं, वे भी अनेकान्तनयमार्गके मर्मको न जाननेसे पदपदमें भ्रमान्वित हो जाते हैं । यही नहीं, किन्तु कितने ही तो जैसे भाषाके प्रसिद्ध कवि और अध्यात्मरसके रसिक बनारसीदासजी केवल समयसारके पढनेसे 'करणीको रस मिट गया, भयो न आतम स्वाद । हुई बनारसिका दशा जथा ऊटको पाद 191' इस दोहेके अन बार व्यवहारचारित्रको जलांजलि दे चुके थे । उसी प्रकार एकान्तनिश्चयमार्गका अवलम्बन कर अनेकान्तमय जिनधर्मके शिखरसे पतनको प्राप्त हो जते हैं । परन्तु निश्चयके कथनके साथ साथ ही व्यवहारका कथन भी विद्यमान होनेसे इस टीकामें ‘सोना और सुगंध' की कहावत चरितार्थ होती है । और इसके पढनेसे भ्रम उत्पन्न होनेके बदले अनेक भ्रम भग जाते हैं । अतः अध्यात्ममहलमें चढनेके लिये इस टीकाको प्रथम सोपान कहा जावे तो कोई अत्युक्ति नहीं है । इसमें प्रसंगवश बहुतसे उपयोगी विषयोंका वर्णन है, जोकि आपको विषयसूचीके अवलोकन करनेसे विदित होगा । संस्कृत इसमें ऐसा सरल है कि, जिससे सरल संस्कृत दूसरा बन नहीं सकता है । और प्रकृत विषयकी पुष्टिके लिये यथास्थान गोमट्टसार, त्रिलोकसार, पञ्चास्तिकाय, रेतत्त्वानुशासन,
(१) इनमेंसे नीतिसार, अंकुरारोपण तथा इन्द्रनंदिसंहिता ये तीन ग्रन्थ हमारे देखनेमें भी आये हैं । संहितामें दायभाग आदिका निरूपण है, परन्तु प्राकृत होनेसे यथार्थ अर्थका भान नहीं होता । यदि इसकी शुद्ध प्राचीन प्रति और टीका टिप्पणीकी प्राप्ति हो जाय तो उसके आधारसे जैनजातिके दायभाग आदि कई व्यवहारोंमें शास्त्रानुकूल सुधार हो सकता है। अत: पाठकोंको इसके अन्वेषणमें खुब प्रयत्न करना चाहिये ।।
(२) श्रीनेमिचन्द्रप्रतिष्ठापाठकी अपूर्ण पुस्तक हमने देखी है | सुनते हैं दक्षिणमें पूर्ण पुस्तक विद्यमान है ।
(३) तत्त्वानुशासन, लोकविभाग और पञ्चनमस्कारमाहात्म्य ये तीनों ही शास्त्र हमको उत्तम और अतिशय उपयोगी जान पडते हैं । परन्तु खेद है-कि इनका पता नहीं । यदि प्रतिष्ठा आदिमें लाखों रूपये लगानेवाले धनाढ्य भाई जिनवाणीको श्रीजिनेन्द्रके समान ही समझकर उसकी भक्तिके लिये भी धन खर्च करके समस्त सरस्वतीभंडारोंका सूचीपत्र बनवा लेवें तो राईमें सुमेरु मिल जावे और जैन समाजका अज्ञानदारिद्र्य भग जावे ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org