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श्रीमद्राजचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
[ प्रथम अधिकार
अणु गुरुदेहप्रमाणो भवति । स कः कर्त्ता "चेदा" चेतयिता जीवः । कस्मात् "उवसंहारप्पसप्पदो” उपसंहारप्रसर्पतः शरीर नामकर्मजनितविस्तारोपसंहारधर्माभ्यामित्यर्थः । कोऽत्र दृष्टान्तः, यथा प्रदीपो महद्भाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनान्तरं सर्वं प्रकाशयति लघुभाजनप्रच्छादितस्तद्भाजनान्तरं प्रकाशयति । पुनरपि कस्मात् "असमुहदो" असमुद्घातात् वेदनाकषायविक्रियामारणान्तिकतैजसाहारक के लिसंज्ञसप्तसमुद्घातवर्जनात् । तथा चोक्तं सप्तसमुद्धातलक्षणम् - "वेयणक साथ वेडब्बियमारणंतिओ समुग्धादो । तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवलीणं तु । १ ।” तद्यथा 'मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपंडस्स । णिग्गमणं देहादो हवदि समुग्धादयं णाम ॥ १॥" तीव्र वेदनानुभवान्मूलशरीरमत्यक्त्वा आत्मप्रदेशानां बहिर्निर्गमनमिति वेदनासमुद्घातः | १| तीव्रकषायोदयान्मूलशरीरमत्यक्त्वा परस्य घातार्थमात्मप्रदेशानां बहिर्गमनमिति कषायसमुद्घातः |२| मूलशरीरमपरित्यज्य किमपि विकर्तुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमनमिति विक्रियासमुद्घातः । ३ । मरणान्तसमये मूलशरीरमपरित्यज्य यत्र कुत्रचिबद्धमायुस्तत्प्रदेशं स्फुटितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति मारणान्तिकसमुद्घातः |४| स्वस्य मनोनिष्टजनकं किञ्चित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महा
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उपार्जन किया उसका उदय होनेसे सूक्ष्म ( छोटा ) तथा गुरु ( बड़ा ) जो देह उसके प्रमाण होता है । वह शरीर प्रमाण होनेवाला कौन है ? "चेदा" चेतनावाला यह जीव है । किस निमित्तसे ? " उवसंहारपसप्पदो" उपसंहार तथा प्रसर्पण स्वभावसे अर्थात् संकोच तथा विस्तार स्वभावसे । तात्पर्य यह कि शरीरनामकर्मसे उत्पन्न जो विस्तार तथा संकोचरूप जीवके धर्म हैं उनसे यह जीव देहप्रमाण होता है । इसमें दृष्टान्त क्या है ? कि जैसे दीपक किसी बड़े पात्रमें रख दिया जाता है तो वह उस पात्र के अभ्यन्तर ( अन्तर्गत ) जो पदार्थ हैं उन सबको प्रकाशित करता है और जो छोटे पात्रमें रख दिया जाता है तो उस पात्र के अन्तर्गत जो पदार्थ हैं, उनको प्रकाशित करता है । फिर किस निमित्तसे यह जीव देहप्रमाण है ? "असमुहदो" समुद्घातके न होनेसे अर्थात् वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली नामक जो सात समुद्घात हैं, उनको छोड़ने से अर्थात् समुद्घात अवस्थामें तो जीव देहप्रमाण नहीं रहता है, और असमुद्घात दशामें देह प्रमाण ही रहता है और सप्त ( सात ) समुद्घातों का लक्षण इस प्रकार कहा है कि " वेदना ? कषाय २ विक्रिया ३ मारणान्तिक ४ तैजस ५ आहारक ६ और सातवाँ केवली, ये सात समुद्घात हैं” सो ऐसे हैं कि "अपने मूल शरीरको न छोड़कर जो आत्माके प्रदेश देहसे निकलकर उत्तरदेहके प्रति गमन करते हैं, उसको समुद्घात कहते हैं" इन सातों समुद्घातोंको क्रमसे दर्शाते हैं। जैसे- तीव्र वेदना ( पीडा ) के अनुभवसे मूल शरीरका त्याग न करके जो आत्माके प्रदेशों का शरीर से बाहर जाना सो वेदनासमुद्घात है । १ । तथा तीव्र क्रोधादिक कषायोंके उदयसे मूल अर्थात् धारण किये हुए शरीरको न छोड़कर जो आत्माके प्रदेश दूसरेको मारनेके लिये शरीर के बाहर जाते हैं उसको कषायसमुद्धात कहते हैं । २ । किसी प्रकारकी विक्रिया ( कामादिजनित विकार ) उत्पन्न करने वा करानेके अर्थ मूल शरीरको न त्यागकर जो आत्माके प्रदेशोंका बाहर जाना है उसको विकुर्वणा अथवा विक्रियासमुद्धात कहते हैं । ३ । तथा मरणान्त समय में मूल शरीरको न त्याग करके जहाँ कहीं इस आत्माने आयु बाँधा है उसके स्पर्शनेको जो प्रदेशोंका शरीरसे बाह्य गमन करना सो मारणान्तिक समुद्धात है । ४ । अपने मनको अनिष्ट ( बुरा ) उत्पन्न करनेवाले किसी कारणको देखकर उत्पन्न हुआ है क्रोध जिसके ऐसा जो संयमका निधान
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