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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
वर्णाः रसाः पंच गन्धौ द्वौ स्पर्शाः अष्टौ निश्चयात् जीवे । नो सन्ति अमूर्तिः ततः व्यवहारात् मूत्तिः बन्धतः ॥ ७ ॥
[ प्रथम अधिकार
व्याख्या- -"वण्ण रस पञ्च गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे णो संति" श्वेतपीतनीलारुणकृष्णसंज्ञाः पञ्च वर्णाः, तिक्तकटुककषायाम्लमधुरसंज्ञाः पञ्च रसाः, सुगन्धदुर्गन्धसंज्ञौ द्वौ गन्धौ शीतोष्णस्निग्धरुक्षमृदुकर्कश गुरुलघुसंज्ञा अष्टौ स्पर्शाः, “णिच्छया" शुद्धनिश्चयनयात् शुद्धबुद्धेकस्वभावे शुद्धजीवे न सन्ति । "अमुन्ति तदो" ततः कारणादमूर्त्तः, यद्यमूर्तस्तहि तस्य कथं कर्मबन्ध इति चेत् "ववहारा मुत्ति" अनुपचरितासभूतव्यवहारान्मूर्ती यतस्तदपि कस्मात् "बंधादो' अनन्तज्ञानाद्युपलम्भलक्षणमोक्षविलक्षणादनादिकर्मबन्धनादिति । तथा चोक्तं-कथं चिन्मूर्त मूर्त्तजीवलक्षणम् - "बंधं पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स भिण्णत्तं । तम्हा अमुत्तिभाव तो होदि जीवस्स । १।" अयमत्रार्थः - यस्यैवामूर्त्तस्यात्मनः प्राप्त्यभावादनादिसंसारे जीवः स एवामूर्तो मूर्तपञ्चेन्द्रियविषयत्यागेन निरन्तरं ध्यातव्यः । इति भट्टचार्वाकमतं प्रत्यमूर्त्त जीवस्थापनमुख्यत्वेन सूत्रं गतम् ॥ ७ ॥
अथ निष्क्रियामूर्त्तङ्कोत्कीर्णज्ञाय कैकस्वभावेन कर्मादिकर्तृत्वरहितोऽपि जीवो व्यवहारादिनयविभागेन कर्त्ता भवतीति कथयति; -
इसलिये जीव अमूर्त्त है और बंधसे व्यवहारकी अपेक्षा करके जीव मूर्त है ॥ ७ ॥
व्याख्यार्थ - "वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छ्या जीवे णो संति" श्वेत, नील, पीत (पीला), रक्त (लाल ) तथा कृष्ण ( काला ) ये पाँच वर्ण; चरपरा, कडुवा, कषायला, खट्टा और मीठा ये पाँच रस; सुगन्ध और दुर्गन्ध नामक दो गंध, तथा ठंडा, गरम, चिकना, रूखा, मुलायम, कठोर ( कड़ा), भारी और हलका यह आठ प्रकारका स्पर्शं शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध, बुद्ध एक स्वभावका धारक जो शुद्ध जीव है उसमें नहीं है । " अमुत्ति तदो" इस हेतुसे यह जीव अमूर्त है अर्थात् मूर्ति रहित है । शंका- यदि जीव मूर्तिरहित है तो मूर्ति से शून्य जीवके कर्मका बंध कैसे होता है ? उत्तर- "ववहारा मुत्ति" यद्यपि अमूर्त है तथापि अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारसे मूर्त है, अतः कर्मबंध होता है । शंका- यह मूर्त्त भी किस कारण से है ? उत्तर - "बंधादो" अनंतज्ञान आदिकी प्राप्तिरूप जो मोक्ष है, उस मोक्षसे विपरीत अनादिकर्मो के बंधनसे है । और कथंचित् मूर्त्त तथा अमूर्तका लक्षण कहा भी है, जैसे- "बंधके प्रति जीवकी एकता है और लक्षणसे उसकी भिन्नता है, इसलिये जीवके अमूर्तभाव एकान्तसे नहीं है । १ ।" यहाँपर तात्पर्य यह है कि जिस अमूर्त आत्माकी प्राप्तिके अभाव से इस जीवने अनादि संसार में परिभ्रमण किया है, उसी अमूर्त शुद्धस्वरूप आत्माको मूर्तं पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंका त्याग कर ध्याना चाहिये । इस प्रकार भट्ट और चार्वाक मतके प्रति जीवको मुख्यतासे अमूर्त्त स्थापन करनेवाला सूत्र समाप्त हुआ || ७ ||
क्रिया रहित, अमूर्त, टंकोत्कीर्ण ( शुद्ध ), ज्ञानरूप एक स्वभावसे जीव यद्यपि कर्म आदि के कर्तापनेसे रहित है तथापि व्यवहार आदि नयके विभागसे कर्त्ता होता है ऐसा कथन करते हैं; --
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