________________
[१३]
लिङ्गभेद-दूरान्वय-असंबद्ध-पुनरुक्ति-भाषावैरस्य और विरामादि चिह्नोंकी अनुचित योजना आदि तुच्छ दोषोंको ग्रहण करके, उनकी कडी समालोचना किये बिना न रहेंगे । परन्तु यदि वे समालोचनाके परिश्रमको न करके, उन दोषोंसे मुझे सूचित कर देंगे, तो मैं विशेष कृतज्ञ होकर द्वितीयावृत्तिमें उन दोषोंको निकाल डालनेका प्रयत्न करूँगा ।
आजकल जैनधर्मज्ञ विद्वानोंके आलस्य, अनवकाश तथा निस्सीम सज्जनत्वके कारण प्रायः कितने ही पुस्तकरचयिता निरंकुश होकर धर्म व मूलसे विरुद्ध पुस्तकें लिखने लगे हैं । ऐसी पुस्तकोंसे यद्यपि इस समय विशेष हानि न होगी । परन्तु ये ही कालान्तरमें भाषाके रोचक मनुष्योंके प्रमाणताको प्राप्त होकर धर्म व मूलका तिरस्कार करनेमें समर्थ हो जावेंगी ।।
इस स्थलमें कोई कह सकते हैं कि यदि ऐसा है तो वह प्रबन्ध किया जावे कि जिससे नवीन पुस्तकोंका निर्माण न हो सके । परन्तु यह अनुचित है । क्योंकि, पूर्वशास्त्रकार सभी छद्मस्थ थे । वे यदि उक्त भयसे डर कर शास्त्र न रचते, तो, आज जो समाजमें धर्म व ज्ञानका उद्योत है, वह किसके आधार पर होता ? अतः नवीन पुस्तकोंका न बनाना तो सर्वथा हानिकारक है । हाँ, पुस्तक रचयिता और धर्मके विशेषज्ञोंको निरन्तर यह ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि, कोई पुस्तक विरुद्ध न बन जावे ।
यद्यपि मैंने यह अनुवाद बहुत विचारपूर्वक लिखा है । अतः सहसा अविश्वासका स्थान नहीं है । तथापि सर्वथा निर्दोष है, यह भी मैं नहीं कह सकता । इसलिये समस्त विद्वानोंसे प्रार्थना करता हूँ कि, वे अपने आलस्यको त्याग कर और मुझपर अनुग्रह करके दोषदर्शकदृष्टिसे इस समस्त अनुवादको मूलसे मिलावें । और जो कुछ विरुद्ध प्रतीत हो, उससे मुझे सूचित करें । जिससे कि यह अनुवाद शुद्ध कर लिया जावे और फिर इस अनुवादकी निर्दोषतामें किसी प्रकारका संशय न रहे ।
श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डलकी तरफसे इस बृहद्रव्यसंग्रहका अनुवाद वैय्याकरणाचार्य श्री पं० ठाकुरप्रसादजी शर्मा द्वारा कराया गया था और मुझको उसके संशोधनका भार दिया गया था । परन्तु कई विशेष कारणोंसे उस अनुवादकी अपेक्षा न रखकर मुझे सर्वथा नूतन अनुवाद करना पड़ा । इसलिये इस अनुवादजनित यश तथा अपयशका भागी मैं ही हूँ ।
___ अन्तमें जिनकी अहर्निश प्रेरणा और अनुग्रहसे सद्विद्याको प्राप्त करके मैं इस अनुवादके करनेमें समर्थ हुआ, उन श्रीमती जयपुरस्थजैनमहापाठशालाके प्रबन्धकर्ता सौम्यमूर्ति सद्विद्यारसिक पूज्यश्री पं० भोलेलालजीशेठीको, जिनके अनुरोधसे इस द्रव्यसंग्रहके अनुवादन तथा संशोधनकर्ममें प्रवृत्त हुआ, उन श्रीपरमश्रुतप्रभावकमण्डलके व्यवस्थापक महोदयोंको और जिन विद्वानोंने इसके अनुवादन व संशोधनमें सहायता दी है, उन सबको कोटिशः धन्यवाद देकर इस प्रार्थनाको समाप्त करता हूँ । इत्यलम् ।
विजयादशमी, बुधवार, वि० सं० १९६४, हस्ताक्षर विज्ञानुचर अनुवादक जयपुरनिवासीता. १८-१०-०७ ईस्वी
जवाहरलाल शास्त्री दि. जैन चतुर्थावृत्तिकी प्रस्तावना प्रस्तुत आवृत्तिमें कोई खास परिवर्तन नहीं किया गया है । फक्त अभ्यासियोंकी सुगमताके लिये मूल प्राकृत गाथाओंकी संस्कृत छाया जोड दी गई है ताकि प्राकृत शब्दोंको समझा जा सके । इसके अलावा ग्रन्थके अन्तमें परिशिष्टमें 'बहदद्रव्यसंग्रह की केवल मल गाथाएँ पन दे दी गई है, और 'लघुद्रव्यसंग्रह' (सार्थ) जिसे इस ग्रन्थके कर्ता श्री नेमिचन्द्रसिद्धांतिदेवने पहले लिखा था, वह भी दे दिया है ।
यह द्रव्यानुयोगका ग्रन्थ होते हुए भी इसमें व्यवहारनयका सुन्दर वर्णन किया गया है । इसमें छः द्रव्य और सात तत्त्वका संक्षेपमें अलौकिक कथन है, और ब्रह्मदेवजीकी सुबोधिनी संस्कृत टीकाने तो 'सोनेमें सुगन्ध' वाली कहावत चरितार्थ कर दी है।
यथासम्भव ग्रन्थके शुद्ध मुद्रणका प्रयास किया गया है, फिर भी दृष्टिदोष या अज्ञानवश कोई अशुद्धि या त्रुटि रह गई हो तो पाठकगण हमें सूचित करें । इत्यलम् ।
- प्रकाशक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org