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________________ षद्रव्य पञ्चास्तिकाय वर्णन ] निष्प्रपञ्चेन्द्रियविषयजनितसुखदुःखं भुङ्क्ते तथैवानुपचरितासभूतव्यवहारेणाभ्यन्तरे सुखदुःखजनकं द्रव्यकर्मरूपं सातासातोदयं भुङ्क्ते । स एवाशुद्धनिश्चयनयेन हर्षविषादरूपं सुखदुःखं च भुङ्क्ते । शुद्धनिश्चयनयेन तु परमात्मस्वभावसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानोत्पन्नसदानन्दैकलक्षणं सुखामृतं भुङ्क्त इति । अत्र यस्यैव स्वाभाविक सुखामृतस्य भोजनाभावादिन्द्रियसुखं भुञ्जानः सन् संसारे परिभ्रमति तदेवातीन्द्रियसुखं सर्वप्रकारेणोपादेयमित्यभिप्रायः । एवं कर्त्ता कर्मफलं न भुङ्क्त इति बौद्धमत निषेधार्थं भोक्तृत्वव्याख्यानरूपेण सूत्रं गतम् ॥ ९ ॥ अथ निश्चयेन लोकप्रमितासंख्येयप्रदेश मात्रोऽपि व्यवहारेण देहमात्रो जीव इत्यावेदयति;अगुरुदेहमाण उवसंहारप्पसप्पदो चेदा । असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा ॥ १० ॥ बृहद्रव्य संग्रहः अगुरुदेहप्रमाणः उपसंहारप्रसर्पतः चेतयिता । असमुद्घातात् व्यवहारात् निश्चयनयतः असंख्यदेशो वा ॥ १० ॥ व्याख्या- " अणुगुरुदेहपमाणो" निश्चयेन स्वदेहादभिन्नस्य केवलज्ञानाद्यनन्तगुणराशेरभिन्नस्य निजशुद्धात्मस्वरूपस्योपलब्धेरभावात्तथैव देहममत्व भूलभूताहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञाप्रभृतिसमस्त रागादिविभावानामासक्तिसद्भावाच्च यदुपार्जितं शरीरनामकर्म तदुदये सति १९ अनिष्ट पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंसे उत्पन्न- सुख तथा दुःखको भोगता है, ऐसे ही अनुपचरित - असद्भूतव्यवहारसे अन्तरंग में सुख तथा दुःखको उत्पन्न करनेवाला जो द्रव्यकर्मरूप साता ( सुखरूप ) असाता ( दुःखरूप ) उदय है, उसको भोगता है, और वही आत्मा अशुद्ध निश्चयनयसे हर्ष तथा विषादरूप सुख दुःखको भोगता है, और शुद्ध निश्चयनयसे तो परमात्मस्वभावका जो सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और आचरण, उससे उत्पन्न अविनाशी आनंदरूप एक लक्षणका धारक जो सुखामृत है उसको भोगता है । यहाँपर जिस स्वभावसे उत्पन्न हुए सुखामृतके भोजनके अभाव से ही आत्मा इंद्रियोंके सुखोंको भोगता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है; वही जो स्वभावसे उत्पन्न इन्द्रियोंके अगोचर सुख है सो सब प्रकारसे ग्रहण करने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है । इस प्रकार "कर्त्ता कर्मके फलको नहीं भोगता है" यह जो बौद्धका मत है, उसका खंडन करनेके लिये जीव कर्मफलका भोक्ता है इस व्याख्यानरूप जो सूत्र ( गाथा ) है सो समाप्त हुआ || ९ ॥ अब यद्यपि आत्मा निश्चयनयसे लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशोंका धारक है, तथापि व्यवहार से देहप्रमाण है यह कथन करते हैं; -- Jain Education International गाथाभावार्थ-व्यवहारनयसे समुद्घात अवस्थाके बिना यह जीव संकोच तथा विस्तार से छोटे और बड़े शरीरके प्रमाण रहता है और निश्चयनयसे जीव असंख्यात प्रदेशोंका धारक है ||१०|| व्याख्यार्थ -- " अणुगुरुदेहपमाणो" निश्चयनयसे अपने देहसे भिन्न तथा केवलज्ञान आदि अनन्त गुणोंकी राशिसे अभिन्न जो अपना शुद्ध आत्मस्वरूप है, उसकी प्राप्तिके अभाव से तथा इसी प्रकार देहकी ममता के मूल कारणस्वरूप आहार, भय, मैथुन, परिग्रहरूप जो संज्ञा उनको आदि ले जो समस्त राग आदि विभाव हैं, उनमें आसक्ति के होनेसे जो जीवने शरीरनामकर्म For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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