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________________ द्रव्य - पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः अथवा शुद्धाशुद्धज्ञानदर्शनविवक्षा नास्ति । तदपि कथमिति चेद् विवक्षाया अभावः सामान्यलक्षणमिति वचनात्, कस्मात्सामान्यं जीवलक्षणं भणितं, "ववहारा" व्यवहारात् व्यवहारनयात् । अत्र केवलज्ञानदर्शनं प्रति शुद्धस भूतशब्दवाच्योऽनुपचरितसद्भूतव्यवहारः छद्मस्थज्ञानदर्शनापरिपूर्णापेक्षया पुनरशुद्धसद्भूतशब्दवाच्य उपचरितसद्भूतव्यवहारः, कुमतिकुश्रुतविभङ्गत्रये पुनरुपचरितासभूतव्यवहारः । “सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं जाणं" शुद्ध निश्चयनयात्पुनः शुद्धमखण्डं केवलज्ञानदर्शनद्वयं जीवलक्षणमिति । किञ्च ज्ञानदर्शनोपयोगविवक्षायामुपयोगशब्देन विवक्षितार्थपरिच्छित्तिलक्षणोऽर्थग्रहणव्यापारो गृह्यते । शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयविवक्षायां पुनरुपयोगशब्देन शुभाशुभशुद्धभावनैकरूपमनुष्ठानं ज्ञातव्यमिति । अत्र सहजशुद्ध निर्विकारपरमानन्दैकलक्षणस्य साक्षादुपादेयभूतस्याक्षयसुखस्योपादानकारणत्वात्केवलज्ञानदर्शनद्वयमुपादेयमिति । एवं नैयायिकं प्रति गुणगुणिभेदैकान्त निराकरणार्थमुपयोगव्याख्यानेन गाथात्रयं गतम् ॥ ६ ॥ अथामूर्त्तातीन्द्रियनिजात्मद्रव्यसंवित्तिरहितेन मूर्त्तपञ्चेन्द्रियविषयासक्तेन च यदुपार्जितं मूर्तं कर्म तदुदयेन व्यवहारेण मूर्तोऽपि निश्चयेनामूर्तो जीव इत्युपदिशति; - वण्ण रस पंच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्छया जीवे । णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो || ७ || चार प्रकारका दर्शन जो है सो सामान्य रूपसे जीवका लक्षण कहा है । यहाँपर सामान्य इस कथनका यह तात्पर्य है इस लक्षण में संसारीजीव व मुक्तजीवकी विवक्षा नहीं है, अथवा शुद्धअशुद्ध ज्ञान दर्शनकी भी विवक्षा नहीं है । सो कैसे है ? यदि ऐसी शंका करो तो उत्तर यह है कि जीवका सामान्य लक्षण है, ऐसा वचन कहने से विवक्षाका अभाव है । यह जीवका सामान्यलक्षण किस अपेक्षासे है ? इसका उत्तर यह है कि "ववहारा" अर्थात् व्यवहारनयकी अपेक्षासे है । यहाँ केवलज्ञान, दर्शनके प्रति तो शुद्ध सद्भूत शब्दसे वाच्य ( कहने योग्य) अनुपचरितसद्भूत व्यवहार है, और छद्मस्थ ज्ञान दर्शनकी अपेक्षासे तो अशुद्ध सद्भूत शब्दसे वाच्य उपचरित सद्भूत व्यवहार है, तथा कुमति, कुश्रुत, व विभंग ( कुअवधि ) इन तीनोंमें उपचरितअसद्भूतव्यवहारनय है "सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं जाणं" और शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध अखंड केवलज्ञान तथा दर्शन ये दोनों ही जीवके लक्षण हैं । और भी यहाँ ज्ञान दर्शनरूप उपयोगकी विवक्षामें उपयोग शब्दसे विवक्षित ( कथन करनेको अभिमत ) जो पदार्थ है उस पदार्थके ज्ञानरूप वस्तुके ग्रहणरूप व्यापारका ग्रहण किया जाता है, और शुभ, अशुभ तथा शुद्ध इन तीनों उपयोगोंकी विवक्षा में तो उपयोग शब्दसे शुभ, अशुभ तथा शुद्ध भावना एकरूप अनुष्ठान जानना चाहिये । यहाँपर सहज शुद्ध निर्विकार परमानंदरूप एक लक्षणका धारक साक्षात् उपादेय ( ग्राह्य) भूत जो अक्षय सुख है, उसके उपादान कारण होनेसे केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों उपादेय हैं । इस प्रकार प्रिति गुण गुणी अर्थात् ज्ञान और आत्मा इन दोनोंका एकान्तरूपसे भेदके निराकरणके लिये उपयोगके व्याख्यानद्वारा तीन गाथा समाप्त हुई || ६ || 1 अव अमूर्त्त तथा अतीन्द्रिय जो आत्मद्रव्यका ज्ञान है उससे रहित तथा मूर्त जो पाँचों इन्द्रियों के विषय हैं, उनमें आसक्त जीवने जो मूर्त्त कर्म उपार्जन किया है, उसके उदयसे व्यवहार १५ की अपेक्षा से जीव मूर्त है, तो भी निश्चयसे अमूर्त है, ऐसा उपदेश देते हैं; गाथाभावार्थ - निश्चयसे जीव में पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध, और आठ स्पर्श नहीं है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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