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________________ २२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् [प्रथम अधिकार लक्षणबोधसद्भावेऽपि बहिर्विषयेन्द्रियबोधाभावाज्जडः न च सर्वथा सांख्यमतवत् । तथा रागादिविभावपरिणामापेक्षया शन्योऽपि भवति न चानन्तज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् । किञ्च अणुमात्रशरीरशब्देनात्र उत्सेधघनामुलासंख्येयभागप्रमितं लब्ध्यपूर्णसूक्ष्मनिगोदशरीरं ग्राह्यं न च पुद्गल परमाणुः । गुरुशरीरशब्देन च योजनसहस्रपरिमाणं महामत्स्यशरीरं मध्यमावगाहेन मध्यमशरीराणि च । इदमत्र तात्पर्य - देहममत्वनिमित्तेन देहं गृहीत्वा संसारे परिभ्रमति तेन कारणेन देहादिममत्वं त्यक्त्वा निर्मोहनिजशुद्धात्मनि भावना कर्तव्येति । एवं स्वदेहमात्रव्याख्यानेन गाथा गता ॥१०॥ अतः परं गाथात्रयेण नयविभागेन संसारिजीवस्वरूपं तदवसाने शुद्धजीवस्वरूपं च कथयति । तद्यथा: पुढविजलतेयवाऊ वणप्फदी विविहथावरेइंदी । विगतिगचदुपंचक्खा तसजीवा होंति संखादी ।। ११ ।। पृथिवीजलतेजोवायुवनस्पतयः विविधस्थावरैकेन्द्रियाः। द्विकत्रिकचतुःपञ्चाक्षाः त्रसजीवाः भवन्ति शंखादयः ॥११॥ व्याख्या--"होति" इत्यादिव्याख्यानं क्रियते । “होंति" अतीन्द्रियामूर्तनिजपरमात्मस्व और अलोकमें व्यापक माना है और जैसे नैयायिक, मीमांसक तथा सांख्यमतवाले आत्माको प्रदेशोंकी अपेक्षासे व्यापक मानते हैं वैसा नहीं। इसी प्रकार पाँचों इन्द्रियों और मनके विषयोंके जो विकल्प उनसे रहित जो समाधिकाल (ध्यानका समय ) है, उसमें आत्मज्ञानरूप ज्ञानके विद्यमान होनेपर भी बाह्य विषयरूप जो इन्द्रियज्ञान है, उसके अभावसे आत्मा जड़ माना गया है और सांख्यमतकी तरह आत्मा सर्वथा जड़ नहीं है। ऐसे ही आत्मा राग, द्वेष आदि जो विभाव परिणाम हैं उनको अपेक्षासे अर्थात् उनके न होनेसे शून्य भी होता है, परन्तु बौद्धमतको भाँति अनन्तज्ञान आदिकी अपेक्षासे शून्य नहीं है । और अणुमात्रशरीर आत्मा है, यहाँपर अणु शब्दसे उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भाग परिमाण जो लब्धि अपूर्ण ( अपर्याप्तक ) सूक्ष्म निगोदशरीर है, उसका ग्रहण करना चाहिये, और पुद्गल परमाणुका ग्रहण न करना चाहिये। और गरु शरीर यहाँपर गरु शब्दसे एक हजार योजन परिमाण जो महामत्स्यका शरीर है, उसको ग्रहण करना चाहिये, और मध्यम अवगाहनासे मध्यम शरीरोंका ग्रहण है। तात्पर्य इस गाथाका यहाँ यह है कि जीव देहके ममत्वरूप निमित्त कारणसे देहको ग्रहण कर संसारमें परिभ्रमण करता है इस कारण देह आदिके ममत्वको छोड़कर निर्मोह जो अपना शुद्ध आत्मा है, उसमें भावना करनी चाहिये । इस प्रकार जीव स्वदेह मात्र है, इस कथनसे यह गाथा समाप्त हुई ।। १० ॥ ___ अब तीन गाथाओंके द्वारा नयके विभागसे संसारी जीवका स्वरूप तथा उसके अंत में शुद्ध जीवका स्वरूप कहते हैं। वह निम्नलिखित प्रकार है : गाथाभावार्थ-- पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति इन भेदोंसे नाना प्रकारके स्थावर जीव हैं और ये सब एक स्पर्शन इंद्रियके ही धारक हैं, तथा शंख आदिक दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियोंके धारक त्रस जीव होते हैं ।। ११ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001919
Book TitleBruhaddravyasangrah
Original Sutra AuthorNemichandrasuri
AuthorManoharlal Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages228
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Philosophy
File Size20 MB
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