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________________ श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् [ प्रथम अधिकार व्याख्यानेन मतिज्ञानं परोक्षमपि प्रत्यक्षज्ञानं तथा स्वात्माभिमुखं भावश्रुतज्ञानमपि परोक्षं सत्प्रत्यक्षं भण्यते । यदि पुनरेकान्तेन परोक्षं भवति तह सुखदुःखादिसंवेदनमपि परोक्ष प्राप्नोति न च तथा । तथैव च स एवात्मा अवधिज्ञानावरणीय क्षयोपशमान्मूत्तं वस्तु यदेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदवधिज्ञानम् । यत्पुनर्मन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च स्वकीयमनोऽवलम्बन परकीयमनोगतं मूर्त्तमर्थमेकदेशप्रत्यक्षेण सविकल्पं जानाति तदीहामतिज्ञानपूर्वकं मन:पर्ययज्ञानम् । तथैव निजशुद्धात्मतत्त्वसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुचरणलक्षणैकाग्रध्यानेन केवलज्ञानावरणादिघातिचतुष्टयक्षये सति यत्समुत्पद्यते तदेव समस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावग्राहकं सर्वप्रकारोपादेयभूतं केवलज्ञानमिति ॥ ५ ॥ १४ अथ ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयव्याख्यानस्य नयविभागेनोपसंहारः कथ्यते ; -- अट्ट चदु णाण दंसण सामर्ण जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्धं पुण दंसणं अष्टचतुर्ज्ञानदर्शने सामान्यं जीवलक्षणं भणितं । व्यवहाराते शुद्ध नयात् शुद्धं पुनः दर्शनं ज्ञानम् ॥ ६ ॥ णणं ॥ ६ ॥ व्याख्या--"अट्ठ चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं" अष्टविधं ज्ञानं चतुविधं दर्शनं सामान्यं जीवलक्षणं भणितम् । सामान्यमिति कोऽर्थः संसारिजीवमुक्तजीवविवक्षा नास्ति, उत्सर्गका कथन न होता तो तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान परोक्ष कैसे कहा गया है ? और यदि वह सूत्रमें परोक्ष ही कहा गया है, तो तर्कशास्त्र में सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कैसे हुआ ? इसलिये जैसे अपवाद व्याख्यान से परोक्षरूप भी मतिज्ञानको प्रत्यक्षज्ञान कहा गया है, वैसे ही निज आत्माके सन्मुख जो भावश्रुत ज्ञान है, वह परोक्ष है, तो भी उसको प्रत्यक्ष कहते हैं । और यदि एकान्त, श्रुत दोनों परोक्ष ही होवें तो सुख दुःख आदिका जो संवेदन ( ज्ञान ) है, वह भी परोक्ष ही होगा और वह संवेदन परोक्ष नहीं है । इसी रीतिसे वही आत्मा अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे मूर्त वस्तुको जो एकदेश प्रत्यक्षद्वारा सविकल्प जानता है, वह अवधिज्ञान है । और जो मनःपर्ययज्ञानावरण के क्षयोपशमसे और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे अपने मनके अवलम्बनद्वारा परके मनमें प्राप्त हुए मूर्त पदार्थको एकदेश प्रत्यक्षसे सविकल्प जानता है, वह ईहामतिज्ञानपूर्वक मन:पर्ययज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार अपना शुद्ध जो आत्मद्रव्य है, उसका भले प्रकार श्रद्धान करना, जानना, और आचरण करना, इन रूप जो एकाग्र ध्यान उससे केवल ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मोंका नाश होनेपर जो उत्पन्न होता है, वह एकसमयमें समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भावको ग्रहण करनेवाला और सब प्रकारसे उपादेयभूत ( ग्रहण करने योग्य ) केवलज्ञान है ॥ ५ ॥ अब ज्ञान तथा दर्शन इन दोनों उपयोगोंके व्याख्यानका नयके विभागसे उपसंहार कहते हैं; गाथाभावार्थ-आठ प्रकारके ज्ञान और चार प्रकारके दर्शनका जो धारक है वह जीव है । यह व्यवहारनयसे सामान्य जीवका लक्षण है और शुद्धनयसे शुद्ध जो ज्ञान, दर्शन है वह जीवका लक्षण कहा गया है ॥ ६ ॥ व्याख्यार्थ - " अटू चदु णाण दंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं" आठ प्रकारका ज्ञान तथा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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