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[११] लोकविभाग, पञ्चनमस्कारमाहात्म्य और यशस्तिलकचंपू आदि प्रसिद्ध शास्त्रोंके प्रमाण भी उक्तं च से लिये हुए हैं, जिससे किसी भी कथनमें शंका उत्पन्न नहीं होती है । अतएव यह बृहद्र्व्यसंग्रहकी टीकादिगम्बरजैनपरीक्षालयीय पंडितपरीक्षाके पठनक्रममें नियत है और जयपुरकी सरकारी संस्कृतयुनिव्हर्सिटीकी उपाध्याय परीक्षामें शीघ्र ही नियत होनेवाली है ।
श्रीब्रह्म-देवजी हमको उक्त टीकाके कर्ता महाशयका नाम देवजी और 'ब्रह्म-यह पदसूचक शब्द जान पडता है । जिसको नामके पहिले लगा देनेसे 'ब्रह्म-देवजी' ऐसा शब्द बन गया है ।
श्रीब्रह्म-देवजीका समय यद्यपि श्रीब्रह्मदेवजीने अपने सद्भावसे कब किस वसुधामंडलको मंडित किया ? इत्यादि जिज्ञासाओंकी पूर्तिके लिये हमारे पास कोई भी प्रबल प्रमाण नहीं है, तथापि बृहद्र्व्यसंग्रहटीका पृष्ठ १८२ में बारह हजार श्लोक प्रमाण २पंचनमस्कारमाहात्म्य नामक ग्रन्थका उल्लेख है । अतः विदित होता है कि, पञ्चनमस्कारमाहात्म्यके कर्ता मालवदेशस्थ-भट्टारक श्रीसिंहनन्दीके समकालमें अथवा पश्चात् आपका प्रादुर्भाव हुआ है । और प्रसिद्ध भट्टारक श्रीशुभचंद्रजीने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीकामें द्रव्यसंग्रहकी टीकाका कितना ही पाठ उद्धृत किया है । अतः यह निश्चित होता है कि भट्टारक श्रीशुभचन्द्रजीके पूर्व आपका सद्भाव था ।
भट्टारक श्रीसिंहनन्दी सूरी श्रीश्रुतसागरके समकालीन थे । और श्रीश्रुतसागरजीका अस्तित्व विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें अर्थात् सं. १५२५ में कई प्रमाणोंसे सिद्ध है । भट्टारक श्रीशुभचन्द्रजीने स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीकाकी समाप्ति विक्रम सं.१६१३ में की है । इस कारण विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके मध्यमें किसी भी समय श्रीब्रह्मदेवजीने अपने अवतारसे भारतवर्षको पवित्र किया, ऐसा दृढ अनुमान किया जाता है ।
श्रीब्रह्मदेवजीके रचे हुए शास्त्र हमारे पास जो शास्त्रकारोंकी नामावली है, उसमें लिखा हुआ है कि, ब्रह्मदेवजीने परमात्मप्रकाशकी टीका १, बृहद्रव्यसंग्रहकी टीका २, तत्त्वदीपक ३, ज्ञानदीपक ४, त्रिवर्णाचारदीपक ५, प्रतिष्ठातिलक ६, विवाहपटल ७, और कथाकोश ८, ये आठ शास्त्र रचे हैं । इनके अतिरिक्त हमको समयसारकी तात्पर्यवृत्ति भी इन्हींकी रची हुई जान पडती है । क्योंकि उसके और द्रव्यसंग्रहकी टीकाके अन्तका पाठ प्रायः समान है ।
श्रीब्रह्म-देवजीकी रुचि यद्यपि आपकी रुचि अध्यात्मविषयमें विशेष थी, तथापि आप निश्चयसाधक व्यवहारचारित्रसे पराङ्मुख नहीं थे । अतएव आपने जैसे परमात्मप्रकाशटीका आदि अध्यात्मशास्त्रोंका निर्माण किया है, उसी प्रकार त्रिवर्णाचारादि व्यवहारशास्त्रोंको भी रचा हैं । जो लोग निश्चय और व्यवहारमार्गमें एकान्तके धारक हो रहे हैं, उनको आपका अनुकरण करके सन्मार्गमें प्रवृत्ति करनी चाहिये ।
उपसंहार इस प्रकार मूल और टीकाकारके विषयमें जो कुछ मुझको प्रमाण मिले, उनके अनुसार संक्षेपसे यह प्रस्तावना लिखकर पाठकोंको समर्पण की है । यदि इसमें प्रमाद अथवा जैनइतिहाससंबंधी यथोचित साधनोंके अभावसे कोई त्रुटि रह गई हो तो विज्ञ पाठक उसे सूचित करे । इत्यलम्जौहरी बजार, बंबई.
श्रीमज्जैनाचार्यपादपद्माराधकआश्विन शुक्ला ७, रविवार
श्रीजवाहरलाल शास्त्री श्रीवीरनिर्वाण सं. २४३२
(१) 'ब्रह्म' इस शब्दसे गृहत्यागी ब्रह्मचारी रूप अर्थको ग्रहण करना चाहिये । (२) प्रस्तुत आवृत्तिमें इस ग्रन्थका उल्लेख पृष्ठ १६४ पर है।
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