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________________ १८ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार छद्मस्थावस्थायां भावनारूपेण विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयेन कर्ता, मुक्तावस्थायां तु शुद्धनयेनेति । किन्तु शुद्धाशुद्धभावानां परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति । यतो हि नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजात्मस्वरूपभावनारहितस्य कर्मादिकर्तृत्वं व्याख्यातम्, ततस्तत्रैव निजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्या। एवं साख्यमतं प्रत्येकान्ताकर्तृत्वनिराकरणमुख्यत्वेन गाथा गता ॥ ८॥ ___अथ यद्यपि शुद्धनयेन निर्विकारपरमाह्लादैकलक्षणसुखामृतस्य भोक्ता तथाप्यशुद्धनयेन सांसारिकसुखदुःखस्यापि भोक्तात्मा भवतीत्याख्याति; ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि । आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स ।। ९ ।। व्यवहारात् सुखदुःखं पुद्गलकर्मफलं प्रभुङ्क्ते।। आत्मा निश्चयनयतः चेतनभावं खलु आत्मनः ।। ९॥ व्याख्या-“ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि" व्यवहारात्सुखदुःखरूपं पुद्गलकर्मफलं प्रभुङ्क्ते । स कः कर्ता "आदा" आत्मा "णिच्छयणयदो चेदणभावं आदस्स" निश्चयनयतश्चेतनभावं भुङ्क्ते "खु" स्फुटं कस्य सम्बन्धिनमात्मनः स्वस्येति । तद्यथा- आत्मा हि निजशुद्धात्मसंवित्तिसमुद्भूतपारमार्थिकसुखसुधारसभोजनमलभमान उपचरितासद्भूतव्यवहारेणेष्टाछद्मस्थ अवस्थामें भावनारूप विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनयसे कर्ता होता है और मुक्त अवस्था में तो शुद्ध निश्चयनयसे अनंत ज्ञानादि शुद्ध भावोंका कर्ता है। यहाँ विशेष यह है कि शुद्ध अशुद्ध भावोंका जो परिणमन है, उन्हींका कर्तृत्व जीवमें जानना चाहिये और हस्त आदिके व्यापाररूप परिणमनोंका न समझना चाहिये। क्योंकि नित्य, निरंजन, निष्क्रिय ऐसे अपने आत्मस्वरूपकी भावनासे रहित जो जीव है उसीके कर्म आदिका कर्तृत्व कहा गया है। इसलिये उस निज शुद्ध आत्मामें ही भावना करनी चाहिये । ऐसे सांख्यमतके प्रति 'एकान्तसे जीव कर्ता नहीं है" इस मतके निराकरणकी मुख्यतासे गाथा समाप्त हुई ॥ ८॥ __अब यद्यपि आत्मा शुद्ध नयसे विकाररहित परम आनंदरूप एक लक्षणका धारक जो सुखरूपी अमृत है उसको भोगनेवाला है, तथापि अशुद्ध नयसे संसारमें उत्पन्न हुए जो सुख दुःख हैं उनका भी भोगनेवाला है, ऐसा कथन करते हैं; गाथा भावार्थ-आत्मा व्यवहारसे सुख दुःखरूप पुद्गल कर्मोको भोगता है और निश्चय नयसे आत्मा चेतन स्वभावको भोगता है ॥ ९ ॥ व्याख्यार्थ--"ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुजेदि" व्यवहारनयकी अपेक्षासे सुख तथा दुःखरूप पुद्गल कर्मफलोंको भोगता है। वह कर्मफलोंका भोक्ता कौन है ? कि "आदा" अर्थात् आत्मा। "णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स" और निश्चयनयसे तो स्फुट रीतिसे चेतन भावका ही भोक्ता आत्मा है, और वह चेतन भाव किस सम्बन्धी है, कि अपना ही सम्बन्धी है । वह ऐसे कि निज शुद्ध आत्माके ज्ञानसे उत्पन्न जो पारमार्थिक सुखरूप अमृत रस है, उसके भोजनको नहीं प्राप्त होता हुआ जो आत्मा है, वह उपर्चारत असद्भूतव्यवहारनयसे इष्ट तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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