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अनुवादककी प्रार्थना
सज्जन - विद्वज्जन-पाठक महाशय !
आज मैं आपके करकमलोंमें इस सटीक बृहद्रव्यसंग्रहके अभूतपूर्व हिंदीभाषानुवादको समर्पण करके कृतार्थ होता हूँ । इस सटीकबृहद्रव्यसंग्रहकी प्रशंसा प्रस्तावनामें बहुत कुछ लिखी जा चुकी हैं। और इसमें जिन जिन उपयोगी विषयोंका वर्णन है, उनका सूचीपत्र भी पृथक् प्रकाशित है । अब यहाँपर विशेष वक्तव्य यह है। कि, इस अतिशय लाभप्रद ग्रन्थरत्नका इस अनुवादके पूर्व कोई अनुवाद नहीं था। जिसके न होनेका कारण यह है, कि जैनसमाजमें संस्कृतशास्त्रोंके अनुवाद ( वचनिकायें) रचकर, उनके द्वारा सर्वसाधारणका उपकार करनेवाले श्रीटोडरमल्लजी व श्रीजयचन्द्ररायजी आदि विद्वान् बहुत अल्पसंख्याके धारक हुए हैं। उनसे अपने पर्यायमें जितने शास्त्रोंकी वचनिकायें बन सकीं, उतनी ही वे बना पाये, अधिकके लिये विवश रहे । क्योंकि, प्राकृत और संस्कृत भाषामय दो अपार पारावार हैं । इनमें इस लोक और पर लोक सम्बन्धी हितोपदेशरूप प्रकाशके धारक तथा पूर्वापरविरोधादि दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्मल ऐसे लक्षावधि जैनग्रन्थरत्न विद्यमान हैं। उन सबका देशभाषामें अनुवाद कर देना अथवा अवलोकन करना तो दूर रहा, सूचीपत्र बनाना भी दुःसाध्य है । ऐसी दशामें इस ग्रन्थरत्नका भी वचनिकासे वंचित रह जाना सुसंभव ही था ।
आपके पुण्यप्रभावसे जयपुरस्थ पूर्वविद्वानोंद्वारा स्वीकृत वचनिकानिर्माणरूपकार्यका नाममात्र निर्वाह करनेके लिये जो कुछ सामर्थ्य मुझमें उत्पन्न हुआ है उसीका यह फल है कि, मैं २५ वर्षकी अवस्थामें इस दुरवबोध अध्यात्मविषयक महाशास्त्रका सर्वतः प्रथम अनुवाद रचकर, उसको आपके करकमलोंमें समर्पित करता हूँ ।
यद्यपि मुझको पूर्ववचनिकाकारोंका अनुकरण करके ढूंढारी भाषामें ही अनुवाद करना उचित था परन्तु समयके फेरसे पूर्ववचनिकाओंका भी हीनाधिक्यपूर्वक हिंदीभाषामें अनुवाद होता हुआ देखकर आधुनिक जैनसमाजके संतोषार्थ और अन्य अनुवादकोंको पिष्टपेषणजनित परिश्रमसे रक्षणार्थ मैंने सर्वदेश प्रचलित हिंदी भाषा में ही अनुवाद किया है।
पूर्ववचनिकाकारोंने स्थल- स्थलमें भावार्थ देकर कठिन विषयको स्पष्ट भी किया है । परन्तु भावार्थके देनेमें बुद्धिको विशेष स्वातंत्र्य मिलता है । और उस स्वातंत्र्यमें ग्रन्थकारके, प्रकरणके, व शास्त्र के विरुद्ध लिखे जानेका अनुवादसे भी अधिक भय रहता है । इस कारण मैंने प्रायः भावार्थ नहीं दिया है ।
कितने ही विशेषज्ञ मनुष्य हिंदीभाषाको भी संस्कृतभाषाकी लघुभगिनी (छोटी बहन) बनानेके प्रयत्नमें लगे हुए हैं । अर्थात् जैसे सर्वनामशब्दोंका प्रयोग करके और भिन्न-भिन्न पदोंको समासश्रृंखलामें बाँध करके संस्कृतको संक्षिप्त कर लिया जाता है, उसी प्रकार वे हिंदीभाषाको भी संक्षेपरूपमें लाना चाहते हैं । परन्तु शास्त्रीयविषयमें वह संक्षेप मुझको रुचिकर नहीं । क्योंकि जैसे तारके संक्षिप्त और संकेतित शब्दोंसे उसके आशयज्ञ ही लाभ उठा सकते हैं, उसी प्रकार जो शास्त्र के रहस्यज्ञ हैं, उन्हींको उस संक्षिप्त भाषासे लाभ मिल सकता है । इसलिये सर्वसाधारण कभी-कभी अनर्थमें प्रवृत्त होकर लाभके बदले हानिके भागी हो जाय तो कोई आश्चर्य नहीं । इसी कारण मैंने यथाशक्य समासित पदोंका भिन्न-भिन्न करके अनुवाद किया है ।
एक भाषा के शब्दोंका दूसरी भाषाके शब्दोंमें पूर्ण अनुवाद करके उस अनुवादको सर्वगुणसम्पन्न और रुचिकर वाक्यपद्धतिमें ले आना कठिन ही नहीं, किन्तु प्रायः असम्भव है । अतएव कितने ही अनुवादक मूलके आशयको ग्रहण करके उसको मनोहर भाषामें लिख डालते हैं । परन्तु उससे 'किस पद व वाक्यका क्या अनुवाद है' इस जिज्ञासामें सर्वसाधारणको हताश होना पडता है । इस कारण मैंने यह अनुवाद प्रायः मूलके अनुसार लिखा है और जहाँपर भाषा अतिशय विरस होती थी, वहींपर मूलके आशयको ग्रहण किया है ।
यद्यपि मैंने सावधानतापूर्वक तीन पुस्तकोंके आधारसे मूलको शुद्ध करके, तदनुसार यह अनुवाद लिखा है, तथापि मूलमें अशुद्धता रह जाना सम्भव है । अतः अशुद्धमूलके कारण यदि अनुवाद यथार्थ न हुआ हो तो इस दोषका भागी मैं नहीं हूँ । छपते समय कॉपी देनेकी शीघ्रतामें कितना ही प्राकृतका उक्तं च पाठ यथार्थ अनुवादसे वंचित रह गया था । उसको अति परिश्रमसे स्पष्ट करके विशेष सूचनामें लगा दिया है । एवं प्रमादसे अथवा अनुपस्थितिमें बहुतसे फार्मोंके छपनेसे अन्य जो कितनी ही अर्थांशसम्बन्धी क्षुद्र अशुद्धियाँ रह गई थीं, उनकी भी यथाशक्य शुद्धिपत्रद्वारा शुद्धि कर दी है । तथापि जो दुर्जन मनुष्य हैं, वे अपने स्वभावानुकूल अनुवादमें वचनभेद
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