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________________ षड्द्रव्यपञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्यसंग्रहः १७ पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो । चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ।। ८ ।। पुद्गलकर्मादीनां कर्ता व्यवहारतः तु निश्चयतः।। चेतनकर्मणां आत्मा शुद्धनयात् शुद्धभावानाम् ॥ ८॥ व्याख्या- अत्र सूत्रे भिन्नप्रक्रमरूपव्यवहितसम्बन्धेन मध्यपदं गृहीत्वा व्याख्यानं क्रियते । "आदा" आत्मा "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु" पुद्गलकर्मादीनां कर्त्ता व्यवहारतस्तु पुनः, तथाहि-मनोवचनकायव्यापारक्रियारहितनिजशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्ननुपचरितासद्भूतव्यवहारेण ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मणामादिशब्देनौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरत्रयाहारादिषट्पर्याप्तियोग्यपुद्गलपिण्डरूपनोकर्मणां तथैवोपचरितासद्भूतव्यवहारेण बहिविषयघटपटादीनां च कर्ता भवति । "णिच्छयदो चेदणकम्माणादा" निश्चयनयतश्चेतनकर्मणां तद्यथा रागादिविकल्पोपाधिरहितनिष्क्रियपरमचैतन्यभावनारहितेन यदुपाजितं रागाद्यत्पादकं कर्म तदुदये सति निष्क्रियनिर्मलस्वसंवित्तिमलभमानो भावकर्मशब्दवाच्यरागादिविकल्परूपचेतनकर्मणामशुद्धनिश्चयेन कर्ता भवति । अशुद्धनिश्चयस्यार्थः कथ्यते-कर्मोपाधिसमुत्पन्नत्वादशुद्धः, तत्काले तप्तायःपिण्डवत्तन्मयत्वाच्च निश्चयः, इत्युभयमेलापकेनाशुद्धनिश्चयो भण्यते । “सुद्धणया सुद्धभावाणं" शुभाशुभयोगत्रयव्यापाररहितेन शुद्धबुद्धकस्वभावेन यदा परिणमति तदानन्तज्ञानसुखादिशुद्धभावानां गाथा भावार्थ-आत्मा व्यवहारसे पुद्गल कर्म आदिका कर्ता है, निश्चयसे चेतन कर्मका कर्ता है और शुद्ध नयसे शुद्ध भावोंका कर्ता है ॥ ८ ॥ व्याख्यार्थ-इस सूत्रमें भिन्न प्रक्रमरूप व्यवहित संबंधसे मध्य ( बीचके ) पदको ग्रहण करके व्याख्यान किया जाता है । "आदा" आत्मा "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु" व्यवहार नयको अपेक्षासे पुद्गल कर्म आदिका कर्ता है। जैसे-मन, वचन, तथा शरीरके व्यापाररूप क्रियासे रहित निज शुद्ध आत्मतत्त्वकी जो भावना है, उस भावनासे शून्य होकर उपचरित असद्भूतव्यवहारनयसे ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मोंका तथा आदि शब्दसे औदारिक, वैक्रियक और आहारकरूप तीन शरीर तथा आहार आदि ६ पर्याप्तियोंके योग्य जो पुद्गल पिंडरूप नो ( ईषत् ) कर्म हैं, उनका तथा उसी प्रकार उपचरित असद्भत व्यवहारसे बाह्य विषय घट, पट आदिका भी यह जीव का है। "णिच्छयणिच्छयदो चेदणकम्माणादा" और निश्चयनयकी अपेक्षासे तो यह आत्मा चेतन कर्मोका कर्ता है । सो ऐसे है कि राग आदि विकल्परूप उपाधिसे रहित निष्क्रिय, परमचैतन्यभावनासे रहित ऐसे जीवने जो राग आदिको उत्पन्न करनेवाले कर्मोंका उपार्जन किया उन कर्मोंका उदय होनेपर निष्क्रिय और निर्मल आत्मज्ञानको नहीं प्राप्त होता हुआ यह जीव भावकर्म इस शब्दसे वाच्य जो रागादि विकल्परूप चेतन कर्म हैं, उनका अशुद्ध निश्चयनयसे कर्ता होता है । अब अशुद्ध निश्चयका अर्थ कहते हैं। कर्मरूप उपाधिसे उत्पन्न होने से अशुद्ध कहलाता है और उस समय अग्निमें तपे हुए लोहेके गोलेके समान तन्मय ( उसोरूप ) होनेसे निश्चय कहा जाता है, इस रीतिसे अशुद्ध और निश्चय इन दोनोंको मिलाकर अशुद्ध निश्चय कहा जाता है। "सुद्धणया सुद्धभावाणं" जीव जब शुभ तथा अशुभ मन, वचन, और कायरूप तीनों योगोक व्यापारसे रहित शुद्ध, बुद्ध, एक स्वभावसे परिणमता है, तब अनंत ज्ञान, सुख आदि शुद्ध भावोका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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