SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षड्द्रव्य - पञ्चास्तिकाय वर्णन ] बृहद्रव्य संग्रहः मुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरपुञ्जप्रभो दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाणः सूच्यङ्गुलसङ्खयेयभागमूलविस्तारो नवयोजनाग्रविस्तार: काहलाकृतिपुरुषो वामस्कन्धान्निर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्ध वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह सच भस्म व्रजति द्वीपायनवत्, असावशुभस्तेजःसमुद्घातः । लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेहप्रमाणः पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति असौ शुभरूपस्तेजः समुद्घातः । समुत्पन्नपदपदार्थभ्रान्तेः परमद्धिसंपन्नस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिरेकहस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यान्निर्गत्य यत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्त्तमध्ये केवलज्ञानिनं पश्यति तद्दर्शनाच्च स्वाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थनिश्चयं समुत्पाद्य पुनः स्वस्थाने प्रविशति असावाहारसमुद्घातः । सप्तमः केवलिनां दण्डकपाटप्रतरपूरणः सोऽयं केवलिसमुद्घातः । नयविभागः कथ्यते । "ववहारा" अनुपचरितासद्द्भूतव्यवहारनयात् “णिच्छय-' यदो असंखदेसो वा" निश्चयनयतो लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशप्रमाणः वा शब्देन तु स्वसंवित्तिसमुत्पन्नकेवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया व्यवहारनयेन लोकालोकव्यापकः न च प्रदेशापेक्षया नैयायिक मीमांसक सांख्यमतवत् । तथैव पञ्चेन्द्रियमनोविषयविकल्परहितसमाधिकाले स्वसंवेदन २१ महामुनि उसके वाम ( बायें ) कंधेसे सिंदूरके ढेरकी-सी कान्तिवाला, बारह योजन लम्बा, सूच्यंगुल के संख्येय भाग प्रमाण मूल विस्तार और नव योजनके अग्र विस्तारको धारण करनेवाला काहल (विलाब ) के आकारका धारक पुरुष निकल करके वाम प्रदक्षिणा देकर मुनिके हृदय में स्थित जो विरुद्ध पदार्थ है उसको भस्म करके और उसी मुनिके साथ आप भी भस्म हो जाय; जैसे द्वीपायन मुनिके शरीरसे पुतला निकलके द्वारिकाको भस्म कर उसीने द्वीपायन मुनिको भस्म किया और वह पुतला आप भी भस्म हो गया उसीकी तरह जो हो सो अशुभ तैजससमुद्घात है । तथा जगत्को रोग अथवा दुर्भिक्ष आदिसे पीडित देखकर उत्पन्न हुई है कृपा जिसके ऐसा जो परमसंयमनिधान महाऋषि उसके मूल शरीरको नहीं त्यागकर पूर्वोक्त देहके प्रमाणको धारण करनेवाला अच्छी सौम्य आकृतिका धारक पुरुष दक्षिण स्कंधसे निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा कर रोग दुर्भिक्ष आदिको दूर कर फिर अपने स्थानमें प्रवेश कर जाय यह शुभ रूप तंजससमुद्घात है || उत्पन्न हुई है पद और पदार्थ में भ्रान्ति ( संशय ) जिसके ऐसा जो परम ऋद्धिका धारक महर्षि उसके मस्तकमेंसे मूल शरीरको न छोड़कर निर्मल स्फटिक ( बिल्लोर ) की आकृति ( रंग ) को धारण करनेवाला एक हाथका पुरुष निकलकर अन्तर्मुहूर्त्तके बीच में जहाँ कहीं भी केवलीको देखता है और उन केवलीके दर्शनसे अपना आश्रय जो मुनि उसके पद और पदार्थका निश्चय उत्पन्न कर फिर अपने स्थान में प्रवेश कर जाय सो यह आहारसमुद्घात है । ६ । केवलियोंके जो दंड कपाट प्रतर पूरण होता है सो सातवाँ केवलिसमुद्घात है । ७ । अब नयोंका विभाग कहते हैं । "ववहारा" यह जो गुरुलघुदेहप्रमाणता जीवको दर्शाई गई है, वह अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नयसे है तथा “णिच्छयणयदो असंखदेसो वा " निश्चयनयसे लोकाकाश प्रमाण जो असंख्येय प्रदेश हैं, उन प्रमाण अर्थात् लोकाकाश प्रमाण असंख्यात प्रदेशोंका धारक यह आत्मा है और "असंखदेसो वा " यहाँ जो गाथाके अंत में वा शब्द दिया गया है उस वा शब्दसे ग्रंथकर्त्ता यह सूचित किया है कि स्वसंवित्ति ( आत्मज्ञान ) से उत्पन्न हुआ जो केवलज्ञान उसकी उत्पत्ति के प्रस्ताव में अर्थात् केवलज्ञानावस्थामें ज्ञानकी अपेक्षासे व्यवहारनयद्वारा आत्माको लोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy